श्रोता: सर, आपके अनुसार जिंदगी कैसे जीनी चाहिए? कैसे एन्जॉय करना चाहिए?
वक्ता: आदमी अकेला ही है जो पूछता है कि कैसे ‘एन्जॉय’ करें| इंसान अकेला ही ऐसा है जिसे अलग से कुछ करना पड़ता है, जिसे वो एन्जॉयमेंट का नाम दे सके| वो कहता है ये सब तो मेरी सामान्य गतिविधियाँ हो गयी, अब इनसे हट करके कुछ और क्या करूँ अपने एन्जॉयमेंट के लिए|
अब अस्तित्व को देखो कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे कुछ अलग करना पड़ता हो, आनंद के लिए| ‘एन्जॉय’ माने आनंद| सब यूँ ही मस्त हैं, आनंदित हैं, जैसे हैं उसी में; कुछ और नहीं करना पड़ता, कुछ भिन्न नहीं होना पड़ता| किसी अलग पटरी पर नहीं जाना पड़ता|
आनंद कुछ करने में नहीं है कि तुम कोई ख़ास काम करोगे तो उसमें तुम्हें आनंद मिल जाएगा| आनंद में, बहुत सारे काम होते हैं आम, खास, छोटे या बड़े जो भी तुम उन्हें नाम देना चाहो|
किसी काम से तुम्हे आनंद नहीं मिल सकता| आनदं पहले आता है, काम बाद में आता है|
इंसान अकेला है जिसे ये भ्रम रहता है कि कुछ करके आनंद मिल जाएगा| यही रहता है ना तुमको कि ऐसा क्या करें कि आनंद उपलब्ध हो जाए| यही सवाल पूछते हो ना? ये सवाल ही मूलतः गलत है| जो तुम्हारे पास है नहीं, वो कुछ कर के हासिल नहीं हो सकता| कर-कर के जो हासिल होता है वो सब वही हैं, जो तुम्हारे मन की ही उपज हैं| कोई मटेरियल हो, वो हासिल हो सकता है| कोई जगह होगी, वहाँ तक पहुँच सकते हो| पर आनंद, मुक्ति, प्रेम या सत्य, यह कुछ कर के हासिल करने वाली चीजे नहीं है| आनंद में रहा जाता है, चाहे कुछ कर रहे हो या नहीं कर रहे हो और आनंद की इस हालत में फिर तुम जो कुछ भी करो उस पर तुम्हारे आनदं का रंग चढ़ जाता है| तुम आनंदित हो, खा रहे हो, तो तुम्हारे खाने पर उस आनंद का रंग चढ़ जाता है| खाना साधारण होगा लेकिन तुम उसे आनंद में खा रहे होगे| खाने से तुम्हे आनंद नहीं मिल रहा है| तुम आनंदित हो इसलिए तुम्हें खाने में आनंद मिल रहा है|
अंतर समझना, खाना आनंद नहीं दे रहा है| खाना बहुत छोटी चीज है, आनंद कैसे दे सकता है? आनंद बहुत-बहुत बड़ी बात है| वो किसी चीज़ से नहीं मिलती है| तुम अपनी मस्ती में चल रहे हो क्यूँकी तुम मस्त हो, दिल में मस्ती है| तो तुम्हारी चाल में भी मस्ती आ जाएगी| अब रास्ते ने तुम्हे आनंद नहीं दे दिया है| तुम्हारी चाल में जो मस्ती है वो तुम्हारे दिल से आ रही है, रास्ते से नहीं आ रही है| समझे बात को?
तो अब ये सवाल पैदा होता है कि हमने ये तो जान लिया कि आनंद कुछ कर के पाने वाली चीज़ नहीं है, कहीं बाहर से आने वाली चीज़ नहीं है| वो भीतर से उठती है, दिल से उठती है, वो मन की आंतरिक अवस्था है| तो अवस्था पाई कैसे जाए? ये सवाल तो बच ही गया|
अब हम एक दूसरी भ्रांति को तोड़ेंगे| आनंद ऐसी अवस्था है जो कभी खोती ही नहीं तो उसको पाने का सवाल ही पैदा नहीं होता इसीलिए ये सवाल भी गलत है कि आनंद पाया कैसे जाए| पहले तो तुमने ये पूछा कि आनंद बाहर क्या कर के पाया जाए तो मैंने कहा ‘’बाहर से कर के नहीं पाया जाता|’’ अब मैं तुमसे कह रहा हूँ, ‘’भीतर भी कुछ करके नहीं पाया जाता|’’
आनंद पाया जाता ही नहीं क्यूँकी वो तुम्हारा स्वभाव है और स्वभाव माने वो जो कभी खो नहीं सकता| जो कभी खो नहीं सकता उसको पाने का सवाल पैदा नहीं होता| अब तुम उलझन में पड़ोगे, कहोगे ‘’सर, आनंद हमारा स्वभाव होता है जो कभी खो नहीं सकता, तो हमे अनुभव क्यूँ नहीं होता?’’ हम आनंदित तो नहीं रहते हमेशा या रहते हो? नहीं रहते|
अगर स्वभाव ही है हमारा कहीं से पाना नहीं है तो खोया सा क्यूँ रहता है? बिल्कुल हो सकता है| तुम्हारे ही पास कोई चीज हो पर अगर तुम भूल जाओ कि तुम्हारे पास है, तो तुम्हें तो यही लगेगा ना कि अब नहीं है| तुम्हारी ही जेब में कुछ रखा हो पर तुम भूल गए कि जेब में हैं तो तुम्हें क्या अनुभव होगा? जल्दी बोलो|
श्रोता: नहीं है|
वक्ता: कि नहीं है| वो तुम्हारे ही पास है पर दस और चीजों से ढक गया है| अभी जाड़े थे, खूब ठण्ड पड़ रही थी, तो एक रजाई, दो रजाई, एक कम्बल, दो कम्बल और एक छोटी सी चाबी हो और वो दो-चार रजाइयों के नीचे दब जाए| तुम्हारा ही बिस्तर, तुम्हारी ही रजाइयाँ, तुम्हारी ही चाबी पर वो जो चाबी है वो रजाइयों, कम्बल और बिस्तर के नीचे छुप गयी है तो तुम्हें क्या लगेगा? तुम्हें ये लगेगा कि मेरे पास नहीं है वो, मैंने गवा दी जब कि वो तुम्हारे पास है, सामने ही है, बस दबी पड़ी है|
आनदं ऐसा ही है वो कभी तुमसे दूर नहीं हो सकता है| हाँ, दब जाता है, आच्छादित हो जाता है, दूसरी चीजों के नीचे छुप जाता है| किन चीजों के नीचे छुप जाता है? आनंद छुप जाता है सुख और दुःख के नीचे| सुख माने वो, जिसकी तरफ तुम भागते हो| दुःख माने वो जिससे तुम दूर भागते हो| दोनों में ही साझी बात क्या है? भागना|
आनंद तुम्हारे पास है, तुम्हारे घर में है और सुख और दुःख तुम्हें क्या करते हैं? भगाते हैं| आनंद तुम्हारे पास है, तुम उससे दूर भाग रहे हो| आनंद नहीं खो रहा था, तुम उससे दूर भाग रहे थे और कहते क्या हो “अरे! आनंद नहीं मिल रहा| क्या करें कि मिल जाए?’’ ‘एन्जॉयमेंट’ कितना महत्ववपूर्ण शब्द होता है हर इंसान के लिए और किया क्या है इसने? रखा हुआ था आनंद, उससे कभी दाएँ भाग रहा था, कभी बाएँ भाग रहा था|
रखा उसी के घर में है, लौट के उसे घर ही आना है| वो खो नहीं गया है, वो खुद भाग गया है| दाएँ भाग रहा है सुख की तरफ, बाएँ भाग रहा है दुःख से दूर| तो बस समझ लो जब भी तुम सुख की तलाश में निकलोगे, जब भी तुम किसी भी चीज़ से, घटना से या व्यक्ति से मज़े ‘प्लेज़र’ ‘हैप्पीनेस’ लोगे तो आनंद तुमसे दूर हो जाएगा|
ख़ुशी और आनंद साथ-साथ नहीं चलते| समझो बात को, ख़ुशी वो है जो तुम्हें चाहिए और आनंद वो है जो तुम हो| दोनों बहुत अलग बातें हैं| जो ख़ुशी के पीछे भागा वो किससे दूर भागा?
श्रोता: आनंद से|
वक्ता: आनंद से क्यूँकी भाग गया| आनंद उसके लिए है जो अपने घर पर रुक गया, ठहर गया, स्थिर हो गया| ये भाषा की बहुत बड़ी भूल है कि ख़ुशी और आनंद को पर्यायवाची लिख दिया जाता है| प्रसन्नता और आनंद एक दूसरे के पर्यावाची नहीं है| इनके बहुत भिन्न अर्थ हैं, बहुत ही अलग-अलग| ‘हैप्पीनेस’ और जॉय एक बात नहीं है| जिन्हें ‘हैप्पीनेस ’ चाहिए वो जॉय को भूल जाएँ और ‘हैप्पीनेस’ बहुत सस्ती बात है| वो तुम्हारे विपरीत पर निर्भर करती है ‘सॉरो’ पर, दुःख पर|
कुछ होते हैं जिन्हें ख़ुशी बहुत चाहिए और कुछ होते हैं जिन्हें दुःख से ही आसक्ति होती है| तुमने देखा है कुछ लोग अभ्यास कर-कर के दुखी रहते हैं और उनको बड़ी ग्लानी अनुभव होती है अगर उन्हें हँसी आ जाए| उन्हें लगता है गुनाह हो गया आज हम मुस्कुरा कैसे गए? फिर जा कर पाप धोते हैं कि उन्हें हँसी कैसे आ गयी| तुम ये मत समझना कि हम बस सुख-दुःख से बचने भर की कोशिश करते हैं, वाकई दुःख से बचने की हमारी कोशिश नहीं है|
दुःख आए हम उससे भी दूर भागे, लुक्का-छुप्पी का खेल है, उसका अपना मज़ा है| मज़ा भागने में मिलता है हमको; जिसकी ओर भागा उसका नाम हम रख देते है सुख, जिससे दूर भागे उसका नाम रख देते हैं दुःख| पर न सुख न दुःख असली मुद्दा तो भागने का है| हमें कुछ चाहिए जो हमें व्यस्थ रख सके, हमें कुछ चाहिए जो हमें एहसास दिला सके कि जीवन अर्थपूर्ण है, करने के लिए कुछ है|
ये दो अवस्था में होता है, भागो तुम्हें एक लाख रूपये मिल जाएँगे; दूसरा भागो नहीं तो तुम्हारे एक लाख रूपये छिन जाएँगे| भागो, वहाँ कोई ख़ास तुम्हारा इन्तज़ार कर रहा है; भागो नहीं तो जो ख़ास लोग तुम्हारे पास हैं, वो तुम्हारे पास नहीं रहेंगे| तो बात तो असली भागने की है| भागो कुछ अर्जित करने को| भागो जो अर्जित किया ही हुआ है, उसकी सुरक्षा करने के लिए| सारी-दौड़ भाग इसीलिए तो है ना, या तो कमाने की या बचाने की और जो भागा वो आनंद से ही दूर भागा| तुम और किसी चीज़ से दूर नहीं भागते हो,
हर दौड़ आनंद से दूर जाने की दौड़ है
और दूर तुम जा नहीं सकते क्यूँकी आनंद बैठा तुम्हारे घर में ही है| तुम्हें लौट के आना पड़ेगा उसके पास, तुम अपने आप को सज़ा दे लेते हो| मज़ा पाने की धुन में सज़ा बहुत देते हो अपने आप को और मैं तुमसे कह रहा हूँ जिनको भी मज़ा चाहिए मिलेगी उन्हें सिर्फ़ सजा| मज़ा सबको चाहिए, उनकी सज़ा यही है कि आनंद जो उन्हें मिला ही हुआ था वो व्यर्थ ही उनसे छुप जाएगा| जैसे कि सूरज मिला ही है पर बादलों के पीछे छुप जाए तो होते हुए भी दिखाई नहीं देगा|
ये मत पूछो कि क्या करें कि ‘*एन्जॉयमेंट*’ हो; तुम वैसे ही इतना कुछ कर रही हो| यहाँ कोई ऐसा नहीं बैठा है जो बहुत कुछ ना कर रहा हो| तुम और कुछ करना चाहती हो, एन्जॉयमेंट करना चाहती हो; पन्द्रह काम पहले ही किए जा रही हो ओर अब उसमे सोलह्वाँ भी जोड़ना है? जिन्हें आनंद चाहिए वो करना कम करे, करन बढ़ाएँ नहीं| पर हमारी होशियारी देखो, हमे लगता है पन्द्रह को सोलह करेंगे तो आनंद मिलेगा| पन्द्रह को सोलह करने से आनंद नहीं मिलता| पन्द्रह को चौदह करने से तुम आनंद के करीब आते हो|
तुमने जो अपनी जिंदगी में नाहक कूड़ा-काचडा, हज़ार तरह की गंभीरताएँ, व्यस्थताएँ भर रखी हैं| जब तुम इनकी व्यर्थताओं को देखते हो, जब तुम साफ़-साफ़ देखते हो कि ये क्या मूर्खता है, किसमें उलझे हुए हैं, इससे किसको क्या मिल जाना है? आज-तक मुझे क्या मिल गया इससे और आगे भी इससे क्या मिलना है, उम्मीद के अलावा?
ज्यों ही ये बोध गहरे बैठता है वैसे-वैसे पन्द्रह, चौदह, तेरह, बारह, ग्यारह, दस ऐसे होना शुरू होता है| जैसे-जैसे तुम्हारे मन पर जमें ये रज़ाई, कम्बल हटने शुरू होते हैं, वैसे-वैसे चाबी दिखनी शूरू हो जाती है नहीं तो जितने ये आवरण डाल रखे हैं ना, ये तहे डाल रखी हैं इनको हटाओ, जिन-जिन चीजों को बड़ा महत्व देते हो, बड़ी आसक्ति, बड़ी गंभीरता से लेते हो| उनको ज़रा ध्यान से देखो और पूछो कि इसकी कोई भी उपयोगिता है मेरी जिंदगी में? इमानदारी से, बेख़ौफ़ हो कर ज़रा, डर-डर के पूछोगे तो उत्तर गलत मिलेगा| बिलकुल निर्भय हो कर पूछो, क्यूँ? क्यूँ करना है यह सब? उसके बाद भी अगर कुछ बचे करने को, तो समझ लेना ये हम आनंद में कर रहे हैं|
अच्छा, और एक नयी भ्रान्ति मत पाल लेना कि आनंद का मतलब यह हुआ कि कुछ करो ही मत पन्द्रह, चौदह, तेरह, बारह, अंत में शून्य यानी कि कुछ करना नहीं है अब|
आनंद में बहुत कुछ होता है और स्वतः होता है, बिना तुम्हारी किसी विशेष इच्छा के होता है और बहुत खुबसूरत तरीके से होता है| उसके पीछे ऊर्जा बहुत होती है, उसके पीछे बोध की गुणवत्ता होती है और वो सृजनात्मक काम होता है, ‘क्रिएटिव’ | ‘क्रिएटिविटी’ सिर्फ ‘जॉय’ से निकल सकती है|
सृजनात्मकता का और कोई स्रोत हो ही नहीं सकता, तुम्हारे आतंरिक आनंद के अलावा|
फिर उसमें दोहराव नहीं होता कि रोज़-रोज़ जो कर रहे हो वही करे जा रहे हो, ना! फिर छोटी से छोटी घटना भी नयी होती है| सूरज देख रहे हो तो ऐसे जैसे कि नया है, खाना वही खा रहे हो जो कल खाया था पर रोटी कुछ नयी सी है, कल का बोझ नहीं है सर पर, कल की स्मृति नहीं है, बिलकुल हल्के हो कर के खा रहे हो, वर्तमान में मौजूद हो|
आनंद, रोटी तोड़ने में आनंद| तुम्हें जा कर के किसी पर्वत पर नहीं चढ़ना है| तुम्हें अरबों रूपए नहीं हासिल करने हैं, तुम्हें बड़े-बड़े तब्के नहीं हासिल करने हैं आनंद के लिए| तुम देखना जीवन की छोटी-छोटी घटनाए कैसे आनंद में होंगी| चाय पी रहे हो, आनंद ही आनंद और ऐसा नहीं है कि वो आनंद चाय में था| शक्कर के साथ उसमें आनंद भी मिलाया गया है! वो आनंद तुम्हारे भीतर था, तुमसे चाय तक पहुँचा है; चाय से तुम तक नहीं पहुँचा| आ रही है बात समझ में? चाय नहीं मीठी थी| तुमने उसको पिया तो तुम्हारी मिठास चाय तक पहुँच गयी, ऐसा होता है आनंद|
हमारी क्या हालत है? हमारी हालत तो यह है कि अच्छी-खासी मीठी चाय हो, हम छू दें होठों से तो कड़वी हो जाती है|
श्रोता: सर, आनंद पैसे से भी तो मिल सकता है?
वक्ता: कितने? मुझे खरीदना है|
श्रोता: सर, खरीदने की बात नहीं कर रहे पर किसी के पास अगर खूब पैसा हो…
वक्ता: खूब माने कितना बेटा?
(सब हँसते हैं)
श्रोता: सर मतलब बहुत ज्यादा, जितना चाहिए हो|
वक्ता: खूब माने कितना? तुम्हारे मन में कुछ तो छवि होगी? कितना?
श्रोता: सर, करोड़ों में खेल रहे हों|
वक्ता: कितने करोड़?
(सब हँसते हैं)
श्रोता: सर, ऐसे कैसे बता सकता हैं|
वक्ता: अरे! जब नहीं बता सकते तो बोलो भी नहीं| उत्तर अगर दस करोड़ है और किसी के पास दो ही करोड़ हैं तो? आनंद, नहीं मिलेगा तुम्हें फिर| तो ठीक-ठीक बताओ 8.47 करोड़| कितने? कहाँ पर सीमा खींचनी है?
श्रोता: सर, 90 करो|
वक्ता: ठीक, अब बताओ 91 क्यूँ नहीं?
श्रोता: सर, 91 की बात नहीं है|
वक्ता: नहीं बात है बिलकुल है| भाई, तुम्हारे परीक्षा में अगर 91 आने हो और 90 ही आए हों तो क्या करते हो? बोलते हो सर ज़रा दुबारा टोटलिंग करिएगा एक नंबर कम है| करते हो कि नहीं? तो ऐसे कैसे 90, 91 को एक ही मान लें| ठीक-ठीक बताओ 91 क्यूँ और जिसको 90 मिलेगा वो 91 छोड़ देगा और जिसको 90 मिलना होगा वो 85 में राज़ी हो जाएगा| जिसका घर 90 लाख में बिक रहा हो वो 85 में बेचने को राज़ी होता है, कभी खरीद के देखना?
बात समझ आ रही है?
जो भी कुछ बाहरी है वो कभी थम नहीं सकता क्यूँकी संख्याएँ कभी थम नहीं सकती और दुनिया में जो कुछ भी है वो संख्याओं में कैद किया जा सकता है| वो ‘न्युमेरिकल ही है, दुनिया में जो भी कुछ है उसके लिए कोई ना कोई आकड़ा जरुर मौजूद होगा; और आकडे कहाँ तक जाते हैं?
श्रोता: ‘इनफिनिट’
वक्ता: तो रुकोगे कहाँ और हमने क्या कहा? आनंद किसका नाम है, भागने का या रुकने का?
श्रोता: रुकने का|
वक्ता: और बाहर जो गया वो रुकेगा कैसे? रुकेगा कहाँ? और तुम्हारी आज जितनी भी उम्र है उसमे तुम कह रहे हो 90 आज से दस साल पहले भी 90 बोलते थे? तो क्या आश्वासन दे सकते हो मुझे कि आज से दस साल बाद भी 90 बोलोगे? क्या आश्वासन दे सकते हो कि आज से एक साल बाद भी 90 पर कायम रहोगे|
श्रोता: सर, नहीं रहेंगे|
वक्ता: नहीं रहोगे ना, तो भागते ही रहोगे| आनंद कहाँ मिला?
श्रोता: नहीं मिलेगा सर|
(सब ज़ोर से हँसते हैं)
वक्ता: तो जो चीज जो कितने भी मूल्य दे कर हासिल ना कि जा सके जानते हो उसे क्या बोलते हैं? उसे मूल्यवान नहीं कहते उसे कहते हैं -अमूल्य| मूल्यवान का मतलब होता है कीमती| अमूल्य का मतलब होता है कितनी भी कीमत दो नहीं मिलेगी, कीमत से मिलती ही नहीं क्यूँकी मिली ही हुई है| जो चाबी तुम्हारी रजाइयों के नीचे दबी हुई है| वो तुम अरबों दे कर भी हासिल कर सकते हो? तुम जाओ दुनिया में किसी को अरबों दो कहो कि मेरी चाबी? वो कैसे देगा तुम्हें? रखी तो तुम्हारे घर में है| तो इसीलिए अमूल्य है क्यूँकी कितने भी मूल्य से कोई तुम्हें दे ही नहीं सकता है| आई बात समझ में?
हसरतें जैसे-जैसे हटती जाएँगी सहज, सीधा-सादा आनंद मिलता जाएगा और वो इतना सीधा-सादा है कि तुम कहोगे कि ये यहीं था| इसी के लिए पागल हो रहे थे, इतनी सीधी-साधी चीज़ है वो| उसमें कुछ भी चमक-धमक ‘ग्लिटर’ है ही नहीं| वो ऐसा है जैसे छोटा सा बच्चा मुस्कुरा रहा हो| कोई बनावटीपन नहीं और उसकी बाज़ार में कोई कीमत भी नहीं| तुम छोटे बच्चे की मुस्कान बेच कर के अगर जूते खरीदना चाहोगे तो नहीं पाओगे|
तुम जाओ दुकान में कहो कि इस बच्चे की मुस्कान देखिए और मुझे खाना खिला दो तो पाओगे नहीं| तो आनंद भी ऐसा ही है उसकी दुनिया के बाजार में कोई कीमत नहीं होती, दुनिया उसकी कोई कद्र नहीं करती| तुम्हें कद्र हो तो अलग बात है|
आनंद कैसा है? एक उदाहरण दूँगा उससे शायद थोड़ा समझ आ जाए| जैसे तुमने चालीस किलो वजन उठा रखा हो और उठाए हुए हो, इतना उठाए हुए हो कि तुम्हारे हाथ और कंधे सुन्न पड़ गए हैं और फिर तुम वो वजन नीचे रख रहे हो| तो कैसा अनुभव होता है? बस आनंद ऐसा है| कुछ खास नहीं, बस ऐसे जैसे बिलकुल निर्बोझ हो गए| व्यर्थ ही इतना कचरा उठा रखा था, उससे साफ़ हो गए|
आनदं कैसा है? एक और उदाहण देता हूँ उससे समझना| अभी होली बीती थी, तुमने चहरे पर दस तरीके के रंग, गोबर और पेंट मल रखा था और होली आते-आते धूप थोड़ी कड़ी होने लग जाती है दोपहर में और तुम्हारे चहरे पर यह सब पुता हुआ है, तो चेहरा कैसा होने लगा है? रूखा होने लगा है, खिंचाव होने लगा है, त्वचा खिंचने लगी है| महसूस हो रहा है तनाव चेहरे पर और फिर तुमने जा करके अच्छे से अपना मुँह साफ़ कर लिया है| आनंद ऐसा है|
जैसे तुमने पचासों नकाब पहन रखे थे और वो नकाब सब तुम्हारे चेहरे को छलनी किये दे रहे थे और तुमने सारे नकाब उतार दिए| अब तुम असली हो, आनंद ऐसा है| कुछ ख़ास नहीं है इसमें, ख़ास तो रंगों में होता है, ख़ास तो नकाबों में होता है|
आनंद तो निर्विशेष हो जाना है, विशेष होना नहीं|
वो कोई ख़ास बात है ही नहीं, वो सारी ख़ास बातों से मुक्ति है और हम किस के पीछे भागते रहते हैं? खासीयत के पीछे, हमें खास होना है| हमें बताया जाता है लाल, लाखो में एक चमकना और जहाँ तुम्हे ये बोल दिया तहाँ तुम्हे आनंद से दूर कर दिया जाता है|
सत्य के लिए, ब्रह्म के लिए जानने वालो ने यही शब्द दिया है- ‘निर्विशेष’| खास नहीं है, आम, साधारण| इसी तरीके से जो ‘ज़ेन’ साधक होते हैं ‘ज़ेन’ गुरु वो भी ‘आर्डिनरीनेस’ पर बड़ा जोर देते हैं| वो कहते हैं कि तुम्हारी बीमारी ही यही है कि तुम्हे ‘एक्स्ट्रा आर्डिनरी’ होना है और हर कोई ‘एक्स्ट्रा आर्डिनरी’ होना चाहता है| तो ‘एक्स्ट्रा आर्डिनरी’ होना कैसी बात हुई? आर्डिनरी|
जब सबको ही एक्स्ट्रा आर्डिनरी होना है तो एक्स्ट्रा आर्डिनरी होना कैसी बात हुई? बड़ी आर्डिनरी | तो वास्तव में एक्स्ट्राऑर्डिनरी बात क्या हुई? आर्डिनरी होना| तो आनंद ऐसा ही है शांत, सहज, साधारण|
और आनंद कैसा है? जैसे कोई लड़की है, प्रकृति ने जना है उसे और जैसा उसे होना चाहिए वो वैसी है| पर उसके भीतर ये भावना बैठा दी गयी है कि नहीं भाई! तुझे कुछ ख़ास होना चाहिए और वो हज़ार तरीक़े का श्रृंगार अपने मुँह पे पोत ले| एक के बाद एक, तह दर तह मेक अप की परतें और वो जा रही है| श्रृंगार किया है उसने और वो जा रही है अपने प्रेमी से मिलने तो अब तो बहुत ज़रूरी है कि मैं ख़ास लगूँ, नहीं तो वो रिझेगा कैसे? कहीं मुझे अस्वीकार ना कर दे?
पर प्रेमी वास्तव में प्रेमी है| वो उसकी शक्ल देखता है और हैरान हो जाता है| कहता है तू कर के क्या आई है और तू किसके लिए यह कर के आई है? और वो जाती है और सब जो नकली समेट रखा होता है उसे धो के आ जाती है| श्रृंगार के साथ-साथ तनाव भी धुल जाता है| श्रृंगार के साथ-साथ झूठ भी धुल जाता है और वो साफ़ हो गयी है चेहरे के साथ-साथ मन भी साफ़ हो जाता है| आनंद ऐसा है, कि जो है, सो है उसमें कोई लीपा-पोती नहीं| उसी में खूबसूरती है|
तो कुछ और नहीं करना है| जो कुछ पोत रखा है अपने उपर उसे झाड़ दो| पर तुम्हारी सारी कोशिश किस चीज़ की है? कि और पोत दो जी| यहाँ जितने बैठे हैं वो और पुतवाने को व्याकुल हैं| ऐसे जैसे किसी ने पहले ही होली खेल रखी हो और अब कहे टैटू भी करो| तुम्हारी ऐसी हालत है और टैटू करके बोले कि अब इसके ऊपर मुझे एक मुखौटा पहनना है| तुम्हारा असली चेहरा दब जाता है|
कितने भी पैसे से तुम क्या खरीद सकते हो? नकली चेहरा| असली अमूल्य होता है कितने भी पैसे से नहीं ख़रीदा जा सकता| समझ में आ रही है बात? आनंद क्यूँ अमूल्य है? क्यूँकी असली है| कीमत दे कर हमेशा नकली ही ख़रीदा जा सकता है| अच्छा क्या-क्या तरीका अपनाते हैं, हम नकली होने के लिए बताओ ज़रा? कैसे-कैसे हम नकली रहते हैं? जल्दी बोलो|
श्रोता: सर, दूसरों के सामने सब अच्छा बनने की कोशिश करते हैं|
वक्ता: जैसे? बिलकुल दिल से बोलना, इमानदारी से, कैसे-कैसे हम नकली रहते हैं| ज़रा हिम्मत करके खोल ही दो आज| बोलो जल्दी बोलो, जानते तो हो ही, तो शर्मा क्यूँ रहे हो? बोलो? (हँसते हुए) करते हुए नहीं लजाते, बताते हुए लजाते हो|बोलो किन तरीकों से हम नकली रहते हैं? अगर बोल दिया तो मुक्त हो जाओगे और नहीं बोला तो यही मौका है तुम अपने नकलीपने को बचाए रहोगे|
श्रोता: सर हम ‘स्टाइलिश’ लगने की कोशिश करते हैं लोगो के आगे|
श्रोता: पढ़ाई करते हैं, जैसे कुछ विषय हैं जो पढ़ने में अच्छे नहीं लगते पर फिर भी पढ़ने पड़ते हैं| थोप दिए जाते हैं|
श्रोता: सर, हम अपनी कमी छुपाते हैं| जो होते हैं वो दिखाते नहीं है|
वक्ता: और|
श्रोता: सर, ज़्यादा मतलब सबको एक्स्ट्रा दिखाते हैं|
वक्ता: क्या दिखाते हो? जैसे कि? खुल के बताओ|
श्रोता: सर, जैसे कोई स्मार्ट है|
वक्ता: कोई नहीं अपनी बात करो|
श्रोता: सर, जैसे हम स्मार्ट नहीं है फिर भी
वक्ता: कैसे? किन-किन तरीकों से?
श्रोता: सर क्रीम लगाते हैं|
श्रोता: अपनी गलती को छुपाने की कोशिश करते हैं|
श्रोता: सर, पापा-मम्मी के सामने घर में बहुत शरीफ बन कर रहते हैं और बाहर कुछ उधम करते है किसी के सामने कुछ पर्सनेलिटी पापा-मम्मी के सामने दूसरी पर्सनेलिटी |
वक्ता: और?
श्रोता: सर, जैसे फ्रेंड्स के साथ हम अच्छे से बोलते हैं पर अगर उन्हें किसी सब्जेक्ट में ज़्यादा मार्क्स मिल जाए तो मन ही मन में उनको बहुत बुरा बोलते हैं|
वक्ता: शाबाश|
श्रोता: सर, जैसे कि कोई कुछ खेलता है और वो चीज़ हमारे पास नहीं है| ऊपर से देख कर तो अच्छा लगता है पर अंदर से बुरा लगता है|
वक्ता: बढ़िया| और? छोटी-छोटी बातें हैं उन पर ध्यान नहीं दे पा रहे हो| सुबह कैंपस आते हो, कोई टीचर दिखता है क्या बोलते हो?
श्रोता: गुड मोर्निंग|
वक्ता: क्या गुड है? कुछ गुड है? और कई बार तो भूल ही जाते हो कि मॉर्निंग है या आफ़्टरनून| देखा है? कोई एक बजे बोल रहा है, गुड मॉर्निंग| उसको ये भी नहीं पता है मॉर्निंग है या आफ्टरनून बस गुड, गुड कर रहा है और गुड-गुड कुछ नहीं कह रहा है अरे! फिर सामने आ गये गुड मोर्निंग| ‘फेसबुक’ के बारे में कुछ नहीं बताया तुमने? असली खेल जहाँ पर चलता है, नकली होने का|
(सब हँसते हैं)
चलता है कि नहीं चलता है?
श्रोता: सर, प्रोफाइल पिक्चर दूसरों की लगाते हैं|
श्रोता: सर, फेक आई.डी बनाते हैं|
वक्ता: फेक आई.डी बनाते हो!
श्रोता: सर, मतलब गलत काम के लिए नहीं|
वक्ता: बेटा, कोई गुनाह बहुत बड़ा नहीं होता है| असली गुनाह सिर्फ़ एक होता है, यही ‘डर’| तुम जो कुछ भी करते हो ना बड़े से बड़ी गलती वो बहुत छोटी गलती है| बड़ी गलती बस यही होती है कि इतने बेहोश हो कि अपनी गलतियाँ पता भी नहीं है| चलो, और बोलो?
अब जैसे यहाँ कोई बैठा है सुनने में दिल नहीं लग रहा है फिर भी कुर्सी पकड़ के बैठा है कि अब दो-चार लोग मेरे साथ के बैठे हैं तो मुझे भी बैठना है| तो ये क्या हुआ?
श्रोता: नकली गुनाह|
वक्ता: (ऊपर नीचे सर हिलाते हुए) और ऊपर से ऐसे दिखा रहा है| तो ये क्या हुआ?
श्रोता: दिखावा|
वक्ता: कोई ऐसे बैठा हो जो बिलकुल लगे ध्यान में है और दिल ही दिल में काँप रहा है कि हम से ना पूछ दे कि तुम कैसे नकली हो| ऐसे होंगे या नहीं होंगे कि कहीं मेरा नंबर ना आ जाए, कहीं मेरी ओर ऊँगली ना कर दें, तुम बोलो| तुम बोलो “सर हम समाधि में हैं’
(सब हँसते हैं)
कोई सीमा नहीं है ना हमारे नकली होने की, कोई अंत हीं नहीं है ना| असल में हम इतने नकली हो चुके हैं कि अब हमें पता ही नहीं है कि असली कहते किसको हैं| साँस-साँस नकली है| मानते हो कि नहीं?
श्रोता: जी, सर|
वक्ता: और आनंद का क्या होगा? दो-चार रजाईयों के नीचे नहीं दबा है वो, रजाई के पूरे ट्रंक के नीचे एक ज़रा सी चाबी रखी है| ट्रंक देखा है ना? बहुत ऊँचा होता है रजाई, रजाई, रजाई|
कोई इरादे हैं यह सब हटाने के?
श्रोता: हाँ, सर|
वक्ता: घिनौनी सी चीज़ है ना, ध्यान से देखोगे तो घिन्न आएगी कि कर क्या रहे हैं| कोई टी-शर्ट खरीदता है उसमे कुछ यहाँ लिखा होता है और जो लिखा होता है वो खुद तो पढ़ेगा नहीं, या खुद पढ़ता है? फ़ालतू ही कुछ लिखा हुआ है पर कुछ ऐसा है जो दूसरों का ध्यान आकर्षित करेगा, दूसरों को उत्तेजित करेगा| कई बार पीठ पर लिखा होता है| एक बार मैंने देखा, पीठ पर लिखा हुआ था और उल्टा लिखा हुआ था| मैंने कहा गजब हो गया, यूँ करके पढ़ो तो पढ़ा जाए, पर ध्यान खिंचता है|
कभी शादी-ब्याह में जाओ और नकली होने की इन्तहा देखनी हो, तो वहाँ देखो| अभी जाड़े थे और मुझे ताज्जुब हो इन लडकियों, महिलाओं को ठण्ड नहीं लगती|
(सब हँसते हैं)
इंसान काँपा जा रहा है दो डिग्री टेम्परेचर है, हाड काँप रहा है और उनकी चदरिया झीनी रे झीनी और उसके बाद ऐसे लोग वहाँ जाएँगे और बोलेंगे ‘*लुकिंग वैरी प्रिटी*’| अब तय ही ही कर सकते कि ज़्यादा नकली कौन है? और नकली, नकली को प्रोत्साहित करता है| वो झीनी बनी ही इसीलिए है कि ऐसे लोग जाए और बोले ‘लुकिंग हॉट’ |
‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।