प्रश्नकर्ता: सर नमस्ते। आपसे मैं सर्वप्रथम शास्त्र-कौमुदी नामक कोर्स (पाठ्यक्रम) के जरिए जुड़ा था, तब से मुझे वेदांत और ग्रंथों का मूल्य पता चला। मैंने प्रस्थानत्रयी का पाठ शुरू किया है, तीन महीने हो गए हैं। मुश्किल हो रही है समझने में, पर आनंद आता है। कोरोना के कारण घर आया हुआ हूँ। मेरे घर का माहौल ऐसा नहीं है कि वेदांत निश्चिंत हो कर पढ़ सकूँ, तो मैं उपनिषदों और गीताओं पर जिल्द चढ़ा-चढ़ा कर पढ़ता हूँ, ताकि पिता जी को शक न हो, अन्यथा वो कहते हैं कि मैं लाइफ़ (जीवन) में फ़ोकस (ध्यान) लूज़ (खोना) कर रहा हूँ। मुझे ऐसे चोरी-चोरी नहीं पढ़ना वेदांत, अंदर से लगता है कि ये गलत है। कोई सुझाव बताएँ।
आचार्य प्रशांत: अरे रविन्द्र, तुम पढ़े जाओ! ये सही-गलत और ये सब नैतिक मान्यताएँ अध्यात्म में कहीं नहीं ठहरतीं। चोरी अगर ऐसी है कि तुम तक उपनिषदों को और गीताओं को ला रही है, तो ऐसी चोरी सिर-माथे। और ईमानदारी अगर ऐसी है कि तुमको राम से और कृष्ण से और उपनिषदों और वेदांत से दूर किए दे रही है, तो दो-कौड़ी की नहीं है ऐसी ईमानदारी!
हो सके (तो) अपने पिता जी को समझाओ। पर तुम्हारी उम्र से और वृतांत से ऐसा लग रहा है कि अभी आश्रित हो, और ये भी लग रहा है कि तुम्हारे पिता जी थोड़े विशिष्ट किस्म के हैं, कह रहे हैं कि “तुम लाइफ़ में फ़ोकस लूज़ कर रहे हो अगर तुमने गीता पढ़ ली तो!” तो हो सकता है कि इनको समझाना टेढ़ी खीर हो। समझ तो वो जाएँगे, दो-चार साल लगेगा। तुम कमाने वगैरह लग जाओगे, आश्रित नहीं रहोगे, तो फिर सब समझ जाएँगे।
जो मन सत्य पर नहीं चल रहा होता, वो तो बल की भाषा समझता है। तुम्हारे पास धनबल आ जाएगा, तुम्हारे पिता जी तुम्हारी हर बात समझना शुरू कर देंगे। ऐसा नहीं कि उन्हें कुछ समझ में आ जाएगा, पर अब तुम्हारे पास धनबल आ गया है न, तो तुम्हारी हर बात से वो सहमति दिखाना शुरू कर देंगे। जब तक उनके पास धनबल नहीं आ रहा, चेष्टा तो तुम्हारी यही होनी चाहिए कि सरल भाषा में, उनकी भाषा में उन तक औपनिषदिक सिद्धांत, कृष्ण के सूत्र ले जाओ। लेकिन अगर वो फिर भी न मानें, अभी उनका समय आया ही न हो, तो व्यर्थ अपने लिए मुश्किलें मत खड़ी करो।
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन। न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ।।
“तुझे यह गीता-रूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तप-रहित मनुष्य से कहना चाहिए, न भक्ति-रहित से, और न बिना सुनने की इच्छा वाले से ही कहना चाहिए; तथा जो मुझमें दोष-दृष्टि रखता है, उससे तो कभी-भी नहीं कहना चाहिए।“
~ श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय १८, श्लोक ६७)
आचार्य: गीता के ही अठारहवें अध्याय का सड़सठवाँ श्लोक है, जहाँ श्रीकृष्ण खुद कहते हैं, कि “जो तपस्वी न हो, तपश्चर्या न करता हो, और जिसकी मुझमें, मेरे प्रति दोष-दृष्टि हो, उससे तो हे अर्जुन! गीता-रहस्य कभी कहना ही मत!”
तो सब इस लायक होते भी नहीं हैं कि उनसे गीता-रहस्य कहा जाए। तो मन छोटा मत करना अगर तुम्हारे पिता जी तुम्हारे सारे प्रयत्न के बावजूद भी समझने से इंकार कर दें तो। वो समझेंगे, जैसा मैंने कहा, पर तब समझेंगे जब तुम्हारे पास धनबल, बाहुबल आ जाएगा। अभी अगर तुम उन्हें सिर्फ़ ज्ञानबल से समझाना चाहोगे तो हो सकता है वो न समझें, लेकिन पहले तुम कोशिश कर के देख लो। कोशिश यदि विफल होती है तो क्या करना है मैंने आरंभ में ही बता दिया - नैतिकता को एक तरफ़ रखो, और जिल्द-पर-जिल्द चढ़ाए जाओ। और जिल्द ही मत चढ़ाओ, जिल्द के ऊपर लिख भी दो कि ये लाइफ़ में फ़ोकस गेन करने वाली किताब है; पिता जी की संतुष्टि के लिए।
बात समझ में आ रही है?
नैतिकता अगर अध्यात्म से उपज रही है तो शुभ है, पर नैतिकता अगर अध्यात्म के खिलाफ़ हो गई, तो तुरंत त्याग दो ऐसी नैतिकता को! मौलिक तो अध्यात्म है न, पहले तो अध्यात्म आता है न, पहले तो सत्य आता है न, बाकी तो सब उसके बाद आएगा। नैतिकता समझते हो क्या होता है? अच्छा-बुरा, सही-गलत, पाप-पुण्य। अभी वही तुम्हारा यहाँ पर सवाल है। तुम्हारा जो सवाल है वो इसीलिए है; तुम कह रहे हो न, तुम्हारी अंतरात्मा झकझोरती है कि “अरे! मैं छुप-छुप कर उपनिषद् पढ़ रहा हूँ, ये बात गलत है।“ ये नैतिक तल पर तुमको कष्ट हो रहा है। वो कष्ट इसलिए हो रहा है क्योंकि तुम समझ ही नहीं रहे अभी कि नैतिकता क्या चीज़ है।
नैतिकता को अध्यात्म के वृक्ष का फूल होना चाहिए। सत्य जड़ है, और नैतिकता उसका फूल होना चाहिए। पहले जड़ है, फिर वृक्ष है, फिर फूल है, तब तो ठीक है। और मामला उल्टा चलने लग जाए, कि तुमने नैतिकता के चलते अध्यात्म की ही बलि दे दी, तो बड़ा गलत हो गया न, जैसे उल्टी गंगा। तुमने कह दिया कि “अरे! मेरे पिता जी को बुरा न लगे, इस खातिर मैं उपनिषदों को और कृष्ण को ही त्याग दूँगा,” तो ये तुमने बड़ा गलत कर दिया; और ये कर के न तुम अपना भला करोगे, अपने पिता जी तक का भला नहीं करोगे, ये काम उनके लिए भी अशुभ हो जाएगा।
सारी शुभता तो सत्य से आती है न! अगर तुमने नैतिकता की खातिर सत्य को ही त्याग दिया, तो किसी के लिए भी कहाँ कुछ भी शुभ होने वाला है? तो ये काम कभी मत करना! कृष्ण के लिए अगर तुमको गीता चोरी-छुपे भी पढ़नी पड़ रही है, कोई बात नहीं; कोई बात नहीं। वो चीज़ इतनी बड़ी है कि उसके लिए हर कुर्बानी दी जा सकती है; वो बात इतनी बड़ी है कि उसके सामने नैतिकता के सब तकाज़े, सब मापदंड बहुत छोटे हैं। सारी नैतिकता सत्य की ‘खातिर’ है, वो इसलिए है ताकि तुम सत्य तक जा सको। नैतिकता ही सत्य के विरुद्ध हो गई, तो तुम्हें पता होना चाहिए कि नैतिकता में और सत्यता में किसका चयन करना है।