प्रश्नकर्ता: माँस खाना कैसा है? क्या दूसरों के बारे में सोचना ज़रूरी है?
आचार्य प्रशांत: माँस खाना कैसा भी नहीं है — न अच्छा है, न बुरा है — खा सकते हो, कुछ भी खा सकते हो। बहुत-बहुत पुराने जो मनुष्य के पुरखें थे, वो माँसाहारी ही थे। आज भी तुम्हारे दाँतों की बनावट ऐसी है कि वो माँस को चीर सकती है, वो उन्हीं पुरखों से आ रही है। आज भी तुम्हारे पेट की, आँतों की, और आन्तरिक रसों की बनावट कुछ ऐसी है कि वो माँस को पचा सकती है। वो भी उन्हीं पुरखों से ही आ रही है। हम सब वंशज माँसाहारियों के ही हैं।
बात माँस खाने की नहीं है। बात है उस मन की जो क़त्ल करता है। माँस यूँ ही तो तुम्हारी थाली पर या तुम्हारे पेट में नहीं आ जाता न? माँस आने से पहले क़त्ल होता है, हिंसा होती है। बात हिंसा की है। और हिंसा में भी तुमने पूछा, “क्या दूसरों के बारे में सोचना ज़रूरी है?” हिंसा में भी मूल बात ये नहीं है कि तुमने किसी दूसरे को मारा; मूल बात ये है कि तुम्हारा मन ऐसा हुआ कि तुम मार दो।
वास्तव में तुम किसी दूसरे को क्या मारोगे, जीवन-मृत्यु तो लगातार चलने वाला एक क्षद्म खेल है। तुम क्या मारोगे किसी को? कौन किसी को मार सकता है? तो बात यहाँ पर ये भी नहीं है कि तुम दूसरे का ख़याल रख रहे हो; बात यहाँ पर ये है कि मन ऐसा हिंसक है जो मारने में यकीन रखता है। और जो मन मारने में यकीन रखता है, वो दूसरे के प्रति ही नहीं, सर्वप्रथम अपने प्रति हिंसक होता है। वो दूसरे को तो क्या ही नुकसान पहुँचाएगा, सर्वप्रथम अपनेआप को नुकसान पहुँचाता है।
मेरी आपत्ति माँसाहार के प्रति नहीं है; मेरी आपत्ति हत्या के प्रति है। और हत्या में भी मेरी आपत्ति मन की अंदरुनी ‘हिंसा’ के प्रति है।
वो हिंसा किसी के क़त्ल के रूप में भी अभिव्यक्त हो सकती है — रुपया-पैसा, प्रतिष्ठा इकठ्ठा करने के लालच के रूप में भी अभिव्यक्त हो सकती है, धर्म और राष्ट्रीयता के नाम पर लड़ाइयाँ लड़ने के रूप में भी अभिव्यक्त हो सकती है, डर के कारण अपनी सुरक्षा के तमाम आयोजन करने के रूप में भी अभिव्यक्त हो सकती है — और ये सब एक हैं।
हो सकता है कि तुम माँस न खाते हो, हो सकता है कि तुम विशुद्ध शाकाहारी हो और तुम लगे हुए हो तिजोरी भरने में, तुम लगे हुए हो अपनी सुरक्षा के इंतज़ाम करने में। तुम्हारे मन में तमाम तरह की धारणाओं ने अड्डा जमा रखा है। ये उतनी ही गहरी हिंसा है। और ये सारी बातें जुड़ी हुई हैं, ये एक साथ आती हैं और एक साथ जाती हैं।
तुम दूसरों का ख़याल मत करो, तुम ये देखो कि ये हिंसा तुम्हारे साथ क्या कर देगी। तुम ये मत सोचो कि तुमने बेचारे किसी पशु की जान ले ली। पशु की जान कौन ले सकता है? ज़रा समझोगे तो जानोगे कि पशु था ही नहीं जान लेने के लिए। तो बात यहाँ पर भावुक हो जाने की नहीं है कि “अरे, अरे, अरे बेचारा मुर्गा मारा गया।” यहाँ पर बात भावुक हो जाने की बिल्कुल नहीं है। सच तो ये है कि तुम न मारो तो भी साल भर बाद मर जाएगा। जो पैदा हुआ है, वो मृत्यु साथ लेकर आया है। बात बिल्कुल इसकी नहीं है कि मुर्गे पर दया करो। बात इसकी है कि अपने जीवन को देखो कि हिंसक मन के साथ तुम कैसा जीवन बिता रहे हो। इस हिंसा के साथ और कितनी व्याधियाँ तुम्हारे जीवन में आ जाएँगी।
तुम्हें क्या लगता है — तुम बकरी के बच्चे को मारकर अपने बच्चे के प्रति प्रेमपूर्ण रह सकते हो? बच्चा तो बच्चा है।
तुममें एक बकरी के बच्चे के प्रति हिंसा है, तुममें अपने बच्चे के प्रति भी वही हिंसा रहेगी, बस वो हिंसा अलग रूप में अभिव्यक्त होगी। कैसे? बकरी के बच्चे के प्रति हिंसा है तो तुम उसे खा जाओगे, अपने बच्चे के प्रति हिंसा है तो तुम उसे महत्वाकांक्षी बनाओगे। तुम उससे कहोगे, “जा, और अपने विद्यालय में तेरा पहला स्थान आना चाहिए। जा, और कम-से-कम इतने पैसे कमा कर ला। जा, और हर दौड़ में तुझे जीतकर दिखाना है।” अपने बच्चे के प्रति तुम्हारी हिंसा दूसरे रूपों में फूटेगी। तुम्हारे जीवन में प्रेम नहीं रहेगा, आनंद नहीं रहेगा।
मैं बिल्कुल नहीं कहता कि शाकाहारी इसलिए रहो क्योंकि उससे स्वास्थ्य अच्छा रहता है। इस बात का फिलहाल कोई ठोस वैज्ञानिक आधार नहीं है। हालांकि ये सिद्ध हो चुका है कि बहुत तरह की बीमारियाँ माँसाहार से होती हैं, पर मान लो ये कल को सिद्ध भी हो जाता है कि माँसाहार शरीर के लिए अच्छा है तो क्या फ़र्क़ पड़ता है? करने दो सिद्ध। हालांकि सिद्ध यही हो रहा है कि माँसाहार शरीर के लिए बुरा है, तथ्य यही सामने आ रहा है। पर मैं इस तथ्य का सहारा नहीं लूँगा क्योंकि अगर मैं इस तथ्य का सहारा लेता हूँ कि माँस इसलिए छोड़ो क्योंकि शाकाहार शरीर के लिए अच्छा है तो यदि किसी दिन ये वैज्ञानिक तथ्य प्रमाणित हो गया कि माँस शरीर के लिए अच्छा है तो फिर तुम्हें इसी तर्क पर चलकर माँस को खाना पड़ेगा। तो मैं इस तर्क का सहारा ले ही नहीं रहा। अच्छा हो या बुरा, क्या फ़र्क़ पड़ता है? होगा अच्छा, तो?
हो सकता है मानवता के शरीर के लिए सबसे अच्छा आदमी का ही माँस हो — तो? हो सकता है कल को वैज्ञानिक तथ्य ये निकलकर आए कि माँ की सेहत के लिए बच्चे का माँस बहुत अच्छा होता है — तो? कहने दो विज्ञान को। ये सब तथ्य हैं। इनसे क्या लेना-देना?
हम क्या मात्र शरीर हैं कि बस वही काम करें जो शरीर के लिए अच्छे हैं? और ये मैं तब कह रहा हूँ जबकि शरीर के लिए भी अच्छा शाकाहार ही है। पर मैं कह रहा हूँ, नहीं भी अच्छा हो — मान लो, नहीं भी अच्छा हो तो भी बात शरीर से आगे की है, बात जीवन की है। जो मन हिंसा में उद्यत रहेगा, वो मन चैन नहीं पाएगा। जो मन एक जानवर को मार सकता है फिर वो मन किसी को भी मारने में झिझक महसूस नहीं करेगा। और बात किसी को मारने में ‘किसी’ के प्रति दया करने की नहीं है।
जब तुम किसी को मारते हो, तो जानते हो न कि तुम अपने मन के साथ क्या कर लेते हो? तुमने जिसको मारा, वो तो गया, कह सकते हो कि “तर ही गया,” पर तुम्हें तो जीना है न! हिंसक मन के साथ जिओगे कैसे? एक-एक साँस में हिंसा रहेगी। एक-एक साँस में बेचैनी रहेगी, तड़पते रहोगे।
तो जब मैं कहता हूँ कि ‘मत मारो’, तो इसलिए कहता हूँ ताकि तुम चैन से जी सको। बात न मुर्गे की है, न बकरे की है, न गाय की है, न भैंस की है और न ही फल या सब्ज़ी की है — बात ‘मन की गुणवत्ता’ की है। और हर प्रकार की हिंसा से मन को बचाओ ताकि ‘तुम’ चैन और विश्रम पा सको। अपने स्वार्थ के लिए, अपने परमार्थ के लिए, बचो जानवरों को मारने से, या किसी को भी मारने से। किसी भी प्रकार की हिंसा से बचो — किसी और की ख़ातिर नहीं, अपनी ख़ातिर। और ध्यान रखना, मैंने कहा — ‘हर प्रकार’ की हिंसा। इसमें ये भी शामिल है कि तुम जानवरों का शोषण करते हो, उनका दूध निकालते रहते हो, उनको बंधक बनाकर रखते हो — ये सब भी शामिल है।
इसमें ये भी शामिल है कि तुम जंगलों को काट रहे हो, जानवरों का निवास छीन रहे हो — ये भी शामिल है। और निश्चित रूप से इसमें ये तो शामिल है ही कि तुम मनुष्यों के साथ क्या कर रहे हो। हर प्रकार की हिंसा की बात कर रहा हूँ मैं — मनुष्य के प्रति, पर्यावरण के प्रति, जानवर के प्रति, स्वयं के प्रति। जितनी भी प्रकार की हिंसा करते हो, मैं कह रहा हूँ — तुमने जो भी हिंसा करी है, चाहे किसी के भी ख़िलाफ़ करी हो, अंततः अपने ही ख़िलाफ़ करी है। इसीलिए, स्वयं से मैत्री दिखाते हुए, हिंसा से बचो। दूसरे का ख़याल नहीं, अपना ही ख़याल कर लो।
प्रश्नकर्ता: फिर भी, जैसे जीसस या रामकृष्ण तो मछली खा लेते थे।
आचार्य प्रशांत: मैं उनके बारे में नहीं जानता। क्या करना है आपको इस बात से? हाँ, खा लेते थे, अब आप खाइए! खा लेते थे, सिद्ध हो गया कि खाते थे — तो?
प्रश्नकर्ता: फिर वो मनोदशा कैसी होती होगी?
आचार्य प्रशांत: नहीं, क्या करना क्या है आपको? अंततः प्रश्न ये है कि मुझे जीवन कैसा जीना है। सिद्ध हो गया कि खाते थे — अब आप खाइए। अगर आपको बात समझ में आई है तो भले ही ये सिद्ध हो जाए कि फ़लाने खाते थे, या वो खाते थे — आप खा लेंगे? आप बात नहीं समझ रहे हैं मेरी। जैसे मैंने कहा कि हो सकता है कल को बिल्कुल सिद्ध हो जाए कि माँसाहार स्वास्थ्य के लिए अच्छा है, शरीर के लिए अच्छा है — हो गया सिद्ध, तो आप खा लेंगे? बोलिए?
इसी तरह, कल को सिद्ध हो गया किसी प्रकार कि अतीत के कुछ हुए हैं बड़े लोग जो माँस खा लेते थे, तो आप माँस खाएँगे? उनका उदहारण सामने आ गया तो आपकी चेतना लुप्त हो जाएगी? आपके पास अपनी दृष्टि नहीं है? तो ये सवाल ही कहाँ से उठता है कि वो कैसे खा लेते थे? रही होगी कोई बात, हम क्या जानें? क्या स्थितियाँ थीं, क्या होता था, क्या नहीं होता था — रही होगी कोई बात। हमें ये पता है कि जीवन क्या है, हमें ये पता है कि मन क्या है, हमें ये पता है कि हम नहीं खा सकते। किसी ने खाया होगा — तो खाया होगा।
प्रश्नकर्ता: कुछ महीने पहले मैंने माँसाहार छोड़ दिया था, समझ में आ गया था कि एक तरह की हिंसा है। तो दोस्तों को कहा कि मैं नहीं खाता, तुम लोग खा लो। तो वो लोग कहते हैं कि “तुम पेड़-पौधों को भी तो काटकर खाते हो, वो भी तो हिंसा है।”
आचार्य प्रशांत: तो ठीक कहते हैं न। देखो, पेड़-पौधों में भी तमाम तरह के आयोजन हैं जिसमें तुम अहिंसक तरीक़े से खा सकते हो — न सिर्फ़ अहिंसक बल्कि प्रेमपूर्ण। तमाम शाक होते हैं, सब्ज़ियाँ होती हैं, जिनमें पौधे को मारने की कोई ज़रूरत नहीं होती है। बल्कि फलों के लिए तो अच्छा होता है अगर तुम फलों को खाओ। फल स्वयं चाहते हैं कि उन्हें खाया जाए। क्योंकि जब तुम एक फल खाते हो तो फल के भीतर के बीज तुम्हारे माध्यम से फैलते हैं। उससे वो पेड़ अलग-अलग जगह तक पहुँचता है। पेड़ के वंश का विस्तार होता है।
फल तुम नहीं भी खाओगे, तो उसे टपकना ही है। तुम नहीं खाओगे, फल वहीं पर गिरेगा। बीज उसी मिट्टी में चले जाएँगे और हमें पता है कि एक पेड़ के समीप, दूसरा पेड़ खड़ा नहीं हो सकता। तो फल तो स्वयं पेड़ की विधि होती है — अपना विस्तार करने की। बीज के इर्द-गिर्द पेड़ मीठा गूदा लगा देता है ताकि चिड़ियाँ आएँ आकर्षित होकर के, और मनुष्य आएँ आकर्षित होकर के। किससे आकर्षित होकर? मीठे गूदे से। और मीठे गूदे के साथ-साथ वो बीज को भी ले जाएँ और बीज का प्रसार कर दें।
तो ज़रूरी नहीं है कि तुम हत्या ही करो खाने के लिए। भिंडी देखी है? भिंडी के बीज देखे हैं? वो पचते नहीं हैं। कभी मल को ध्यान से देखना। तुम भिंडी खाते हो तो भिंडी उपकृत होती है। भिंडी भला मानती है कि तुमने भिंडी को खाया। अच्छी बात हुई। तुम तरबूज़ा खाते हो, तरबूज़े के लिए अच्छा है कि तुम उसे खाते हो। दूसरी बात ये है कि मन हिंसक है, मन के तौर-तरीक़े हिंसक हैं। अब अगर उसे अहिंसा की ओर बढ़ना है तो कहीं से तो शुरुआत करनी पड़ेगी न?
तुम गेहूँ खाते हो, और तुम माँस खाते हो, तुम्हें अगर शुरुआत करनी है — हिंसा का त्याग करने की, तो तुम इन दोनों में सर्वप्रथम किसका त्याग करोगे?
प्रश्नकर्ता: माँस का।
आचार्य प्रशांत: तो जो लोग ये तर्क देते हैं कि “देखो, हम माँस खाते हैं, तुम गेहूँ खाते हो — ये भी तो हिंसा है,” उनसे कहो कुतर्क है ये। हो सकता है कल को मैं हर प्रकार की हिंसा छोड़ दूँ। वनस्पति के प्रति भी जो हिंसा करता हूँ वो भी छोड़ दूँ, पर आज शुरुआत करने के लिए, मैं सबसे पहले तो वो हिंसा छोडूंगा न जो सबसे बड़ी है, सबसे प्रकट है?
कोई हत्यारा हो जो व्यक्तियों को मारता हो और कोई कसाई है जो जानवरों को मारता हो, इनमें से किसको अपराधी ठहराते हो? जो व्यक्तियों को मारता हो। तो शुरुआत के लिए तो जो हत्यारा है, तुम उसको ही कहोगे कि — "तू बदल जा और व्यक्तियों की हिंसा करना छोड़।" हिंसा कसाई भी कर रहा है, पर अगर तुम्हें इन दो में किसी पर ध्यान देना है तो किस पर ध्यान दोगे? जो व्यक्तियों की हिंसा करता है, उसी पर ध्यान दोगे न? फिर तुम आगे बढ़ोगे। तुम कहोगे — अब अगले चरण में जाते हैं। अब इस प्रकार की हिंसा भी छोड़ी, अब और जो सूक्ष्म हिंसा करते थे, वो सारी हिंसा भी त्यागी। अब और जो सूक्ष्मतम हिंसाएँ करते थे — उनको भी त्यागा। पर जो स्थूलतम हिंसा तुम करते हो, सबसे पहले तो उसका परित्याग करोगे। व्यक्तियों को मारना, व्यक्तियों के उपरांत पशुओं को मारना — ये स्थूल हिंसाएँ हैं। शुरुआत तो इन्हीं का त्याग करके होगी न?
तो उनसे कहो कि तुम बिल्कुल ठीक कह रहे हो, अगर मैं किसी पौधे की भी हत्या कर सकता हूँ तो हिंसा वो भी है। पर फिलहाल शुरू करने के लिए मैंने उस हिंसा को त्यागा है जो ज़्यादा स्थूल हिंसा थी। क्योंकि त्यागने में वही ज़्यादा आसान है। शुरू करने के लिए वही ज़्यादा आसान है। कल को बाकी और हिंसाएँ भी त्यागूँगा, लेकिन तुम जो कुतर्क दे रहे हो, उससे तुम कोई भी हिंसा नहीं त्याग पाओगे। मैंने पहला कदम तो बढ़ा दिया है न? कल दूसरा कदम भी बढ़ाऊँगा। आज माँस त्यागा है, कल दूध भी त्याग दूँगा, पर तुम जो कुतर्क दे रहे हो — तुम कुछ नहीं त्याग पाओगे, क्योंकि तुम्हारा मन घटिया तर्क देने में लगा हुआ है। तुम्हारी बात ठीक है — दूध भी हिंसा है। तुम्हारी बात ठीक है — गेहूँ और चावल भी हिंसा हैं। लेकिन मैंने कदम तो बढ़ाया न? तुम तो कदम भी नहीं बढ़ाना चाहते।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, और एक बात होती है, यदि मच्छर काट रहे हों तो हम मच्छर मार देते हैं, तो वो भी एक हिंसा है। वो ये बोलते हैं कि मच्छर को फिर क्यों मार रहे हो?
आचार्य प्रशांत: देखो, बात उनकी बिल्कुल ठीक है। तथ्य के तौर पर वो जो कह रहे हैं वो बिल्कुल ठीक है। तर्क बिल्कुल ठीक है। लेकिन ये तर्क घटिया मन से निकल रहा है। मच्छर को मारना हिंसा है, इसलिए भी कहा जा सकता है कि मच्छर को मत मारो। किसी के मन में गहरी करुणा आए तो कहेगा कि मच्छर को मारना हिंसा है। और कोई ये भी कह सकता है कि मच्छर को मारना हिंसा है, इसलिए हम बकरे को भी मारेंगे। इन दोनों दृष्टियों में अंतर समझ रहे हो?
जब बुद्ध कहते हैं कि मच्छर को मारना हिंसा है तो वो इसलिए कहते हैं ताकि तुम मच्छर को भी न मारो। और जब एक हिंसक मन कहता है कि मच्छर को मारना भी तो हिंसा है, तो वो इस नाते कहता है कि मच्छर को मारना और भेड़ को मारना एक ही बात है — तो मच्छर को मारते हैं तो हम भेड़ को भी मारेंगे। दोनो में अंतर समझ रहे हो? विपरीत बाते हैं।
बात उन्होंने बिल्कुल ठीक कही — मच्छर को मारना हिंसा है। और सही बात यही है कि जब मन शांत होता है तो मच्छर को भी बिना मारे चैन से सोने के तरीक़े निकल आते हैं। तुम कभी गौर करना, जब तुम झुंझलाए हुए होते हो, तब तुम मच्छर को कैसे मारते हो — कभी गौर किया है? इतनी जोर से मारते हो कि उसे तो क्या ही लगता होगा, तुम्हारा बाजा बज जाता है। कभी गौर करना। ये तुम्हारे भीतर की हिंसा है जो मच्छर के ऊपर निकलती है।
तुम बैठे हुए हो और तुम्हारे मेज पर चीटियाँ चल रही हैं, तुम अगर शांत हो तो तुम तरीक़ा निकाल लोगे उन्हें हटाने का; बिना उन्हें मारे। और अगर तुम खिसियाए और झुंझलाए हुए हो, तो तुम हाथ पटक दोगे उनके ऊपर और उनको मार डालोगे। तो वो ठीक कह रहे हैं कि मच्छर को मारना हिंसा है, लेकिन उनका तर्क घटिया मन से निकल रहा है। उन्हें मच्छर से या किसी से भी कोई प्रेम नहीं है। वो सिर्फ़ मच्छर का बहाना बना रहे हैं ताकि वो मच्छर के साथ-साथ औरों को भी मार सकें।