अन्याय और न्याय क्या हैं? || (2016)

Acharya Prashant

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अन्याय और न्याय क्या हैं? || (2016)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, न्याय और अन्याय क्या हैं?

आचार्य प्रशांत: दो चीजें होती हैं अक्सर, जिन्हें हम ‘अन्याय’ का नाम देते हैं।

एक तो यह कि अगर विभिन्नता है, तो अक्सर हम उसे ‘अन्याय’ बोल देते हैं। विभिन्नता अन्याय नहीं है। किसी के पास कम है, किसी के पास ज़्यादा है, यह अन्याय नहीं है।

‘न्याय’ शब्द बड़ा अच्छा शब्द है। ‘न्याय’ का मतलब जानते हो क्या होता है?

‘न्याय’ का मतलब ही सत्य होता है। न्याय का मतलब होता है – विशुद्ध प्रमाण, खरी बात। तो न्याय माने सत्य। न्याय तब मत कहो कि किसी के पास ज़्यादा पैसा है, किसी के पास कम पैसा है; यह सब छोटी बातें हैं। यह सब अस्तित्व में चलता है, यहाँ कुछ भी एक बराबर नहीं होता, हाथी और तोता एक बराबर नहीं होते।

अन्याय तब है जब एक व्यक्ति सत्य की आँखों से दुनिया को नहीं देखता, और इसी कारण सत्यहीन आचरण करता है। यह अन्याय है। अब वो जो भी कुछ करेगा वो अन्याय होगा, उसका एक-एक कर्म अन्याय होगा। भले ही वो अपनी ओर से प्रेम करता हो, वो अन्याय होगा। यह ‘अन्याय’ की वास्तविक परिभाषा है।

बात समझ में आ रही है?

अन्याय यह नहीं है कि किसी के पास रूपए-पैसे ज़्यादा हैं, कोई ज़्यादा विपुलता वाले वातावरण में पैदा हुआ है; यह सब नहीं अन्याय है। किसी को रोज़गार ज़्यादा मिल गया, किसी के देश में बेरोज़गारी ज़्यादा है, कहीं युद्ध चल रहा है – यह बातें बाद की हैं। जो प्राथमिक है उसको समझो;

सत्य विमुख आचरण करना, सत्य विमुख जीवन जीना, अन्याय का जीवन है। अब तुम जो भी कुछ करोगे वो अन्याय होगा। अब तुम करुणा के नाम पर अन्याय करोगे, प्रेम के नाम पर अन्याय करोगे, मुक्ति, शांति के नाम पर अन्याय करोगे। तुम्हारी एक-एक साँस अन्याय की साँस होगी, ‘अन्याय’ माने असत्य।

बाहर यदि तुमको इतनी तबाही दिखती है, तो उसकी वजह यही है कि आदमी के भीतर तबाही मची हुई है। जब तुम भीतर से आबाद नहीं तो बाहर तबाही ही रहेगी। बाहर की बर्बादी दिख जाती है, भीतर की दिखती नहीं। भीतर की भी दिखती है – किसी का जीवन देखो, किसी की आँखें देखो, चेहरा देखो, दिखती भीतर की भी है। बाहर की ज़रा ज़्यादा स्थूल है, आसानी से दिखती है।

तुमने नैतिकता के नाते किसी से छीने हुए दस रूपए उसे वापस कर दिए, यह तुमने न्याय नहीं किया है। अब दूसरा अन्याय कर रहे हो कि लौटा रहे हो, यह अन्याय-पर-अन्याय है, क्योंकि दोनों ही काम तुम कर एक सत्यहीन केंद्र से रहे हो।

असत्य के केंद्र से जो ही किया जाएगा, वही अन्याय होगा। असत्य के केंद्र से छीनना भी अन्याय, और असत्य के केंद्र से लौटाना भी अन्याय। सत्य में रहते हुए किसी से दूर हो, तो भी न्याय। और असत्य में रहते हुए किसी के पास आए, गले में बाहें डाल दी, यह महा-अन्याय।

जस्ट * ’, कितना सुंदर शब्द है न, जिससे * जस्टिस निकला है – सहज, न्याय, *जस्ट*।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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