अरे, पढ़ाई में क्या रखा है! || पंचतंत्र पर (2018)

Acharya Prashant

11 min
239 reads
अरे, पढ़ाई में क्या रखा है! || पंचतंत्र पर (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, सत्र में आने से मेरी जो ग्रोथ (प्रगति) की डिटर्मिनेशन (दृढ़ संकल्प) होती है, वो कम हो जाती है। मुझे लगता है, सब सही तो है, तो क्यों ग्रोथ करना? लेकिन आज की दुनिया में ग्रोथ तो ज़रूरी है, ख़ासकर मैं जिस क्षेत्र से हूँ उसमें, और वैसे भी। तो क्या करना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: जिस तरह की ग्रोथ तुम चाह रहे हो, अध्यात्म में आने से अगर उस तरह की ग्रोथ के प्रति तुम्हारा रुझान कम हो जाता है, तो मतलब वो ग्रोथ , ग्रोथ है ही नहीं।

प्र: आलसी होने में और संतोषी होने में क्या अंतर है? कभी-कभी लगता है मुझे कि कोई चीज़ नहीं चाहिए, और कभी-कभी लगता है कि ये ज़रूरी भी है।

आचार्य: अगर मन को पूरा ही समझा लो कि नहीं चाहिए, और मन उपद्रव करना बंद ही कर दे, तो समझ लो कि संतुष्ट हुआ। और अगर मन बीच-बीच में फिर भी चूँ-चपड़ कर ही रहा है, तो फिर ये संतोष इत्यादि नहीं है, ये रजस और तमस की लड़ाई है।

तुम्हारे सवाल पर वापस आते हैं। तुम्हारे शरीर में कोई हड्डी बढ़ रही है, उसको ग्रोथ ही कहते हो न? देखिए, ग्रोथ हो रही है। अब चिकित्सक के पास जाते हो, वो दवाई देता है या सर्जरी (शल्यक्रिया) कर देता है तो तुम्हारी ग्रोथ कट जाती है। ये अच्छा हुआ, कि बुरा हुआ? तुम्हारे भीतर एक कैंसर (कर्क रोग) की गाँठ बढ़ रही है, वो भी तो एक ग्रोथ ही कहलाती है न? *कैंसरस ग्रोथ*। चिकित्सक के पास गए, उसने हटा दी, तो ये अच्छा हुआ, कि बुरा हुआ?

अध्यात्म परम ग्रोथ है, पर उसमें रुग्ण ग्रोथ के लिए कोई स्थान नहीं है। रुग्ण ग्रोथ को ही तो कैंसर कहते हैं। कैंसर में ऐसा थोड़े ही होता है कि तुमसे कुछ कम हो जाता है। कैंसर का अर्थ है कि तुममें कुछ और आ गया जो नहीं आना चाहिए था।

जो ऊर्जा लगनी चाहिए सम्यक विकास की तरफ़, वो ऊर्जा लग रही है रुग्ण विकास की तरफ़, तो सबसे पहले रुग्ण विकास की तरफ़ जो ऊर्जा जा रही है, उसे रोकना पड़ेगा न। और जब वो रुकेगी तो यही लगेगा कि “अरे! मेरी ग्रोथ रुक गई।” पर उस ग्रोथ का रुकना ज़रूरी था। वो ग्रोथ न रुकती तो फिर तुम्हारी ऊर्जा सही दिशा में कैसे जाती?

देखो न, क्या शब्द इस्तेमाल किया तुमने, "जिस ‘फ़ील्ड’ (क्षेत्र) में मैं हूँ, उसमें ग्रोथ ज़रूरी है।" तुम किस फ़ील्ड में हो?

प्र: मैं प्रोफ़ेशनल लाइफ़ (पेशेवर जीवन) की बात कर रहा था।

आचार्य: एक लाइफ़ होती है। कई लाइफ़ अगर होती, तो मौत भी कई होती। जब मरोगे, तो प्रोफ़ेशनल बचा रह जाएगा? या कहोगे कि "ये तो पर्सनल (निजी) मौत हुई है, प्रोफ़ेशनल तो कल फिर दफ़्तर जाएगा"?

अगर जीवन एक है, तो ये प्रोफ़ेशनल लाइफ़ क्या चीज़ होती है? कौन-से फ़ील्ड में हो तुम? मैग्नेटिक फ़ील्ड (चुंबकीय क्षेत्र) में हो? नहीं! वो भी तो है यहाँ पर। बोलते क्यों नहीं, "मैं अभी मैग्नेटिक फ़ील्ड में हूँ"? एक ही फ़ील्ड होता है, उसे कहते हैं जीवन।

फ़ील्ड माने क्षेत्र। जाओ कृष्ण के पास, देखो कि क्या कह रहे हैं 'क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग' में। कहेंगे, "जीवन क्षेत्र है, तुम उसके क्षेत्रज्ञ हो।" और कोई नहीं फ़ील्ड होता कि "मेरा फ़ील्ड है *‘फुटबॉल फ़ील्ड’*।" अच्छा! तो क़ब्र भी तुम्हारी वहीं बनेगी? खाओगे भी वहीं? जीते भी वहीं हो? प्रेम भी वहीं है तुम्हारा?

किसी का कोई क्षेत्र नहीं होता; एक ही क्षेत्र होता है, और बाकी सब व्यर्थ का तादात्म्य है कि "मेरा फ़ील्ड है ऑर्थोपेडिक्स (हड्डी सम्बन्धी चिकित्सा)।" अच्छा! तो दिन भर हड्डी चूसते हो? और इन छोटी-छोटी चीज़ों के साथ पहचान नहीं जोड़ते; ये आती-जाती रहती हैं।

इंजीनियरिंग ही कर रहे हो न? कौन-सी? कम्यूटर साइंस से कर रहे हो। आधे से ज़्यादा कम्प्यूटर साइंस के छात्र अंततः कम्यूटर साइंस में नौकरी नहीं करते। क्या हुआ फ़ील्ड का? "मेरा फ़ील्ड !" कहाँ गया फ़ील्ड ? और मैं आश्वस्त हूँ, यहाँ बहुत सारे इंजीनियर बैठे होंगे जो अभी इंजीनियरिंग की नौकरियाँ नहीं कर रहे होंगे, है कोई? ये लो।

तुम्हारे क्या फ़ील्ड थे?

श्रोता १: इलेक्ट्रॉनिक्स।

आचार्य: ये इलेक्ट्रॉनिक्स के थे। तुम?

श्रोता२: इलेक्ट्रॉनिक्स।

श्रोता३: कम्यूटर साइंस।

आचार्य: लो भाई, *फ़ील्ड*।

श्रोता ४: मैकेनिकल।

आचार्य: और इधर भी। *(स्वयं की ओर इशारा करते हुए)

"मेरे फ़ील्ड में ग्रोथ ज़रूरी है!"

प्र: स्किल्स (कौशल) तो डेवलप (विकसित) करना ही होता है न!

आचार्य: तो कर लो।

प्र: तो फिर मुझे लगता है कि जब सही है, तो क्यों फ़ालतू की मेहनत करूँ?

आचार्य: तो मत करो।

प्र: लेकिन वो ज़रूरी है।

आचार्य: अगर ज़रूरी है तो कर लो।

प्र: लेकिन डिटर्मिनेशन कम हो जाता है मेरा।

आचार्य: तो बढ़ा लो। कोई काम अगर ज़रूरी है तो उसे करो, डिटर्मिनेशन हो चाहे न हो।

वो ज़रूरी तुम्हें इसीलिए लगता है क्योंकि उसके साथ तुम्हारा तादात्म्य है, आइडेंटीफिकेशन है। तो लगे रहो; जिस भी फिर तुम फ़ील्ड में हो, वहाँ लगे रहना। और जीवन भर तुम्हारे ये क्षेत्र तो बदलते ही रहेंगे; तुम जहाँ रहो, वहीं से जुड़ जाना और कहना कि “इसके बाहर जो कुछ है, उससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं।”

जिसको तुम अपना फ़ील्ड कह रहे हो, उससे तुम्हारा नाता क्या है? तुम्हारा नाता है पेट का। इंजीनियरिंग करने तुम इसलिए तो गए नहीं थे कि तुम्हें समाधि मिलेगी। मुक्ति के लिए गए थे क्या इंजीनियरिंग करने? इसलिए भी नहीं गए थे कि तुम्हें इंजीनियरिंग से प्रेम है; इसलिए गए थे कि पेट चलेगा। और अगर तुम कह रहे हो फिर कि फ़ील्ड में ही तुम्हें रहना है, तो तुम कह रहे हो, “पेट में ही मुझे रहना है।”

अब तुम्हारा पेट नहीं है तुम्हारे अंदर, तुम अपने पेट के अंदर हो, क्योंकि तुम्हारा पेट तुम्हारा फ़ील्ड है, तुम उसके अंदर हो। अब सोचो, ये कैसी बात हो गई!

तुम अपने पेट के अंदर हो, वही फ़ील्ड है, और उसको तुमने नाम दिया है ‘कम्प्यूटर इंजीनियरिंग’। वास्तव में वो कुछ नहीं है, वो पेट है।

जो लोग भी अपने-आपको किसी फ़ील्ड का बताते हैं, कृपया आप बताएँ, उस फ़ील्ड का क्या अर्थ है आपके लिए? अधिकांशतः यही पता चलेगा कि पेट। पेट हो तुम? कितने बड़े पेट हो तुम कि पूरा उसी में घुस गए, ख़ुद को ही खा लिया?

प्र: लेकिन इसे हम आलस से भी तो जोड़ सकते हैं।

आचार्य: तो आलसी तुम हो, वो फिर तुम इंजीनियरिंग भर में ही नहीं आलसी हो, तुम अध्यात्म में भी तो आलसी हो। इंजीनियरिंग में कितनी तुम्हारी चल रही है अभी सीजीपीए, पर्सेंटेज (प्रतिशत)?

प्र: सेवन पॉइंट सिक्स (सात दशमलव छह)।

आचार्य: सेवन पॉइंट सिक्स! * ” और अध्यात्म में तो * टू पॉइंट सिक्स चल रही है। वो भी ज़्यादा बोल दी।

तो आलस तो तुम्हारा हर तरफ़ है न, वो फ़ील्ड स्पेसिफ़िक (क्षेत्र विशेष) थोड़े ही है कि “मात्र इसी क्षेत्र में मैं आलसी हूँ।” ऐसा है क्या? तुम तो हर चीज़ में आलसी हो। वो तो तुम जिधर को भी निकलोगे, आलस दिखाओगे। उसका अध्यात्म पर दोष मत डालो कि अध्यात्म ने मुझे आलसी बना दिया।

जो अध्यात्म में भी आलसी हो, क्या उसे अध्यात्म ने आलसी बनाया? कितने ग्रंथ पढ़ लिए तुमने? जैसे तुम अपनी किताबें नहीं पढ़ते, वैसे तुम अध्यात्म में ग्रंथ नहीं पढ़ते।

आलसी होना तो तुम्हारा मौलिक गुण है, बेटा। तुम अध्यात्म में भी आलसी हो, तुम इंजीनियरिंग में भी आलसी हो, तुम खेलने में भी आलसी हो; तुम हर जगह आलसी हो। अध्यात्म ने थोड़े ही तुम्हें आलसी बना दिया।

प्र: लेकिन मन एक तर्क निकाल लेता है।

आचार्य: तो वो कुछ भी निकाल ले। तुम अपने बालों को ऐसे-ऐसे करो, उसमें से गोलगप्पे निकाल लो, तो? मैं उसके लिए क्या कर सकता हूँ?

प्र: जैसे पढ़ने बैठने पर दिमाग में तनाव बनता है, या कोई समस्या हल कर रहे हैं, तो यह तर्क उठता है कि जब सब सही है, तो फिर क्यों फ़ालतू का पढ़ना?

आचार्य: तो मत पढ़ो।

प्र: हाँ, तो यही मैं पूछ रहा हूँ, लेकिन करना तो है।

आचार्य: तो करो।

प्र: लेकिन फिर इस तर्क का क्या करें जो उठता है मन में?

आचार्य: तुम्हारा ही है, तुम जानो। मैंने तो दिया नहीं। गोलगप्पा किसने निकाला? तुमने निकाला। तुम्हीं खाओ। मैंने तो दिया नहीं तुम्हें, मैं क्या बताऊँ?

मुझसे पूछोगे तो मैं तो इतना ही कहूँगा कि गोलगप्पा है ही नहीं, मिथ्या है। खाने का सवाल ही नहीं पैदा होता।

ये बड़ी पुरानी और बड़ी बेहूदी बात है। लोग आते हैं, दो-चार सत्रों में बैठते हैं, उसके बाद उन्हें अपनी सारी वृत्तियों को ढकने का एक बड़ा सम्माननीय बहाना मिल जाता है अध्यात्म। कतई मोटे हैं, पौने दो सौ किलो के, कहा जा रहा है, "चलो, थोड़ा चल लो, हिल लो।" तो कहेंगे, "आत्मा अचल है।" किसको तुम...? क्या चल रहा है?

किसी की हत्या करने का मन है, तो कहेंगे, "नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि। हे पार्थ! ये सब तो मरे हुए हैं, इनको मारकर तू कौन-सा पाप कर रहा है? मार दे।"

“क्यों मारते हो बेचारे जानवरों को?”

"आत्मा अमर है न। कोई किसी को कैसे मार सकता है? हमने मारा ही नहीं। मरता तो वही है—आचार्य जी, आपने ही कहा था—जो नकली है, वही मरता है, तो ये बकरा मर गया, माने ये नकली था। ये नकली था तो हमने मार दिया नकली को, तो हमने धार्मिक काम किया न। जो कुछ भी नकली है, उसकी सफ़ाई करना धार्मिक काम है। देखो, मर गया। अब मर ही गया है, इसका माँस यहाँ फैला हुआ है, तो हमने खा लिया। ये तो हमने सफ़ाई करी है।"

अपनी गंदगी को ढकने वाला कपड़ा मत बनाओ अध्यात्म को। बहुत सूक्ष्म बात है, बहुत मेहनत लगती है, समझना पड़ता है, साधना करनी पड़ती है।

किताब खोलकर बैठे हैं कम्प्यूटर इंजीनियरिंग की, कह रहे हैं, "जगत मिथ्या, कौन-सा प्रोग्राम लिखें? जब हार्डवेयर ही मिथ्या है तो सॉफ्टवेयर कैसा? जब ये कम्प्यूटर, जोकि एक भौतिक चीज़ है, पदार्थ है, यही मिथ्या है, तो सॉफ्टवेयर तो फिर सॉफ्ट है, वो तो पूरा ही मिथ्या है। कौन लिखे ये प्रोग्राम ?"

अच्छा! जगत मिथ्या है, और जो ये गोलगप्पा निकला, ये क्या था? वो तुम बड़ा रस ले-लेकर खाते हो। और उसी कम्प्यूटर की स्क्रीन पर वो जो लड़कियों की तस्वीरें देखते हो, वो मिथ्या नहीं है? तब भूल जाते हो ‘जगत मिथ्या’। तब जगत बिलकुल रसीला हो जाता है, गोलगप्पा हो जाता है। कम्प्यूटर का जब प्रोग्राम लिखना है तो जगत मिथ्या, और उसी कम्प्यूटर पर जब पॉर्न चलती है तो जगत मिथ्या नहीं है? अब तो जगत सजीव, साकार, उत्तेजक है!

और जगत मिथ्या है, हम मिथ्या नहीं हैं! हम बैठ करके कहेंगे, ‘जगत मिथ्या’। हमारे आसपास चारों तरफ़ जो है, वो सब मिथ्या है, बस हम मिथ्या नहीं है। ये सब कुछ अगर व्यर्थ है, तो सबसे व्यर्थ तो तुम हो फिर।

ये सब बदनीयती की बातें हैं, और कुछ नहीं है। दुरूपयोग मत करो शास्त्रों का, सूत्रों का।

चोरी कर ली, झूठ बोल दिया, फिर बोले, "नहीं, कुछ सही, कुछ ग़लत तो होता ही नहीं न।” और एक चाँटा—ये ग़लत तो नहीं था? सही-ग़लत तो कुछ होता ही नहीं है। फिर आप तो देह हैं ही नहीं, तो चाँटा किसको लग गया? जगत मिथ्या। और बस तुम्हारे कोई पंद्रह रूपए न लौटाए तो जो कुछ मिथ्या था, वो अर्थपूर्ण हो जाता है। एक कोई तुम्हारा नोट लेकर भाग जाए, फिर नहीं लगता कि जगत मिथ्या है, फिर तो कहते हो, "अरे! वो नोट…? बाकी सब कुछ भ्रम मात्र है, माया; बस मेरा नोट माया नहीं था।"

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories