अनंत चेतना का महासागर || योगवासिष्ठ सार पर (2018)

Acharya Prashant

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अनंत चेतना का महासागर || योगवासिष्ठ सार पर (2018)

मुझमें ब्रह्माण्ड की काल्पनिक तरंगों को उठने या गिरने दो। मैं जो अनंत चेतना का महासागर हूँ, मुझमें कोई वृद्धि या कमी नहीं होती। —योगवासिष्ठ सार

आचार्य प्रशांत: "अनंत चेतना का महासागर हूँ मैं।” ये जो 'अनंत चेतना' है, इसको थोड़ा समझना पड़ेगा। चेतना में अनंतता दो तरह की होती है: एक विस्तार की, एक गहराई की। विस्तार की जो अनंतता है, उसे कहते हैं मन की कल्पनाशीलता, ‘जहाँ न जावे रवि, वहाँ जावे कवि’—ये चेतना की अनंतता ही है। कवि ऐसी-ऐसी बातें सोच लाएँगे कि पूछो मत। और सोच का कोई अंत नहीं, तुम सोचे जाओ, सोचे जाओ।

मानसिक आकाश भी अनंत है, काल्पनिक आकाश भी अनंत है। जैसे बाहर का आकाश अनंत है न, भीतर भी है। बाहर की दुनिया अनंत है, ऐसे ही भीतर की दुनिया भी अनंत है। बाहर चीज़ें-ही-चीज़ें हैं, भीतर ख़याल-ही-ख़याल हैं—अनंतता दोनों तरफ है।

तो एक आयाम है अनंतता का विस्तार, कि मन फैले ही जा रहा है, फैले ही जा रहा है; पंख पसारे ही जा रहा है; कल्पना करे ही जा रहा है। और चेतना की अनंतता का दूसरा आयाम है: गहराई—ये है मन का अंतर्गमन। जब मन विस्तार पाता है तो संसार में पंख पसारता है—ये मन का बहिर्गमन है।

आप कल्पना जब भी करेंगे, संसार की करेंगे। उसकी ही तो करेंगे न जो कल्पित हो सकता है? आत्मा की तो करेंगे नहीं। अब आपसे कहा भी जाए कि ज़रा अंदर की कल्पना करिए, तो अंदर के नाम पर क्या कल्पना करेंगे, कि कोई अँधेरी सी जगह है लाल-लाल? अंदर की तुम क्या कल्पना करोगे, अंदर क्या है? कोई फूल-पताशे तो होंगे नहीं भीतर—खून होगा, हड्डी होगी, दिल होगा, वो धड़क रहा होगा रक्त में नहाया हुआ, नसें होंगी, इधर से उधर चीज़ें जा रही हैं, तमाम नलियाँ है, किसी में हवा आ रही है, किसी में कुछ—यही तो कल्पना करोगे? तो ये तो संसार है। ये भीतर की चीज़ थोड़े ही है; ये भी बाहरी ही है।

जब तुम इस तथाकथित भीतर की कल्पना करो, तो जान लेना ये भीतरी नहीं है, बाहरी है। वस्तुएँ तो सब बाहरी ही होती हैं। तुम्हारा फेफड़ा भी है तो वस्तु ही, इसीलिए बाहरी है, भले ही तुम कहो कि मेरे अंदर है। जब कहा जाता है कि अंदर जाओ तो यह नहीं कहा जाता कि फेफड़े में घुस जाओ; वो कोई और बात है।

मैंने पूछा एक सज्जन से कि अंदर कैसे जाते हो?

बोले, "हम नाक से अंदर जाते हैं।”

मैंने बोला "नाक से काहे?"

"अंदर जाने का कोई रास्ता तो होना चाहिए। कुछ ही रास्ते हैं, उसमें से सबसे साफ़ रास्ता हमें यही लगा। एक रास्ता बड़ा फिसलन भरा है, मुँह का। एक रास्ता बड़ा गंधाता है, एक रास्ते (कान) का पता नहीं कहाँ तक जाता है, तो हमें लगा कि नाक वाला रास्ता ठीक है। इससे शुद्ध हवा जाती है, हम भी हवा खाते हुए घुस जाएँगे अंदर।"

तो नाक से घुसोगे तो फेफड़े तक ही पहुँचोगे, आत्मा तक तो पहुँचोगे नहीं। और मुँह से घुसोगे तो कहाँ जाओगे? अपनी ही आँत में घुस जाओगे, वहीं पच जाओगे, मल बनकर गिरोगे भद्द।

अंतर्गमन जैसा कुछ होता नहीं। मन कहीं अंदर-वंदर नहीं जा सकता। मन जब शांत हो जाए तो कहना अंतर्गमन। मन की गति सदा बाहर की ओर ही होगी। अंदर की ओर जैसी कोई गति नहीं होती। अंदर की ओर जाना माने अगति। मन चला तो कहाँ को गया? बाहर। मन नहीं चला तो कह दो, “अंदर गया।”

मन कल्पना करता है, बाहर-बाहर दौड़ता है। मन जितना शांत होता जाता है, उतना हम कहते हैं कि अब ये किसी अन्य आयाम में जा रहा है। मन जितना चल रहा है, उतना वो एक आयाम में है और मन जितना शांत हो गया, उसको हम कहते हैं कि अब वो गहराई लेता जा रहा है, अब वो दूसरे आयाम में जा रहा है। जैसे कल्पना अनंत है, वैसे ही गहराई में जाने की सम्भावना भी अनंत है। तुम कितना गहरे जा सकते हो, इस पर कोई पाबंदी नहीं है, अर्थात तुम कितने भी शांत हो सकते हो।

ज़ीरो (शून्य) केल्विन जानते हैं आप? ज़ीरो केल्विन तक पहुँचना असंभव है। बहुत ठंडक हो जाती है। ज़ीरो केल्विन का अर्थ होता है कि उस वस्तु का कोई भी परमाणु अब शून्य गति कर रहा है, क्योंकि जब तक कोई भी अणु-परमाणु ज़रा भी गति कर रहा है तो उसी गति का नाम होता है तापमान।

जितने तेज़ी से पानी के परमाणु अपने केंद्र के इर्द-गिर्द गति कर रहे हैं, उतना ज़्यादा पानी का तापमान होगा। तो ज़ीरो केल्विन का अर्थ होता है: पूरी तरह शांत हो जाना। और ज़ीरो केल्विन तापमान पाया नहीं जा सकता क्योंकि उसका अर्थ होता है: पूर्ण शान्ति, एब्सोल्यूट नॉन-मूवमेंट ; इसीलिए ज़ीरो केल्विन आज तक हुआ नहीं। हाँ, आप उसके बहुत-बहुत-बहुत-बहुत करीब पहुँचे हो, पर ठीक शून्य पर नहीं पहुँचे। ०.०००००००१ केल्विन, इतना पहुँच जाओगे, ज़ीरो केल्विन नहीं पहुँच सकते।

अनंतता समझ रहे हो क्या है? शान्ति तक पहुँचने का मार्ग भी अनंत है, बड़ा लम्बा है। तुम चलते जाओ, चलते जाओ, अभी और भी जाना होगा। “पूर्ण शान्ति आ गई है,” ऐसा कह नहीं सकते। गहराई की सम्भावना अनंत है। तुम और गहरे जाते जाओ, जाते जाओ, जाते जाओ।

जैसे भोगी के सामने अभी और भोगने की चुनौती लगातार बनी रहती है, अभी तो और चाहिए न—उसके आयाम में उसे विस्तार करना है—ये भोगा, वो भोगा, ये भोगा, अभी और भोगना है। वैसे ही योगी के सामने अभी और पक्के तरीके से योगारूढ़ होने की सम्भावना और चुनौती बनी ही रहती है।

इसीलिए तो पुरानी कहानियों में पढ़ते हो कि फलाने ऋषि थे, वो पचास हज़ार साल से तपस्या ही कर रहे थे और उन्होंने बड़ी सिद्धियाँ पा ली थी, बड़ा नाम था उनका। तो इंद्र आदि देवताओं ने कहा कि चलो इनको हिलाते हैं, और वो कोई लालच लेकर या कभी कोई राक्षस बनकर आ गए, कभी अप्सरा बनकर आ गए, कभी कोई और कांड खड़ा कर दिया। ये सब क्या हो रहा है? ये सब जाँचा जा रहा है कि तुम्हारे योग में गहराई कितनी है, क्योंकि गहराई कभी पूरी नहीं होती, अभी और बचा रहता है।

और यही मज़ा है; यह कोई मजबूरी की बात नहीं है कि भगवान अभी भी दूर हैं। अभी भी क्या पूर्ण प्राप्ति नहीं हुई? भला है कि दूर हैं। इस दूरी में रस है, रस क्यों है? क्योंकि इस दूरी से ही तो पता चलता है कि भगवान, भगवान हैं और तुम, तुम हो। तुम अभी तुम ही हो और तुम्हारे 'तुम' रहते हुए भी तुमने भगवान को प्राप्त कर लिया, तो ऐसे भगवान की क्या औकात? वो दूर हैं, तभी तो कीमती हैं। वो दूर हैं, क्योंकि वो इतना सा भी मल-छल बर्दाश्त नहीं करेंगे। तुम अभी ‘तुम’ हो, तुम्हारा अभी बचा हुआ है, तो भला है न कि दूर हैं? तभी तो उनकी प्राप्ति रसीली है, आकर्षक है। तभी तो तुम अपने ज़रा से मल और छल को साफ़ करोगे कि “अभी दूर हैं।”

तभी तो कबीर को कहना पड़ता है कि साधु, मुनि, पीर, औलिया, माया सबको खाती है। अब कोई पीर है, कोई औलिया है, कोई साधु है, कोई मुनि है, तो ऐसे ही थोड़े ही है। गहराई तो उसमें होगी, तभी न है? पर माया उसे भी खाए ले रही है। गहराई उसमें है, तभी मुनि कहलाता है, तभी औलिया है, पर अभी भी माया उस पर धावा मारे दे रही है। इसका मतलब क्या है? कि अभी और गहराई संभव है, अभी और गहराई चुनौती है। तो ये बात है जो यहाँ कही गई है कि "मैं अनंत चेतना का महासागर हूँ।”

"मुझमें कोई वृद्धि या कमी नहीं होती,” यह बात आप सिर्फ गहराई के आयाम में बोलेंगे। अगर आप विस्तार के आयाम में हैं तो आप में खूब वृद्धि और कमी होती है। पर ज़ाहिर सी बात, ये पंक्तियाँ आपके सामने विस्तार के आयाम से तो आ नहीं रहीं। ये कहाँ से उठी हैं? ये ध्यान से उठी हैं, ये ध्यान की गहराइयों से उठी पंक्तियाँ हैं, इसलिए ये कह रही हैं कि मुझमें कोई वृद्धि या कमी नहीं होती। मुझमें कोई वृद्धि या कमी नहीं होती, कब? जब मैं शांत हूँ, जब मैं गहराई में हूँ। मैं विस्तार की दौड़ में हूँ, तब तो मुझे लगातार यही रहता है कि जितना दौड़े, उतना पाए। और दौड़ लिए, वृद्धि हो जाएगी, कम दौड़ लिए तो कमी रह जाएगी।

"मुझमें ब्रह्माण्ड की काल्पनिक तरंगों को उठने दो या गिरने दो।” ये ब्रह्माण्ड की काल्पनिक तरंगें किस आयाम में हैं? विस्तार के आयाम में। जो गहरा चला गया, ये उसका वक्तव्य है कि विस्तार के क्षेत्र में जो होता है, वो होने दो, हमें लेना-देना क्या है। हम कहीं और बैठें हैं। हम तट से ज़रा दूर बैठते हैं, बड़ी लहरें उठ रही हैं, गिर रही हैं, हम गीले थोड़ी हो जाएँगे।

सागर कितना बड़ा? सागर अनंत है कि नहीं? ठीक उतना ही अनंत है जितना कि कल्पनाओं का विस्तार, वैसा ही अनंत सागर है। और सागर में कितनी लहरें? अनंत हैं कि नहीं? पर तुम सागर से बस ज़रा बीस फीट दूर बैठ जाओ। सागर की अनंतता भी क्या तुम्हें गीला कर पाएगी? तो कल्पनाओं के आयाम से तुम दूर ज़रा बैठ सकते हो, भले ही वो आयाम अपने-आपमें अनंत लगता हो, लेकिन फ़िर भी तुम उससे दूर जा सकते हो क्योंकि दूसरा आयाम संभव है।

एक बात पर और गौर करना, वास्तविक अनंतता गहराई के आयाम की ही है क्योंकि उसमें कल्पनाओं का आयाम समा जाएगा। तुम गहरे हो सकते हो और तुममें लहरें उठ-गिर सकती हैं। गहरा होना तुम्हारा प्राथमिक और वास्तविक केंद्र हो सकता है और तुममें लहरें उठ-गिर सकती हैं।

संत अपनी गहराइयों में विचार कर रहा है। एक आयाम में दूसरा आयाम समाया हुआ है। उसका विचार अनंत विचार है, वो भी खूब सोच रहा है और वो कल्पना भी कर रहा है। संत भी कल्पना करते हैं। संतों की कल्पना उनके पदों में नहीं देखते? तुलसी की कल्पनाएँ देखो, कैसे-कैसे दृश्य खड़े करते हैं, क्या-क्या चित्र रचते हैं। कल्पनाओं का लेकिन जो पूरा विस्तार है, वो संत की गहराई में समा गया।

इसका उलटा संभव नहीं है। एक आदमी जो कल्पनाओं में है, जिसने कल्पना को ही अपना प्राथमिक केंद्र बना रखा है, वो गहराई को नहीं पा पाएगा। हाँ, गहराई को पाए हुए तुम तो अब खुल्लम-खुल्ला कल्पना कर सकते हो। मौज है!

गहराई में आरूढ़ होकर, मुक्त कल्पना, स्वच्छंद कल्पना करना संभव है, लेकिन कल्पना के पंखों पर बैठकर आत्मा तक जाना संभव नहीं है। आप आत्मस्थ हो तो आपकी हर कल्पना में अब खुशबू होगी। पर आप कल्पना के घोड़े पर सवार हो और दौड़े जा रहे हो, तो कितना भी घोड़े को दौड़ा लो, वो सत्य तक और आत्मा तक नहीं पहुँचने वाला।

विस्तार भी अनंत है, गहराई भी अनंत है और ये मज़ेदार बात है कि एक अनंत दूसरे में समा जाता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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