अलग अलग जन, एक ही मन || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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अलग अलग जन, एक ही मन || आचार्य प्रशांत (2013)

श्रोता: सर, सब कहते हैं कि मन एक है लेकिन आभास हमेशा अलग होने का ही होता है। मन किस स्तिथि में एक होता है? क्या कर्म भी एक होगा जब मन एक हो जाए?

वक्ता: वो तो आसान है न देखना। मन एक है मतलब? तुम जो कुछ भी करते हो, दुनिया में जो भी कोई जो कुछ भी करता है उसके पीछे जो मूल वृतियाँ हैं वो एक ही होती हैं। क्या हैं वो वृतियाँ? वो सारी वृत्ति आत्मरक्षा और आत्म संवर्धन की हैं। मन एक है। दुनिया में कोई कुछ भी कर रहा हो उसके पीछे जो भाव है वो एक ही है। हाँ, उसकी जो अभिव्यक्ति है वो अलग-अलग तरीके से हो सकती है। सबको कुछ न कुछ चाहिए, कोई न कोई कमी है। कमी किस बात की है वो बात अलग-अलग हो सकती है लेकिन कमी की जो अनुभूति है वो तो एक ही है।

सब डरे हुए हैं। कौन किससे डरता है इसमें अंतर हो सकता है। जो डर का विषय है वो अलग-अलग हो सकता है लेकिन डर का भाव तो एक ही है। अहंकार है, और वो अपने-आप को विभाजित रखता है, अलग रखता है। वो अहंकार अपने-आप को किस दायरे में बाँधता है वो अपने आप को किससे जोड़ कर रखता है यह अलग-अलग हो सकता है लेकिन विभाजन का होना और तादात्म का होना यह तो एक ही है। शाम होती है, लोग घरों को जाते हैं, लोग जाते अलग-अलग घरों को हैं पर जाते घरों को ही हैं। घर अलग-अलग होंगे पर ‘घर को जाना’ एक ही है। बात समझ रहे हो? तो उस अर्थ में कहा जाता है कि *“* माइंड ऑफ़ मैनकाइंड इज़ वन कि हम सब एक जैसे हैं।

भाई, दो लोग लड़ रहे हैं, दो सेनाएँ लड़ रही हैं। वो अपने-अपने देश की खातिर लड़ रही हैं। ऊपर-ऊपर से ऐसा लगेगा कि वो एक दूसरे के विरुद्ध लड़ रही हैं, कि उनकी दिशा विपरीत है आपस में। वास्तव में उसकी दिशा विपरीत नहीं है, वो दोनों बिलकुल एक ही काम कर रहीं हैं, क्या? दोनों अपने-अपने देश के लिए लड़ रही हैं। एक ही काम कर रही हैं, कुछ अलग नहीं है|

कोई दाएँ को भाग रहा है, कोई बाएँ को भाग रहा है, देखने में लग सकता है कि दोनों विपरीत काम कर रहे हैं, दिशाएँ विपरीत हैं। पर वो दोनों एक ही काम कर रहे हैं, क्या कर रहे हैं? भाग रहे हैं। तो इसी भागने का नाम मन है और यह लगातार भागता ही रहता है और किधर को भी भागे, इस अर्थ में कहा जाता है कि मन एक है। हाँ, ठहरना मन को नहीं भाता। जब ठहर गया तब कुछ ऐसा हुआ जो मन से थोड़ा हट कर के है। पर ठहरे हुए मन को फिर मन कहा ही क्यों जाएगा। जहाँ ठहराव है, उसको मन कहना भी कोई कायदे की बात नहीं होगी। तो उसको हम मन कहते ही नहीं हैं। इस अर्थ में, ठीक है, स्पष्ट है?

श्रोता: एक दिन एक पक्षी के झुण्ड को देख के आपने कहा था कि ये सब एक साथ जा रहे हैं। ताल-मेल की ज़रूरत नहीं है इन्हें क्यूँकी इनका मन एक है।

वक्ता: बिल्कुल लेकिन जितना उनका मन वहाँ पर एक है, उतना ही उस पक्षी का और उस पेड़ का मन एक है, जिस पेड़ पर उस पक्षी का घोंसला है। दोनों एक ही व्यवस्था के दो बिंदु हैं। दोनों एक ही नदी की अलग-अलग धाराएँ हैं। दोनों संयुक्त है, एक के बिना दूसरा नहीं हो सकता।

एक बार मैंने किसी से कहा था कि तुम भेड़िये और खरगोश को अलग-अलग मत मानना, क्योंकि अगर भेड़िया नहीं होगा तो खरगोश इतने लम्बे कान किसके लिए रखेगा। खरगोश के जो इतने लम्बे कान हैं, यह खरगोश के नहीं है; यह भेड़िया है जो खरगोश के मन में उपस्थित है। भेड़िये का भय खरगोश को उसके वो कान देता है जो तुम्हें इतने सुन्दर लगते हैं। तो भेड़िये और खरगोश को एक मानो, वो एक ही व्यवस्था के दो हिस्से हैं। वो अलग-अलग नहीं हैं। बात समझ में आ रही है। कुछ भी अलग-अलग नहीं है, वो एक ही है।

जब सतह-सतह पर देखते हो चीजों को तुम्हें सिर्फ विविधता दिखाई देगी पर जैसे-जैसे तुम उसमे थोड़ा सा गहरे जाते जाओगे तो तुम्हें दिखाई देगा कि तुम जितना नीचे जाते जा रहे हो उतनी ही चीज़ें एक होती जा रही हैं। ऐसे समझ लो के जैसे पहले तुम पत्तियां गिन रहे थे तो अलग-अलग दिखाई देती थीं फिर तुम डालों तक पहुंचे फिर टहनियों तक तो जितनी विविधता थी वो थोड़ी कम हुई और फिर तुम तने तक आए तो सब एक दिखाई देने लगा। अभी भी जो तुम्हें दिखाई दे रहा है वो ऊपर-ऊपर का है। और फिर जब नीचे जाना शुरू करते हो तो तुम्हें पता चलता है कि मूल है और वो मूल उस मिट्टी से अलग नहीं है जिससे वो पोषण लेता है। बात समझ में आ रही है? तो अभी तक तो इतना ही दिखेगा जब सतह के ऊपर हो कि पत्ता और टहनी एक है, टहनी और डाली एक है और डाली और तना एक है। नीचे जाओगे तो देखोगे कि तना और जड़ एक है। पर अगर तुम्हारी दृष्टि साफ़ है तो तुम यह भी कहोगे कि जड़ तो कहीं रूकती ही नहीं क्योंकि जड़ और मिट्टी भी एक है। जड़ और मिटटी अलग-अलग नहीं है और मिटटी बहुत व्यापक है। कहाँ कहोगे कि मिटटी रुक गई तो मिटटी और समष्टि एक है। पत्ती और समष्टि एक है। हाँ, अगर सतह-सतह पर देखोगे तो सब अलग पाओगे। बात समझ में आ रही है? आखिर में जब सब एक हो जाता है तो उसे एक कहने का भी कोई कारण नहीं रह जाता|

जब सब एक हो गया तो किससे तुलना करके कहोगे कि सब एक है। तब सिर्फ इतना कह पाते हो कि अलग-अलग नहीं है। एक कहना भी फिर उचित नहीं रहता। तब तुम इतना ही कहते हो कि अलग-अलग नहीं है। यह अलग-अलग न होने का भाव अद्वैत कहलाता है। अलग-अलग नहीं है। दो नहीं हैं, तो इसीलिए जो परम एकत्व है उसको एकत्व नहीं कहा जाता, उसे अद्वैत कहा जाता है। अद्वैत का मतलब यह नहीं कि एक है, अद्वैत का मतलब है कि संख्याओं में नहीं गिन सकते। दो नहीं है। एक है ऐसा नहीं कहा, दो नहीं है बस यह कहा। दो नहीं है माने अब संख्या के दायरे में नहीं आता, अब मन के दायरे से बाहर की बात हो गई है। जो परम सत्य है वो संख्या में गिन नहीं सकते|

अद्वैत का मतलब- न एकत्व है और न शून्यता है |

एकत्व कहना इसीलिए गलत होगा कि एक कहा तो दो भी आ जाएगा। एक का तो मतलब ही होता है द्वैत। और शून्य कहना इसलिए गलत होगा क्योंकि शून्य कहा तो भी कोई छवि बनाई; शून्य कहा तो शून्य नहीं रह गया। शून्य कहते ही वो ‘कुछ’ हो गया। शून्य से जो तुम्हारा आशय था न कुछ होना तो अब शून्य बोलते ही वो ‘नकुछ’ नहीं रहा अब वो कुछ हो गया। तो इसीलिए न उसे एक कहना उचित है और न शून्य कहना उचित है, उसे अद्वैत कह के छोड़ दो। विचार में विविधता रहेगी, वृति में एकता रहेगी, अहम् बिलकुल एक ही है और आत्मा न दो है न एक है और न शुन्य है; मात्र अद्वैत है।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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