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अपने बंधन तुम खुद हो || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
24 min
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प्रश्नकर्ता: सर, कहते हैं कि अस्वतंत्रता को जानना, स्वतंत्रता की तरफ पहला कदम होता है। लेकिन स्वतंत्र तो हम हो ही नहीं पा रहे। तो उस अस्वतंत्रता को जानने का फायदा क्या हुआ? बल्कि उससे तो पहले ही हम बढ़िया जी रहे थे। जानने के बाद हमारे मन में और हमारे जीवन में हलचल हुई, हमें गुस्सा आया कि हम ये कैसी ज़िंदगी जी रहे हैं। हमने दस बार हाथ पैर मारे कि हम अपनी ज़िंदगी से कुछ सीखेंगे, लेकिन हम कर ही नहीं पाए। उससे बढ़िया तो अस्वतंत्रता में ही जीना हुआ क्योंकि उसमें हम शांत थे, सामान्य जी रहे थे। हम थोड़ा असामान्य भी हो जाएँगे तो इसमें कुछ जानने का फ़ायदा क्या हुआ? उस वक़्त इस कदम का फ़ायदा क्या हुआ?

आचार्य प्रशांत: तुम इसमें एक चीज़ मानकर चल रहे हो कि तुम जो हो, वो बदल नहीं रहा है। तुम कह रहे हो कि, "हम पहले नहीं जानते थे कि हम बंधन में हैं, फिर हम जान गए कि हम बंधन में हैं।" और तुम कह रहे हो कि, "जान कर भी अगर परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हैं कि बंधन से मुक्त नहीं हो सकते तो जानने का फायदा क्या? उससे तो सिर्फ तनाव आता है, गुस्सा आता है, पता और चल जाता है कि मैं बंधन में हूँ।" इसमें तुमने एक बड़ी कल्पना कर ली है। एक बात मान रहे हो- वो ये है कि तुम कुछ हो। अपने शब्दों पर ध्यान दो कि ‘हम बंधन में हैं’। ‘हमने कुछ जान लिया, पर मुक्त नहीं हुए तो क्या हो गया?’ ये जो ‘हम’ है, ये क्या है? जब तुम कहते हो कि ‘मैं बंधन में हूँ’, ये जो ‘मैं’ है, ये क्या है? जब तुम कहते हो कि ‘मैं बंधन में हूँ’, तो ये कौन है जो बंधन में है?

प्र: सर, इस बात को मैं अपनी ज़िन्दगी से जोड़ना चाहूँगा।

आचार्य: आगे मत भागो। रूको! जो बात कही जा रही है उसको समझो, कहानियों का कोई अंत नहीं है। जो उसका मूल मुद्दा है उसको समझो। ये कौन है जिसको तुम कहते हो कि बंधन में है? जिसको स्वतंत्रता नहीं है, ये कौन है?

प्र: सर, हम हैं।

आचार्य: ‘हम’ माने क्या?

प्र: सर, अब अपने नाम को तो अपने नाम से ही तो सम्बोधित करेंगे।

आचार्य: कौन है वो? क्या तुम्हारा शरीर बंधन में है? क्या किसी ने बेड़ियाँ डाल रखी हैं?

प्र: सर, शरीर तो बंधन में है ही नहीं।

आचार्य: तो क्या सोच है जो बंधन में है? और तुम क्या हो, ये भी तुम्हारी अपनी एक सोच ही है, उसके अलावा और तो कुछ नहीं है। तुम क्या हो, ये भी तुम्हारी अपनी एक सोच ही है। ये कोई एक चीज़ नहीं है, जो स्थाई है, जो बदल नहीं रही है। जब तुम जान जाते हो कि ‘मेरी ये हालत है’, तुमने कहा कि तुम खुद भी अपनी एक सोच ही हो’। तुम क्या हो इस बारे में तुम सोचते ही हो, वो भी एक विचार ही है। जब तुम जान जाते हो कि, "अभी मेरी हालत खराब है", तो क्या तुम्हारी सोच वही रह गई जो पहले थी, या बदल गई? एक बार तुम जान गए कि स्थिति ऐसी-ऐसी है और ये सब चल रहा है, तो तुम अब वही हो जो जानने से पहले थे या अब बदल गए?

प्र: बदल गए।

आचार्य: बदल गए न क्योंकि तुम ख्याल ही तो हो न! बदलाव आ गया। ठीक है। बंधन में हो, ये तुम सोच रहे थे और बदलाव आ गया। सोच बदल गई, तो क्या अब बंधन बचा है? तुम सोचते थे कि, "मैं ये हूँ" और जो तुम अपने बारे में सोचते थे, बंधन वही था। तुमने एक बार जान लिया कि यही बंधन है, सोच बदल गई, तो बंधन अब बचा कहाँ? तुमने सवाल पूछा कि, "मैंने जान भी लिया कि मैं बंधन में हूँ, तो उससे फ़र्क़ क्या पड़ता है? बंधन तो अपनी जगह कायम है।" और मैंने कहा कि तुम एक कल्पना कर रहे हो कि तुम हो और बंधन तुमसे अलग है। और ये बड़ी ज़बरदस्त कल्पना है। तुम जो कहते हो कि ‘मैं हूँ’ जो बंधन में है। तुम नहीं बंधन में हो, तुम ही बंधन हो। तुम्हारी अपने बारे में जो सोच है, वही बंधी हुई है और उसी का नाम बंधन है। अगर वो सोच बदल गई, तो अब बंधन बचा कहाँ? अब बंधन नहीं बचा। तो जानना ही अपने आप में काफी है और पूरा बदलाव है। पर तुम्हारा ही नहीं, हम सबका दावा यही रहता है कि जान तो लिया पर कुछ हो नहीं रहा। हमने जाना ही नहीं है। तुमने जाना ही नहीं है और तुम जान इसी कारण नहीं पाए हो क्योंकि तुम्हारा पूरा ध्यान ‘होने’ पर है। तुम्हारा पूरा ध्यान इस बात पर है कि ‘कुछ हो’। और क्या हो? ध्यान देना कि तुम क्या चाहते हो, कि क्या हो। तुम कहते हो कि वो हो जो मुझे अच्छा लगे, जो मुझे मुक्त कर दे। तुम क्या हो? तुम खुद बंधे हुए हो अपनी सोच से और तुम कह रहे हो कि, "मुझे कुछ ऐसा मिल जाए जो मुक्ति है।" बंधन मुक्ति चाह रहा है। बंधन कभी मुक्ति चाह सकता है? बंधन को अगर मुक्ति मिल जाए, तो बंधन को मरना पड़ेगा। तुम जो हो, वो रहते हुए तुम्हें कभी मुक्ति नहीं मिल सकती क्योंकि तुम खुद ही बंधन हो। तुम अपने बारे में जो कुछ सोचते हो, तुम खुद ही तो बंधन हो। बंधन तुम पर कोई बाहरी चीज़ नहीं है जो डाल दिया गया है। तुम्हारी खुद के बारे में धारणा, ‘ सेल्फ-कॉंन्सेप्ट ’ ही तुम्हारा बंधन है। पर तुम कहते हो कि ये ऐसी ही बनी रहे। "मैं वही रहूँ जो मैं हूँ और मुक्ति भी मिल जाए।" ये वैसी ही बात है कि अंधेरा कायम रहे और रौशनी भी हो जाए। ये वैसी ही बात है कि एक कमरे में अंधेरा हो और वो इच्छा कर रहा है कि मैं तो बचा रहूँ और साथ में रौशनी भी हो जाए। वैसे ही तुम्हारी भी इच्छा रहती है कि, "सर मुझे मुक्ति क्यों नहीं मिल रही है?" तुम खुद बंधन हो, तुम्हें मुक्ति कैसे मिल सकती है? तुम क्या हो? तुम अपने बारे में अपना विचार हो। वो बदल गया, मुक्ति मिल गई और कुछ नहीं बदलना है। पर वो तुम्हें मिलेगी नहीं क्योंकि तुमने ठान रखा है कि मैं सत्रों (अद्वैत बोध सत्र) में ना आऊँ, मैं कहीं भी जाऊँ, मैं कुछ भी करूँ, कैसा भी हो जाए, मैं पा तो लूँ, पर मैं बदलूँ नहीं। मुझे कुछ मिल जाए, संग्रह हो जाए, पर मैं बदलूँ नहीं। ये वैसी सी ही बात है कि कैंसर का एक मरीज़ डॉक्टर के पास जाए और कहे कि, "आपको मुझे जो देना है दे दो, बस मुझसे कैंसर मत छीनना। आप मुझे सारी दवाइयाँ दे दो पर मुझसे कैंसर मत छीनना।" ऐसी तुम्हारी हालत है। तुम कहते हो कि, "मैं नहीं बदलूँगा बाकी मुझे बहुत सारा ज्ञान दे दो, बहुत सारी बातें समझा दो पर मैं बदलूँगा नहीं।"

तुम कहते हो कि, "मुझे मुक्ति दे दो, पर मैं बदलूँगा नहीं।" तुम क्या हो? तुम बंधन हो। तो तुम्हें मुक्ति मिल सकती है, पर तुम्हारी इच्छा ऐसी ही है कि, "कोई मुझे मुक्ति दे दो, पर मैं बदलूँ नहीं।" ये तो तुमने बड़ी असम्भव माँग रखी हुई है। ये तुम्हारे काम नहीं आएगी। जब तुम्हारे काम नहीं आएगी, तो तब तुम ये नहीं कहोगे कि, "मैं ये सब अपनी नासमझी के कारण भुगत रहा हूँ", तब तुम कहोगे, "मैंने इतने दिनों तक ये सब बातें सुनी, इन सब सत्रों में बैठा पर मुझे कुछ नहीं मिला।" तुम कहोगे कि, "तीन साल हो गए पर मुझे कुछ मिला नहीं।" तुम्हें कुछ कैसे मिल सकता है जब तक तुम कायम हो? तो तुम्हें फ़ायदा कैसे हो सकता है? बात समझ आ रही है? क्योंकि ये जो ‘मैं’ है, यही तुम्हारी बीमारी है। जिसको तुम ‘मैं’ कहते हो, यही तो तुम्हारी बीमारी है। तुमने चाह भी कैसे लिया कि, "मुझे मुक्ति मिल जाए"? इस ‘मुझे’ को तो कभी मुक्ति मिल ही नहीं सकती। क्योंकि ये जो ‘मैं’ है, ये जो ‘मुझे’ है, ये खुद ही बंधनों की पूरी गाँठ है। तुम इसको तो बदलना ही नहीं चाहते क्योंकि इसको बदलने से तुम्हें डर लगता है। इसी के साथ तुमने अपनी पूरी पहचान कर रखी है। ये बदले तो तुम्हें बड़ा गहरा डर लगता है। तुम्हें ऐसा डर लगता है जैसे तुम मर ही जाओगे, गायब ही हो जाओगे। और ये लाज़मी है क्योंकि इस ‘मैं’ से ही तो तुमने अपना सब कुछ जोड़ रखा है। तुम कहते हो यही तो ‘मैं हूँ’, ये बदल गया तो ‘मैं’ बचा कहाँ। तुम इस बात को ठीक से नहीं देख पा रहे कि ये जो ‘मैं’ है, ये जो तुमने अपने बारे में पूरा ख्याल बना रखा है, इसी का नाम तो बंधन है, इसी का नाम तो बीमारी है, यही तो तुम्हारे ऊपर बोझ की तरह है।

एक आदमी ने बहुत सारा बोझ उठा रखा है और वो आए और कहे कि, "मुझे कुछ ऐसा दे दो कि ये बोझ कम हो जाए।" वो क्या करेगा? वो अपना बोझ कम कर रहा है, या और बढ़ा रहा है? वही तुम्हारी हालत है। तुम मेरे पास आते हो, कहते हो कि, "मुझे कुछ और दे दो कि ये बोझ कम हो जाए।" अभी भी मुझसे से बात कर रहे हो, तुममें से ज़्यादातर लोग कुछ ले कर जाएँगे। यही तुमने सीखा है कि सबसे कुछ लेना होता है। पर जो भी तुम लोगे उससे तुम्हारा बोझ बढ़ेगा ही। तुमसे अगर दो साल से मिल रहा हूँ तो लगातार यही कह रहा हूँ कि कुछ लो मत, पहले जो उठा रखा है उसको छोड़ दो। सारी प्रक्रिया कुछ और पाने की नहीं है। जो बोझ पहले ही बैठा है उससे मुक्त हो जाने की है। पर तुम्हारी कोशिश ये है कि ये बोझ तो ऐसे ही बना रहे जैसा ये है, तुम कुछ और दे दो। नतीजा यह है दिन-पर-दिन तुम हल्के होने की जगह और भारी होते जा रहे हो। और फिर तुम्हें चिढ़ उठती है। तुम कहते हो कि, "फ़ायदा क्या हुआ? हम हल्के होने की जगह और भारी होते जा रहे हैं।" पर तुम अपनी करतूत तो देखो कि तुम कर क्या रहे हो। तुम कहते हो कि, "इस बोझ के साथ तो मैं गहराई से जुड़ा हुआ हूँ, इसको मैं हल्का कैसे करूँगा।" तुम पक्का करके आते हो कि, "‘मैं’ जो हूँ, ‘मैं’ बदलूँगा नहीं, कुछ और मुझे दे दो।" जो भी तुम्हें मिलता जा रहा है, तुम उसे अपने बोझ में जोड़ते जा रहे हो और बोझ लगातार बढ़ता ही चला जा रहा है। तुम जा कर कोई और सत्र अटेंड करो, इलेक्ट्रिकल का, फिजिक्स का, वहाँ पर तुम कुछ इकट्ठा कर सकते हो। पता चलेगा कि जब तुम कमरे में घुसे थे और जब बाहर निकले, इस दौरान तुमने कुछ इकट्ठा कर लिया। वो बात वहाँ चलेगी। यहाँ पर तुम इकट्ठा करोगे तो बड़ी नासमझी कर रहे हो। यहाँ तुम्हें इकट्ठा नहीं करना है, यहाँ तुमने जो कुछ इकट्ठा कर रखा है, उसको छोड़ना है। तुम बड़ी नाजायज़ माँग करते रहते हो। तुम कहते हो कि, "बोझ छोड़ना नहीं है, हल्का नहीं करना है। बेड़ियाँ तोड़नी नहीं हैं फिर भी मुक्त होना है।" और जब माँग पूरी नहीं होती, तब भी इतनी ईमानदारी नहीं कि अपनी ओर देखो और कहो कि, "कुछ भी होगा कैसे? बोझ को तो मैंने खुद दोनों हाथों से जकड़ रखा है, मैं हल्का हो कैसे जाऊँगा?"

मैं किस बोझ की बात कर रहा हूँ? ये क्या बोझ है जो तुमने पकड़ रखा है, जिसको तुम बंधन कहते हो? ये कौन सा बोझ है? ये क्या है? क्या है तुम्हारा बंधन? जो तुमने अपने आप को बोल रखा है कि – ये सब ‘मैं’ हूँ। तुमने अपने आप को बोल रखा है कि मुझे ये ज़िम्मेदारी निभानी ही निभानी है। और तुमने पक्का कर रखा है कि इस चीज़ को तो नहीं छोड़ूँगा। बोझ है वो सब कुछ जो तुमने दुनिया के बारे में मान ही रखा है। अभी मैं तुमसे कहूँ कि क्या ‘ करियर ’ शब्द को जानते हो? तुम कहोगे कि, "हाँ! बिलकुल पता है।" मैं कहूँ कि ‘पैसे’ शब्द का अर्थ जानते हो? तुम कहोगे, "बिलकुल पता है।" ‘पैसे कमाने’ का अर्थ जानते हो? "पता है।" प्रेम? "बिलकुल पता है।" शादी? "बिलकुल पता है।" ईश्वर? "बिलकुल पता है।" परिवार? "बिलकुल पता है।"

यही बोझ है – जो तुम्हें कुछ पता नहीं है पर तुमने अपने आप को सौ बातें बोल रखी हैं कि, "मुझे पता हैं।" उनसे तुम भरे हुए हो, उनसे तुम पूरे तरीके से भरे हुए हो – वही बंधन है। उसको तुम छोड़ना नहीं चाहते। ये ऐसी ही बात है कि तुमने पहले से ही तय कर रखा है कि मुझे करना क्या है। घर परिवार ने तुमको बता रखा है; टी.वी., मीडिया, अखबार ने तुमको बता रखा है; इन सब ने तुम्हें बता रखा है कि नाक की सीध में चलते चले जाओ। अब तुम तय करके आए हो कि, "ये तो मानना-ही-मानना है, इस चीज़ से पीछे नहीं हटूँगा।" अब कोई आता है और ये कहता है कि नाक की सीध में कुछ नहीं है, बस तुम्हारी बर्बादी है। तुम कहते हो कि, "नाक की सीध में तो जाना है पर कुछ ऐसा बताइए कि बर्बादी भी ना हो।" तुमसे कहा जा रहा है कि सिर्फ एक तरीका है कि नाक की सीध में जाना बंद करो, थोड़ा सर घुमाओ, पूरी दुनिया को देखो; तुम कहते हो कि, "ये तो नहीं कर सकते।" तुम कहते हो, "ये तो पक्का है कि चलना हमें सीधा ही है। क्योंकि ये हमें हमारे इतिहास ने बता रखा है कि यही करो, तो वो तो हम करेंगे ही करेंगे। आप कुछ और भी बता दो जिससे हमारा फ़ायदा हो जाए।"

तुम्हारा फ़ायदा कैसे हो जाए? तुमने जब पहले से ही एक मान्यता बाँध ही रखी है और तुम उस पर अडिग हो कि, "सीधे तो मुझे चलते ही जाना है, वो नहीं बदलेगा, वही ‘मैं’ हूँ", वही तुम्हारा ‘मैं’ है। तुम्हारा बंधन यही है कि, "सीधे तो मुझे चलते ही जाना है, उसके अलावा कुछ और दे दो।" अरे जब तुम्हें सीधे चलते ही जाना है तो फिर तुम्हें और दे कर तुम्हारा कुछ और भी फ़ायदा हो सकता है क्या? तुम चाहते क्या हो? तुम चाह रहे हो कि, "सीधे हम जा रहे हैं एक गति से, तो हमें कुछ ऐसा दे दो कि हमारी गति भी दुगनी हो जाए।" और तुम बहुत खुश होते हो जब हम तुम्हें कुछ ऐसी चीज़ दे दें। तुम जा रहे हो आत्महत्या के रास्ते पर, और तुम कह रहे हो कि, "हमें कुछ ऐसा दे दो कि रास्ता साफ़ हो जाए। जूते अच्छे मिल जाएँ ताकि गति बढ़ जाए।" हम तुम्हारे दुश्मन हैं क्या कि हम तुम्हें कुछ ऐसा दे दें? पर माँग तुम्हारी पूरी यही है। "हमें कुछ ऐसा दे दो कि हम जो चाहते हैं वो जल्दी से हो सके।" तुम चाहते हो आत्महत्या, वही तुम्हारा बंधन है। उसको छोड़ने को तैयार तो होओ। जिस बात से तुम भरे हुए हो, उस बात से पहले खाली तो होओ। तुमसे कहा जाए कि, "तुम क्यों सीधे लगातार जाना चाहते हो?" तुम जानते हो कि तुम क्या उत्तर देते हो? तुम कहते हो, "‘मैं’ वो हूँ जो सीधे चलता है।" ये तुम्हारी अपनी परिभाषा है। तुम कहते हो कि, "अगर मैंने सीधे चलना छोड़ दिया, तो ‘मैं’ ‘मैं’ ही नहीं रहूँगा। क्योंकि ‘मैं’ हूँ कौन? वो जो सीधे चलता है। तो ये तो मैं नहीं बदलने दूँगा। कुछ और बता दो। कैंसर मैं ठीक नहीं होने दूँगा, कुछ और बता दो।" तुम्हें बहुत अच्छा लगे वैसे-वैसे ही बात है कि तुम आओ कि कैंसर का इलाज कराना है, और मैं तुमसे कहूँ कि तुम एक काम करो, सारे बाल साफ़ कर लो। तुम कहोगे, "बहुत बढ़िया, ये अच्छी चीज़ पता चली।" मैं कहूँ कि, "जाओ और दो किलोमीटर दौड़ लगाकर कर आ जाओ।" "अरे बहुत अच्छा मिला। सब कुछ कर लो; हमसे नचवा लो, गवा लो, दौड़ लगवालो, गंजा कर दो, बस एक काम मत करना कि कैंसर छोड़ो। वो हम नहीं छोड़ सकते क्योंकि ‘मैं कौन हूँ’ कि मेरी अपनी परिभाषा क्या है? मैं कौन? जिसे कैंसर है। वो मैं नहीं छोड़ सकता। इस ‘मैं’ को मैं नहीं त्याग सकता बाकी मुझसे जो कराना है करा लो। हर नाच नाचने को तैयार पर कैंसर नहीं छोड़ूँगा।" बात कुछ समझ में आ रही है?

तुम यहाँ कुछ पाने नहीं आ सकते। तुम ये नहीं कह सकते कि, "मैं तो वही रहूँगा जो मैं हूँ पर यहाँ से जब निकलूँगा तो कुछ पा कर निकलूँगा।" तुम यहाँ सिर्फ छोड़ने आ सकते हो, पाने नहीं। इसी छोड़ने का नाम मुक्ति है, इसी छोड़ने का नाम स्वतंत्रता है। जो छोड़ने को तैयार नहीं है, उसको यहाँ क्या लाभ हो जाना है?

छोड़ने में डर लगेगा क्योंकि छोड़ने में असुरक्षा है। छोड़ने में आदत टूटती है, तो डर लगता है। छोड़ने का अर्थ है कि, "अभी तक जैसा मैं रहा हूँ, जिस तरीके से जीता रहा हूँ उस ढर्रे को छोड़ दूँ।" वो करने में तो डर लगता ही है। पर अगर उस डर का सामना नहीं कर रहे, उस डर को अगर समझ नहीं रहे, तो वैसे भी तुम्हें क्या लाभ हो जाना है?

प्र: लेकिन छोड़ने में नुकसान कितना है।

आचार्य: कैंसर को कैंसर छोड़ने में क्या दिखेगा? उसे तो नुकसान ही दिखेगा क्योंकि कैंसर का अगर कैंसर छूट गया, तो कैंसर मर गया। चोर का जो मन है जो पूरी तरह से संस्कारित है चोरी के लिए, उसे चोरी छोड़ने में क्या दिखेगा, फ़ायदा या नुकसान? तो तुम्हें तो नुकसान ही दिखेगा। पर वो नुकसान भी तो देख लो जो लगातार तुम्हें हो ही रहा है। तुम्हें ये तो कल्पना आती है कि छोड़ दिया तो नुकसान होगा, जो काल्पनिक बात है। होगा कि नहीं होगा, पता नहीं और अगर होगा, तो उसे नुकसान कहा जा सकता है या सच में फ़ायदा है, ये भी पता नहीं है। पर अभी जो तुम्हें हो रहा है, वो तुम्हें अभी नहीं दिखता।

अभी तुम्हारी ज़िंदगी कैसी है, ये तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती। तुमसे सीधा बैठा नहीं जाता, तुमसे दो मिनट को बात सुनी नहीं जाती, ध्यान तुम्हारा लगातार इधर-उधर होता रहता है, इतनी उम्र में आकर भी परिपक्वता तुम्हें छू तक नहीं गई है, जवान हो पर मन विकसित नहीं हो पाया है। बच्चे जैसा ही रह गए सिकुड़ कर, सहम कर। ये नुकसान तुमको नहीं दिख रहा है कि इस रास्ते पर चल कर मैंने कितना नुकसान अपना कर लिया है। जो नुकसान सामने है, प्रत्यक्ष है, वो नहीं दिख रहा? तुम किसी और नुकसान की कल्पना करोगे कि कोई और नुकसान हो जाएगा। इतना भयानक नुकसान हो रहा है, जीवन ही खराब हो रहा है, वो नहीं दिखता? आँख खोलो और देखो कि जिस तरीके से चल रहे हो उसमें लगातार नुकसान कितना कर रहे हो अपना। दिन-पर-दिन कितना नुकसान करते जा रहे हो। किसी काल्पनिक नुकसान की सोच में मत पड़े रहो। थोड़ा सा आँख खोल कर के ध्यान से देख लिया करो कि सुबह-शाम क्या कर रहे हो। इसे देख लिया करो और पूछा करो अपने आप से कि, "क्या ज़िंदगी ऐसी ही होनी चाहिए? ऐसी ही हो सकती है? कुछ और नहीं हो सकती थी? क्या मैं वास्तव में वही हूँ जिसने अपनी पूरी संभावना को पा लिया है? पूरी भी छोड़ो, जिसने थोड़ा भी अपने आप को खेलने दिया है?" फिर आग लगेगी, फिर पता चलेगा कि कितने नुकसान में जी रहे हो। अभी तो तुम देखते भी नहीं हो कि इन रास्तों में कितनी बर्बादी है। तुम कहते हो कि, "सब चल रहे हैं इसी पर, मुझे भी चलने दो। सब बर्बाद हो रहे हैं, तो बर्बाद होना सामान्य है। जब सामान्य काम ही यही है कि सब बर्बाद हो रहे हैं, तो मुझे भी हो जाने दो। क्या फ़र्क़ पड़ गया? घर-द्वार, दोस्त-यार, सब ऐसे ही तो रह रहे हैं। तो मैं भी अगर वैसा हो जाता हूँ तो क्या बुराई हो गई?" वो एक पीड़ा तुमको उठती ही नहीं कि, "मेरा एक जीवन है और इसके साथ मैं ये क्या कर रहा हूँ? मैं इसको त्याग कर क्या पा सकता हूँ? जब जीवन एक ही है, तो उसकी आहुति चढ़ा कर मुझे बदले में क्या मिल सकता है? और अगर मैं ये सौदा करता हूँ कि अपने को दे दिया, अपनी स्वतंत्रता को दे दिया तो बदले में मुझे जो भी मिलेगा वो नुकसान का ही सौदा होना है।" जैसे आप एक हीरा दे कर दो-चार रुपया ले लो किसी से, वही तुम कर रहे हो। अपने आप को बेच कर कुछ छोटी-मोटी सुख-सुविधाएँ ले लेते हो, कि कोई हमें थोड़े बहुत पैसे दे दे, कि कोई हमें रहने को घर दे दे, हमें थोड़ी सहूलियत मिल जाए, हमारी थोड़ी बहुत इज़्ज़त बची रहे।

इन बातों के लिए तुमने उस चीज़ को बेच रखा है जो असली है। ये नुकसान तुम्हें नहीं दिख रहा, ये अरबों का नुकसान है, कोई कीमत ही नहीं रखी, इतना बड़ा नुकसान है ये। और तुम कल्पना करते हो कि आगे नुकसान हो जाएगा। जैसे कोई भिखारी कल्पना करे कि, "मेरा कुछ लुट ना जाए।" कोई भिखारी तुम्हें मिले और बड़ा परेशान है, इधर-उधर भाग रहा है। पूछो कि, "क्या हुआ?" बोल रहा है कि, "मुझे डर है कि मेरा सब कुछ लुट जाएगा।" अरे तेरे पास है क्या? तेरे पास बचा क्या है लुटने के लिए? कल्पनाएँ हैं बस भिखारी के पास कि, "मेरे पास सब कुछ है।" तेरे पास क्या है? आँखें खोल और देख कि जो कुछ था वो तो तूने पहले ही छोड़ दिया, वो तो तू पहले ही बेच चुका है। अब तेरे पास बचा क्या है जो लुटेगा? पर इस डर में रह कर भिखारी को बड़ा आनंद आता है। भिखारी खूब डरेगा कि, "कहीं मैं लुट ना जाऊँ, कि मेरा कोई नुकसान ना हो जाए।" इससे उसको ये लगने लगता है कि, "शायद मेरे पास कुछ है ही।" डर-डर कर वो अपने को एहसास दिलाता है कि, "मेरे पास कुछ होगा ज़रूर वरना मुझे डर क्यों लगता?"

एक बाप था। उसने अपने बेटे को बोल रखा था कि वहाँ तिजोरी में तीन सोने की ईंटे रखी हैं। बड़ी ठोस ईंटें हैं और बड़ी कीमती हैं। तिजोरी को ताला मार कर रखा हुआ था। बच्चा जबसे छोटा था तब से उसे यही घुट्टी पिलाई जा रही है कि वहाँ बड़ी कीमती चीज़ें रखी हैं। बच्चा कहे, ‘बढ़िया पिताजी’ और रात भर दोनों बाप-बेटे जगें और तिजोरी की हिफाज़त करें कि इसमें सोने की ईंटें रखी हुई हैं। इस जागने के कारण दोनों में आपस में बड़ा आकर्षण रहे क्योंकि दोनों को एक साझा दुश्मन मिल गया था, कि कोई चोर आकर चोरी ना कर पाए। जब दो लोगों को एक समान दुश्मन मिल जाता है, तो बड़ी दोस्ती हो जाती है। वो तेरा भी दुश्मन है और मेरा भी दुश्मन है, तो हम दोनों दोस्त। बाप-बेटे का बंधन इसी बात पर आधारित था कि तू भी डरा हुआ है और मैं भी डरा हुआ हूँ। दोनों डरे हुए हैं कि कहीं इस सोने की चोरी ना हो जाए और दोनों बहुत खुश हैं। बेटा भी बड़ा खुश है कि, "मैं तो बड़ा अमीर हूँ।" तीस साल तक यही चलता रहा और एक दिन बाप मर गया। जब बाप मरा, तो तिजोरी खोली गई। उसमें से निकली तीन पत्थर वाली ईंटें। बेटा बड़ा परेशान हुआ, माँ के पास गया। बोला कि, "बाप ने ज़िंदगी भर धोखा दिया। बोला कि हमारे पास कोई कीमती चीज़ है। हमारे पास कोई कीमती चीज़ है ही नहीं, और माँ मुझे और तुम्हें दोनों को धोखा दिया।" माँ बोली कि, "मुझे कोई धोखा नहीं दिया, मैं जानती थी।" बोला कि, "माँ बताया क्यों नहीं?" माँ बोली कि, "तीस साल अमीरी में कटे या नहीं कटे? तीस साल तू ये सोचता रहा कि मैं कितना अमीर हूँ। तो और क्या चाहिए? ख्याल काफी है। कल्पना ही तो करनी है कि बहुत कुछ है। कल्पना होती रही और फिर इसी बहाने तू अपने बाप की कितनी इज़्ज़त करता था कि मेरा बाप बड़ा अमीर है। बाप बता देता कि कुछ नहीं है, तो तू इज़्ज़त करता क्या? बल्कि बाप-बेटे का रिश्ता ही टूट जाता कि ये नकली है, खाली है।" माँ ने कहा कि, "तुझे आगे के लिए एक सीख देती हूँ, तेरा भी बेटा हो गया है। ये तिजोरी बंद कर दे, कभी खोलना मत। और उसको बता दे कि तीन सोने की ईंटे रखी हुई हैं।" माँ बोली कि, "ये सोने की ईंटें आज की नहीं हैं, ये परम्परा से चली आ रही हैं। और भूल कर भी कभी ये राज़ खोल मत देना कि ये ईंटें नकली हैं, नहीं तो सारे रिश्ते टूट जाएँगे।"

ऐसे ही हमारे रिश्ते, इन्हीं बातों पर आधारित हैं। जिस तिजोरी को मान कर बैठे हो कि इसमें बहुत कुछ है, कभी उसको खोलकर भी तो देखो। जिन बातों की तुम कल्पना करके बैठे हो, जिन बातों की तरफ तुम्हें लगातार धकेला जा रहा है, कभी जाकर जाँच-परख कर भी तो देखो कि सच क्या है। तुम्हें लगातार बोला जा रहा है कि ऐसा-ऐसा भविष्य बना लो। इस तरह की नौकरी कर लो, फिर ऐसे शादी कर लो। अरे, ज़रा इन बातों के करीब जाओ और फिर देखो कि उनमें कितना सच है और कितना झूठ है। अपने आसपास जिन लोगों को देखते हो, जिन रिश्तों को देखते हो, उन रिश्तों को भी ध्यान से देखो कि इनमें कितना सच है और कितना झूठ है। और अगर ये झूठे हैं, तो मुझे क्यों दिन रात प्रेरित किया जा रहा है कि तुम भी ऐसे रिश्ते बनाओ? पर झूठी ईंटों की परम्परा बड़ी ज़बरदस्त है। बाप-बेटे को लगातार बोलता रहा कि, "बेटा सो मत जाना, वरना बड़ा नुकसान हो जाएगा", जैसे तुम पूछ रहे हो कि, "अगर नुकसान हो गया तो!" अरे, है क्या तुम्हारे पास खोने के लिए? बंधन ही हैं। खो दो उनको, अच्छा है तुम्हारे लिए।

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