आचार्य प्रशांत: पहले ही अध्याय में, अच्छे से देखिए, दो हैं जो परेशान हैं। कौन? रणक्षेत्र में दो हैं जिनकी चिंता पहले ही अध्याय में हमारे सामने आ जाती है — दुर्योधन और अर्जुन।
इस बात को अच्छे से पकड़िए। चिन्ताग्रस्त होना बुरा नहीं है; दुर्योधन वाली चिंता रखना बुरा है। और कृष्ण के साथ रहने से ऐसा नहीं कि आप चिन्ताहीन हो जाएँगे; हाँ, आपकी चिंता का स्तर उठ जाएगा। आपकी चिंता ही फिर आपको कृष्ण के पास ले आएगी। दुर्योधन भी चिंतित है और उसकी चिंता उसे कृष्ण से और दूर धकेलती है। अर्जुन भी चिंतित है लेकिन अर्जुन की चिंता कृष्ण के और पास लाती है।
भूल जाइए अध्यात्म की उस छवि को जो कहती है कि आध्यात्मिक आदमी तो द्वंदों के बिलकुल पार निकल जाता है, और निर्द्वंद और निर्विचार होकर आनंद के सुखसागर में गोते लगाता है। द्वंद तो लगातार रहेगा; वो द्वंद किसके पक्ष में कर रहे हो, बस ये देख लो। अर्जुन आपको निर्द्वंद दिख रहे हैं क्या? अर्जुन का द्वंद तो दुर्योधन के द्वंद से भयानक है ज़्यादा। दुर्योधन के बारे में तो बस यही कहा गया है कि शंखनाद सुनकर के दिल दहल गया और अर्जुन तो अपने मुँह से स्वीकार रहे हैं कि ‘टाँग काँप रही है और बदन जल रहा है, रोएँ खड़े हो रहे हैं, सारी ताक़त जैसे गिर गयी, ये धनुष नहीं संभाला जा रहा’। और ये उस व्यक्ति की हालत है जो कृष्ण के साथ है। तो कृष्ण के साथ होने का अर्थ समझिए।
कृष्ण के साथ होने का अर्थ ये नहीं होता कि आपको जीवन युद्ध में निश्चित विजयश्री मिल जानी है। कृष्ण के साथ होने का अर्थ होता है कि अब आपको एक ऊँचा जीवन युद्ध मिल जाना है। मज़े की बात है कि युद्ध जितना ऊँचा होगा, उसमें जीतने की संभावना उतनी ज़्यादा होगी। युद्ध जितना दुरूह और दुष्कर होगा, जीतने की संभावना उतनी ज़्यादा होगी। ये बात हमारे पल्ले ही नहीं पड़ती। हमें लगता है युद्ध जितना आसान होगा, जीतने की संभावना बढ़ेगी। भौतिक जगत में ऐसा होता है, अस्तित्व में ऐसा नहीं होता।
अस्तित्व में जितना गहन, जितना विकट, जितना असम्भव युद्ध होता है, आपके जीतने की संभावना उतनी बढ़ जाती है। आप जीत जाते हो, सिर्फ़ इस वजह से कि आपने एक बड़ा असम्भव युद्ध चुना।
जब १९९९ लगा था, १९९९ की १ जनवरी। उस दिन घर बैठे-बैठे नए साल का स्वागत मैंने गीता से करा। तो मैंने कुछ चीज़ें अपनी डायरी में लिखीं, वो अभी भी लिखी हुई हैं; उसमें गीता के कुछ श्लोक थे। और उसी साल कुछ महीनों बाद, आयन रैंड की पुस्तक 'द फाउंटेन हेड' से कुछ पंक्तियाँ अपनी डायरी में लिखीं। तो उनमें से एक पंक्ति ये भी थी, '*यू विल विन बिकॉज यू हैव चोज़न द मोस्ट डिफिकल्ट बैटल*’ (तुम जीतोगे क्योंकि तुमने सबसे कठिन युद्ध चुना है)। जो आसान युद्ध चुनेगा, वो हार गया उसी वक़्त, जिस वक़्त उसने आसानी चुनी।
और ये बात कितनी अंतर्विरोधी लगती है न कि तुम इसलिए जीतोगे क्योंकि तुमने सबसे कठिन युद्ध चुना है। काश! कि ये बात हम समझ पाएँ, फिर हम सही युद्धों से कतराएँगे नहीं, पीठ दिखाएँगे नहीं। अगर कुछ कठिन है तो वो आपके लिए खुशखबरी है। ये अवसर है आपके लिए जीतने का। कठिनाइयों से वो नहीं जीता, जो कठिनाइयों को परास्त कर गया; कठिनाइयों से वो जीत गया, जो कठिनाइयों को स्वीकार कर उनसे जूझ गया। तो जूझना ही जीत है। जो जूझा, वो जीता। हारा बस वो जो भगोड़ा, पीठ दिखाने वाला। क्या कह कर? ‘अरे! नहीं अभी तो बड़ी भारी लड़ाई है, हमारे बस की थोड़े ही है।‘ समझ में आ रही है बात?
अब अगर पूरी कहानी ग़ौर से देखें तो मुझे बताइए अर्जुन को सुख कौन-सा मिल रहा है पूरे जीवन में? सुख ज़्यादा किसको मिला है? आप पांडवों का पूरा जीवन काल ले लीजिए — महाभारत तो आप मोटा-मोटा जानते ही होंगे — और आप कौरवों का जीवन काल ले लीजिए; अब याद करिए सुख किसने भोगा है?
श्रोतागण: पांडवों ने।
आचार्य: पांडवों ने कैसे भोगा है, बताओ। पांडवों ने कुल कितने साल राज करा होगा? महाभारत के युद्ध के बहुत बाद तक तो पांडव राज भी नहीं कर पाए, प्रयाण कर गए और हिमालय पर जाकर समाधि ले ली, एक-के-बाद-एक। और जीवनभर क्या करते रहे पांडव? संघर्ष ही करते रहे। इधर-से-उधर भटक रहे हैं। बारह साल वहाँ घूमे, फिर एक साल कहीं छुप रहे हैं। उसमें कोई नर्तक बन रहा है, कोई किन्नर बन रहा है, कोई कुछ कर रहा है। उससे पहले भी तमाम तरह के षड्यंत्रों का शिकार हो रहे हैं। कभी पानी में डुबोया जा रहा है, कभी लाक्षागृह में जलाया जा रहा है; तमाम तरह के अपमान भी झेल रहे हैं, सब हो रहा है।
तो कृष्ण के साथ रहने से क्या मिला? सुख तो नहीं मिला। सुख तो दुर्योधन ने ही लूटा है। सारा खेल यहीं गड़बड़ा जाता है। हमको बता दिया गया है कि ‘जो भगवान जी के साथ रहता है, उसको बहुत ‘हैप्पी-हैप्पी सुख’ मिलता है’। सुख नहीं मिलता है; दम मिलता है। ज़िन्दगी मिलती है, जान मिलती है, प्राण मिलते हैं। अपने-आपको मनुष्य कह पाओ, ऐसा अधिकार, ऐसी पात्रता मिलती है। सुख नहीं मिलता। जिन्हें सुख चाहिए, गीता उनके लिए है ही नहीं। यहाँ सुख किसको मिल रहा है, बताओ? गीता में कहाँ सुख है? कोई चर्चा सुख की? गीता-ज्ञान के बाद भी अर्जुन कौन-सा सुख पा जा रहे हैं? अपने पितामह को, अपने गुरु को, अपने भाइयों को मारने में कौन-सा सुख है?
उसके बाद अपने वंश का पूरा नाश अर्जुन भी देख रहे हैं। कौरवों भर का नहीं हुआ, पांडवों का भी हुआ। एक को छोड़ कर सब गए। पांडवों को तो छोड़ दो, ख़ुद कृष्ण के वंश का क्या हुआ है? क्या हुआ महाभारत के बाद? वो सब भी आपस में लड़कर सब ख़त्म; अंतर्कलह। इसके बाद, स्वयं कृष्ण कैसे प्रस्थान करते हैं? जिन्हें महाभारत का युद्ध नहीं मार पाया, कोई तीर नहीं छू पाया, उन्हें कौन मार देता है तीर? यही कोई साधारण-सा आखेटक। वो घूम रहा है कि कहीं कुछ मिल जाए — कछुआ, खरगोश, मेढक, हिरण — तो कहता है बस टाँग-भर दिख रही है। न जाने कैसा तो वो शिकारी था! और ऐसे शिकारी के हाथों…
सुख कहाँ है यहाँ पर, बताओ? सुख बताओ? जीवन सुख का खेल है ही नहीं; आप ग़लत पते पर आ गए हैं, साहब! जो सुख खोज रहा हो उसको बोलो, ‘साहब ये आपने ग़लत जगह जन्म ले लिया है। सुख नाम की कोई चीज़ पृथ्वी पर पायी नहीं जाती। बेटर लक नेक्स्ट टाइम (अगली बार शायद क़िस्मत साथ देगी)।‘
मनुष्य होने का गौरव दे रहे हैं कृष्ण अर्जुन को, सुख नहीं। अपने-आपको इंसान कह सको, ये अधिकार दे रहे हैं अर्जुन को, सुख नहीं। सजातियों और स्वजनों पर तो पशु भी हमला नहीं करते। मनुष्य होता है जो कहता है — स्वजन बस वो, जो स्वधर्म का पालन कर रहा हो। जो स्वधर्म का पालन नहीं कर रहा, मैं उसे स्वजन मानने से इनकार करता हूँ। जो अर्जुन कह रहे थे उससे मिलती-जुलती बात तो समस्त प्रकृति कहती है। शिकार करने वाली प्रजातियाँ भी आमतौर पर अपनी प्रजाति का शिकार नहीं करतीं। शेर कितना भी भूखा हो, छोटे शेर को मारकर नहीं खाएगा।
तो ये बात कि ‘मैं अपने ही सगो पर बाण कैसे चलाऊँ?’ इस वक्तव्य में मनुष्यता नहीं, इस वक्तव्य में करुणा नहीं है। अगर दो टूक बोलें तो इस वक्तव्य में पशुता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को पशुता से उठाकर मनुष्य बना रहे हैं और यही मिलता है कृष्ण के साथ रहकर — अपने आपको कह पाओगे ‘मनुष्य हूँ, जानवर नहीं हूँ।‘ ये नहीं कह पाओगे कि ‘सुखी हूँ’। क्या कह पाओगे? ‘मनुष्य हूँ।‘ और मनुष्य होने का गौरव क्या होता है, जान पाओगे।
कामनाएँ पूरी नहीं हो जाएँगी। क्या कामना? यहाँ किसकी कामना पूरी हुई है? धृतराष्ट्र और गांधारी का अंत कैसे हुआ? वन गए थे और दावाग्नि… और धृतराष्ट्र और गांधारी भर ही नहीं थे। एक तीसरा व्यक्ति भी था — कुंती। ये पाँच दिग्विजयी पुत्रों की माता हैं। दावानल समझते हो? जंगल गए हैं, क्यों? क्योंकि इतनी बुरी हालत हो गयी है — शोक! शोक! और शोक! गांधारी हर समय छाती पीट रही हैं और महल के बाहर निकलो तो राज्य में चारों ओर विधवाएँ-ही-विधवाएँ और अनाथ बच्चे-बच्चियाँ। तो तीनों वृद्ध जनों ने तय किया कि वन को जाते हैं। वन को गये, वहाँ वन में आग लगी और तीनों जलकर मर गए।
यहाँ सुख किसको है? हारने वाले को सुख है? नहीं। जीतने वाले को भी सुख नहीं है। तो लड़ो इसलिए नहीं कि सुख मिलेगा; लड़ो इसलिए क्योंकि नहीं लड़ोगे तो जानवर जैसे जियोगे। कष्ट जब झेलना ही है तो दुर्योधन वाला कष्ट क्यों झेलें? अर्जुन वाला कष्ट झेलेंगे न!
सुख तो दोनों तरफ़ ही नहीं है, ना दुर्योधन की तरफ़ ना अर्जुन की तरफ़। जब दुःख दोनों ही तरफ़ है तो कम-से-कम सही दुःख का चयन करेंगे। और सही दुःख है, अपने विरुद्ध रण करने में। सही दुःख का ही नाम आनंद है। आनंद सुख का चर्मोत्कर्ष नहीं है। सही दुःख को आनंद कहते हैं।