प्रश्नकर्ता: दत्तात्रेय सेड टु परशुराम, ‘लिसन, ओ भार्गवा, आइ शैल नाउ कंटिन्यू द होली नैरेटिव।‘
हैविंग हर्ड व्हॉट शी (प्रिन्सेस हेमलेखा) हैड टु से, द एंजॉयमेंट्स सीज़्ड टु इंटरेस्ट हिम (प्रिन्स हेमचूड़ा), ही डेवलप्ड अ डिसगस्ट फ़ॉर देम, एंड बिकेम पेन्सिव। बट द फ़ोर्स ऑफ़ हैबिट स्टिल रिमेन्ड विथ हिम। ही वॉज़ देयरफ़ोर अनेबल इदर टु एन्जॉय हिम्सेल्फ़ ऑर टु डिज़िस्ट ऑल ऑफ़ अ सडेन। ही वॉज़ हाउएवर टू प्राउड टु कन्फ़ेस हिज़ वीकनेस टु हिज़ बी-लवेड। त्रिपुरा रहस्य (चैप्टर फ़ाइव, वर्स 5,6,7 एंड 8)
(दत्तात्रेय ने परशुराम से कहा, “सुनो हे भार्गव! मैं अब ये पवित्र कथा आगे सुनाता हूँ।”
राजकुमारी हेमलेखा जो कहना चाहती थी, उसे सुनने के बाद भोग-विलास में राजकुमार हेमचूड़ा की रुचि कम हो गयी, उसके मन में उन चीज़ों के प्रति घृणा उत्पन्न हो गयी और वह उदासीन व चिन्ताग्रस्त हो गया। लेकिन आदत का ज़ोर अब भी उस पर क़ायम था, इसलिए वह न तो पूर्णतया भोग-विलास का सुख ले पा रहा था, और न ही अचानक से ये सबकुछ त्यागकर विरक्त हो पा रहा था। हालाँकि, वह अपनी प्रेमिका के सामने अपनी कमज़ोरी क़ुबूल करने में बहुत गर्व महसूस कर रहा था।) त्रिपुरा रहस्य (अध्याय ५, श्लोक ५, ६, ७ और ८)
तो आचार्य जी, ये 'टू प्राउड' क्यों लिखा गया है?
आचार्य प्रशांत: हम ऐसे ही तो होते हैं, हम कहाँ मानते हैं कि हालत ख़राब है हमारी। अध्यात्म की तो शुरुआत ही उस दिन से होती है जिस दिन तुम चैतन्य रूप से ये स्वीकार कर लो कि तुम्हारी हालत ख़स्ता है। पर अगर मान लिया कि हालत ख़स्ता है हमारी, तो ये भी मानना पड़ेगा कि जीवन भर जो श्रम का, समय का निवेश किया, वो निवेश व्यर्थ गया। और ये बात दिल तोड़ देती है न!
चालीस साल जिस ज़िन्दगी में लगाये थे, अचानक पता चला कि वो ज़िन्दगी बर्बाद है! तो ये बात हम मानना नहीं चाहते। लेकिन तुम ये मानोगे नहीं तो जैसे चालीस साल लगाये हैं, वैसे ही चालीस साल और भी लगाओगे। अभी तो चालीस डूबे हैं, फिर अस्सी डुबाओगे!
तो तुम्हें तो अगर अपने आख़िरी दिन भी एहसास हो जाए कि जीवन ग़लत बिताया, तो आख़िरी दिन भी तुम स्वीकार कर लो कि ग़लत बिताया। क्या पता आख़िरी दिन ही तर जाओ! जब तक जी रहे हो, एक साँस भी है, अवसर है।
प्र: लेकिन हमारी कुछ मौलिक आवश्यकताएँ होती हैं, जैसे – खाना-पीना, रहना, शारीरिक ज़रूरतें इत्यादि। मैं मानती हूँ कि हमें ज़्यादा भोग-विलास की सामग्री और राजसी ठाट-बाट जुटाने में नहीं उलझना चाहिए, केवल भरण-पोषण हो जाए, इतना काफ़ी है। हमें संसार समझ नहीं आता, लोगों के दाँव-पेंच समझ नहीं आते, हमें सत्य को जानने में रुचि है, ठीक है, पर हमें अध्यात्म और हमारे जीवन की इन मौलिक ज़रूरतों के बीच सन्तुलन बनाना पड़ेगा न। हम अचानक अपना घर-बार सब छोड़कर तो नहीं आ सकते। हम करें तो क्या करें?
आचार्य: देखो, यहीं पर आकर सब रुक जाते हैं। तुम अपना भला करो, इस जगह पर मत रुको। सब पूछते हैं कि ये (सांसारिक गतिविधियाँ) नहीं तो फिर क्या करें। तुम ये (संसार) छोड़ो, फिर जो होना है वो अपनेआप हो जाएगा।
तुमसे किसने कह दिया कि आध्यात्मिक आदमी को रुपया, खाना, रोटी नसीब नहीं होती? तुम क्या बातें कर रहे हो? तुम ऐसे कह रहे हो जैसे एक तरफ़ अध्यात्म है और दूसरी तरफ़ तुम्हारी सारी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति है। ऐसा थोड़े ही होता है। तुम ऐसे कह रहे हो कि जैसे अध्यात्म की राह पर चले तो तुम्हें खाने के, पीने के, रोटी-कपड़े के लाले पड़ जाने वाले हैं। ऐसा थोड़े ही होता है। पर ये (संसार) तुमको यही एहसास दिलाएगा कि अगर तुमने मुझे छोड़ा तो भूखे और नंगे दोनों मरोगे।
प्र: लेकिन अपना संसारी जीवन जीने के साथ-साथ अध्यात्म की राह पर चलने में समस्या ये आती है कि भौतिक तल पर अन्य चीज़ें फिर कम दिखाई देती हैं, क्योंकि हमारी ऊर्जा या चेतना एक विशेष दिशा में रत रहती है। उदाहरण के लिए, जैसे मेरे दोस्त हैं, वो रास्ते पर चलते हैं तो उन्हें रास्ते याद हो जाते हैं, गाड़ियों की नम्बर प्लेट देख लेते हैं। चूँकि मैं कुछ सोचता रहता हूँ, इसलिए मैं नहीं देखता। सामान्यतः व्यापार सम्बन्धी या करियर सम्बन्धी चीज़ों पर ध्यान नहीं जाता है, क्योंकि ध्यान किसी और तरफ़ केन्द्रित रहता है।
तो मेरा ये कहना है कि दोनों चीज़ों को साथ-साथ लेकर चलने में कहीं-न-कहीं तो हम नुक़सान झेल ही रहे होते हैं, हम पीछे चल रहे होते हैं। भौतिक दुनिया में जीने के साथ-साथ अध्यात्म को लेकर चलना जैसे दो नाव की सवारी हो जाती है। हम कहीं भी कुछ ख़ास तरक़्क़ी नहीं कर पाते, न इधर न उधर। अगर कोई केवल अध्यात्म में अपना ध्यान लगाता है तो आध्यात्मिक उन्नति कर रहा होता है। अगर कोई मुख्यतः भौतिक लक्ष्यों पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है तो वहाँ तरक़्क़ी कर रहा होता है।
आचार्य: तो आप उससे पीछे छूट जाते हैं?
प्र: हाँ।
आचार्य: तो एक आदमी जयपुर की तरफ़ जा रहा है, एक लखनऊ की तरफ़ जा रहा है। जो जयपुर की तरफ़ जा रहा है, वो लखनऊ वाले से पीछे छूट गया?
प्र: नहीं।
आचार्य: कैसी बातें कर रहे हो?
प्र: जयपुर के रास्ते में नहीं।
आचार्य: तो तुम्हारा और कौनसा रास्ता है? तुम तो जयपुर के ही रास्ते में हो। या दो-दो रास्तों में चल रहे हो? तुम ये कहोगे क्या कि मैं जयपुर के रास्ते में चल रहा हूँ, पर मैं उससे पीछे छूट गया हूँ जो लखनऊ के रास्ते पर चल रहा है?
तुम कितने रास्तों पर एकसाथ चलोगे? तो जो लखनऊ के रास्ते पर है, उससे अपनी तुलना क्यों कर रहे हो? फिर तो तुम्हारी हालत ख़राब हो जाएगी। यहाँ बैठे-बैठे कहोगे, ‘वो जो हवाई जहाज़ में जा रहा है, उससे पीछे छूट गया।’ फिर तो जो जहाँ कहीं भी जा रहा है, तुम उससे अपनी तुलना कर रहे हो। तुम्हें जहाँ जाना नहीं, तुम उस जगह से अपनी तुलना कर रहे हो।
प्र: पर तुलना करना छोड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है।
आचार्य: तो पकड़ लो।
प्र: पर अब छोड़ना है न!
आचार्य: तो छोड़ दो।
प्र: ये तो मुश्किल बात है! (प्रश्नकर्ता हँसते हुए)
आचार्य: इनका ये कहना है कि ये एकसाथ जयपुर और लखनऊ दोनों जगह पहुँचना चाहती हैं।
प्र: शायद!
आचार्य: तो उसके लिए तो फिर एक कुल्हाड़ी ले लो, काट दो अपनेआप को, और आधा इधर रख दो, आधा उधर रख दो। तुम तय तो कर लो कि तुम कौन हो और तुम्हें कहाँ होना है, आधे-आधे थोड़े ही हो सकते हो। और वो आधे-आधे की जो माँग है, फिर वही ऐसे वचनों में सामने आती है — सन्तुलन।
देखो, समझो। एक तराजू है — सन्तुलन माने तुला — एक तराजू है, उस तराजू पर दो चीज़ों को रखकर तोला जा रहा है। उन दोनों चीज़ों को बराबर किसके हितों की पूर्ति के लिए किया जा रहा है? जिसने तराजू को पकड़ा है। तो अब तुम कह रहे हो कि मैंने तराजू को पकड़ रखा है। एक पलड़े में रखूँगी परमात्मा को और दूसरे पलड़े में रखूँगी संसार को, परिवार को, और दोनों को बराबर करूँगी। तुम परमात्मा को और परिवार को तो तोल रही हो, और ये भूल गयीं कि तुम इतनी दुस्साहसी हो कि तुम कह रही हो कि मैं हूँ वो जिसने तराजू पकड़ रखा है और एक पलड़े में परमात्मा रख दिया है।
तुम इतनी बड़ी हो? तुम इतनी बड़ी हो, तुम्हारा तराजू इतना बड़ा है कि उसके एक पक्ष में परमात्मा समा जाएगा? तुम परमात्मा को तोल रही हो?
प्र: मैं यही तो कह रही हूँ कि ये जो ‘मैं’ की ख़ातिर निरन्तर हमें संसार और परमात्मा को तराजू पर तोलना पड़ता है, आधे-आधे बँटे रहना पड़ता है, उससे छुटकारा चाहिए।
आचार्य: एक बात है बहुत छोटी सी, शास्त्र घिस गये समझाते-समझाते — परमात्मा अतुल्य है। अतुल्य का क्या अर्थ होता है?
प्र: जिसकी कोई तुलना नहीं है।
आचार्य: और तुम उसी को तोल रही हो! जिसे तोला नहीं जा सकता, उसे कहते हैं अतुल्य। और तुम तोल रही हो! दुनिया तोलने को आती है! आधे लोग मेरे पास यही सवाल लेकर आते हैं कि नहीं, वो (परमात्मा) तो चाहिए पर फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी !
जो अतुल्य है, उसको तुम न सिर्फ़ तोलना चाहते हो, बल्कि उसकी तुलना तुम इससे (तुच्छ संसार) कर रही हो। उसके (सत्य) साथ चलो। और उसके साथ चलने पर ये नहीं होता है कि तुम्हारे रिश्ते टूटकर बिखर जाएँगे, उसके साथ चलने से रिश्ते नये हो जाते हैं, तुम रिश्ते बनाना सीख जाते हो।
अभी तो रिश्तों के नाम पर खून चूसने का खेल चलता है। तू मेरा खून चूस, मैं तेरा खून चूसूँगी, तभी तो साथ हुआ! और फिर हम एक-दूसरे को क्या बोलेंगे? इसकी रगों में मेरा और मेरी रगों में इसका खून बहता है। और दुनिया कहेगी, ‘क्या बात है! क्या बात है!’ ये हम बताएँगे ही नहीं कि मेरा खून वहाँ और उसका यहाँ कैसे पहुँचा।
(ठहाके)
पर हम दोनों एक हैं! ये रिश्ते हैं! और इन्हीं की सुरक्षा के लिए तुम तुलना करना चाहती हो, सन्तुलन बनाना है।
प्र: पर जगत में रहने का उद्देश्य भी तो यही है।
आचार्य: खून चूसना? किस जगत में रहते हो तुम?
प्र: रिश्ते बनाना।
आचार्य: कैसे रिश्ते बनाना?
प्र: हर तरह के।
आचार्य: सोमनाथ बचना, पीछे ही हैं! वो बता रहे हैं कि जगत में रहने का यही है।
(ठहाके)
कैसे रिश्ते? क्या बात हो रही है? रिश्ते वैसे ही हो सकते हैं जैसे तुम जी रहे हो या रिश्ते दूसरे प्रकार के भी हो सकते हैं? अपने ही जैसे रिश्ते बनाने हैं? वैसे ही रहना है जैसे हो? जगत में होने का मतलब है वैसे रहो जैसे हो?
फिर तो तुम ही जी रहे हो, और बुद्ध और कृष्ण व्यर्थ जिये, क्योंकि वो तुम्हारी तरह तो जिये नहीं। और तुम्हारा दावा है कि जो हमारी तरह जिये, वही जिया। फिर तो बुद्ध बेचारे नाहक जिये! और कृष्ण की तो ज़िन्दगी बर्बाद थी, क्योंकि तुम्हारे जैसे तो थे नहीं।
पहले ये स्वीकार करो — मैं जैसा हूँ, इसमें मुझे तृप्ति नहीं है। मैं तुमसे अतृप्त होने को नहीं कह रहा, अतृप्त तो तुम हो ही। उस अतृप्ति को तुम दबाये हुए हो। तुम इतने डरे हुए हो कि तुम स्वीकार भी नहीं कर पा रहे कि तुम अतृप्त हो।
एक आदमी थोड़ा डरा हो तो वो मान लेगा कि वो डरा है। और एक आदमी को तुम पीटो, पीटो, पीटो और उसके दिल में दहशत घुसेड़ दो, तो फिर वो ये मानना भी बन्द कर देगा कि वो पिटा है। जानते हो, ये सबसे ख़ौफ़नाक बात है! जो थोड़ा डरा होता है, वो ये मानने को राज़ी हो जाता है कि मैं डरा हूँ। और जो डूब गया होता है दहशत में, वो अब मानेगा भी नहीं कि वो डरा हुआ है।
जो आदमी थोड़ा प्यासा है, वो चिल्लाएगा पानी, पानी। और जो प्यास से बेहोश हो गया हो, अब वो पानी माँगता भी नहीं है। ये बड़ी ख़तरनाक बात है! तुमने पानी माँगना ही बन्द कर दिया है! तुम्हारी प्यास इतनी गहरी है कि तुम बेहोश हो गये हो, मूर्च्छित हो गये हो प्यास से। तुम प्यास से मूर्च्छित हो गये हो, इसीलिए अब तुम पानी भी नहीं माँगोगे।
कोई नया-नया पक्षी किसी पिंजड़े में बन्द करो, वो उड़ जाएगा। और किसी पक्षी को तुम आजन्म पिंजड़े में रखो और फिर खोल दो पिंजड़े का दरवाज़ा, वो उड़ेगा भी नहीं। तुम इतनी क़ैद में जिये हो कि अब तुम उड़ना भी नहीं चाहते, और तुम बिना मूल्य के सवाल करते हो।
एक देवी जी आयीं थी मिलने, तो उन्होंने कहा कि उन्हें क्रोध की बीमारी है, बहुत हिंसक हैं। तो अपना सुनाती रहीं कि कैसे दूसरों पर हिंसा निकालती हैं, अपने पर भी हिंसा निकालती हैं। बाद में पछताती भी हैं। तो उनसे मुझे जो बात करनी थी, की। फिर बोलीं, ‘अब घर जाना है, घर में बच्चा है, अकेला है।’ मैंने कहा, ‘ठीक है।’ मैंने पूछा, ‘घर में बच्चे को किसके सुपुर्द करके आयीं हैं?’ बोलीं, ‘किसी के नहीं। बच्चा है, घर में अकेला है।’ मैंने कहा, ‘अच्छा!’
मुझे कुछ खटका, मैंने कहा, ‘दरवाज़े वगैरह बन्द! किसी के साथ नहीं है, तो भी सुरक्षा के लिए कैसे आप, प्रबन्ध क्या किया आपने?’ बोलीं, ‘नहीं, कोई दरवाज़ा नहीं बन्द किया है, वो कहीं नहीं जाएगा।’ और जब उन्होंने कहा कि वो कहीं नहीं जाएगा, मेरे रोंगटे खड़े हो गये।
देवी जी बच्चे को घर में अकेले छोड़कर आयीं थीं, और घर खुला छोड़कर आयीं थीं। और उन्हें पूरा यक़ीन था कि वो बच्चा कहीं नहीं जाएगा। और उनका यक़ीन सही था, वो बच्चा कहीं नहीं जाएगा। आम बच्चे घर खुला पायें तो इधर-उधर भाग भी जाएँ, वो बच्चा कहीं नहीं जाएगा। क्यों नहीं जाएगा? क्योंकि इन देवी जी ने जैसा बताया, इनको क्या बीमारी थी? क्रोध की और हिंसा की। उस बच्चे को इतनी हिंसा दी गयी है कि वो अब भागेगा भी नहीं। वो इतनी दहशत में है कि दरवाज़ा खुला पाएगा तो भी बाहर नहीं निकलेगा। उन्होंने बहुत आहिस्ता से और बड़े विश्वास से कहा था, ‘वो कहीं नहीं जाएगा।’
प्र: अच्छा, आप बिलकुल ही गुस्सा न करें किसी के ऊपर तो?
आचार्य: तो की बात ही नहीं है, अपनी बात करिए। आप हैं ऐसी कि बिलकुल ही गुस्सा न करें?
प्र: हाँ।
आचार्य: तो अपना दमन कर रही होंगी, अपने ऊपर गुस्सा करेंगी फिर। जिसके ऊपर गुस्सा नहीं दिखाया, वो जब चला जाएगा तो अपनेआप को थप्पड़ मारेंगी कि उसको मैंने मारा क्यों नहीं।
ये बातें किन्तु, परन्तु, तो, इत्यादि की नहीं होतीं, वो दूसरा मन होता है, वो अवस्था दूसरी होती है, वो आदमी दूसरा होता है जो क्रोध नहीं कर सकता। आप क्रोध में आकंठ डूबी हुईं हैं और सवाल क्या पूछ रही हैं? ‘अगर मैं किसी पर गुस्सा न करूँ तो?’ तो ऐसे ही पूछ लीजिए, ‘अगर मैं समाधि में चली जाऊँ तो?’ ‘अगर मैं बुद्ध होती तो?’
(सभी श्रोतागण हँसते हैं)
बुद्ध तो वही है जो क्रोध के बाहर है। ये कहना कि मैं क्रोध न करूँ तो, बिलकुल यही प्रश्न है कि यदि मैं बुद्ध हूँ तो। ये प्रश्न कैसा है?
पर हमें ऐसा ही लगता है, हमें लगता है कि बुद्ध तो ऐसे ही हैं कि ऑफ़ द शेल्फ़ (तैयार रूप में उपलब्ध) खरीद लेंगे। अभी जाएँगे, कहेंगे, ‘वन बुद्धा, मीडियम (एक बुद्ध, मध्यम आकार के)। सन्तुलन की बात है न, मीडियम ! लार्ज ले लिया तो दिक्क़त हो जाएगी। और स्मॉल ले लिया तो लोग क्या कहेंगे? (आचार्य जी व्यंग्य करते हुए)
बुद्धत्व आपका बदल जाना है। यहाँ बैठे-बैठे जैसे हैं, उसी हालत में उसकी बात और कल्पना करना फ़िज़ूल है। आप अभी जैसे हैं, अभी सिर्फ़ उसकी बात करिए। आपको क्या पता बुद्ध के मन का? तुक्का थोड़ी मारोगे बैठे-बैठे कि बुद्ध ऐसे होंगे, बुद्ध ऐसा सोचते होंगे।
प्र: बुद्ध के बारे में मुझे जानना ही नहीं है, मुझे तो अपने...
आचार्य: तो जब आप कह रही हैं कि मैं क्रोध न करूँ, तो आप बुद्ध की ही बात कर रही हैं।
प्र: तो मेरे सवाल का जवाब आपने ये दिया कि अगर मैं किसी और के ऊपर गुस्सा नहीं करती तो मैं शायद ख़ुद के ऊपर गुस्सा कर रही होती हूँ?
आचार्य: बिलकुल! मैंने जवाब ये दिया कि आपके लिए सम्भव ही नहीं है क्रोध न करना। आप जो हैं, क्रोध आएगा। क्योंकि क्रोध क्या है? कामना का पूरा न होना क्रोध है। और आप जब तक कुसंगति में हैं, कुसंगति आपके भीतर कामना की आग भभकाये रखेगी। तो कुसंगति हो और क्रोध न हो, ये कैसे हो सकता है?
अभी आप ये न कहिए — सुनिए ध्यान से — कि मुझे क्रोध न आये। ये माँग मत करिए। अभी आप ये माँग करिए कि मुझे क्रोध वाजिब कारणों से आये।
एक क्रोध ये होता है कि मुझे त्रिपुरा रहस्य पढ़ने को क्यों दे दी। इसमें भी क्रोध आ सकता है। मैं सो रही थी, मुझे सोने क्यों नहीं दिया, मुझे उठा क्यों दिया? मुझे सुबह-सुबह नहीं टहलना था, नहीं दौड़ना था, मुझे क्यों दौड़ा दिया? मेरी बेहोशी क्यों तोड़ी? एक क्रोध इस कारण से आता है। ये तामसिक क्रोध है।
फिर एक क्रोध होता है — मेरा लड्डू क्यों छीना। मैं तो सेल (भारी छूट पर वस्तुओं की बिक्री) समझकर आयी थी, सेल उठ क्यों गयी? अब बहुत गुस्सा आ रहा है! मेरी गाड़ी तेरी गाड़ी से छोटी कैसे? बहुत गुस्सा आ रहा है! ये राजसिक क्रोध है।
तामसिक क्रोध क्या है? मेरी बेहोशी क्यों तोड़ी? इसमें बहुत गुस्सा आता है। मैं बेहोश हूँ, मेरी बेहोशी मत तोड़ देना। आप किसी की बेहोशी तोड़ो, आपका गला पकड़ लेगा। राजसिक क्रोध क्या होता है? मेरा लड्डू क्यों छीना?
आप अभी बस ये प्रार्थना करो कि आपका क्रोध सात्विक हो जाए। ये प्रार्थना अभी आप करो ही मत कि मुझे क्रोध न आये। अभी आप बस ये माँगो कि आपका क्रोध सात्विक हो जाए। सात्विक क्रोध कहता है, ‘मेरी शान्ति क्यों भंग की? दुनिया की शान्ति क्यों भंग कर रहे हो? मेरा ध्यान क्यों तोड़ा? ग्रन्थों का अपमान क्यों किया?’ राजसिक क्रोध कहता है, ‘मेरा अपमान क्यों किया?’ सात्विक क्रोध कहता है, ‘ग्रन्थों का अपमान क्यों किया?’
आ रही है बात समझ में?
राजसिक क्रोध कहता है, ‘मैं शॉपिंग करने जा रहा था, ट्रैफ़िक जैम क्यों लगा है?’ सात्विक क्रोध कहता है, ‘मैं सत्संग में जा रही थी, ट्रैफ़िक जैम क्यों लगा है?’ अभी तो तुम ये मनाओ कि तुम्हारा क्रोध सात्विक हो जाए, वाजिब कारणों से आये क्रोध। अक्रोध बहुत आख़िरी बात है, उसकी क्यों चर्चा करनी?
ऋषियों को सुनते थे न, वो समाधि में बैठे हैं, ध्यान कर रहे हैं। अरे! फ़र्क़ नहीं पड़ता। तुम जाकर उनको छेड़ दो वहीं भस्म कर देंगे, इतना फ़र्क़ पड़ता है। क़िस्से नहीं सुने हैं? इतनी कहानियाँ पढ़ी हैं कि नहीं? कि फ़लाने ऋषि बैठे थे समाधि में और राजा आया, और शिकार खेलने गया था, और राजा ने जाकर ऋषि को छेड़ दिया। और ऋषि ने उसी वक़्त क्या किया? ‘जा, मूषक बन जा! फिर कहीं नहीं शिकार करेगा।’
तो ऐसा क्रोध! ये क्रोध वाजिब है, क्योंकि ये कौनसा क्रोध है? ये सात्विक क्रोध है, ये सतोगुणी क्रोध है। तो तुम तो सतोगुणी क्रोध करो। मैं तो चाहता हूँ कि लोगों में गुस्सा उपजे, पर सही कारणों से उपजे। जहाँ वास्तव में तुम्हें गुस्सा करना चाहिए, वहाँ तुम्हें गुस्सा उठता ही नहीं है। वहाँ तुम भीगी बिल्ली हो जाते हो! और कोई तुम्हारी नींद तोड़ दे, उसमें तुम्हें बहुत गुस्सा आता है।
कोई तुम्हारा अहंकार ज़ाहिर कर दे, उसमें तुम्हें बहुत गुस्सा आता है। और जहाँ तुम्हें गुस्सा आना चाहिए था, वहाँ तुमने कभी गुस्सा नहीं दिखाया, वहाँ अपनी ज़िन्दगी बेच दी। जहाँ तुम्हें गुस्सा कर ही देना चाहिए था, विद्रोह कर देना चाहिए था, आग लगा देनी चाहिए थी, ज़रूरत पड़े तो हत्या कर देनी चाहिए थी, वहाँ तुमने गुस्सा दिखाया नहीं, वहाँ तुम अपनी ज़िन्दगी को बेच आये। और जहाँ दो पैसे की कोई बात होती है, वहाँ तुम गुस्सा दिखाते हो।
मैं क्रोध के ख़िलाफ़ नहीं हूँ, मैं टुच्चे (मामूली) क्रोध के ख़िलाफ़ हूँ। तूने मेरी गाड़ी के पीछे गाड़ी लगा दी — इस क्रोध के ख़िलाफ़ हूँ मैं। पर हाँ, तुम्हारे पीछे अगर वो गाड़ी लगाये और उसके कारण तुम्हारी शान्ति का नाश होता हो, तुम्हें धर्मार्थ कहीं पहुँचना है और तुम पहुँच न पाते हो, तब ज़रूर क्रोध करना और पूरा-पूरा करना। फिर तुम्हारे क्रोध में तांडव होना चाहिए, फिर तुम्हारे क्रोध में अर्जुन के बाण होने चाहिए। पर ऐसी जगहों पर तुम्हें क्रोध नहीं आता। हाँ, कोई तुमसे बोल दे कि तुम तो मोटे लग रहे हो, या नहाकर नहीं आये, तो तुम्हें गुस्सा आ जाता है।
अक्रोध मात्र पूर्ण समाधि में होता है। जब तक तुम जीवन जी रहे हो, तब तक क्रोध रहेगा, बस क्रोध सही हो। क्रोध तो राम और कृष्ण को भी आता है, तुम कहाँ के धुरन्धर हो! क्रोध रहे, क्रोध सही रहे, सात्विक रहे।
मैं यहाँ आ रहा था। अभी ये अनु से पूछो, वहाँ दरवाज़े से लेकर यहाँ तक ये मेरा क्रोध झेलती हुई आयी है — कि नाश्ता कैसे नहीं दिया तुमने?
व्यक्तिगत क्रोध न रहे। ये नहीं कि मुझे नाश्ता क्यों नहीं दिया। अपने अपमान पर क्रोध न आये, ग्रन्थों का अपमान हो तो क्रोध आये। व्यक्तिगत नहीं, व्यक्तिगत मेरा कोई नुक़सान कर लो, कोई बात नहीं। धर्म का अपमान नहीं होना चाहिए। परमात्मा की राह से किसी को विमुख मत करो। अगर कोई भजन के लिए बैठा है, अगर कोई ध्यान के लिए बैठा है तो उसको भूखा मत बैठाओ, क्योंकि अगर कोई ध्यान में, भजन में भूखा बैठेगा तो हो सकता है पेट के कारण उसके ध्यान में बाधा पड़े। वो ग़लती मत करो।
ये सब बहुत भ्रान्तियाँ हैं कि क्रोध बुरी बात है। और जैसा आपने बोला कि अगर किसी भी प्रथा का, परम्परा का पालन कर रहे हैं तो ये भी तो कंडीशनिंग (प्रशिक्षण) है। ये सब महाभ्रान्तियाँ हैं। इनको सुन मत लीजिएगा।
क्रोध भी सही है, पीड़ा भी सही है, प्रथा भी सही है। मन सात्विक होना चाहिए, फिर ये सब सही हैं। ये न सिर्फ़ सही हैं, बल्कि आवश्यक हैं। इनकी बहुत आवश्यकता है।