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अकेला

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

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अकेला

दिए का हवाओं से जूझना

प्रेरणास्पद लगा,

मुझे भी, तुम्हें भी ।

चींटी का अथक परिश्रम,

मन भाया,

मेरे भी, तुम्हारे भी ।

तिनके का डूबते को सहारा देना,

हौसला बँधा गया,

मेरा भी, तुम्हारा भी ।

इतिहास के पन्नों पर छपी,

संघर्षों की गौरवशाली गाथाएँ,

पिघला गईं,

मुझे भी, तुम्हें भी।

पर,

जब हम दिए के जीवट की प्रशंसा कर रहे थे,

चींटी को देखकर आश्चर्य प्रकट कर रहे थे,

तिनके के प्रति आभार व्यक्त कर रहे थे,

इतिहासपुरूषों के समक्ष सर झुका रहे थे,

ठीक उसी वक्त,

कहीं कोई दिया दम तोड़ रहा था,

चींटी हज़ारवीं बार ज़मीन पर गिर रही थी,

तिनका स्वयं भी डूब चुका था

और,

कहीं कोई अकेला, अपनी अकेली लड़ाई,

हार रहा था ।

~ प्रशान्त (मई 4, ’97, रात्रि 12:45) [object Object]

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