अकेले चलने में डरता क्यों हूँ?

Acharya Prashant

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अकेले चलने में डरता क्यों हूँ?

प्रश्नकर्ता: इतना मुश्किल क्यों होता है अकेले चलना?

आचार्य प्रशांत: मुश्किल होता नहीं है, पर लगने लग जाता है क्योंकि तुमने आदत बना ली है बैसाखियों पर चलने की, सहारों पर चलने की। यह कोई तथ्य नहीं है कि मुश्किल होता है अकेले चलना। उसमें वस्तुतः कोई कठिनाई नहीं है। पर मन ने एक छवि बना रखी है जैसे कि अकेले चलना बड़ा मुश्किल हो।

मैं एक चित्र देख रहा था जिसमें एक बड़ा हाथी एक पतली-सी रस्सी से, पतली-सी टहनी से बँधा हुआ दिखाया गया था। मैं उसको देर तक देखता रहा, फिर मैंने कहा, "ये हम ही तो हैं!" जानते हो होता क्या है? जब ये हाथी बच्चा था तब उसको उस रस्सी से, उस टहनी से बाँधा गया था। तब वो नहीं भाग पाया। तब उसने कोशिश करी थी एक दिन, दो दिन, दो हफ्ते, चार हफ्ते, तब उसको ये भ्रम हो गया कि शायद यही जीवन है, शायद ऐसे ही जीया जाता है, शायद इससे कोई छुटकारा ही नहीं है। और आज वो हाथी पूरा बड़ा हो गया है। इतनी-सी उसे कोशिश करनी है और वो मुक्त हो सकता है। पर वो कभी मुक्त नहीं हो पाएगा क्योंकि उसका मन अब ग़ुलाम हो गया है। अब उसके लिए मुक्ति सम्भव ही नहीं है क्योंकि मन हो गया है ग़ुलाम।

वही हाल हमारा हो गया है। तुम्हें तुम्हारी टाँगे दी गई हैं, तुम्हारी दृष्टि दी गई है, तुम्हें तुम्हारी समझ दी गई है, और इन सबमें तुम किसी पर आश्रित नहीं हो। और अच्छी-खासी अब तुम्हारी उम्र हो गई है, प्रकृति भी चाहती है कि तुम मुक्त जियो, पर आदत कुछ ऐसी बन गई है अतीत से कि अकेले चलते हुए ही डर लगता है। समझ रहे हो न बात को?

पर भूलना नहीं कि उसमें कुछ सत्य नहीं है, बस आदत है। आदत स्वभाव नहीं होती। स्वभाव होता है अपना और आदत आती है बाहर से। तुमने किसी बाहरी बात को पकड़ कर के उसको अपना समझ लिया है। तुम 'आदत' और 'स्वभाव' में भूल कर रहे हो, उनको अलग-अलग नहीं देख पा रहे। तुम्हारा स्वभाव है – तुम्हारा कैवल्य, तुम्हारा एकांत, तुम्हारा अपने आप में पूरा होना। तुम्हें किसी निर्भरता की आवश्यकता है नहीं।

पर तुम्हारे मन में धारणाएँ हमेशा यही डाली गई हैं। उदाहरण के लिए, तुम्हें बचपन से बता दिया गया कि मनुष्य एक सामाजिक पशु है। अब दो तरफा तुमपर चोट की गई है। पहले तो तुम्हें बोला गया कि तुम पशु हो। 'पशु' शब्द आता है उसी धातु से जहाँ से 'पाश' आता है – पाश माने बंधन। तो पहली बात तो ये कि तुम्हें बोल दिया गया कि बंधे रहना तुम्हारा स्वभाव है। शारीरिक रूप से तुम्हें पशु घोषित कर दिया गया। और दूसरी चोट ये की गई कि कह दिया गया कि तुम 'सामाजिक' हो। तुम सामाजिक हो ही नहीं! न तुम सामाजिक हो, न तुम शारीरिक हो।

पर तुम्हें बार-बार पट्टी यही पढ़ाई गई है तो मन इतनी बुरी तरह इन सब बातों से दब गया है कि जैसे हीरा हो, और उसके ऊपर टनों राख दाल दी जाए तो हीरा कहीं दिखाई ही न पड़े, कहीं प्रकट ही न हो। ऐसी तुम्हारी हालत हो गई है। हीरे तो हम सभी हैं, इसमें कोई शक़ नहीं है, पर राख हमारे ऊपर टनों पड़ी है। वो राख ही हमारा बोझ है, उसी से मुक्त होना है। कुछ पाना नहीं है, बस मुक्त होना है उसी से।

इसीलिए मैं लगातार बोलता हूँ कि पाने की कोशिश छोड़ो, जो पहले ही इकट्ठा कर रखा है, बस उसी को साफ़ करो। पाने की सारी कोशिश खराब है। लेकिन तुम पड़े रहते हो ‘कुछ पाने’ के फेर में! तुम कहते हो, "अभी कुछ और पाना है।" अभी पा-पाकर तृप्त नहीं हुए? पा-पाकर ही तुम्हारी ये गत बन गई है। अभी पूरी नहीं पड़ रही? पाना छोड़ो! अब तुम्हारा समय है हल्का होने का। पाने का अर्थ है – और बोझ इकट्ठा करना। इतना बोझ तो पहले ही इकट्ठा कर चुके हो। अब हल्के होओ। ये सारी बातें कि – "दूसरे आवश्यक हैं”, "बैसाखियाँ चाहिए", "रास्ता कोई दूसरा दिखाएगा”, "मार्गदर्शक हो कोई", "अरे, अपना कोई नया रास्ता होता है! कोई हो जो रौशनी डाले, कोई हो जो बताए कि जीवन क्या होता है।” ये सारी बातें बस धारणाएँ हैं। समझ रहे हो बात को?

तुम्हें अधूरा नहीं बनाया गया है। कोई भी अधूरा नहीं बनाया जाता। हम सब अपने आप में सम्पूर्ण हैं। सम्बन्ध होने चाहिए कोई शक़ नहीं है, रिश्ते होने चाहिए, पर वो रिश्ते अपूर्णता के नहीं होते। "मैं अधूरा हूँ, तुम भी अधूरे हो, चलो दोनों मिलकर पूरे हो जाएँ" – इस से कोई पूरापन नहीं आता। तुम भी पूरे हो, वो भी पूरा है – और इस पूरेपन में रिश्ता बनता है असली। इस पूरेपन में ही असली रिश्ता बनता है।

बिलकुल इंकार कर दो उन सारी बातों को जो ये बताती हैं कि तुम अपूर्ण हो। बिलकुल ठुकरा दो उन सारी धारणाओं को जो कहती हैं कि तुम क्षुद्र हो। बिलकुल इंकार कर दो। जो भी आकर के तुम्हें ये बताए कि तुम में कमी है और आगे चल के तुम्हें उसे पूरा करना है – कि जब तुम्हारी नौकरी लगेगी, तब तुम सम्माननीय कहलाओगे, कि जब तुम्हें कोई सर्टिफिकेट मिल जाएँगे तब तुम्हारे जीवन में कुछ फूल खिलेंगे – जब भी तुम्हारे सामने ऐसी बातें आएँ, उन्हें ठोकर मारो! जो भी कोई तुमसे कहे कि तुम्हारे अंदर कोई खोट है, समझ जाओ वो आदमी खुद भी नासमझ है और तुम्हें भी फँसा रहा है। जब भी तुमसे कहा जाए कि तुम अपने पाँव पर नहीं चल सकते, कि तुम्हें दूसरों के अनुभवों की ज़रूरत है – जब भी तुम्हें इस तरह की बातें कहीं जाएँ, तब बिलकुल सावधान हो जाओ! ये फँसाया जा रहा है। नासमझी में फँसाया जा रहा है।

एक उम्र तक तुम कुछ मजबूर थे, तुम कुछ कर नहीं सकते थे, क्योंकि तुम्हारा मष्तिष्क परिपक्व नहीं हुआ था। आज तुम मजबूर नहीं हो। एक उम्र तक तुम्हारे सामने कोई चारा नहीं था सिवाए इसके कि तुम वो सब स्वीकार कर लो जो तुम्हें दिया गया। अब तुम्हारी वो उम्र बहुत पीछे छूट गई। अब तुम्हारा समय आ गया है कि तुम उठो और हर प्रकार की बकवास से इंकार कर दो। और बकवास घूम फिर के एक ही होती है, जो ये कहती है कि – "तुम अपूर्ण हो”, "तुम में कोई कमी है"। हर बकवास अंततः इसी मुद्दे पर पहुँचती है।

जब भी कुछ देखो कि ऐसा ही है, उठ खड़े हो जाओ। और हर तरफ से तुम्हें सन्देश यही दिया जा रहा है, देखना। ध्यान से देखना। ये जो दिन-रात टीवी पर विज्ञापन देखते हो, हर विज्ञापन यही बताता है कि, "हमारे जीवन में अभी कोई छेद है। और वो छेद तब भरेगा जब तुम हमारे उत्पाद का प्रयोग करना शुरू कर दोगे।" "तुम काले हो? चलो हमारी क्रीम लगाना शुरू करो, तुम गोरे हो जाओगे। अरे, तुम्हारे पास तो नया वाला मोबाइल नहीं? तुम में कोई कमी रह गई। तुम्हारे पास इस ख़ास तरह का शरीर नहीं? अरे, तुम्हारी कोई इज्जत नहीं। तुम्हारे पास फलाना डिग्री नहीं? अरे, आओ हमारे कॉलेज में आओ। बस फीस जमा कराओ, जल्दी आओ!"

लगातार तुम्हें सन्देश यही दिया जा रहा है कि "तुम छोटे हो,” कि, "तुम कुछ नहीं हो।"

इन सारे संदेशों को नकारो!

हाँ ठीक है, हम जीवन में काम करेंगें, जीवन अपनी गति से बढ़ेगा, पर इस कारण नहीं बढ़ेगा कि हम हीन भावना में जिएँ। अपनी हीनता से हम इंकार करते हैं। हम पढ़ेंगे, मगर इसलिए नहीं कि पढ़-लिखकर वो डिग्री हमें कुछ ख़ास दे देगी। हम बेशक़ पढ़ेंगे, मगर पढ़ने के लिए ही पढ़ेंगे, इसलिए नहीं पढ़ेंगे कि जब पढ़-लिखकर वो डिग्री हो जाएगी और हम दुनिया को दिखाएँगे तो उससे हमें कुछ मान मिल जाएगा। हाँ ठीक है, हम काम भी करेंगे, पर काम इसलिए करेंगे क्योंकि उसमें मौज है हमारी। काम इसलिए नहीं करेंगे कि दुनिया वाह-वाही कर रही है। काम इसलिए नहीं करेंगे कि जाकर फर्नीचर खरीद लाएँगे। काम इसलिए नहीं करेंगे कि नौकरी अच्छी होगी तो शादी अच्छी हो जाएगी। समझ में आ रही है बात?

दिन-रात ये जो ज़हरीला मिश्रण तुम्हारे दिमाग में घोला जा रहा है, उसके विरुद्ध बिलकुल उठ खड़े हो! वरना पाओगे कि जीवन भर वही हाल रहेगा कि अकेला चलने में डर लगता है। डर तो लगेगा ही न, सुबह से शाम तक एक ही घुट्टी पिलाई जा रही है – सड़क पर, स्कूल में, कॉलेज में, अखबार में, घर में, मीडिया में – “तुम छोटे हो।” घूम-फिरकर हर बात यहीं पर आकर अटक जाती है कि – तुम छोटे हो, तुम अधूरे हो, तुम मिट्टी हो।

और मैं तुमसे यहाँ पर कह रहा हूँ कि ये जितनी मिट्टी है, ये तुमने इकट्ठा कर ली है। तुम वास्तव में हीरे हो। तुम्हारी वास्तविकता हीरा होने की है और मिट्टी बाहरी है। तुम मिट्टी हो नहीं। और अगर तुम पाते हो कि तुम्हारी ज़िंदगी में मिट्टी-ही-मिट्टी है, तो समझ जाओ कि तुम ज़िंदगी में बहुत प्रभावित रहे हो, और कोई बात नहीं है। अगर पाओ कि जीवन में मिट्टी-ही-मिट्टी है, तो उसका अर्थ ये मत निकाल लेना कि, "मैं मिट्टी ही हूँ।” न! उसका अर्थ इतना ही हुआ कि वो मिट्टी तुमने इकट्ठा कर ली है, हो तो तुम हीरे ही। बहक मत जाना। समझ रहे हो?

देखो, आता हूँ, तुम सबसे बोलता हूँ, पर इससे ज़्यादा पीड़ादायक दृश्य नहीं होता जब जवान लोग सामने बैठे होते हैं और उनकी आँखों में मजबूरी का भाव होता है, कातरता, कि, "आप हमसे कुछ बोल लो, हमें पक्का पता है कि हम ही हैं।" इस से ज़्यादा अफ़सोसजनक दृश्य और कोई होता नहीं। काबिल लोग, स्वस्थ मष्तिष्क, स्वस्थ शरीर सामने बैठे होंगे, लेकिन पता नहीं क्या होगा, एक ज़बरदस्त ताकत, जो उन्हें दबाए होगी, कि, "न, उठकर मत खड़े हो जाना, गुलाम ही रहना।" और मेरी लगातार यही कोशिश है कि तुम समझो कि उस ताकत में कोई बल नहीं है। लगती भर है ताकतवर, है कुछ नहीं। वो उतनी ही ताकतवर है जैसे हाथी के गले में पड़ी हुई वो रस्सी। उस हाथी को भ्रम हो गया है कि उस रस्सी में कोई बल है। कोई बल नहीं हैं, अभी तोड़ो। समझ रहे हो?

दिनकर की पक्तियाँ हैं – पत्थर-सी हो माँस-पेशियाँ, लोहे-से भुज-दण्ड अभय, नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय!

और मैं तरस जाता हूँ ऐसे जवान लोगों को देखने को जिनकी नस-नस में आग की लहर हो। दिखाई पड़ते हैं तो आधे मरे हुए, जिन्होंने तय ही कर रखा है कि जीवन गुलामी है, जीवन मजबूरी है।

अरे, जीवन क्यों गुलामी है? जीवन क्यों मजबूरी है? कंधे झुके हुए, जैसे पहाड़ों का बोझ हो तुम्हारे कंधो पर। चेहरा उदास! कोई कांति नहीं, कोई तेज नहीं। क्या उदासी है? क्या खो दिया है तुमने? हाथ-पाँव रूखे-सूखे – न दौड़ते हैं, न खेलते हैं, न नाचते हैं।

अभी मैं तुमसे पूँछूँ, तुम में से कितने लोग हो जो पिछले छह महीने में झूमकर नाचे भी हो, तो बहुत कम होंगे। मैं शादी-ब्याह में नाचने की बात नहीं कर रहा, उस हुल्लड़ की, मैं वास्तविक नाच की बात कर रहा हूँ। अरे, ये कैसे जवान लोग हैं जो नाच नहीं सकते, नाचने में भी जिनके क़दमों में पाबन्दी है! और तुमसे नहीं नाचा जाएगा, तुम्हारे चेहरों पर लिखा है। तुम नहीं नाच सकते खुलकर। अरे, क्यों नहीं नाच सकते? प्रकृति में सब कुछ नाचता है, पेड़-पौधे भी नाचते हैं; तुम्हीं नहीं नाच रहे। और तुम नाचते थे; जब तुम बच्चे थे, तुम नाचते थे। अब क्या हो गया है जो तुमने नाचना छोड़ दिया? किसने तुम्हारे मन में बोझ भर दिए हैं? ऐसी गंभीरता!

“नहीं सर, आप समझ नहीं रहे हैं, पूरी दुनिया का बोझ हमारे ऊपर ही तो है।"

हँसते भी हो तो लगता है जैसे अपने मातम पर हँस रहे हो। वो जो हल्की हँसी होती है, वो देखने को ही नहीं मिलती।

हाथी हो तुम – पूरे, बड़े, ताकतवर। क्या टहनी? क्या रस्सी? तोड़ो सब!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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