आचार्य प्रशांत: फ़िर पूछा है कि “अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोशों का परिचय क्या है?”
ये सब कोश किसके हैं? ये सब कोश जीव के हैं—शुरुआत हमेशा यहाँ से करो, ये अध्यात्म का सूत्र है।
उपनिषदों को पढ़ना भी अपने आप में एक कला है, लगातार पूछते रहना पड़ता है कि ये जो बात कही जा रही है, किससे कही जा रही है, किसके लिए कही जा रही है। जिनको आध्यात्मिक ग्रंथों को पढ़ना नहीं आता या जिनको आध्यात्मिक वार्ता को सुनना नहीं आता, वो पढ़ने और सुनने से पहले तो पढ़ने-सुनने की कला विकसित करें। एक खास तरीका होता है इन ग्रंथों को पढ़ने का या इन वार्ताओं को सुनने का, जिनको वो तरीका नहीं आता, वो अर्थ का अनर्थ कर लेते हैं, उन्हें लाभ नहीं होता, उन्हें क्रोध वगैरह ज़्यादा आ जाता है। उन्हें लगता है, “ये क्या बात हो रही है ऐसी-वैसी?“
तो ये जो जीव है, इसमें जो चीज़ सबसे बाहर है, उसको कहते हैं अन्नमय-कोश। अन्नमय-कोश माने वो सब कुछ जो बाहर से ले करके बना है—बाहर से अन्न ले करके, जल ले करके, हवा ले करके, धूप ले करके जिसका निर्माण हुआ है, उसको कहते हैं अन्नमय-कोश। तो शरीर का रेशा-रेशा कहलाता है अन्नमय-कोश।
इस अन्नमय-कोश में, अगर हम अस्तित्व की ही बात कर रहे हैं, तो अन्नमय-कोश से भी बाहर का एक कोश तुम और जोड़ सकते हो। अगर पाँच कोश हैं तो एक छठा कोश भी जोड़ा जा सकता है, छठा कोश बताओ क्या होगा?
भीतर से बाहर की ओर आते-आते जो तुम्हें सबसे बाहरी कोश मिला, वो है अन्नमय-कोश, ये (हथेली की ओर इशारा करते हुए)। इससे भी बाहर एक कोश और तुम कह सकते हो कि होता है, हालाँकि शास्त्रीय तौर पर उसका कोई उल्लेख नहीं है लेकिन फ़िर भी कह सकते हो, क्या? संसार। तो सबसे बाहरी कोश तो संसार है। मैं उसको इसलिए जोड़ना चाहता हूँ क्योंकि संसार भी है तो हमारे ही अस्तित्व का हिस्सा न?
विशुद्ध-अद्वैत का अर्थ क्या होता है? जो कुछ भी है, मेरा ही प्रक्षेपण है, और मेरा प्रक्षेपण है झूठा ही। तो दो हैं, मात्र दो, ‘मैं’ और ‘संसार’, ‘मैं’ माने आत्मा। मात्र दो हैं, आत्मा और संसार, और इन दो में भी एक प्रक्षेपण मात्र है, मिथ्या है, तो ले-देकर के बचा कौन? एक आत्मा। और आत्मा एक भी नहीं है, क्योंकि एक अकेला हो नहीं सकता, तो उसको एक कहना भी ठीक नहीं है, तो बस ‘अद्वैत’ बोल दो। ठीक है?
तो इसीलिए हम ये कहें कि आत्मा है, और फ़िर आत्मा के अलावा पाँच कोश हैं और फ़िर संसार है, तो हमने तीन बना दिए न? नहीं समझे? हमने कह दिया, “आत्मा है, फ़िर पाँच कोश हैं, और फ़िर बाहर संसार है।” तो ये तो हमने तीन बना दिए न? तीन ना बनाओ, दो ही रहने दो – आत्मा और पाँच कोश। और छठा कोश संसार को मान लो, क्योंकि संसार भी हमारा ही विस्तार है।
तो संसार से दाना-पानी ले करके हमने जिस कोश का निर्माण करा, उसको क्या कहते हैं? अन्नमय-कोश। ये (हथेली की ओर इशारा करते हुए), ये है अन्नमय-कोश। अन्नमय-कोश में जो कुछ है, वो या तो ठोस है या तरल है।
उसके अलावा जो अगला कोश है, उसे कहते हैं प्राणमय-कोश, जिसमें तमाम तरह की वायु हैं। चौदह तरह की वायु मानी गई हैं, बहुत सारी वायु हैं, उन्हीं वायुओं को कहते हैं प्राण। तो ऐसे कहा जाता था कि प्राण नहीं हैं, तो श्वास का चलना बंद हो जाता है न? और शरीर में जितनी भी गतियाँ होती हैं, वो सब बंद हो जाती हैं न? वो सब जितनी गतियाँ होती हैं शरीर में, उनकी प्रतिनिधि है वायु, क्योंकि वायु गति करती है। गति तो तरल पदार्थ भी करते हैं, लेकिन जीवन का प्रतिनिधि माना गया वायु को, इसीलिए जो वायु का कोश है, उसे नाम दिया गया प्राणमय-कोश। आख़िरी बात ये कि जब ये वायु (साँस का इशारा करते हुए) चलनी बंद हो जाती है तो प्राण नहीं हैं—तो उसको नाम दिया गया प्राणमय-कोश। ठीक है?
उसके बाद कौन सा कोश आता है? मनोमय-कोश। मनोमय-कोश क्या है? अभी हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर जा रहे हैं, भीतर, अंदर की ओर। मनोमय-कोश आपके अस्तित्व का वो तल है जहाँ अव्यवस्थित मानसिक गतिविधि चलती ही रहती है, लगातार। मन है, और मन वृतियों द्वारा संचालित है, मन उच्छृंखल है। मन पूरे तरीके से मात्र प्राकृतिक गति कर रहा है, उसको प्रकृति के आगे जाने की कोई अभीप्सा नहीं है। ये कोश कहलाता है मनोमय-कोश।
मनोमय-कोश पशुओं में भी सक्रिय होता है। मनोमय-कोश को सक्रिय करने के लिए ठीक वैसे आपको कोई साधना नहीं करनी पड़ती, जैसे कि अन्नमय-कोश और प्राणमय-कोश को सक्रिय करने के लिए आपको कोई साधना नहीं करनी है। मनोमय-कोश स्वयं ही सक्रिय रहता है, एक छोटे बच्चे में भी सक्रिय रहता है।
उसके बाद आपके अस्तित्व का वो तल आता है जिस पर बहुत कम लोग पहुँचते हैं, वो है विज्ञानमय-कोश। विज्ञानमय-कोश विचारणा का वो विरल तल है जिसमें विचार पहली बात तो व्यवस्थित हो जाता है, और दूसरी बात, अपनी ओर मुड़ जाता है। विचार व्यवस्थित हो गया है, विचार जैसे किसी ज़बरदस्त ताक़त के प्रभाव-क्षेत्र में आ गया है, अब विचार की पूरी शक्ति एकाग्र हो करके कुछ पाना चाहती है। विचार की इस अवस्था को कहते हैं विज्ञान।
मनोमय-कोश और विज्ञानमय-कोश में अंतर समझना। बिखरा हुआ विचार, वृतियों द्वारा शासित विचार – ये आएगा मनोमय-कोश में। और एकाग्र विचार, अनुशासित विचार, व्यवस्थित विचार, योजनाबद्ध विचार – ये आएगा विज्ञानमय-कोश में।
और अगर विज्ञानमय-कोश में जो साधना कर रहा है विचार, जो आत्म-जिज्ञासा कर रहा है विचार, तो विचार फ़िर कटने लगता है, विचार अपनी ही आँच में पिघलने लगता है, और रह जाता है एक निर्विचार आनंद। उसको कहते हैं आनंदमय-कोश। आनंद है पर उस आनंद का कारण कोई विचार या विषय नहीं है, एक विषयहीन आनंद है, ये आनंदमय-कोश है, इसमें अहम् विषयहीन हो गया है।
आनंदमय-कोश बहुत तात्कालिक होता है, अहम् आनंदमय-कोश में बहुत समय तक नहीं रह सकता; या तो वो किसी निचले तल पर गिर जाएगा या उठकर के आत्मा में समाहित हो जाएगा, जबकि बाकी सब कोशों से अहम् लंबे समय तक सुविधापूर्वक संबंधित रह सकता है, उदाहरण के लिए, जो लोग देह से तादात्म्य रखते हैं, देह भाव में जीते हैं, वो बड़े मज़े से जीवन-भर अन्नमय-कोश में रह सकते हैं। ये सब आपकी हस्ती के तल हैं न? और जो अहम् है, वो किसी भी तल पर निवास कर सकता है।
अब पशुओं को ले लो, उनका पूरा जीवन ही कहाँ बीत रहा है? अन्नमय-कोश में बीत रहा है। उनको किसी भी हाल में तीसरे कोश से ऊपर की यात्रा तो करनी ही नहीं है; अन्नमय में हैं, प्राणमय में हैं, कभी मनोमय-कोश में, और ऊपर की यात्रा उन्हें करनी नहीं है। ऐसे ही बहुत सारे मनुष्य भी होते हैं, जिनका अधिकाँश जीवन बीत रहा है अन्नमय-कोश में या मनोमय-कोश में। जो बुद्धिजीवी हो गए, उनका जीवन कहाँ बीतने लग जाता है? विज्ञानमय-कोश में। और जो आध्यात्मिक साधक हो गए, उन्हें किसका स्वाद मिलने लग जाता है? आनंदमय-कोश का।
लेकिन आनंदमय-कोश का स्वाद आप लगातार नहीं ले सकते, चिरकाल तक नहीं ले सकते। आनंदमय-कोश का स्वाद, उदाहरण के लिए, आपको दिलवा देंगी ज्ञान की विधियाँ या भक्ति में भजन या कीर्तन। आप आधे घण्टे के लिए कहाँ स्थापित हो गए? आनंदमय-कोश में। आप एक अकारण-आनंद में विश्राम करने लग गए। आपको पता भी नहीं है कि इतना चैन, इतनी अनूठी शांति क्यों मिल रही है, आप सब भूल गए, बिलकुल खो गए, विचार ही लुप्त हो गया। लेकिन भजन क्या चौबीस- घण्टे चलेगा? ध्यान की कोई भी विधि होगी, थोड़ी देर में समाप्त हो जाएगी न?
यही वजह है कि मैं बार-बार कहा करता हूँ कि ध्यान की विधियाँ भी आत्मा के खिलाफ़ आखिरकार एक अवरोध बन जाती हैं; आप थोड़ी देर के लिए आनंदमय तक पहुँचते हो, वहाँ पर रस पीते हो आनंद का, और उसी रस से, उतने से ही तृप्त हो करके फ़िर आप वापस नीचे कहीं गिर जाते हो, मनोमय-कोश में आ गए, कहीं और आ गए। बिरले होते हैं वो जो आनंदमय-कोश को साधन-मात्र, मार्ग-मात्र समझते हैं आत्मा तक प्रवेश का। जो आनंदमय-कोश का भी अतिक्रमण कर गया, वो आत्मा में प्रवेश कर जाता है; आनंदमय-कोश आखिरी अवरोध है।
आनंदमय-कोश अपने आप में एक भारी प्रलोभन है। आनंदमय-कोश आपको क्या लालच दे देता है? वो आपसे कहता है, “ज़िदगी चल रही है न? तुम्हें नीचे के सुख तो मिल ही रहे हैं। शरीर के सुख मिल रहे हैं, मन के सुख मिल रहे हैं, ज्ञान के सुख मिल रहे हैं।“ शरीर का सुख कहाँ मिल रहा है? अन्नमय-कोश में। जिसे तुम कहते हो जीवन का सुख, वो तुम्हें कहाँ मिल रहा है? प्राणमय-कोश में। इच्छाओं को पूरा करने का सुख मनोमय-कोश में है। ज्ञान से जितने तरह की उपलब्धियाँ और सुविधाएँ हासिल की जाती हैं, उनके सुख विज्ञानमय-कोश में हैं।
“ये सब तो तुमको सुख मिल ही रहे हैं, साथ-ही-साथ रोज़ तुम थोड़ी देर के लिए समाधि का भी सुख ले लिया करो। किस कोश में? आनंदमय-कोश में।“
कैसे ले लिया समाधि का सुख? ध्यान पर बैठ गए, कुछ गा लिए, कोई और विधि आज़मा ली। तो थोड़ी देर के लिए आनंदमय-कोश का भी सुख ले लिया; पाँचों कोशों का अनुभव ले लिया, क्या बात है! क्या बात है! बस किससे चूक गए? आत्मा से, जो सब कोशों के पार है, जो पाँचवें कोश का उल्लंघन करने के बाद मिलती है, उस पर चूक गए।
तो ये जो हमें एक तरीका दिया गया है, ये एक आदर्श है, ये एक मॉडल (प्रतिरूप) है, ये एक नमूना है। पाँच कोश कहीं होते नहीं हैं, ये एक तरीके की व्यवस्था बनाई गई है अपने अस्तित्व को समझने के लिए कि हम हैं कौन।
ऋषि से किसी ने पूछा होगा, “हम हैं कौन?” तो ऋषि ने ऐसे करके जवाब दिया कि “देखो, हम पाँच तलों पर जीने वाले लोग हैं, और ये पाँच तल हो सकते हैं। और ये जो पाँचों तल हैं, ये पाँचों अनात्मा के तल हैं, इन पाँचों तलों पर अहंकार जीवित रह जाता है, इन पाँचों तलों पर अहंकार ही वास करता है। इसीलिए ये पाँचों तल वो हैं जिनका तुमको कभी-न-कभी त्याग करना है या उल्लंघन करना है। वास्तव में तुम हो आत्मा, जो पाँचों कोशों से विलग है और अतीत है।“
जी तो तुम इन कोशों में ही रहे हो न लेकिन? तो फ़िर इन कोशों का करना क्या है? जीवन क्यों है? जीवन का तो मतलब ही यही है कि तुम कोशों में जी रहे हो। फ़िर, ये कोश इसलिए हैं ताकि इन कोशों का तुम सही इस्तेमाल करके इन्हीं कोशों से आगे निकल जाओ। इन कोशों को भोगने की नज़र से नहीं देखना है, संसाधन की दृष्टि से देखना है, ये दो बहुत अलग-अलग बात हैं।
इन कोशों को ऐसे नहीं देखना है कि इन्हीं कोशों को भोग-भोग कर इन्हीं से सुख ले लें। इन कोशों को ऐसे देखना है कि ये जो कोश हैं, ये मेरे लिए ऊर्जा हैं, ईंधन हैं, अवसर हैं, संसाधन हैं। मुझे इनका समुचित प्रयोग करना है ताकि मैं इन्हीं का इस्तेमाल करूँगा और इन्हीं से आगे निकल जाऊँगा।
इन कोशों में सब आ गया है न? शरीर आ गया, मन आ गया, बुद्धि आ गई और तुमने शरीर, मन, बुद्धि का प्रयोग करके जो कुछ भी अर्जित करा है, ज्ञान, सम्पदा, धन, वो सब भी आ गया। तो पाँच कोशों में तुम्हारा पूरा संसार आ गया। इस तुम्हारे पूरे संसार का तुम्हें करना क्या है? प्रयोग करना है, समुचित प्रयोग; इसका प्रयोग करके लाँघ जाना है।
समझ में आ रही है बात?
तो ये है पंचकोशीय व्यवस्था। अस्तित्व को इसी तरीके से तीन शरीरों के माध्यम से भी समझाया गया है, उनमें भी जाओगे तो बात करीब-करीब ऐसी ही निकलेगी। उनकी चर्चा हम कभी आगे करेंगे।