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All fear is the product of ego || Acharya Prashant, with youth (2013)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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एक छात्र : इगो(Ego) क्या है?

वक्ता: हम अपने आप को जो भी समझते हैं, गौर से देखें कि उसमें से कितना है, जो बाहर से आया है। जो कुछ भी बाहर से आया है, उसका नाम है Ego. मैं अपने आप को जो भी समझता हूँ, मैंने अपने मन में अपनी जो भी छवि बना रखी है, उसका जो भी हिस्सा बाहर से आया है, उसको इगो (Ego) कहते हैं। उदाहरण के लिए, मैं तुम्हें सुबह मिलूँ और तुम्हें ये कहूँ कि तुम कितने होशियार हो, ‘That you are brilliant, glorious’ और तुम इस बात को आत्मसाध कर लो। इस बात से अपनी छवि बना लो एक। और वो छवि क्या बनेगी? मैंने कहा ‘you are brilliant’, तो तुम अपनी क्या छवि बनोगे अपने मन में कि I am ….

छात्र: Brilliant.

वक्ता: इसी का नाम है इगो(Ego)। तुमने खुद नहीं जाना है कि तुम ब्रिलिएण्ट(brilliant) हो या क्या हो। किसी और एजेंसी ने, किसी और प्रभाव ने, किसी और व्यक्ति ने, तुम्हारे मन में तुमको ही लेके, एक धारणा जमा दी। तुमने अपनी आँखों से नहीं जाना है कि तुम ब्रिलिएण्ट(brilliant) हो या क्या हो, किसी और ने तुमसे कह दिया है और तुमने मान लिया है कि हाँ, मैं यही हूँ। और तुम यही सबको कहते फिर रहे हो। कोई तुमसे ये पूछ रहा है कि तुम कौन हो, तुम क्या हो? तो तुम कहते हो कि तुम ब्रिलिएण्ट(brilliant)हो।और ब्रिलिएण्ट(brilliant) क्यूँ हो क्यूंकि किसी दुसरे ने आ के तुम्हें विश्वास दिला दिया है कि तुम ब्रिलिएण्ट(brilliant) हो।

अब नतीजा क्या होगा?

पहली बात, तुम्हारा बड़ा गहरा विश्वास हो नहीं सकता ब्रिलिएण्ट(brilliant) होने में। तुम अपने आप को समझाए भले चलो। तुमने तो जाना नहीं है ना ? किसी और ने कहा है। शाम को मैं ही तुम्हारे पास आऊंगा और ये कह सकता हूँ कि ‘I think you are just stupid’. मेरे कहने से अगर तुमने ये मान लिया कि तुम ब्रिलिएण्ट(brilliant) हो, तुम स्मार्ट(smart) हो, तो मेरे ही कहने से तुम्हें ये भी मानना पड़ेगा कि तुम स्टुपिड(stupid) हो। वो भी इगो(ego) थी और ये भी इगो(ego) है।

और यही इगो(ego) होती है कि अपना कुछ नहीं होता उसमें।दूसरों ने मुझे जो बता दिया कि मैं जो हूँ, मैंने उसीको बिलकुल पकड़ लिया कि मैं वही हूँ। हमेशा बाहर से आती है, हमेशा दूसरों से आती है और हमेशा डरी रहती है। इगो(ego) हमेशा डरी रहती है क्यूंकि उसे पता है कि वो कहीं बाहर से आई है, दूसरों से आई है। और जब कहीं और से आई है, तो कोई और उसको वापस भी छीन सकता है। तुम स्मार्ट(smart) हो या नहीं, तुम ब्रिलिएण्ट(brilliant) हो या नहीं, ये मुझ पे निर्भर करता है। मैं कह दूंगा कि तुमहो …तो तुम हो और मैं कह दूंगा कि तुम नहीं हो ….तो तुम नहीं हो। तुमने कभी गौर किया है कि तुम्हारे जो सेशन्स(sessions) होते हैं, तो हर क्लास में एक काफी बड़ी तादाद होती है उन स्टूडेंट्स(students) की, जो पोडियम(podium) पर आने में, 20-40 लोगों के आगे बोलने में बड़ा डरते हैं। जी.डी.(GD) होगी तो उसमें चुप बैठ जायेंगे, रोल्प्ले(role-play) होगा तो कर नहीं पायेंगे। तुम सोचते होगे कि ये कुछ ऐसी ही इनकी प्रवृत्ति है। कुछ नहीं है ये, बस उनकी इगो(Ego) है- अहंकार ।

ये अपने आप को नहीं जानते। इन्होने अपनी छवि अपने बारे में वही बना रखी है जो दुसरे कह दें। दूसरों के सामने आ के इन्हें बोलने में डर इसलिए लगता है, क्यूंकि एक संभावना है कि जब ये बोलें, तो दुसरे कह दें कि ये तो बिलकुल अनाड़ी है, कुछ नहीं जानता, बोलना नहीं आता। इन्हें डर है कि दूसरों की आँखों में इनकी छवि ख़राब ना हो जाये। यही डर है इगो(ego) का। इगो(ego) हमेशा डर में ही जीती है।

एक छात्र: पर सर ये तो हमारा सेल्फ(self) है ना, जो हमें कहता है कि सामने उठ कर जाएँ या ना, बोलें या नहीं?

वक्ता: सेल्फ(self) क्या है बेटा?

छात्र: Self means Intelligence.

वक्ता: बहुत बढ़िया। पर क्या उसको जानते हो?

छात्र: नहीं।

वक्ता: सुना है उसके बारे में … है ना? अगर बात इतनी ही होती कि मुझे लगेगा तो बोलूँगा और नहीं लगेगा तो नहीं बोलूँगा, तो यहाँ पे आ के पसीने नहीं छूटते।क्या कभी गौर किया है उन लोगों की हालत का, जो बोल नहीं रहे होते हैं? अब उनसे कहा जा रहा होता है …. बोलो, बोलो। एक लाइन(line) बोलते हैं, हिलना-डुलनाशुरू हो जाता है, पसीने निकलने लगते हैं। वही व्यक्ति अकेले कमरे में बोलने से नहीं डरता। एक अकेला कमरा हो और एक आईने के सामने उसे बोलना हो तो वो बोलने में नहीं डरेगा। पर यहाँ डरा हुआ है, क्यूंकि यहाँ दुसरे मौजूद हैं।ये उन दूसरों का डर है।

जिस इंटेलिजेंस(intelligence) की बात तुम कर रहे हो, वो दूसरों को देख के काम नहीं करती। वो इंटेलिजेंस(intelligence) अगर रूम(room) में बोल सकती है, तो यहाँ भी बोल सकती है। अभी पिछले संवाद में जैसे मैं तुम लोगों से बोल रहा हूँ, सवाल पूछो-पूछो, वहाँ भी कईओं ने सवाल पूछे। समय तो कुल दो घंटे का ही होता है, तो जितने सवाल आये, उतने ले लिए गये। फिर उन्हें कहा गया की अब वो जा सकते हैं। लेकिन कई रुक गये और कहने लगे कि हमें सवाल पूछने हैं। अब बात ये है कि सवाल अगर थेतो तब क्यों नहीं पूछे जब दो घंटे का अवसर था? और अब क्यों पूछ रहे हो? क्यूंकि, अब सब चले गये हैं। अब मैं अकेले में पूछ सकता हूँ। उस समय पूछना होता तो यहाँ से पूछना पड़ता, वहां से पूछना पड़ता। पर अब मैं सर के करीब खड़े होके पूछ सकता हूँ, जहाँ कोई सुन नहीं रहा, कोई देख नहीं रहा, अपनी छवि ख़राब होने का कोई डर नहीं है।

इगो(Ego), मोहम्मद, इसी छवि का नाम है। कि मैं खुद को जानता नहीं साफ़-साफ़। दूसरों ने मुझे कुछ दे दिया है, और मैंने उसी को पकड़ लिया है। तुमने अपने बारे मेंजो कुछ भी जाना है, बस ये समझने की कोशिश कर लो कि उसमें से कितना मेरा अपना है और कितना दूसरों ने दिया है। जितना ज्यादा तुम किसी ऐसी चीज़ के साथजुड़ जाओगे जो तुम्हें दूसरों ने दी है, तुम उतना ही ज्यादा इगोइस्टिक(egoistic) होओगे और तुम उतने ही डरे-डरे घूमोगे।

ध्यान देना, कोई बच्चा हिन्दू या मुसलमान पैदा नहीं होता। पर माँ-बाप कोई कसर नहीं छोड़ते उसे हिन्दू या मुसलमान बनाने में। धर्म बाहर से आता है। हाँ …लाखों में कोई एक होता है जो अपना धर्म स्वयं चुनता है, अपनी समझ के आधार पे। वरना क्या होता है? कि माँ-बाप ने उठा के धर्म दे दिया … बाहर से। और तुमने कहना शुरू कर दिया- मैं हिन्दू हूँ या मैं मुस्लिम हूँ. ये ‘मैं हूँ ‘ जो है, वो बाहर से आया है। बस यही इगो(ego) है। जो भी ‘मैं हूँ ‘ किसी दुसरे पर निर्भर है, किसी दूसरे के देने पर, किसी दुसरे के कहने पर निर्भर है, वही इगो(ego) है। और तुमने अपनी बड़ी छवि बना ली है। मैं कौन हूँ? मैं सनातन हिन्दू हूँ या मैं एक शुद्ध मुस्लिम हूँ।

ऐसे ही थे तुम?अपनी समझ के आधार पर हो?

और ये बदलती रहती है। दूसरे बदलते हैं, वातावरण बदलता है, इगो(ego) भी बदल जाता है।ये तुम्हारी है ही नहीं। ये तो निर्भर ही है दूसरों पर। आज दूसरों ने एक चीज़ बोल दी, तुम मान लेते हो। तो कल दूसरी बातें बोलते हैं, तो तुम उसको भी मान लेते हो।

IIT जब पहुंचा तो वहां जितने भी छात्र थे, उनमें से अधिकतर अपने-अपने स्कूल के टॉपर(topper) थे। अब IIT में किसी भी डिपार्टमेंट (department) में 50-60 छात्र होते हैं। और ये जो 50-60 हैं, वो अपने-अपने स्कूल के टॉपर(topper) हैं। तो इनकी अपने बारे में क्या छवि थी, कि हम टॉपर(topper) हैं। अब टॉपर(topper) होना तो परिस्थितियों का खेल हैकि तुम ऐसे स्कूल में हो जहाँ तुम ही शेर हो। अब तुम डिपार्टमेंट में आये।मान लो मैकेनिकल डिपार्टमेंट(mechanical department) है, उसमें ये साठ जने हैं और ये साठ के साठ टापर्स हैं। पहले सेमेस्टर(semester) का रिजल्ट(result) आया तो इन्हीं टापर्स(toppers) में से किसी की पाँचवी रैंक है तो किसी की पन्द्रहंवी। किसी की पैतालिसवी तो किसी की पचपनवी। अब साहब स्कूल में टॉपर थे और यहाँ पचपन लोगों के डिपार्टमेंट में क्या रैंक है उनकी …पचासवीं । अब तुरंत पूरी छवि बदल गयी। अब ये अपने आपको बोलने लगे कि मैं फ़िसड्डी हूँ। पहले ये फूले नहीं समाते थे कि मैं टॉपर हूँ और अब ये बिलकुल सूख गये हैं। क्यों? क्यूंकि मेरी पचासवीं रैंक आई है। ठीक छः महीने पहले ये स्कूल के टॉपर थे और बड़ा गर्व था। और ठीक छः महीने बाद, जब सेमेस्टर रिज़ल्ट आया तो अब ये रोने को हो रहे हैं कि मुझसे ज्यादा कौन दीन-हीन है?

ना वो गर्व उचित था ना ये रोना उचित है।

टॉपर हो, वो बात भी परिस्थितियों की देन थी और यहाँ तुम्हारा पचपनवाँ रैंक है, वो भी परिस्थितियों की ही देन है। वो किसी और कालेज में जाए तो फिर सेटॉपर हो जाएगा। IIT में ही, अपने ही डिपार्टमेंट में किसी और सेमेस्टर में हो सकता है उसकी पचासवीं की जगह पाँचवी रैंक आ जाये। ये बात तो सिर्फ सांयोगिक है और दूसरों ने दी है। पर उस बात से हम बड़ा गहरा सम्बन्ध जोड़लेते हैं। हम अपनी पहचान ही यही बना लेते हैं कि मैं कौन? …. ‘मैं टॉपर’ या मैं कौन? ….तो ‘मैं तो बस ऐसे ही’। दूसरों ने दी है ये बात। यही अहंकार है, यही इगो है। अपने आप को बहुत कुछ मानना भी अहंकार है और अपने आपको कुछ नहीं मानना भी अहंकार ही है। आता अहंकार हमेशा बाहर से ही है। स्थितियों से आता है, दूसरों से आता है।

मोहम्मद, बात स्पष्ट हो पा रही है?

मोहम्मद: जी सर।

वक्ता: तुम्हारा जो सेशन था: Ego- The false center, उसमें एक वक्तव्य था – ‘ Ego is hell’. अब ये हमें समझना होगा कि इगो हैल(ego hell) क्यों है? अगर इगो समझ में आई है तो ये भी झट से समझ आ जायेगी।

नर्क-hell- क्या होता है? दोज़ख़। डरावनी जगह। जहाँ कड़ाहे रखे हुए हैं, जिसमें गरमतेल उबल रहा है। यही कल्पना है ना हमारी नर्क की? भट्टियों में भुने जा रहे हो, जंगली जानवरों के सामने फेंके जा रहे हो, जो तुम्हें पूरा खा जातेहैं पर तुम मरते नहीं। दुबारा फेंके जाते हो, फिर तिबारा फेंके जाते हो।वहां तो ये मुक्ति भी नहीं है कि एक बार मर गये और ख़त्म। रोज़ तुम्हारा पकोड़ा बनाया जाता है, तल-तल के। तो नर्क जब कहा जाता है तो उसका मतलब होता है एक बड़ी डरावनी जगह।

‘Ego is hell’ का मतलब बस यही है कि इगो हमेशा तुम्हें डर में रहने को मजबूर करके रखती है। और तुमसे एक बात और कह रहा हूँ, हर डर के पीछे इगो है। तुम्हारा कोई भी डर हो उसके पीछे इगो ही है।कोई भी डर, कैसा भी डर। और डरे हम सब रहते हैं। कोई भी डर, कैसा भी डर हो, उसके पीछे होती इगो ही है। जिन भी लोगों को एक मुक्त जीवन जीना है, जीवन में स्वतंत्र निर्णय लेने हैं, कैरियर(career) के, वर्क-लाइफ़ (work-life)के, अकैडमिक(academic) निर्णय, पल-पल के निर्णय जो हम लेते हैं, जिन भी लोगों को एक जीवन जीना है, उन्हें ये ध्यान से देखना होगा कि कहीं मैंने दूसरों को अपने मन पर हावी तो नहीं होने दिया है। यही है इगो(ego) से मुक्ति।

आ रही है बात समझ में?

श्रोता: जी सर।

– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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