अपने गूंगे-बहरे भाई को मारना सेब खाने जैसा है (गज़ब तर्क!) || (2021)

Acharya Prashant

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अपने गूंगे-बहरे भाई को मारना सेब खाने जैसा है (गज़ब तर्क!) || (2021)

आचार्य प्रशांत: हमारा एक वीडियो है अंग्रेजी में जिसका शीर्षक है इफ किलिंग इस बैड व्हाई डस कार्निवोरस एसिस्ट? (यदि मारना बूरा है तो प्रकृति में माँसाहारी जानवर क्यों हैं?)

तो इसपर प्रश्नकर्ता ने सवाल भेजा है। कह रहे हैं कि, "मानों अगर आपके भाई को कोई मार दे जिन्हें कोई अपंगता थी जैसे गूंगा, बहरा होना या अंधा होना वगैरह तो क्या आप कहोगे कि ऐसे हत्यारे की सज़ा कम कर दी जाए या ऐसा होगा कि ऐसों को और ज़्यादा सजा दी जाए?"

तो ये जो इनका तर्क है ये कहना चाहते हैं कि जिनकी इन्द्रियाँ कम होती हैं उनको मारना तो और भी अमानवीय बात हो जाती है न। माने कि आप किसी गूंगे-बहरे लाचार आदमी को मार दो तो ये तो और भी अमानवीय बात है। तो ऐसे में और बड़ी सज़ा होनी चाहिए। तो ये कह रहे हैं कि, "आप ये क्यों बोलते हैं कि जो पेड़-पोधे हैं इनको खाना फिर भी ठीक है क्योंकि इनमें चेतना का स्तर कम है और जानवरों को मारना अपेक्षतया और ज़्यादा गलत है क्योंकि उनकी चेतना का स्तर ज़्यादा है?"

आमतौर पर शाकाहार के पक्ष में ये तर्क दिया जाता है कि जो शाक है, जो पौधे हैं, जो सब्जियाँ हैं इनके पास इन्द्रियाँ नहीं होती तो इनको खाया जा सकता है या इनको खाना कम बुरी बात है अपेक्षतया जानवरों को खाने से क्योंकि जानवरों के पास इन्द्रियाँ होती हैं। तो उस तर्क को काटने के लिए श्रीमान ज़ाकिर नायक हैं उन्होंने ये तर्क दिया था कि अगर आपका एक भाई हो जिसकी इन्द्रियाँ कम हों, माने गूंगा-बहरा हो तो उसको मारना तो और ज़्यादा बुरी बात हुई न। तो इस तरीके से पेड़-पौधों को खाना तो और ज़्यादा बुरी बात हुई क्योंकि उनकी भी इन्द्रियाँ नहीं हैं।

अब ये बहुत ही, क्या बोलूँ, मूर्खता भरा तर्क है। इसे तर्क बोलना भी नहीं चाहिए, तर्कशास्त्र अपमान मानेगा अगर इस तरह की बात को तर्क बोल दिया गया तो।

भाई जो गूंगा-बहरा व्यक्ति है उसकी स्थिति में ये शामिल है कि उसमें सुनने की, देखने की, बोलने की संभावना थी। वो संभावना साकार नहीं हो पाई इसीलिए उस व्यक्ति को सहारा चाहिए और उसको सहारा दिया भी जाएगा क्योंकि संभावना है उसमें। उसकी चेतना में संभावना है और बात देखो इंद्रियों की कम होती है चेतना की ज़्यादा होती है।

अगर इंद्रियाँ आपकी बनी भी रहें आँख भी है, कान भी है सब कुछ है और दिमाग ठप्प पड़ जाए तो आप किसी काम के बचे? आँखें देख रही हैं, कान सुन रहे हैं, ज़बान उपलब्ध है बोलने के लिए लेकिन मस्तिष्क काम नहीं कर रहा, बुद्धि एकदम शून्य हो गई है तो आप किस लायक बचे हो?

तो बात इंद्रियों की नहीं होती है, बात चेतना की होती है। अगर इंद्रियों के भी तल पर बात करो तो कोई मनुष्य है जो नहीं देख पा रहा तो भी उसके पास चेतना तो है न, उसकी चेतना में संभावना है न। उस चेतना का सम्मान करते हुए हम कहते हैं कि जिस जीव में, जिस भी जीव में ऊँची चेतना हो कोशिश करो कि उसे ना मारो। और इसीलिए हम इंसानों को मारकर नहीं खाते।

ये तो तुम कभी सोचते नहीं कि हम इंसानों को मारकर क्यों नहीं खाते। माँस तो उनका भी लज़ीज़ होता है। तुम कहोगे, "मारकर कैसे खाएँ, ये वो..." अच्छा तो मरा हुआ ही इंसान क्यों नहीं खा लेते, उसे कब्र में काहे को डालते हो? कब्र में भी डाल रहे हो तो अंदर कीड़े-मकोड़े तो उसे अंततः खा ही जाएँगे, कीड़े-मकोड़े को काहे खिला रहे हो?

तुम पर कोई इल्ज़ाम भी नहीं लगाएगा कि तुमने मारा, वो पहले ही मर गया, कुछ हुआ था उसको मर गया, खा क्यों नहीं जाते उसको? इसलिए नहीं खा जाते क्योंकि उसे खाना अपमान व्यक्त करना होगा इंसान की चेतना के प्रति।

माँस तो एक जैसा होता है सबका, माँस-माँस में क्या रखा है। अगर माँस की ही बात होती तो इंसान का माँस, बकरे का माँस — तुम कहते जैसे बकरा खाते हैं वैसे ही इंसान भी खा लेंगे। लेकिन बकरे और इंसान में एक मूलभूत अंतर है वो ये कि इंसान के पास एक चेतना है, वो हमारी मूल पहचान है और अपनी उस मूल पहचान को हम इज़्जत देना चाहते हैं, इसलिए हम इंसानों को नहीं मारते।

और कुछ इंसानों को हम मार भी देते हैं, फाँसी की सज़ा नहीं होती क्या? किनको होती है? जिनकी चेतना का स्तर एकदम गिर गया होता है। क्या हम उनको इसलिए मारते हैं क्योंकि इंद्रियाँ कम हो गई थीं? क्या हम उनको इसलिए मारते हैं क्योंकि हमें उनका माँस खाना है?

तो जो मारने के पीछे जो तर्क होता है, जो आधार होता है वो ये होता है कि इसकी चेतना, इसकी कॉन्शियसनेस , इसका माइंड एकदम गिरा हुआ है, इसको ख़त्म ही कर दो। इतना गिरा हुआ है कि इसके उठने की अब कोई संभावना ही नहीं है तो जाकर के उसको फाँसी वगैरह दी जाती है।

इसी तरीके से अगर कोई वेंटिलेटर पर होता है और दो महीने से वेंटिलेटर पर है, तो उसके शरीर के तो सारे अंग काम कर रहे हैं, कि नहीं कर रहे हैं? वेंटिलेटर पर जब तुम होते हो तो शरीर में तो सब कुछ काम कर रहा है, दिल धड़क रहा है, किडनी काम कर रही है बस क्या नहीं उठ पा रही? चेतना नहीं उठ पा रही, कॉन्शियसनेस लेवल नहीं है।

तो जैसे जेल में फैसला किया जाता है कि अब इसके उठने की भी कोई संभावना नहीं है अब इस व्यक्ति को फाँसी दे दो, वैसे ही अस्पताल में भी फैसला किया जाता है कि अब इस व्यक्ति की चेतना के उठने की भी कोई संभावना नहीं है इसको अब मरने दो, वेंटिलेटर हटा दिया जाता है तुम्हें मरने के लिए छोड़ दिया जाता है।

तो जो पैमाना है, जो आधार है कि कौन जियेगा और कौन मरेगा वो पैमाना क्या है? वो कॉन्शियसनेस है पैमाना और उस पैमाने पर मैं तुमसे बोलता हूँ कि जैसे इंसान को नहीं खाते वैसे ही जानवरों को भी बक़्श दो क्योंकि जानवरों से भी निचली कॉन्शियसनेस खाने के लिए उपलब्ध है। क्या उपलब्ध है? अरे, पेड़-पौधे, ये सब उपलब्ध हैं न।

हाँ, पेड़-पौधों को भी जब तुम मार रहे हो तो उसमें थोड़ी हिंसा ज़रूर हो रही है। और मैंने ये स्वीकारा है बहुत बार लेकिन उतनी हिंसा तुम रोक नहीं सकते क्योंकि तुम जीव पैदा हुए हो, पेट है तुम्हारे पास, उतनी हिंसा अनिवार्य है तुम्हारे जीने के लिए।

पेड़-पौधों में भी तुम कोशिश करो इस तरह खाने की कि जिसको तुम खा रहे हो उसका जीवन न चला जाए। उदाहरण के लिए फल जब तुम खाते हो तो फल का पेड़ मर नहीं जाता। तुम अगर फल नहीं खाते तो वो फल गिरा देता नीचे, तो फल खाने में हिंसा नहीं हुई और हुई भी तो बहुत कम हुई।

तुम तर्क दे दोगे, तुम कहोगे कि, "जब हम खाना खाते हैं या और जो भी बहुत सारी फसलें होती हैं, ज्वार हो गया, बाजरा हो गया, वो सब तो ख़त्म हो जाता है न।" बिलकुल हो जाता है, मान रहा हूँ और ये भी बिलकुल साफ मान रहा हूँ कि ये हिंसा है। हम जिसको खेती कहते हैं उसमें हिंसा निहित है और बिलकुल ऐसा एक दिन आना चाहिए जब इंसान को खाने के लिए पौधों को भी मारने की ज़रूरत ना पड़े। हमारे आहार में फलों का और सब्जियों का अनुपात बहुत बढ़ जाए। जैसे खेत होते हैं अभी वैसे बाग हुआ करें।

खेत की पहचान क्या होती है? फसल उगाई फसल काटी। बाग की ये पहचान नहीं होती कि फल लिया पेड़ काट दिया। ऐसा नहीं होता। तो बाग होंगे, बड़े-बड़े विशाल और विज्ञान के माध्यम से हमने ये साफ पता कर लिया होगा, सोच लिया होगा कि एक संतुलित आहार के लिए कौन-कौन से फल और सब्जियाँ हो तो मज़े में काम चल जाएगा। और वो सब हम खा रहे होंगे।

और फिर हमें उसमें पौधों की भी हत्या की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, जानवर तो छोड़ दो पौधों की भी हत्या की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन वो बहुत दूर की बात है और वो हो पाए इसलिए बहुत आवश्यक होगा कि पृथ्वी की आबादी आठ सौ करोड़ ना हो। आठ सौ करोड़ लोगों को खिलाने के लिए बाग नहीं है हमारे पास।

तो मुद्दे पर वापस आते हैं — कॉन्शियसनेस मुद्दा है। जब कहा जाता है कि जीवों पर दया करो तो वास्तव में कहा जा रहा है — चेतना की इज़्जत करो क्योंकि तुम्हारी अपनी भी पहचान चेतना है। बात एकदम तर्कयुक्त है। इसमें कोई ऐसा भावनात्मकता या भावुकता नहीं है, न ही इसका संबंध किसी विशेष धर्म, मजहब या समुदाय से है, ना।

बात का तर्क समझो — तुम्हारी अपनी पहचान क्या है? चेतना, जिस दिन तुम्हारी चेतना गिर जाती है उस दिन तुम्हें मरने के लिए छोड़ दिया जाता है, अस्पताल भी कह देता है, "हटाओ इसको। इसका हाथ-पाँव चल रहा है, इसकी साँसें चल रही हैं लेकिन इसके पास अब चेतना नहीं है इसको अब मरने दो।" तो हमारी पहचान क्या है जो हमें इंसान बनाती है, जो हमें जीवित घोषित करती है, वो क्या है? चेतना। तो इसलिए हमें चेतना की इज़्जत करनी होगी अगर हम अपनी इज़्जत करते हैं।

जब हम कहते हैं आत्म-सम्मान तो वास्तव में हम कह रहे हैं — चेतना का सम्मान। तो अगर तुम चेतना का सम्मान करते हो, अपना आत्म-सम्मान करते हो, तो चेतना जहाँ भी पाई जाएगी उसका सम्मान करोगे।

तो सामने बकरा खड़ा है और सामने सेब का पेड़ है इन दोनों में ऊँची चेतना कहाँ है बताओ? ज़्यादा ऊँची चेतना बकरे में है। इंसान जितनी ऊँची चेतना नहीं है बकरे में निश्चित रूप से, लेकिन सेब के फल से ज़्यादा ऊँची चेतना है बकरे की।

अगर अपना सम्मान करते हो, माने चेतना का सम्मान करते हो, तो वही चेतना एक छोटे स्तर में उस बकरे में भी है। सम्मान करो, मत काटो उसको।

बकरे को काट करके तुम अपना ही अपमान कर रहे हो, रोज़-रोज़ अपमान कर रहे हो। और जो अपना अपमान कर रहा है वो जिएगा कैसे? एक बहुत ही छोटी, बंधी हुई ज़िन्दगी जिएगा। चूँकि उसने चेतना का अपमान करा है इसीलिए उसकी अपनी चेतना कभी उठ नहीं पाएगी, वो कभी विचारक नहीं बन पाएगा, उसके जीवन में कभी गहराई नहीं आ पाएगी। ये सज़ा मिलती है उनको जो लगातार माँस खाते रहते हैं। क्योंकि माँस खाकर के तुम किसके प्रति अपमान दर्शा रहे हो? चेतना के लिए।

तो जिस चेतना का तुमने अपमान किया है वो तुम्हारे भीतर भी नहीं आएगी। तुम भी ऐसे ही मूर्ख की तरह घूमोगे इधर-उधर, व्यर्थ की बातें, व्यर्थ की धारणाएँ, व्यर्थ की मान्यताएँ, इधर-उधर के धारणाएँ यही लेकर के घूमोगे।

चेतना के ऊँचे तलों पर जो काम होते हैं सब, वो तुमसे हो नहीं पाएँगे। न विज्ञान में आगे बढ़ पाओगे, न विचार में आगे बढ़ पाओगे, न दर्शन में आगे बढ़ पाओगे। विचार संबंधित जितने भी क्षेत्र होते हैं जीवन के उनमें सब में फिसड्डी, पिछड़े हुए ही नज़र आओगे और आध्यात्मिक तो कभी हो ही नहीं पाओगे क्योंकि अध्यात्म का तो संबंध सीधे-सीधे चेतना को ऊँचाई देने से है। तुम चेतना की इज़्जत ही नहीं करते उसको ऊँचाई क्या दोगे।

तो ये जिन साहब की बात तुमने मुझे यहाँ पर लिखकर के भेज दी है ऐसे लोगों से ज़रा बचा करो, इन्हें कुछ आता-जाता नहीं। ये बस इधर-उधर का रट कर व्यर्थ की बातें बोलते हैं, तुम ताली बजा देते हो और तुम्हें लगता है इन्होंने कोई ऊँची बात बोल दी और उस बात में एक पैसे का दम नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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