प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। आचार्य जी, पिछले एक साल से आपको सुन रहा हूँ और आपकी अनुकम्पा से ग्रन्थ भी पढ़ने शुरू किये हैं तो अभी प्रतिदिन कुछ नया सीखने को मिलता है, मन बिलकुल लगा रहता है और जैसा पहले चला करता था, उससे बिलकुल बदल गया है जीवन।
पहले कभी कुछ होता था किसी से कुछ डाँट सुन ली, ऑफ़िस में कुछ हो गया किसी से बहस हो गयी तो मन विचलित होता था तो उसके बाद घर आकर अलग-अलग तरीक़े के उपाय करता था, मन को बहलाने के लिए, जो भी सामान्य तरह युवा करते हैं। लेकिन अब वो बिलकुल बदल गया है अब हफ़्ते-दस दिन, पन्द्रह दिन बिलकुल मन सधा हुआ रहता है लेकिन बीच में कुछ दौर आते हैं जब तनाव किसी कारण बढ़ जाता है, तो उस समय फिर ये तो पता है कि पुराने तरीक़े काम नहीं आएँगे तो मन वहाँ जाता नहीं है; लेकिन तब ये लगता है कि अध्यात्म भी अब साथ नहीं दे रहा है तो इसको भी छोड़ो। मन उस समय बेचैन हो जाता बुरी तरह से।
तो ये बताने की कृपा करें कि उस समय मन को कैसे साधें और कैसे आगे प्रगति हो।
आचार्य प्रशांत: जिस समय तुम बेचैन हो उस समय तुम्हारा ये भी मन करता है की अध्यात्म को छोड़ दो, ठीक है? तुम छोड़ कैसे दोगे अध्यात्म को? तुम्हारी बेचैनी ही बता रखी है कि तुमने अध्यात्म को पहले ही छोड़ रखा है। छोड़ी हुई चीज़ को दुबारा कैसे छोड़ दोगे? अध्यात्म को छोड़ नहीं रखा होता तो बेचैन हो कैसे जाते?
एक डायरी बना लेना, उसमें देख लेना कि ये जो बेचैनी के दौर आते हैं, ये जिस भी तरह की तुम आध्यात्मिक साधना करते हो, वो साधना कुछ भी हो सकती है, किताब का पढ़ना, वीडियो का सुनना, या कुछ और जो भी तुम्हारा तरीक़ा है, उसमें जब कुछ दिनों का अवकाश या अन्तराल हो जाता है, तभी ये बेचैनी के दौर ज़्यादा आते होंगे। और ये बड़ी अजीब बात है कि वो बेचैनी का दौर आया ही इसीलिए है क्योंकि तुमने अध्यात्म से दूरी बनायी और जब वो दौर आया तो तुम्हें ख़याल क्या आया? अध्यात्म छोड़ दूँगा!
जैसे कि कोई व्यक्ति बहुत दिनों तक दवाई न ले और दवाई न लेने के कारण उसको दौरा आ जाए, मान लो मनोरोगी है उसके लिए दवाई लेना ज़रूरी है — वैसे हम सब होते हैं मनोरोगी — और उसने दवाई नहीं ली और फिर जब दौरा आ गया तो वो निष्कर्ष क्या निकाल रहा है? शिकायत क्या कर रहा है? कि ये दवाई ही बेकार है, ये दवाई लेना मैं बन्द कर दूँगा। पगले! तुझे वो दौरा आया ही इसीलिए क्योंकि तूने वो दवाई लेने में कोताही कर दी, दवाई को क्यों दोष दे रहा है? दवाई के अभाव ने ही तो तुझे झंझट में डाला न। बल्कि जब वो दौर आये तो तुम्हें और स्पष्ट हो जाना चाहिए कि अध्यात्म कितना ज़रूरी है तुम्हारे लिए।
और एक बात समझ लेना, कोई समय ऐसा नहीं आता जब तुम कह दो कि तुम्हें अब पुस्तकों की या सत्संगति की कोई ज़रूरत नहीं है। भले ही तुमने पढ़ रखा हो कि फ़लाने ऋषि थे, जो अब पुस्तकों की आवश्यकता से बिलकुल मुक्त हो गये थे और इस तरह की बातें, उन बातों पर ध्यान मत देना। वो बातें तुम्हें एक झूठे आत्मविश्वास से भर देगी। उन बातों को पढ़कर तुमको लगेगा कि अच्छा, अच्छा! ऐसा होता है! रमण महर्षि ने कहा कि एक अवस्था के बाद ग्रन्थों की, शास्त्रों की कोई ज़रूरत नहीं रहती, तो इसका मतलब ग्रन्थों से भी छुटकारा पाया जा सकता है, ग्रन्थ भी अनिवार्य नहीं हैं, डिस्पेंसिबल (नगण्य) हैं। तो मान लो कि तुमने ये बात पढ़ी ही नहीं कि साधना कभी भी ख़त्म हो सकती है, मान लो कि कभी नहीं ख़त्म हो सकती, क्योंकि अगर तुमने एक बार ये मान लिया कि साधना कल ख़त्म हो सकती है, तो जान लेना कि वो अभी ख़त्म हो गयी।
जिस भी कुकृत्य की सम्भावना मन के लिए कल की बनती है, मन उसे तत्काल कर देना चाहता है। मन का काम क्या है? शुभ को वो टालता है और अशुभ को वो तत्काल कर गुज़रता है। जैसे खाना नहीं भूलते, जैसे साँस लेना नहीं भूलते, जैसे शरीर के लिए दवा लेना आमतौर पर नहीं भूलते, वैसे ही जो चीज़ें तुम्हारे मानसिक स्वास्थ्य में लाभकर हो रही हों, उनको भूल मत जाया करो।
दिक़्क़त सारी ये है कि शरीर की दवा नहीं लोगे तो शरीर दर्द करेगा और चूँ-चूँ करके तुम्हें याद दिला देगा कि तुमने दवा नहीं ली है, हो जाएगा न? मान लो तुम्हारा रक्तचाप बढ़ा हुआ रहता है और नहीं लेंगे उसकी दवाई तो क्या होगा? ख़ुद ही पाएँगे कि कुछ ही घंटों में पसीने छूटने लग गये और एकदम याद आ जाएगा कि लगता है आज ब्लड-प्रेशर की गोली तो ली नहीं। इंसुलिन लगती है, मधुमेह के रोगी हो, बस एक ही बार उसका इंजेक्शन ठोंकना भूल गये, फिर देखो क्या हालत होती है, तो अपनेआप याद आ जाता है।
आध्यात्मिक जगत सूक्ष्म है, वहाँ तुम भूल भी जाते हो तो भूले रहना आसान है। वहाँ कोई स्थूल सन्देश, कोई प्रकट लक्षण आता ही नहीं जो तुम्हें याद दिला दे कि तुम भूल गये। एक आदमी है जो अपना इंसुलिन का इंजेक्शन लगाना भूल गया, चक्कर खाकर गिरेगा, पूरी दुनिया को पता चल जाएगा कि ये कुछ भूला है। भूला है न? उसको क्या पूरी दुनिया को पता चल जाएगा कि ये लगता है आज भूल गया अपना इंजेक्शन लगाना। तुम आज सन्तवाणी का पाठ करना भूल गये, दुनिया को क्या तुम्हें भी नहीं पता लगेगा कि तुमने आज क्या भूला दिया। किसी को नहीं पता चलता। जब किसी को नहीं पता चलता तो तुम्हें याद कौन दिलाएगा? लेकिन याद रखना होता है अगर अपना भला चाहते हो।
तो कैसे याद रखें? अपने लिए जगह-जगह पर सतत स्मरण की विधियाँ तैयार रखो। अपनी दिनचर्या को थोड़ा अनुशासन में बाँधो, फिर ये सब बातें संस्कार और संस्कृति की हो जाती है। हिन्दुस्तान में इसीलिए इस तरह की संस्कृति ही बना दी गयी, क्या? कि सुबह काम पर जाने से पहले चलो भई, प्रणाम करके जाना है, मत्था टेककर जाना। ये किसलिए किया गया? कि अगर आदत नहीं डाली गयी तो भूलना बहुत आसान है। नाश्ता नहीं भूलोगे सुबह-सुबह लेकिन मत्था टेकना भूल जाओगे। नाश्ता नहीं भूलोगे क्योंकि पेट कुलबुलाता है, पर मन्दिर नहीं गये तो फ़र्क़ क्या पड़ता है? कोई नहीं याद दिलाता है। तो फिर एक संस्कृति बनायी गयी, जिसमें माँ-बाप बचपन से ही बच्चों में ये संस्कार डाल देते थे कि अच्छा स्कूल जा रहा है; क्या करके जाएगा? रास्ते में भैया प्रणाम करते हुए जाना। मंगल-शनिचर को क्या करना है? जाना ज़रूर है और प्रसाद बाँटना है। कुछ नहीं, छोड़ो! पाँच-दस रुपये के लड्डू बाँट दो, पर करना ज़रूर है, कुछ याद तो रहे, कुछ याद रहे, नहीं तो भूलोगे।
हमारी सारी त्रासदी ही यही है कि वो सबकुछ जो कबका भूला देना चाहिए वो दिमाग़ से उतरता नहीं, नहीं उतरता न? दो पैसे की फ़िज़ूल बातें, व्यर्थ की, एकदम मूल्यहीन, वो दिमाग़ में देखा है कैसे चक्कर काटती हैं। ये हो गया, वो हो गया, क्लाइंट (ग्राहक) को इम्प्रेस (प्रभावित) करना है, इससे ये करना है, वहाँ पाँच रुपये का फ़ायदा ले लेना है, फ़लाने ने मेरा अपमान कर दिया है। ये सारी बातें खोपड़ी से उतरती नहीं, इनको हम भूल नहीं पाते और जो बात लगातार याद रहनी चाहिए वो याद रहती नहीं। और वो याद नहीं रहती क्योंकि फ़ालतू बातें याद से जाती नहीं, दोनों में सम्बन्ध है।
तो विधियाँ तैयार करो घर में। समझ रहे हो? जैसे सुबह उठने के लिए अलार्म लगाया करते हो न, कि हम सो भी जाए तो किसी को याद है कि हमें उठना है, किसको याद है? घड़ी को याद है और घड़ी अपनेआप में चैतन्य नहीं है लेकिन हमारी चेतना उस जड़ यन्त्र का इस तरह से उपयोग कर रही है कि वो हमारी चेतना के काम आ जाएगा, यही समझदारी है। इसीलिए फिर ये सब विधियाँ थीं कि स्वास्तिक का निशान बना दिया दरवाज़े पर, घर में एक छोटा-सा देवालय रखा, दीवाल पर ॐ, ओंकार कुछ चिह्नित कर दिया। काहे को कर दिया? कि वैसे तो कुछ नहीं है, खम्भा है, खाली दीवाल है, लेकिन उसी दीवाल पर ॐ बना दिया तो वो एक तरीक़ा बन गया, एक विधि, एक मेथड बन गया, जो याद दिला जाएगा, सुमिरन। फोन उठाया क्यों हैलो-हैलो करते रहते हो? कुछ और बोल लो, तुम्हें भी कुछ याद आ जाएगा, उसको भी कुछ याद आ जाएगा। ये हैलो क्या होता है? क्या बोला जा सकता है? भारत में तो प्रथा थी, ‘राम-राम’ बोलेंगे, कुछ याद आया न। तुम कुछ और ले लो पर कुछ तो ऐसा ले लो, जो तुम्हारे लिये सुमिरन का तरीक़ा बन जाए। या जैसे ये पीतवस्त्र है, अब रंग तो कितने होते हैं, पर जहाँ ये पीला दिखा या गेरूआ दिखा तो कुछ याद आता है। तो ये भी एक विधि है, एक तरीक़ा है।
जानते हो सबसे सुन्दर तरीक़ा क्या है? हमारे नाम। हमारे नाम। विश्वभर में और ख़ास तौर पर भारत में तो यह प्रथा रही है कि नाम ही ऐसा रख दो कि वो उसकी याद दिला जाए। नाम ही ऐसा रख दो कि किसी को बुलाया नहीं कि उसका ज़िक्र हो गया। लेकिन हमने तो नाम भी बिगाड़ दिये, नाम ही बिगाड़ दिये। नाम होगा उसका गुरुदास और उसको बोल रहे हैं, ‘हाय , गुस’! ये क्या कर रहे हो? किस भाव से उसके माँ-बाप ने या नाना या दादा-दादी ने उसका नाम रखा था। सुन्दर नाम था — गुरुदास सिंह, और तुमने उसको बना दिया ‘गुस’। कर दी न बर्बादी!
तो जीवन को भर लो इस तरीक़े के रिमांइडिंग मैकेनिज़्म (स्मरण तन्त्र) से, क्योंकि तुम्हारा तो भूलना नहीं कि काम है भूलना! तुम भूलना नहीं कि तुम्हारा काम है भूलना। तुम्हें कोई चाहिए जो लगातार याद दिलाए वरना तो तुम भूलोगे ही भूलोगे। ठीक है? और भूलने के बाद क्या कहोगे? ‘याद रखने से कोई फ़ायदा ही नहीं।’ जैसे तुम अभी कह रहे हो। ठीक है?
जब भी कभी पाओ कि बेचैनी आ गयी है, दुख ने हमला बोल दिया, ठीक है? पकड़े गये हो, हार मिली है, धोखा मिला है, ज़िन्दगी ने बिलकुल पटककर मारा है, तो समझ लेना कुछ भूल गये थे। और जो मैं बात कह रहा हूँ उसको जाँचना। हम तो पल-पल चोट खाते हैं न, अभी कल का दिन पूरा बाक़ी है, आज रात भी बाक़ी है। अगले चौबीस घंटों में ही हममें से अधिकांश लोग छोटी-बड़ी कुछ-न-कुछ चोट खाएँगे ज़रूर। हो नहीं सकता कि न खाएँ। और जो लोग चोट खा रहे हों, उनके लिए वो चोट ही वरदान हो जाएगी, अगर ये प्रयोग कर लेंगे। जैसे ही चोट लगी हो, किस चोट की बात कर रहा हूँ? ये चोट नहीं कि मच्छर काट गया या गिर गये घुटना छिल गया। किस चोट की बात कर रहा हूँ? ये जो भीतर मानस पर जो चोट लगती है, अहंकार को जो चोट लगती है, जो आहत हो जाते हैं, हर्ट। जैसे ही वो चोट लगे, तुरन्त जाँचना कुछ भूले थे कि नहीं भूले थे। हो नहीं सकता कि पाओ कि जो याद रखने लायक़ है वो याद था फिर भी चोट लग गयी। चोट लगती ही उन्हें हैं जो भूल बैठे होते हैं।
तो इससे तो मज़े की एक बात निकल आयी। क्या? चोट अपनेआप में सर्वोत्तम विधि है याद रखने की। चोट लगी नहीं कि याद आया। भूले नहीं कि चोट लगी और चोट लगी नहीं कि याद आया। अब ये भी समझ लो फिर कि देनेवाला तुम्हें चोट देता क्यों है। क्यों देता है? ताकि कुछ याद आ जाए। हम बड़ी मोटी खाल के हैं, हम कहते हैं, ‘तू मार ले जितनी चोट तुझे मारनी है, याद तो तुझे हम तब भी नहीं करेंगे।’