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अपनी भाषा, अपनी बात, अपनी जिंदगी - यही है अध्यात्म

Acharya Prashant

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अपनी भाषा, अपनी बात, अपनी जिंदगी - यही है अध्यात्म

दिनांक ५ अक्टूबर’ १९ की शाम, विश्रांति शिविर, मुंबई के प्रतिभागियों द्वारा आचार्य जी का हर्ष व उल्लास के साथ स्वागत किया गया। फूलों से सुसज्जित सत्संग भवन में आचार्य जी का स्वागत प्रतिभागियों ने गुरु वंदना का एक स्वर में जाप करके किया।

आगमन के उपरांत आचार्य जी का सत्संग, कुछ इस प्रकार प्रारंभ हुआ।

आचार्य प्रशांत: बाहर क्या हुआ अभी?

मैं कह रहा हूँ उसमें सौन्दर्य भी है और ख़तरा भी। सुन्दरता तो स्पष्ट ही है कि कोई आ रहा है जिसको आप सम्मान देते हैं, जिसकी बात से आपको लगता है कि कुछ आपको मूल्य मिल रहा है। तो आपने उसके स्वागत में कुछ बातें कहीं, कुछ बहुत ऊँची बातें कहीं, यहाँ तक ठीक है। पर उसमें एक ख़तरा भी निहित है, उसको समझना ज़रूरी है।

हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में संस्कृत तो बोलते नहीं, कि बोलते हैं? (सभी प्रतिभागियों से) बोलते हैं क्या? हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में यूँ ही कहीं झुक नहीं जाते। झुक जाते हैं क्या? नमित हो जाते हैं क्या? नहीं हो जाते न? और मैं बार-बार कहता हूँ कि अध्यात्म सार्थक सिर्फ तब है जब हम रोज़ जैसा जीवन बिता रहे हैं, वो बदले। ठीक है न?

आपने बहुत ग्रंथ पढ़ लिए, बहुत साधना कर ली, बहुत ध्यान कर लिया, बहुत भजन कर लिया लेकिन फिर भी ज़िंदगी जैसी चल रही है, वैसी ही अगर चल रही है, ढर्रो में बंधी हुई और उसमें डर भी है, लालच भी है और तमाम तरह के उपद्रव हैं, तो क्या अध्यात्म सार्थक हुआ? नहीं हुआ न?

तो अध्यात्म का सारा लेना-देना, मैं बार-बार कहता हूँ, हमारी रोज़ की साधारण ज़िंदगी से है। और अभी ये जो बाहर हुआ, ये क्या था? ये तो बहुत ही असाधारण था! तो इसका और ज़िंदगी का फिर कोई संबंध नहीं बन पाता। बल्कि एक विभाजन बन जाता है, एक रेखा खिंच जाती है बीच में, कि वो अलग है जो दिन भर चलता रहता है सामान्यतया, और ये जो हो रहा है ये सब कुछ बिल्कुल अलग है।

अब बड़ी सुविधा की बात है। अपनी सामान्य ज़िंदगी में तो हम हिंदी भी नहीं बोलते, हम हिंगलिश बोलते हैं। हम शुद्ध हिंदी भी नहीं बोल पाते, हम क्या बोलते हैं? हिंगलिश बोलते हैं! और उस विभाजन रेखा के इस पार हम बोल रहे हैं - संस्कृत। अब बड़ी सुविधा हो गयी कि चलो इधर जो कुछ हो रहा है वो बिल्कुल ही अलग चीज़ है, इसका तो वैसे भी कोई लेना-देना ही नहीं है रेखा के उस पार वाले जगत से। तो रेखा के उस पार वाला जो जगत है वो बिल्कुल बच जाता है। अगर वो बच गया तो अध्यात्म का सारा काम ख़राब हो गया न? अध्यात्म किसलिए होता है? इसलिए होता है कि साल-छहः महीने में एक बार एक शिविर कर लिया, और उसमें तीन दिन, सफ़ेद कपड़े पहन कर पालथी मार कर बैठ गये और कुछ संस्कृत की बातें कर ली, और कुछ अच्छे-अच्छे ग्रंथ पढ़ लिए, और दिन-भर एक थोड़ी नई दिनचर्या देख ली? इसलिए होता है? अध्यात्म तो इसलिए है न कि तीन-सौ-पैंसठ दिन ज़िन्दगी थोड़ी खिली-खिली रहे। इसलिए होता है न? हम समझ रहे हैं बात को?

तो आप यहाँ जब कुछ ऐसा करोगे जो आपकी साधारण ज़िंदगी से बहुत ही कटा हुआ होगा, बिल्कुल अलग, और बिल्कुल दूर का होगा, तो मेरे एन्टीनें खड़े हो जाते हैं। मुझे ख़तरा साफ़ दिखाई पड़ता है। ये करके हम उसको बचा ले गये। किसको? रेखा के उस पार जो जगत है। (मुस्कुराते हुए) वो जगत जो आपका कल रात के बाद से शुरू हो जाएगा। अभी भी होगा ही; वो बच जाएगा बिल्कुल।

संस्कृत से मुझे प्रेम है, संस्कृत मैंने सीखी भी है, थोड़ी बहुत। अगर ग्रंथों का अध्ययन करोगे तो थोड़ी बहुत संस्कृत तो आनी ही चाहिए, उतनी मैंने सीखी भी है। लेकिन मुझे बहुत बेहतर लगता कि अगर संस्कृत-भाषी ही संस्कृत के श्लोक यहाँ बोलते।

(प्रतिभागियों से) कौन-कौन है संस्कृत-भाषी?

हाँ, आपने अभी जो (स्वागत सम्मान) किया वो दिखने में बहुत सुंदर लगता है। कोई उसका वीडियो बना रहा था। तो वीडियो में बहुत अच्छा लगेगा, फाउंडेशन उसको फेसबुक पर डाल देगी तो उस पर सैकड़ों लाइक्स आ जाएँगे। कहेंगे, “वाह! क्या बात है! पुरातन भारतीय संस्कृति पुनः आविर्भूत हो रही है। गुरुजी पधारे हैं और सब बिल्कुल भक्ति-भाव से ओत-प्रोत हो गये हैं।”

वो सब दिखने में अच्छा लगेगा, पर उसका असर कहाँ नहीं पड़ेगा? वहाँ नहीं पड़ेगा जहाँ संस्कृत चलती ही नहीं। वहाँ नहीं पड़ेगा जहाँ ये सफ़ेद कुर्ते चलते ही नहीं।

तो ये जो था ये बहुत अच्छा था। मुझे इससे कोई एतराज़, शिकायत, गुरेज नहीं है। लेकिन थोड़ा आगे जाना है, इसको और असली बनाना है। अभी तो ये बहुत व्यवस्थित था। बड़ी योजना, बड़ी प्लानिंग के साथ हुआ था, है न? और वो भी आप इसलिए कर पाए क्योंकि इतने सारे लोग हो, सब कर रहे थे, तो कहा, “चलो सब कर ही रहे हैं, तो हम भी कर लेते हैं। वैसे लग तो हमें रहा ही है कि कुछ काम बेवकूफी का है। पर करे लेते हैं। दो-तीन दिन की बात है, गुरुजी आए हैं, लौट ही जाएँगे जहाज़ लेकर। ज़्यादा रुक रहे होते तो बताते!” (श्रोतागण हँसते हैं)

“तीन दिन को आए हैं, इनका मन रख लो, जो भी स्वागत सत्कार करना है, कर दो, भारत में तो अतिथि देवो भवः”

जो बात आपने यहाँ पर इतने ऊँचे तरीके से देवभाषा में कही, उसकी आधी बात भी, चौथाई बात भी, अगर आप अपनी भाषा में कह पाएँ और अपने जीवन में उतार पाएँ, तो मैं कृतकृत्य हो गया, मैं तर गया। हम रस्म-अदाएगी के तो खेल में नहीं हैं न? कि हैं? तो कल ये मत करिएगा।

आज जो किया, बहुत सुन्दर था, और मैं (हाथ जोड़ते हुए) कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ आप जो कर रहे हैं। लेकिन मैं चाहूँगा कि ये और असली हो, असली कैसे करना है ये आप जानो। और असली का मेरा अर्थ हमेशा एक ही होता है – ज़िन्दगी से जुड़ा हुआ। जो भी चीज़ ज़िंदगी से जुड़ी हुई नहीं है वो बस साज-सज्जा के लिए है, डेकोरेटिव है। है न? मुझे साज-सज्जा, अलंकार बहुत पसंद नहीं हैं, होने भी नहीं चाहिए। नंगे बदन में ताक़त हो तो कोई भी कपड़ा फब जाता है न? फिर बदन ही अलंकार होता है। और बदन खोखला हो गया हो, उसके ऊपर तुम बहुत अच्छे-अच्छे कपड़े भी पहन लो तो कोई मज़ा आएगा जीने में? तो बात आभूषणों और सज्जाओं की तो नहीं हो रही है। बात हो रही है अंदरूनी और असली ताक़त की। कुछ ऐसा करिएगा जो दिखने में भले इतना आकर्षक न लगे, लेकिन असली हो। और वो भी ये नहीं कि करना ही है। मैं कोई दबाव डाल कर नहीं कह रहा हूँ कि कल मेरा स्वागत ज़रा अलग तरीके से किया जाए। (श्रोतागण हँसते हैं)

अगर कुछ करना ही चाहते हैं तो कुछ ऐसा करिए जो थोड़ा असली हो। और मैं इसको नकली नहीं कह रहा हूँ, मैं बस ये कह रहा हूँ कि ये आपने जो अभी किया ये आपकी ज़िंदगी से दूर का था। मैं बिल्कुल नहीं कह रहा हूँ कि आपने यहाँ जो किया वो बनावटी था, या नकली था। बस वो ज़िंदगी से दूर का था। था न ज़िंदगी से दूर का?

अब या तो मैं ये कहूँ कि मेरी रूचि ही इसमें है कि मेरा अभिनंदन किया जाए, तो फिर बहुत अच्छी बात है, और करिए। आज दिये से किया है, कल मशाल से करिए। “मोगेम्बो खुश हुआ!” और अगर इस पूरे कार्यक्रम का उद्देश्य वास्तविक परिवर्तन है, तो फिर कुछ असली चाहिए।

(सभी श्रोतागणों से) कुछ बन रही है बात?

अध्यात्म ज़िंदगी से भाग कर कोई ऑल्टर्नेट रियलिटी, किसी वैकल्पिक जगत को रचने का नाम नहीं है। कि अपनी जो ज़िंदगी है वो बड़ी धूसर चल रही है तो कहीं और चले गये तीन-चार दिन साफ़ माहौल में रह करके आ गये। इसका नाम तो अध्यात्म नहीं है न? बोलो? अध्यात्म क्या इसका नाम है कि अपना घर बहुत गंदा है तो तीन दिन होटल में रह आए? अध्यात्म किसका नाम है? घर अगर गंदा है तो साफ़ करेंगे।

काश! कि ये शिविर आपके घरों में हो पाता। व्यवहारिक नहीं है मामला, नहीं तो ये किया ही न जाए कि चलो सब भाग कर आओ, अलग से एक कोठी किराए पर ली गई है, और खर्चा किया जा रहा है और उसकी योजना बनाई जा रही है। ये सब भी बड़ा ताम-झाम होता है।

दस दिन पहले से एक आदमी लगता है, वो खोजना शुरू करता है। फिर जब जगह पता चलती है तो देखा जाता है कि उसके आस-पास का माहौल कैसा है। ये न हो जगह अच्छी है और उसके आस-पास शोर मच रहा है, ट्रैफिक चल रहा है या कुछ और। पचास चीज़ें देखनी पड़ती हैं। क्या ज़रूरत है? जब बात ज़िंदगी की है तो घर में होगा काम।

अभी मैं यहाँ आ रहा था तो इनको (एक स्वयंसेवक की तरफ इशारा करते हुए) बोल दिया था कि सात बजे आज शुरू होना है। फिर आज संदेश बहुत आने लग गये, शायद आज शिक्षक दिवस वगैरह है। अंतर्राष्ट्रीय कुछ...(५ अक्टूबर अंतर्राष्ट्रीय शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है)

तो देखने लग गया कि ये सब क्या है। उधर से ये (स्वयंसेवक) कहें कि सब तैयार खड़े हैं, कहाँ हैं आप? तो मैं एक साधारण कुर्ते में था, नीचे मैंने लोवर्स पहन रखे थे, मेरी बड़ी इच्छा हुई मैं ऐसे ही उठ कर आ जाऊँ। (स्वयंसेविका की ओर इशारा करते हुए) ये थीं वहाँ पर, मैंने कहा कि ये राजा बाबू बनने की तो मेरी कभी फ़िितरत नहीं रही। मुझे ये करना क्या पड़ता है? कि सत्र के लिए एक धुला और प्रेस किया कुर्ता निकालो और फिर पहनो, जैसा हूँ वैसे ही रहने दो न। पहले सत्र ऐसे ही हुआ करते थे। आप पुराने वीडियो देखेंगे, दो-हज़ार-पंद्रह तक के करीब-करीब, तो ऐसे ही जैसा हूँ वहीँ बैठ गया, कुछ भी कर लिया, कभी ज़मीन पर बैठ गया। उसके बाद काम-धाम बढ़ गया, लोगों की उम्मीदें बढ़ गयीं, यात्राएँ बढ़ गयीं, ये सब हो गया। पर हो सकता है कि उसी पर वापस चले जाएँ, ये भी सब समय की बर्बादी ही है। ये सब साज-सज्जा, अलंकरण, क्या करना है?

मैं छोटा था तो मेरी माँ मुझे प्यारा गुड्डा बनाया करती थीं। मुझे बड़ी कोफ़्त (बैचेनी) होती थी। अच्छे-अच्छे कपड़े पहना दें, माँग काढ़ कर कंघी कर दें, पाउडर-वाऊडर मल कर बाहर भेज दें, और लोग कहें, “देखो कितना प्यारा बच्चा है!” फिर जब मैं घर से बाहर निकला तो मैंने कहा कि मैं अब एक काम तो बिल्कुल नहीं करूँगा, क्या? आयोजित सजना-सँवरना। तो मैं आईआईएम में था तो मैंने डेढ़ साल में से लगभग साल भर तो, जो बॉक्सर शॉर्ट्स आते हैं, उसमें क्लास अटेंड की है। उसी में खाता था, उसी में सोता था, दौड़ता था, जिम जाता था, और वही पहन कर क्लासरूम में बैठ जाता था, कि कौन बदलेगा! इंटरव्यू चल रहा था और उन्ही दिनों, जानें केओस था कि कांफ्लुएंस (आईआईएम में होने वाले वार्षिक उत्सव) था, कुछ था, तो उसमें मैं एक प्ले करवा रहा था, एक नाटक। उसका निर्देशन भी कर रहा था, उसमें अभिनय भी कर रहा था। तो मैं भूल ही गया कि रात में आज इंटरव्यू है, आठ बजे था, लेटरल प्रोसेस में, एच.एल.एल का। और मैं वहाँ एक खुला प्रांगण है, दालान, लुइ कान प्लाज़ा बोलते हैं उसको, उसमें सबकी रिहर्सल करा रहा था। ड्रेस रिहर्सल थी तो में भी ड्रेस में था। और मैं क्या बना हुआ था उसमें? एक मायूस आशिक! एक मायूस आशिक जो फटे कपड़ों के साथ अपनी प्रेमिका की जलती हुई चिता के सिरहाने बैठा हुआ है, बिल्कुल शराब वगैरह पी करके। तो बाल उड़े हुए हैं, कपड़े गंदे हैं, राख मल रखी है, चल रही थी रिहर्सल। तभी प्लेसमेंट का कोई आया, हाँफता-दौड़ता, पसीने में, बोला, “यहाँ है! वहाँ इंटरव्यू है” तो मैंने कहा, “कितने बजे?” बोला, “आठ बजे था” मैंने देखा साढ़े-आठ बजे हुए है। मैंने कहा, “मैं आता हूँ, मुझे बीस मिनट दो” बोला, “बीस मिनट कुछ नहीं, उन लोगों को आज ही रात वापस लौटना है, उनकी दिल्ली की फ्लाइट है”, अहमदाबाद का किस्सा है ये। तो मैंने कहा, “ठीक है फिर, चलो! ऐसे ही देंगे इंटरव्यू।”

तो हम मायूस आशिक बने-बने इंटरव्यू देने पहुँच गये। और मस्त इंटरव्यू हुआ, उनकी फ्लाइट छूटी। दो घंटे तक उसने मुझसे बात की। बढ़िया, मस्त, तर बात हुई। दो घंटे के अंत में, मुझसे बोलता है कि, “आदमी तुम बहुत बढ़िया हो, लेकिन एक बात समझ में आ गई है, ये नौकरी तुम्हारे लिए नहीं है।” मैंने कहा, “वो तो मुझे पता ही था! एक बात मुझे आपसे बोलनी है।” “क्या?” मैंने कहा, “ये नौकरी आपके लिए भी नहीं है, छोड़ दीजिये।”

(श्रोतागण हँसते हैं)

“आप भी गलत जगह फँसे हुए हैं, क्या कर रहे हैं?”

तो ऐसा रहा है हिसाब-किताब अपना। वो हमारी जो परंपरागत छवि होती है, अध्यात्म की, और गुरुओं की, और गुरुता की, उसके साँचे में कभी फिट नहीं होगा। आप मुझसे संबंध रखते हैं, स्नेह रखते हैं, तो इसलिए आपको बताए दे रहा हूँ। हमारा मामला बहुत ख़रा और बहुत ज़मीन का रहा है। कोई आदिकालीन ऋषि-मुनि नहीं हूँ मैं। सीधी-सीधी ज़मीन की और असली बात। और अगर मेरी छवि बनाओगे आप किसी आदिकालीन ऋषि जैसी तो और एक दिक्कत आएगी। क्या? आप मुझसे फिर अपेक्षा करोगे कि मैं व्यवहार भी उन्हीं ऋषियों जैसा करूँ। काहे को करूँ?

सत्य नहीं बदलता कभी, समय तो बदलता है न?

तो जितनी बातें सत्य से संबंधित हैं, वो बिलकुल वैसी ही होंगी जैसी उपनिषदों में थीं। पर जो कुछ भी समय से संबंधित है वो तो आज का ही होगा न? भाषा बदल गई कि नहीं बदल गई? हाँ, श्लोक में जो बात कही गई है, वो आज भी पूरी तरीके से वैध, उपयोगी और जायज़ है, है न? पर आज का श्लोक संस्कृत में हो, ये बात कुछ समझ में नहीं आती। ये बात उन्हीं लोगों के लिए ठीक है जो संस्कृत जानते हों, और जो संस्कृत भाषी हों, उनके लिए ठीक है। बाकियों को तो अपनी भाषा में और अपनी ज़िंदगी के हिसाब से बात करनी होगी।

हम थोड़ा सा उल्टा खेल खेल जाते हैं कई बार। आप मेरे साथ हैं, मैं जो कुछ बोल रहा हूँ? क्योंकि अभी आपने कुछ पूछा नहीं, मैं अपनी ओर से ही कहे जा रहा हूँ। हम उल्टा खेल खेल जाते हैं, हम अध्यात्म की छवि बना लेते हैं, छवि के अनुसार हम दो-चार दिन अध्यात्मिक होने का आचरण कर लेते हैं। और जैसे यहाँ पर हम एक कृत्रिम छवि में रह लेते हैं, कि अभी शिविर चल रहा है, अभी करीब-करीब एक कृत्रिम तरीके से रह लो, वैसे ही हम गुरु की भी एक कृत्रिम छवि बना लेते हैं। और अपने आप को ये भरोसा भी दिला लेते हैं कि हमने जैसी छवि बना ली है गुरु की, वो वैसा ही होगा। गुरु वैसा क्यों हो भाई? क्यों हो?

अगर गुरु वैसा ही हो जाए जैसा आपकी छवियों ने चाहा है, तो फिर मैं ये सब बातें आपसे बोलूँगा ही नहीं जो अभी बोल रहा हूँ, कि बोलूँगा? मैं तो आपसे कहूँगा, “अभी आपने जो किया वो उच्चतम था, और सुन्दरतम था, बहुत बढ़िया! कल भी यही करना, रोज़ यही किया करो।” मैं आपसे ख़री बात इसलिए बोल पाता हूँ क्योंकि वो बात मेरी ज़िंदगी से निकल कर आ रही है। और मेरी ज़िंदगी आज के समय में है, आज के समाज में है। मैं आज के समय में और आज के समाज में जी रहा हूँ, इसीलिए तो आपको समझ पाता हूँ न। मैं अगर ऋग्वैदिक काल में जीना शुरू कर दूँ तो आपका कोई भी सवाल समझ पाऊँगा, बताओ? अभी मैं यहाँ पर याज्ञवल्क्य को ले आ दूँ, या अष्टावक्र को ले आ दूँ, फिर आप उनसे करिएगा सवाल, मिलेगा कोई उत्तर? उनको आपके प्रश्न ही समझ में नहीं आएँगे।

सत्य नहीं बदला है, पर सत्य के इर्द-गिर्द जीवन तो पूरा बदल गया है न? आप सत्य के प्रति निष्ठा रखो, बहुत अच्छी बात है। लेकिन आप पुराने जीवन के प्रति ही निष्ठा रखने लग गये तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी। इन दोनों बातों का अंतर समझिएगा। समझ पा रहे हैं कि नहीं समझ पा रहे हैं?

एक चीज़ होती है सच्चाई के प्रति निष्ठा रखना, और सच्चाई कालातीत होती है, वो कभी नहीं बदलने वाली। तो सच्चाई के प्रति निष्ठा रखना एक बात है और सच्चाई जिस समय उतरी थी, उस समय के प्रति निष्ठा रखना बिल्कुल दूसरी बात हो गयी। नहीं समझ रहे हैं?

श्रीकृष्ण गीता में आपसे एक बात कह रहे हैं, वो बात तब भी उपयोगी थी, आज भी उपयोगी है, सदा उपयोगी रहेगी, समयातीत बात है। है न? आपकी निष्ठा श्रीकृष्ण के सन्देश के प्रति होनी चाहिए या श्रीकृष्ण के परिधान के प्रति? लेकिन हम ऐसा कर लेते हैं न, कि हमें लगने लग जाता है कि उस समय का जो कुछ था, वो भी ‘सत्य’ जितना ही उपयोगी है। तो जब सत्य की बात आती है, तो उस समय की जो परिस्थितियाँ थी हम उन्हें भी दोहरा देना चाहते हैं। उस समय की जो भाषा थी हम उसको भी दोहरा देना चाहते हैं। उस समय का जो आचरण था हम उसको भी दोहरा देना चाहते हैं। भले ही वो आज के समय से मेल खाए चाहे न खाए।

गीता का सत्य अमूल्य है, तो क्या आप रथ पर चलना शुरू कर दोगे? अब श्रीकृष्ण तो रथ पर चलते थे, आप रथ पर चलने लग जाओगे सड़क पर? और मुकुट पहनोगे? और धनुष बाण लेकर चलोगे? बोलो?

तो अर्जुन बदल गया है न? उस समय का अर्जुन कैसा था? पहली बात तो संस्कृत बोलता था, गीता पूरी किसमें है? आज का जो अर्जुन बैठा है, अर्जुन ही बैठा है न सामने? जो सीखने को तैयार हो वो अर्जुन। आज का अर्जुन संस्कृत बोलता है क्या? उस समय का अर्जुन अगर लड़ने निकलता था तो क्या लेकर निकलता था? और आज का अर्जुन? उस समय के अर्जुन के पास लैपटॉप था? आज का अर्जुन तो लैपटॉप लेकर बैठा हुआ है! अर्जुन बदल गया है न? तो अब ये बताओ फिर क्या कृष्ण वैसे ही रहेंगे जैसे तब थे? सोच-समझ कर जवाब दीजिए।

जब अर्जुन उस अर्जुन जैसा नहीं रहा, तो क्या कृष्ण वैसे ही होंगे जैसे उस समय थे? तो फिर ये उम्मीद क्यों कर रहे हो? और ये उम्मीद है मन में कि नहीं है? गीता नहीं बदलेगी। अर्जुन भी बदलेंगे, कृष्ण भी बदलेंगे। क्योंकि जिन कृष्ण को हम गीता में मिलते हैं, वो कृष्णत्व का तत्कालीन अवतार हैं। आप गीता में मिल रहे हैं - देवकीनंदन कृष्ण से। वो कृष्णत्व का तत्कालीन अवतार हैं। कृष्णत्व तो लगातार रहता है न? अर्जुन के सामने एक तरीके से आया। और अर्जुन के सामने भी जिस तरीके से आया वो तरीका भी अर्जुन के देखते-देखते बदला। ग्यारहवें अध्याय में कृष्ण अपना कुछ और ही रूप दिखा देते हैं अर्जुन को, है न? कृष्णत्व कालातीत है, लेकिन कृष्ण के तो रूप समय के अनुसार बदलेंगे न? कृष्ण की भाषा भी बदलेगी। बोलचाल, व्यवहार भी बदलेगा, बदलेगा न?

तो ये बात याद रखिएगा कि गीता के सत्य के अतिरिक्त जो कुछ है वो सब बदलेगा, उसे बदलना चाहिए, उसे पकड़ कर रखने की कोई ज़रूरत नहीं है। अपरिवर्तनीय, अचल, सिर्फ वो सत्य है जो गीता में है। आज जब गीता कही जाएगी तो कृष्ण और अर्जुन वैसे नहीं होंगे जैसे तब थे। ये बात बहुत सीधी है पर हम भूल जाते हैं।

न तो आप तब का अर्जुन बनने की कोशिश करिए, न आप आज के गुरु से ये अपेक्षा करिए कि वो ऋग्वैदिक गुरु जैसा दिखाई देगा, बोलेगा, या आचरण करेगा। बात समझ में आ रही है? आपकी भाषा में कहें तो, लेट्स कीप इट रियल। ये आपकी भाषा है, ये आज की भाषा है। नाटक थोड़े ही करना है कि तीन दिन का नाटक-शिविर आयोजित हो रहा है। जिसमें कुछ लोग चेला होने का अभिनय करेंगे, और एक आयातित अभिनेता है, उसको बाहर से बुलाया गया है, वो गुरु होने का स्वाँंग करेगा। ये सब नहीं करना है न? चीज़ को ख़रा-ख़रा रखना है न? रखना है न?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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