अमर होने का तरीका || (2020)

Acharya Prashant

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अमर होने का तरीका || (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, हमारी शारीरिक मृत्यु तो होगी ही पर क्या मन की सारी कामनाओं का खत्म होना ही अमरता है?

आचार्य प्रशांत: हम ग़लत चीज़ के साथ कामना जोड़ना बंद कर देंगे। मान लीजिए मेरे गले में प्यास उठी और मैंने ये कागज़ चबाया, थोड़ी देर में फिर प्यास उठी और मैं कलम चबा गया, थोड़ी देर में फिर प्यास उठी मैं माइक को चबाने लग गया, और मैं कर क्या नहीं रहा हूँ? पानी नहीं पी रहा हूँ।

कामना क्या है? कामना में दो चीज़ें होती हैं — एक कामना करने वाला जिसे हम बोलते हैं अह्म, दूसरा कामना का विषय। भाई जो कामना कर रहा है उस बेचारे को क्या दोष दें? उसका अपने बारे में विचार ही यही है कि उसे किसी चीज़ की आवश्यकता है तो वो तो कामना करेगा क्योंकि उसको लग रहा है कि आवश्यकता है। अगर उसे कामना करनी ही है तो कम-से-कम ऐसी वस्तु की कामना करे जो उसकी कामना को मिटा दे, जो उसकी प्यास को बुझा दे।

और प्यास बुझाने की जो प्रक्रिया होती है वो अध्यात्म में विशिष्ट होती है। अगर मेरे गले में प्यास लगी है और मैं पानी पीता हूँ और प्यास बुझ जाती है तो जानते हैं इससे प्रमाणित क्या होता है? कि प्यास असली थी। भौतिक जगत में जब हम अपनी कामना की पूर्ति करते हैं तो कामना की पूर्ति होती है कामना के सत्यापन से। या कामना की पूर्ति और कामना का सत्यापन, फुलमिलमेंट ऑफ़ डिज़ायर और वैलीडेशन ऑफ़ डिज़ायर साथ-साथ चलते हैं क्योंकि अगर कामना पूरी हो रही है तो उससे यही सिद्ध होता है कि कामना असली थी।

अध्यात्म में कामना की जो पूर्ति होती है वो ज़रा दूसरे तरीके से होती है। वो ऐसे होती है कि आप किसी ऐसी जगह पहुँच जाते हैं जहाँ आपको ये दिख जाता है कि वो कामना ही व्यर्थ थी। तो अध्यात्म में जो फुलफिलमेंट ऑफ़ डिज़ायर (कामना की पूर्ति) होता है वो वैलिडेशन ऑफ़ डिज़ायर (कामना का सत्यापन) नहीं होता वो फ़ाल्सीफिकेशन ऑफ़ डिज़ायर (कामना का असत्यकरन) होता है क्योंकि गले की प्यास बुझाई जा सकती है पानी पी कर लेकिन जो अंदरूनी, मानसिक, साइकोलॉजिकल प्यास होती है उसको बुझाने वाला कोई पानी होता ही नहीं। तो हम कहाँ जाएँ कि वो अंदरूनी प्यास बुझे? हम वहाँ जाएँ जहाँ हमें ये दिखा दिया जाए कि वो प्यास नकली है। तो अध्यात्म में प्यास ऐसे बुझती है। लेकिन जैसे भी बुझती है एक बात तो तय है कि माइक से नहीं बुझेगी और पेन से नहीं दिखेगी और कागज से भी नहीं बूझेगी। बुझेगी तो किसी सही जगह जाकर ही।

प्र२: पहले मैं जीवन में ज़्यादा समय पैसे कमाने में लगाता था लेकिन अब ऑफिस (दफ्तर) से समय चुराता हूँ और वो समय आपको सुनने में और कृष्णमूर्ति साहब को सुनने में लगाता हूँ। अभी तक यह था कि ऑफिस का काम निष्ठा के साथ करता था तो एक इमेज (छवि) बनी हुई थी कि ठीक काम करने वाला है अब काम में कोताही के कारण वो इमेज टूट रही है।

आचार्य: जिस चीज़ का पैसा ले रहे हो किसी से वो चीज़ तो पूरी तरह से करनी होगी। अगर आपको वहाँ पर समय कम देना है तो वहाँ पर जो आप समय व्यर्थ करते थे, वो कम करना शुरू करिए। जो समय आपका उत्पादक था, सार्थक था उसको आप कम नहीं कर सकते। आप किसी से अपने उस समय का पैसा ले रहे हैं, अगर उसी जगह पर खोट हो गई तो वो खोट फिर आगे भी चलती रहती है। पेट में जिस चीज़ की रोटी जा रही है वो चीज़ बहुत साफ़ होनी चाहिए।

बहुत सारे लोग कहते हैं खाना-वाना साफ़ होना चाहिए, बर्तन साफ़ रखते हैं, गृहणियाँ सब्जी पाँच बार साफ करती हैं। हमारे यहाँ उल्टा चलता है — आलू छीले भी नहीं जाते, कोई धोने-वोने की ज़्यादा बात करता है तो उसको आश्चर्य से देखते हैं।

सफाई इसमें नहीं है कि आलू पाँच बार साफ़ किए, सफ़ाई इसमें है कि जिस पैसे से आलू आए वो पैसा साफ़ होना चाहिए। काले धन से आलू खरीदा फिर उसको पाँच बार साफ़ कर दिया तो वो साफ़ हो जाएगा क्या? वो जो आटा ही है, अगर ग़लत पैसे से ख़रीद कर आ रहा है घर में तो उस आटे को पाँच बार छान लो वो तब भी गंदा ही रहेगा और वो गंदा खाना खाने से सेहत तो ख़राब होगी न?

उसका ख्याल रखिए कि किसी से पैसा ले रहे हैं अगर आप काम करने का तो काम तो पूरा निपटा दीजिए। हाँ, आप समय बचाना चाहते हैं तो जैसा मैंने कहा कि कोई कर्मचारी ऐसा नहीं होता जो दफ़्तर में समय बर्बाद नहीं करता। तो वो जो समय बर्बाद हुआ करता था, उसमें कटौती करिए। इधर-उधर की बातें, गॉसिप चलता है न ये सब? उसको बिलकुल काट दीजिए। और आपका जितना निर्धारित काम है, तयशुदा काम है उसको तो ईमानदारी से निपटाइए, वो तो करना पड़ेगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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