अर्जुन को कृष्ण मिले, हमें क्यों नहीं? || महाभारत पर (2018)

Acharya Prashant

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अर्जुन को कृष्ण मिले, हमें क्यों नहीं? || महाभारत पर (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। आप कहते हैं कि जीवन सुधारो। जो अभी है जीवन में, मैं उसे छोड़ना चाहती हूँ, जैसे अहंकार, क्रोध इत्यादि। ये सब तो छूट ही नहीं रहा है। जब समझ में आता है कि अहंकार है, तो भी क्रोध आ जाता है किसी बात पर। जब समझ आता है कि क्रोध है, तो ख़ुद पर और आता है कि मुझे क्रोध क्यों आ रहा है।

मन चलता रहता है, वृत्तियाँ आती रहती हैं। ये सब होता तो थोड़ी देर के लिए ही है, पर फिर भी होता है, इनसे नहीं बचा जाता। फिर जीवन कैसे सुधरेगा? कृपया समझाएँ।

आचार्य प्रशांत: जैसे कि पुराने कैंसर (कर्क रोग) का कोई रोगी आए, चार दिन गोली खाए और कहे कि, “क्या मेरी व्याधि जड़-मूल से मिट गयी है?”

अभी शायद तुम्हें एहसास ही नहीं है कि हमारी वृत्तियाँ कितनी गहरी होती हैं और हम कितने पानी में हैं; अरे! पानी तो साफ़ होता है, हम किस दलदल में धँसे हुए हैं, इसीलिए बहुत त्वरित परिणामों की अपेक्षा कर रही हो, और परिणाम नहीं मिल रहे हैं तो शिकायत उठ रही है।

इंसान पैदा हुई हो न? इंसान मुक्ति के लिए नहीं पैदा होता। इंसान दुःख-दर्द, तड़पने के लिए पैदा होता है। मुक्ति तो एक असंभावना होती है; मुक्ति तो एक विरल घटना होती है। नहीं तो भाग्य में तो यही बँधा होता है कि जैसे सब कीड़े-मकौड़े, पशु-पक्षी और दुनिया भर के इंसान हैं—आते हैं, खाते हैं, गंदगी फैलाते हैं, अपने ही जैसी बंधक संतानें पैदा करते हैं और मर जाते हैं—वैसे ही तुम्हारा और सबका भी जीवन बीते। यही होना चाहिए।

लेकिन कभी-कभार, अनायास, अकारण ऐसी घटना घट जाती है कि कोई जीवनमुक्त हो जाता है, कोई विदेहमुक्त हो जाता है। वो इतनी सरल और साधारण बात नहीं है कि तुम दो-चार दिन प्रयास करो और जब अपने प्रयासों में अपेक्षित सफलता ना पाओ तो शिकायत करने लग जाओ। मुक्ति बहुत बड़ी माँग है। और अगर मेरी बात पर यक़ीन ना हो रहा हो तो अपने चारों तरफ़ देख लो और गिन लो कि कितने मुक्तपुरुष दिखाई दे रहे हैं। जब मुक्तपुरुष नहीं दिखाई देते, तो जान लो कि मुक्ति बड़ी मुश्किल ही चीज़ होगी।

तो इतनी जल्दी ना कहने लगना कि क्रोध आ जाता है और अहंकार आ जाता है, छटपटाहट आ जाती है। अरे! ये तो आने ही थे, इसमें ताज्जुब की क्या बात है, शिकायत की क्या बात है?

पूरी दुनिया क्रोध में है, तो तुम क्रोध में क्यों नहीं रहोगी? तुमने क्या ख़ास कर डाला? कौन-सी तुमने साधना, तपस्या कर डाली कि तुम दुनिया से अनूठी हो जाओगी? पूरी दुनिया भ्रम में है, संदेह में है, तो तुम्हें भ्रम और संदेह क्यों नहीं होंगे? पूरी दुनिया अहंकार की मारी हुई है, तो तुम्हारा अहंकार कैसे मिट जाएगा?

निश्चित रूप से ये कहने में कि “मुझे क्रोध नहीं आना चाहिए, मुझे अहंकार नहीं आना चाहिए”, बड़ा अहंकार छुपा हुआ है। तुम कह रही हो, “मैं इतनी ख़ास हूँ कि दुनिया को अहंकार सताता होगा, मुझे नहीं सताना चाहिए।” तुम देख रही हो इस वक्तव्य में कितना अहंकार है? “साहब, वो तो छोटे-मोटे लोग हैं जिन्हें अहंकार ग्रसित करता है। मैं तो बहुत बड़ी हूँ, मुझे अहंकार कैसे लग गया?”

तुम्हें क्यों ना लगे अहंकार?

यहाँ परशुराम और दुर्वासा जैसों को क्रोध खाए हुए था, तुम्हें क्यों ना उठे क्रोध? तुमने कौन-सा बड़ा मूल्य चुकाया है? कृष्ण तक को क्रोध आ गया। तुम्हें क्यों ना आए क्रोध?

देखो कि अपने ना होने की बात करके भी अहंकार और मज़बूत होता जाता है। बचो, सावधान रहो।

प्र२: नमस्ते, आचार्य जी। महाभारत में कौरवों और पांडवों दोनों के पास लड़ने की वजह थी। मेरे पास तो वजह ही नहीं है। कभी लगता है कि ख़ूब लिख-पढ़कर और मेहनत करके निपुण और कुशल हो जाऊँ, और कभी सांसारिक चीज़ों की तरफ़ उदासीनता छा जाती है। लगता है कि यही महाभारत है मन की। कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य: भीतर चल रहा है द्वंद, दिखाई नहीं दे रहा, तो फिर अभी तुम भीतर देख ही नहीं रहे। पहले तुम देखो कि मार्ग को ले करके ऊहापोह मची हुई है, फिर मैं मार्गदर्शन कर पाऊँगा।

जब अर्जुन को कोई समस्या ही ना हो, तो उसे कृष्ण गीता क्यों कहें? अर्जुन पहले सामने स्पष्ट अपनी समस्या लेकर के आए तो!

तुम तो अभी कह रहे हो कि, "पता नहीं कोई समस्या है भी, या नहीं।" कह रहे हो, "शायद समस्या है कि एक तरफ़ कुशलता, निपुणता, सफलता खींचती है और दूसरी तरफ़ त्याग, वैराग्य खींचता है।" अभी तो तुम्हें ख़ुद ही कोई आश्वस्ति नहीं कि तुम फँसे हुए हो। जाओ पहले तय करके आओ कि समस्या है भी कि नहीं है। और कोई आवश्यक नहीं है कि समस्या हो ही। अगर तुम्हें समस्या नहीं है, तो तुम्हें किसी कृष्ण की, किसी अध्यात्म की, किसी गुरु की कोई ज़रूरत नहीं है।

अध्यात्म सिर्फ़ उनके लिए है जिन्हें सर्वप्रथम समस्याओं का एहसास होता हो, जैसे कि कोई अर्जुन। जिन्हें अपनी समस्याओं का कोई एहसास ही नहीं होता, वो तो अभी समय काटें जब तक कि उनकी समस्याएँ इतनी विकराल ना हो जाएँ कि अपना एहसास कराने लग जाएँ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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