प्रश्नकर्ता: सवाल है कि नया काम मैं कोई शुरू ही नहीं कर पाता।
आचार्य प्रशांत: बात तुमने ठीक से समझी नहीं हर चीज़ की शुरुआत दुनिया में हर पल ही करनी होती है अगर जीवन प्रतिपल नया है तो उसमें प्रतिपल शुरुआत भी नई ही होगी। तो सवाल यह मत पूछो कि मैं कुछ नया शुरू क्यों नहीं कर पाता क्योंकि जब तुम यह कहते हो कि मेरी दिक्कत बस इतनी सी है कि शुरू नहीं कर पाता तो तुम्हारा आशय यह है कि एक बार शुरू कर लूँगा तो बात आगे होती जाएगी अपने आप। शुरुआत होने की देर है फिर बात अपने आप बढ़ती जाएगी। नहीं। वहाँ पर निरंतरता आ जाएगी। नहीं, निरंतरता नहीं है। तुम्हें क्या लगता है कि मैंने तुम्हें जवाब देना शुरू कर दिया तो उसमें जवाब देना ही काफ़ी है? मुझे हर पल सतर्कता के साथ बोलना है क्योंकि हर शब्द नया हैI जितना महत्व शुरुआत का है उतना ही महत्व हर आने वाले शब्द का भी है या मैं ये कहूँ कि मैंने शुरुआत अच्छी कर दी है आगे अपने आप हो जाएगा। क्या मैं कह सकता हूँ कि शुरुआत अच्छी कर दी है और आगे अपने आप हो जाएगा?
नहीं।
तो समस्या यह नहीं है कि मैं शुरुआत नहीं कर पाया। समस्या यह है कि काम हो ही नहीं पाता, जब जो होना है वो हो नहीं पाता। सवाल को विस्तृत रूप से पूछो, असली बात यह है कि जब जो होना चाहिए वो होता क्यों नहीं? जीवन में जो भी समुचित कर्म हैं वो मुझसे हो क्यों नहीं पाता?
वो हो इसीलिए नहीं पाता क्योंकि तुम उसमें अड़ंगा डाल कर बैठे हो। काम होने के लिए तैयार खड़ा है तुम बीच में अड़े हुए हो। तुम हट जाओ काम हो जाएगा।
तुम सवाल लिए बैठे हो। सवाल पूछे जाने के लिए तैयार खड़े हैं। सवाल का बस चले तो उछल कर के आए और अपने आप को प्रस्तुत कर दे। तुम अड़े बैठे हो कि मैं इन सवालों को बिना पूछे नहीं जाने दूंगा। तुम बीच में अपने विचार, अपने डर ले कर के खड़े हो गए हो। काम सब हों जाएँ ,सब हो जाए अगर उस सहजता पर बाँध ना बनाए जाएँ।
बाँध तुमने बनाये हैं ,अड़चने तुमने खड़ी करीं है। उसी अड़चन का नाम है अहंकार, अहंवृत्ति, ईगो। तुम कहते हो ‘मैं करूंगा ‘, अहं ,मैं करूंगा।
जबकी जीवन का नियम यह है कि जब जो होना होता है होता है तुम्हारे करने की ज़रुरत होती नहीं। लेकिन तुम्हारा सारा ज़ोर इस पर है कि मैं करूंगा और तुम्हारा यह भाव कि मैं करूंगा सारे होने को रोक देता है, जाम लगा देता है। जो हो जाए खुद हो जाए तुम्हारे रहते वो हो नहीं पाता और फिर तुम रोते हो कि मेरे काम नहीं होते। तुम्हारे काम इसीलिए नहीं होते कि तुम करने की कोशिश में लगे हो। तुम अपनी कोशिश छोड़ दो तो सारे काम हो जाएंगे। तुम खुद बीच में खड़े हुए हो। मैं खुद काम शुरू क्यों नहीं कर पाता? तुम हट भर जाओ शुरुआत अभी होती है। यह मैं जिसको कह रहा हूँ कि हट जाओ इसे जानते हो? किसको कह रहा हूँ कि हट जाओ? मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि तुम अपना शरीर हटा दो तो हो जाएगा। यह जो तुमने जंजाल खड़ा कर रखा है ना ,धारणाओं का ,विचारों का ,अड़चनों का ,डर का ,उसको हटाओ फिर जीवन बड़े सहज रूप से बढ़ेगा, जो होना होगा वो हो जाएगा। तुम्हारी ज़रुरत भी नहीं पड़ेगी जो होना होगा वो अपने आप हो जाएगा। पर तुम्हारी ट्रेनिंग कुछ ऐसी हो गयी है कि तुमको चैन ही नहीं पड़ता, तुम कहते हो बिना कोशिश के अगर हो गया तो मज़ा कहाँ? अरे! जान लगानी चाहिए, पसीना बहना चाहिए, खून निकलना चाहिए तब काम हो। तब हम मानेंगे कि हमने किया, उसके पहले तुम्हें चैन ही नहीं मिलता।
और जीवन ऐसा है नहीं, जीवन तुम्हारा खून,पसीना कुछ नहीं मांग रहा है। वो अपने आप हो जाएगा तुम बस वॉच करो पर तुम्हारी पूरी शिक्षा यही है कि वॉच मत करना। ‘हार्ड वर्क इज़ द की टू सक्सेस’ और तुम वो हार्डवर्कर बन के खड़े हुए हो। उसी वर्कर का नाम अहंकार है ,उसी को कहते हैं ‘कर्ताभाव’ या *‘डूअरशिप’*। आई विल डू इट एंड इफ आई वोंट डू इट, इट वोंट हैपन और फिर तुम बौराए घूमते हो कि जो भी करना चाहता हूँ होता नहीं।
कैसे होगा? खुद अपने रास्ते में तुम हो। अभी तुम मुझे सुन रहे हो और सुनते वक़्त ही तुम सोचना शुरू कर दो। तुम सुन पाओगे? अब तुम खड़े हो गए हो अपने और सुनने के बीच में खड़े हो गए हो और पूरा सुनना ब्लॉक हो जाएगा।
तुम सुन भी तभी सकते हो जब तुम ना हो। सुनने के लिए आवश्यक है तुम बिलकुल खाली हो जाओ।
पर हम में से हैं कई बहादुर जो कोशिश कर-कर के सुन रहे हैं और जो ही कोशिश कर-कर के सुन रहा है उसे कुछ समझ नहीं आ रहा है। पक्का है कुछ उसे समझ आ ही नहीं रहा होगा, उसका सर चकरा रहा होगा, कह रहा होगा यह कैसी बातें हो रही हैं? फिर सोचता होगा और कोशिश करता हूँ ,शायद और कोशिश करके कुछ समझ में आ जाए और जितनी कोशिश करेगा उतना ही पगला जाएगा और कोशिश कर-कर के थक जाएगा और बाहर निकल कर क्या बोलेगा? बातें ही गलत हो रहीं थीं। मैंने पूरी कोशिश कर के सुना तब भी समझ में नहीं आया।
कोई चाहिए जो बोले कि पगले, तूने इतनी कोशिश करी फिर भी तुझे समझ में नहीं आया। तू चुप बैठ जा, बस चुप चाप बैठ जाता और कुछ नहीं करता तो काम अपने आप हो जाता और उनको ही समझ में आ रहा होगा जो चुप बैठें हैं और कुछ नहीं कर रहे हैं। करने वाले को कुछ समझ नहीं आ रहा और समझ नहीं आ रहा है तो करेगा कैसे? कर्म तुम्हारे समझ से ही तो निकलता है ना? जहाँ समझे नहीं कि कर्म अपने आप हो गया है। पर तुम करने में इतने तत्पर हो कि तुम्हें जो करना चाहते हो वो तुम्हें समझ में आ नहीं सकता। अब फँस गए हो पर दोष तुम्हारा नहीं है तुम्हारी ट्रेनिंग ही कुछ ऐसी हुई है, पूरी परवरिश ऐसी हुई है कि कुछ कर के दिखाना है, करना पड़ेगा और तुम हो जो कर के दिखाओगे।
यह तो कभी कहा ही नहीं गया कि खेल है, मौज है, मस्ती है। किताब है, आनंद है उसके साथ। तुम तो कहते हो आज मैं पढूंगा और फिर तुम्हें समझ में क्यों नहीं आता कि मुझे समझ क्यों नहीं आता? किताब का दोष है, पूरी शिक्षा व्यवस्था ही खराब है या फिर सब का दोष है या मैंने तैयारी कम की है। तुम्हारी दिक्कत यह है तुमने मेहनत ज़्यादा करी है।
असली मेहनत करी नहीं जाती, हो जाती है।
तुम उसको होने दे नहीं रहे हो; कर-कर के तुम होने दे नहीं रहे हो। जो करने की कोशिश कर रहा है वो होने नहीं दे रहा है इसीलिए तुम कर नहीं पा रहे हो। तुम्हारे जीवन में सच तो यह है कि मेहनत के लिए बहुत कम जगह है। मेहनत तुमने असली जानी ही नहीं ,हाँ, कोशिश बहुत करी है तुमने मेहनत करने की पर मेहनत कभी हुई नहीं। ऐसे समझो, तुम जब फुटबॉल खेलते हो तो देखते हो कि कितनी कैलोरीज़ जला देते हो? और मौज-मौज में देखते हो कि कितनी मेहनत हो जाती है ना? हो गई ना? क्या सोच-सोच कर मेहनत करते हो? क्या सोचते हो कि यहाँ से वहाँ तक दौड़ जाऊं तो इतनी और कैलोरी बर्न हो जाएगी?
जब तुम हट जाते हो और खेल को होने देते हो तो खेल अपने आप होता है। हर पल एक नई शुरुआत होती है। हर पल पूरा होता है, हर पल में शरुआत होती है और अंत भी होता है। इन सब चक्करों में पड़ो ही मत कि मैं क्या करूँ? एकमात्र उचित सवाल है कि क्या मैं समझ रहा हूँ? और अगर समझ रहे हो तो कर्म अपने आप हो जाएगा। तुम अगर समझ रहे हो ,अगर कर्म में डूबे हुए हो तो कर्म अपने आप हो जाएगा। एकमात्र उचित सवाल है कि ”मैं क्या जीवन के प्रेम में हूँ या जीवन से कटा-कटा हूँ ?” अगर प्रेम में हो तो उचित कर्म अपने आप हो जाएगा।
सवाल ठीक पूछो? तुम्हारा करने में बहुत ज़ोर है और करने में जितना ज़ोर है वो सब अहंकार है। दोहरा रहा हूँ ,समझने पर ज़ोर दो, समझने पर, करने पर नहीं। मैं जान भी रहा हूँ यह सब क्या है? जान गए वो अपने आप होगा। श्रद्धा रखो अपने आप होगा। तुम्हारे ही माध्यम से होगा पर तुम नहीं करोगे। अपने आप होता है। जानने पर ज़ोर दो, प्रेम पर ज़ोर दो, अपनी मौज पर ज़ोर दो। आनंद में हूँ या चिढ़ा-चिढ़ा हूँ? यह प्रश्न आवश्यक है? यह ज़रूरी है? बात कुछ समझ में आ रही है? हाँ?
परिणाम पर ज़ोर मत दो, परिणाम आगे होता है ।
इस क्षण पर ज़ोर दो परिणाम अपने आप ठीक हो जाएँगे। परिणामों की तुम परवाह करो ही मत, जो अभी है उसकी परवाह करो। उसको जानो उसके प्रेम में आओ परिणामों की परवाह मत करो। तुम्हें परिणाम का इतना आकर्षण है कि तुम भूल ही गए हो कि तुम ज़िंदा हो। जीवन अभी है। तुम्हें भविष्य ने इतना पकड़ लिया है कि तुम वर्तमान से बिलकुल उचट गए हो। तुम्हारे सिर्फ भविष्य हैं, सपने; और सपने, उम्मीदें जीवन के प्रति नासमझी का परिणाम है। यह सबूत है कि हम जीवन को जानते नहीं, यह सबूत है कि हमारी परवरिश इन धारणाओं से भरी है। हाँ? (वक्ता श्रोताजन से कहते हुए)
यह तो खतरनाक बात है, मैं तुमको बताऊँ कि भविष्य कैसे चमकाना है तो तुमको बहुत अच्छा लगेगा। मैं कह रहा हूँ कि भविष्य छोड़ो, जो आज है उसकी परवाह करो तो बात तुम्हें जचेगी नहीं क्योंकि भविष्य है तो अच्छा एसकेप है, आज तो है नहीं? आगे देखेंगे। तो सब पोस्टपोन होगा मामला, जब आएगा तब देखा जाएगा। वर्तमान कब है? अभी है। मैं वर्तमान की बात करूँ तो तुम फँस जाते हो , तुम्हारे पास भागने का कोई तरीका नहीं रह जाता। भविष्य की बात जहाँ करी वहाँ तुम्हारे पास भागने का एक चोर दरवाज़ा खुल जाता है। मैं बात कर रहा हूँ उसी क्षण की, यहाँ फंसते हो पर फँस जाओ- इसी फँसने का नाम जीवन है। कितने लोग हैं जो दो दिन बाद की साँसें ले रहे हो? कितने लोग हैं जो इस क्षण की साँस दो दिन बाद लेते? साँस अभी ले रहे हो या दो दिन बाद लेते हो ?
प्र: अभी सर।
आचार्य: जीवन अभी है, अभी है और पूरा है, उसकी फिक्र करो।
‘शब्द-योग’सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।