अहंकार छोड़ने की हिम्मत कहाँ से पाएँ?

Acharya Prashant

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अहंकार छोड़ने की हिम्मत कहाँ से पाएँ?

प्रश्नकर्ता: समस्या ये है कि आत्मा भी चाहिए और अहंकार छूटता नहीं।

आचार्य प्रशांत: 'अहंकार' को आत्मा चाहिए समस्या ये है। 'अहंकार' कहता है मुझे चाहिए। उसकी नियत में ख़राबी नहीं है उसे चाहिए पर वो कहता है कि 'मुझे' चाहिए। वो ये नहीं कहता मैं उसको मिल जाऊँ, वो कहता है वो मुझे मिल जाये।

नदी कहे "मैं सागर में मिल जाऊँ बात प्यारी है", नदी को आकर्षण है सागर का। पर नदी कहती है मिलना तो है, प्यार है, खिंचाव है, कि हम मिलेंगे ऐसे कि सागर आये मेरे पास और मुझमें समा जाए। मैं बनी रहूँ 'मैं'। ऐसा होगा नहीं! एक बात जान लो नदी और सागर मिलेंगे तो सागर ही बचेगा। नदी नहीं बचेगी। मिलन हो सकता है उसकी शर्त है छोटी-सी नदी को मिटना होगा, सागर नहीं मिटने वाला नदी के लिए। सागर सत्य है, नदी प्रवाह है।

प्र: आचार्य जी ये आरोपित होता है या सहज होता है।

आचार्य: 'होता है'। मात्र होता है। है सत्य और जो होता है बस होता है। तुम उसका कारण ढूंढो, निकालो, लिखो चाहे न लिखो फ़र्क क्या पड़ता है? जो है सो है! तुम्हे ही सर झुकाना पड़ेगा उसके सामने, उससे लड़ नहीं पाओगे।

प्र: क्या मैं उस आनंद में डूब सकता हूँ? क्या आप मार्गदर्शन करेंगे?

आचार्य: डूब सकते हो, मार्गदर्शन भी हर तरफ़ से मिल रहा है। लेकिन डूबने के बाद ये इच्छा मत रखना कि डूबे हुए नीचे से बोलो कि "मिल रहा है आनंद"

(सभी श्रोता हँसते हुए)

तमन्ना हमारी यह रहती है कि डूब जाएँ, मस्त हो जाएँ, घुल जाएँ, मिल जाएँ मदहोश हो जाएँ और उसके बाद फ़िर बोलें "मैं डूब गया! मैं मिट गया!" मिट गए तो बोला कैसे? पर हम मिटने का भी अनुभव लेना चाहते हैं वो नहीं मिलेगा!

प्र: मन की इच्छाएँ ख़त्म नहीं होती, शायद इसीलिये दुःख है?

आचार्य: क्योंकि मन की इच्छा है ख़त्म हो जाने की। तुम इच्छाओं को ख़त्म करना चाहते हो, मन को नहीं।

प्र: कैसे करेंगे?

आचार्य: अब ये इच्छा हो गयी न 'एक' और।

(सभी श्रोता हँसते हुए)

ये देख रहे हो क्या है? इच्छाओं को ख़त्म करना है तो एक नई इच्छा के माध्यम से करना चाहते हो। गाँजे का नशा चरस से उतारना चाहते हो।

प्र: समय क्या है?

आचार्य: वो जो कुछ हो रहा है? जो हिले, जो डुले, जो बदले, जो न बदले, वही सब समय है, जो भी होता प्रतीत हो, जो भी घटता, बीतता प्रतीत हो, जो भी प्रतीत हो, जो भी कुछ अनुभव में आये।

प्र: अभी आप कह रहे थे कि मोक्ष भी चाहिए और फ़िर ये हो कि मोक्ष के बाद दुकान का क्या होगा? अपना जो 'झूठ' है वो दिखता है, साफ़-साफ़ स्पष्ट दिखता है लेकिन वो हिम्मत क्यों नहीं हो पाती छलाँग लगाने कि?

आचार्य: वो हिम्मत कभी अपनी नहीं हो सकती। अपनी होती है छोटी-सी इच्छा शक्ति। नदी कभी अपनी इच्छा से सागर की ओर नहीं बह पाएगी। सब छोटे-छोटे कामों में हमारी इच्छाएँ हमारा साथ दे लेगी। वहाँ हमारी हिम्मत काफ़ी पड़ेगी।

आपके घुटने में दर्द हो आप कहे नहीं! उठकर बाज़ार तक जाना है। आपकी हिम्मत काफ़ी पड़ेगी। वो सबकुछ जिसमें आप शेष रह जाते हो अंततः उसमें हिम्मत आपकी काम देगी। पर हिम्मत के मिट जाने में हिम्मत कैसे काम आएगी? इस विरोधाभास को देखिए।

एक बार बात उठी थी इच्छा शक्ति और आत्मबल पर। मैंने कहा था ये दोनों अलग-अलग हैं इनको एक मत समझना। समय कुछ ऐसा है और बातें कुछ ऐसी प्रचलित हो गयी हैं कि इच्छाशक्ति पर बहुत ज़ोर दिया जाने लगा है। विल पावर, मोटिवेशन, प्रेरणा। ये सब ठीक होते हैं बाज़ार जाकर के तरकारी ले आने तक। उतने के लिए इच्छाशक्ति चल जाती है।

पर जो भी कुछ जीवन में सुंदर है, गहरा है, महत है, और वास्तविक है वहाँ इच्छा शक्ति काम नहीं आनी है। वहाँ तो इच्छाशक्ति का समर्पण काम आता है। और जब आप अपनी इच्छा का भरोसा छोड़ देते हैं तब एक ज़्यादा बड़ा बल आपकी मदद को प्रस्तुत हो जाता है उसे 'आत्मबल' कहते हैं। बात बहुत सीधी है - अहंकार के केंद्र पर आपको जो बल उपलब्ध होता है उसका नाम है इच्छाशक्ति, आत्मा के केंद्र पर आपको जो बल उपलब्ध होता है उसका नाम है आत्मबल। मुक्ति के लिए इच्छाशक्ति काम नहीं आएगी। मुक्ति तो आत्मबल से ही मिलेगी।

दिक्कत बस इतनी है कि आपने तादात्म्य अहंकार के साथ जोड़ रखा है तब तक आपको आत्मबल उपलब्ध होकर भी नहीं होगा। तब तक हालत ऐसी रहेगी जैसे आपको एक तोप मिली हुई है लेकिन आपने उससे मुँह फेर रखा है। आप जेब में एक छोटा सा तमंचा लेकर घूम रहे हैं और सोच रहे हैं कि सामने जो टैंक हैं मैं इससे उनको उड़ा क्यों नहीं पा रहा? इच्छाशक्ति बस इतनी सी ही है। आप ज़रा तमंचे से यकीन हटाएँ, आप ज़रा उसकी निःसाराता को देखें। आप ज़रा उसकी दुर्बलता को देखें। तो आप कहेंगे ये चीज़ क्या है? मैं इसके भरोसे जीवन काट रहा हूँ? मैं इसके भरोसे जी लूँगा? फ़िर आप उसे उछाल देते हैं। उछाल इस उम्मीद में नहीं देते हैं कि पीछे बहुत बड़ी तोप है। बस उछाल देते हैं क्योंकि वो व्यर्थ है। उसको छोड़ा नहीं कि कुछ और जो बहुत बड़ा है वो अचानक सामने आ जाता है। आपने माँगा नहीं था बस मिल जाता है।

असल में पुराने को छोड़ने और नये के आने के बीच में एक ज़रा सा अवकाश होता है। एक छोटा-सा दरिया है जो बह रहा है। ये आदमी पार नहीं कर पाता क्योंकि जब पुराने को छोड़ रहे हो तब उस वक्त तक तो नये की आहट भी नहीं मिलती। उस वक्त सामने तो बस ये परिदृश्य होता है कि पुराना ही था मेरे पास, यही मेरी सारी जमापूँजी थी और ये गयी। पुरानी गयी और नया अभी आता दिख नहीं रहा है। आ भी गया है तो मुझे दिख तो नहीं रहा है। पुराना गया, नया आया नहीं ऐसा एक ज़रा-सा अंतराल होता है। कह लीजिए एक दरिया होता है। आग का दरिया होता है, उससे गुज़रना पड़ता है। उससे गुज़र पाने के लिए एक ही पुल होता है 'श्रद्धा'। पुराना चला गया है, नया अभी आया नहीं है तो कहीं पलट के मैं पुराने को ही नहीं पकड़ लूँ? ये तभी हो पायेगा जब श्रद्धा हो। श्रद्धा नहीं है तो आप कहेंगे "जो था वो गवाँ दिया, नया अब कुछ मिल नहीं रहा है, तो साधारण-सा निष्कर्ष है कि पुराने को तो मत छोड़ो भाई!" कुछ तो रहे हाथ में। माया छोड़ी, राम कहीं मिल नहीं रहे अरे! कुछ तो था हाथ में, माया ही सही।

ये ख़तरा सबसे ज़्यादा उनके लिए होता है। जिन्हें दिख रहा होता है छोड़ना है। जिनका झुकाव हो रहा होता है छोड़ने की तरफ़ पर जो छोड़ते-छोड़ते परख-भी रहे होते हैं, जो छोड़ते-छोड़ते नाप-तौल भी कर रहे होते हैं कि आज दस हज़ार बराबर छोड़ा, बताओ मिला कितना? ये नाप-तौल हमेशा नुक़सान का होगा कारण समझाए देता हूँ। आप जिस 'इकाई' में छोड़ रहे हो उसी इकाई में, उसी यूनिट में प्राप्त नहीं हो रहा। आप छोड़ रहे हो रुपयों में और जो आपको मिल रहा है वो किसी और मुद्रा में मिल रहा है। आप क्या गिन रहे हो? आप कह रहे हो इतने रुपये छोड़े तो नफ़ा-नुक़सान अगर गिनना है तो मैं देखूँगा कि मिले कितने? छोड़ रुपये रहे हो मिल कुछ और रहा है। वो किसी और मुद्रा, किसी और यूनिट, किसी और करेंसी, किसी और आयाम में है। अगर वहाँ नहीं जियोगे तो यही लगेगा कि कुछ मिला नहीं।

ऐसी सी बात है तुम्हारा ये कक्ष खाली होता हो, कोई और कमरा भरा जा रहा हो। ये खाली हो रहा है लेकिन तुम खड़े यहीं पर हो तो तुम्हें क्या लगेगा? कि सब खाली होता जा रहा है और फ़िर तुम इतने निराश भी हो सकते हो कि तुम कहो खाली करना रोको क्योंकि कुछ मिल तो रहा नहीं है, सब खाली ही होता जा रहा है। ये तो नुकसान है। जो मिल रहा है अगर वो जानना है तो उसके लिए एक छोटा-सा काम करना होगा। तुम्हें वहाँ जाना होगा जहाँ मिल रहा है। वो भी तुम्हारा ही कमरा है। वो भी तुम्हारा ही केंद्र है। वो तुम्हारा ज़्यादा असली घर है। तुम वहाँ जा के देखो वहाँ अब बरस रहा है। वहाँ ख़ूब मिल रहा है पर यहाँ खड़े रहोगे तो यही लगेगा कि बर्बाद हो गए। दुकान लुट गयी। बिल्कुल सही बात है ये दुकान तो लुट ही गयी। मैं इसमें कोई सांत्वना नहीं देना चाहता। ये दुकान तो लुट ही गयी। पर जो दूसरी खुली है उसकी ओर भी नज़र करो। उसको देखो तो जाकर के वहाँ क्या बिकता है और वहाँ क्या मिलता है?

प्र: वहां जो मिलेगा क्या फिर उससे इसकी चाहत मिट जाएगी?

आचार्य: क्या पता? क्यों करे अनुमान? फ़िर वही बात नहीं हो गयी? कि मोक्ष के बाद दुकान का क्या होगा? अनुमान न करें। अनुमान का अर्थ ही होता है सुरक्षा की चाहत। आप कयास लगाते ही इसीलिए हो ताकि पहले ही कुछ पता चल जाए। ज़रा सी आश्वस्ति हो जाए कि उस घटना के बाद भी जो होगा वो बड़ा मीठा-मधुर होगा। बिल्कुल ऐसा हो सकता है कि उस घटना के बाद जो हो वो उसे मीठा और मधुर लगे ही न जो अभी आप हो। आप कल्पना करोगे कि वास्तविक बदलाव कैसा होगा? आप कल्पना करोगे कि बदलाव के बाद चीज़ें कैसी दिखेंगी? तो मैं आपसे कहे देता हूँ आप बदलाव होने ही नहीं दोगे।

क्योंकि आप जो हो उसे बदलाव के बाद का इतना ही पसन्द होता तो वो उसमें क्यों फंसा होता जिसमें अभी वो फंसा है? आपको अगर वो इतना ही पसंद आना होता, जो बदलाव के बाद हो जाना है तो आप वहाँ क्यों पाए जाते जहाँ अभी आप पाये जाते हो? आप पहले से ही वही होते न? बदली हुई जगह पर, बदले हुए केंद्र पर, बदले हुए कमरे में। आप अभी इस कमरे में हो क्योंकि अभी आप जैसे हो आपको तो यही कमरा सुहाता है।

यदि कृपा हुई है आप पर और आपको दिखने लगा है कि यह कमरा नहीं कैद है तू इस कमरे से बस सामान नहीं खाली करो इस कमरे से तुम स्वयं भी रुखसत हो जाओ। नहीं तो बड़ा दर्द होगा! दुकान का माल खाली कर दिया है और दुकानदार दुकान में बैठा हुआ है और फूँट-फूँट रो रहा है। माल तो हटा दिया लेकिन खुद अभी कहाँ हो? दुकान पे। तो क्या लगेगा? तबाह हो गए, धोखा हो गया, जो हाथ में था वो गंवाया और नया कुछ हाथ नहीं आया।नये की आश्वस्ति नहीं होती, पुराना नहीं भा रहा है बस यही आश्वस्ति है नया अब दस्तक दे रहा है। नया अगर दस्तक न दे रहा होता तो पुराने से ऊब क्यों उठती? नया न पुकार रहा होता तो पुराना क्यों पुराने जैसा लगता?

लेकिन नये की पुकार तुमको अभी साफ-साफ समझ में नहीं आएगी क्योंकि तुम कौन हो? अभी पुराने ही हो न? तो नये कि तो बस आहट-सी आयेगी। कुछ ज़रा-ज़रा सा पता चलेगा कि जैसे कोई सोता, हुआ है कभी? कि तुम सो रहे हो और कोई पुकार रहा है कैसा सुनाई देता है? ऐसा लगता है पता नहीं कहाँ दूर, मध्यम, किसी की धुंधली सी आवाज़ आ रही हो। कभी लगता है सपने में ही आ रही है, कभी शब्द ठीक नहीं सुनाई देते। धीरे-धीरे करके जैसे तुम्हारी नींद खुलती जाती है, जैसे उसकी आवाज़ और प्रबल होती जाती है तब उसके शब्द, तब उसका बुलावा और स्पष्ट होता जाता है। जब नींद गहरी हो, तब तो बुलाने वाला ऊँची आवाज़ में भी पुकारता हो तो ऐसा ही लगता है कि जैसे किसी बियाबान, सुदूर जंगल से एक विचित्र अनजानी आवाज़ आ रही है। तुम्हे उसी का भरोसा करना पड़ेगा।

तुम्हें आवाज़ आ रही है यही इस बात का संकेत है कि नींद अब टूटने को है। नींद अगर बहुत गहरी होती तो कोई आवाज़ नहीं आती। तुम्हारा समय आ गया है, तुम्हारी नींद टूटने को है। अब ज़बरदस्ती सोने की कोशिश मत करना। अब अपने आपको बाध्य मत करना जग गया हूँ तब भी ऐसे जियूँगा जैसे सो रहा हूँ। जग गए हो तो जग जाओ।

प्र: आचार्य जी क्या आनंदित होने से परिस्थितियाँ बदल जाती हैं?

आचार्य: पहले आप कहिये कि अभी जो है उससे अलग आपको कुछ चाहिए! पहले आप स्वीकारिये! परखिये नहीं! अपनी ही जगह पर खड़े होके दूसरे आयाम को परखना कभी काम नहीं आएगा। पहले तो अपने मन की कहिये। आप चाहते हैं उस मिलन को जिसमें फिर कभी बिछुड़ना न पड़े? पहले आप कहिये कि 'हाँ चाहिए!'

प्र: जब रुकना सम्भव है तो अंत हमेशा मृत्यु से क्यों होती है या सब कुछ खत्म ही क्यों करना है?

आचार्य: तो फिर मृत्यु अंत में नहीं है अगर इस विचार के साथ मिल रहे की मृत्यु अंत में है। वो विचार कब है? अभी। इस विचार के साथ मिल रहे हो की मृत्यु अंत में है तो मृत्यु अंत में नहीं है मृत्यु तो अभी हो गयी। अब मिलोगे कैसे? अब मिलोगे कैसे क्योंकि अभी तो तुम नहीं, ये विचार मिल रहा है कि मृत्यु! तो अब जीवन कहाँ है? अब जीवन कहाँ है? अब मिलन कहाँ है? 'मृत्यु' को तुम अपनी देखोगे नहीं। कोई ऐसा नहीं होता जो अपनी मौत देखे, ठीक वैसे ही जैसे किसी ने अपना जन्म नहीं देखा होता है। मौत ख़्याल है तुम्हारे लिए और जीवन अगर मौत के ख़्याल के साथ बीत रहा है तो जीवन नहीं है बस मौत है! क्योंकि हम तो ख्यालों में जीते हैं। फिर तो मौत है बस!

याद रखना! जिसके लिए मृत्यु है वह मर जाता है, पर वो तो वो है भी नहीं जो मिलने जाता है। वो तो है भी नहीं जिसमें मिलने की काबिलियत हो, जिसमें मिलने की पात्रता हो ज़रा। जा के मिलते हो किसी से गले तो क्या मिलता है? खाल से खाल, हाथ से हाथ, शरीर से शरीर अगर ये मिलते हैं तो इनकी तो मौत हो जानी है। अगर तुम्हारे मिलने में गुणवत्ता यही है कि खाल से खाल मिली है तो निश्चित रूप से तुम्हारा यह सोचना जायज़ है कि इनकी तो मौत आ जानी है। खाल तो जलेगी। 'मिलने' का अर्थ क्या होता है तुम्हारे लिए? त्वचा से त्वचा का संपर्क? त्वचा तो जलेगी! पर अगर मिलने के मायने कुछ और हैं तुम्हारे लिए तो फिर मिलने का मौत से क्या संबंध और मिलने का मौत से संबंध टूटेगा भी तभी जब 'मिलना' खाल से खाल के मिलने भर की बात न हो। मैं जिस मिलन की बात कर रहा हूँ वो दिन पर आश्रित नहीं है, वो परिस्थितियों पर आश्रित नहीं है, वो तुम्हारे व्यक्तित्व पर आश्रित नहीं है। दिन तो सब अलग-अलग होते ही हैं। किसी दिन बारिश है, किसी दिन धूप है, किसी दिन जाड़ा है। कभी एक माहौल कभी दूसरा, दुनिया कभी एक करवट बैठी कभी दूसरी। किसी दिन भूकंप भी आ सकता है, कभी बाढ़ भी कभी प्रलय भी। 'उत्सव' इन सब के मध्य रहता है। 'योग' इन सब के मध्य रहता है। यह चलते रहते हैं बाहर-बाहर उत्सव कायम रहता है और जब इनके मध्य में उत्सव रहता है तो बाहर-बाहर जो चल रहा होता है, सब बदल जाता है।

बड़ी अजीब बात है, तुम पूछोगे कैसे?

उसका कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता।

क्यों?

क्योंकि सिर्फ़ उसके लिए बदलता है जिसके केंद्र में उत्सव बैठा हुआ है। किसी और से पूछोगे, क्या दुनिया बदली हुई है आज? तो कहेगा नहीं! दुनिया तो वैसी ही है। जैसी कल थी, परसो थी, पिछले महीने थी। वो कहेगा दुनिया में कुछ खास नहीं है। आज भी वही ढर्रा चल रहा है, आज भी वही चक्की चल रही है। पर जिसके भीतर अब 'धुन' लग गयी है, उसके लिए दुनिया बदल गई है।

तुम मुझसे अगर पूछोगे क्या आनंदित होने से परिस्थितियाँ बदल जाती हैं? तो मैं कहूँगा इस पर निर्भर करता है कि कौन यह सवाल पूछ रहा है? जो आनंदित है अगर वह पूछ रहा है तो हाँ! बिल्कुल बदल जाती हैं। वह पूछेगा ही नहीं क्योंकि उसके लिए परिस्थितियाँ बदल गई हैं। वह क्यों पूछेगा?

प्र: जितने हमारे ये ऋषि मुनि थे उनको ये राक्षस परेशान करते थे, क्या उनके किसी भीतर ये आनन्द प्रवेश नहीं हुआ था?

आचार्य: छोड़ो न ऋषियों को, मुनियों को।

प्र: यदि हम आनंदित हैं, लेकिन बाहर वाले परेशान कर रहे हैं?

आचार्य: आनंद 'यदि' नहीं होता। 'यदि', 'किंतु', 'परंतु' ये सब मन की स्थितियाँ हैं। अहंकार यह बड़ी चेष्टा करता है कि जहाँ बैठा है वहीं से बैठे-बैठे कल्पना कर ले कि 'यदि आनंद' हो!

आनंद क्या है? रसगुल्ला है कि यदि उठा लें? तुम्हारे सामने रखा हुआ है कि यदि उठा लें! आनंद ऐसी चीज़ नहीं है जिसे हाथ में उठाया जाता है कि कहोगे यदि उठा लें!

जो हाथ में उठाया जाता है न उसके साथ एक बात ये होती है कि उसको तुम हाथ में उठा लो तो भी 'तुम' वही रह जाते हो। तो तुम कह सकते हो कि यदि 'मैं' इसको उठा लूँ क्योंकि उठाने से पूर्व का और उठाने के बाद का 'मैं' एक ही है। तुम बात कर सकते हो कि अगर मैं उठा लूँ तो क्या होगा?

आनंद वो है कि तुमने उठाया नहीं कि 'तुम' उठ जाते हो, तुम बदल गए तो अब 'यदि' कैसे कह रहे हो?

आनंद 'पूर्व' के मन को, आनंद 'पश्चात' के मन की कल्पना करने की अनुमति नहीं है क्योंकि वो मन ही बदल जाता है। पर ये बड़े अंहकार की बात है "अगर मुझे मोक्ष मिल भी जाए तो मेरी दुकान कौन चलाएगा?"

(सभी श्रोता हँसते हुए)

अगर मुझे मोक्ष मिल गया...ये सवाल क्या मोक्ष पाने के बाद पूछ रहे हो? पहले पूछ रहे हो और अहंकार इतना है कि कल्पना कर रहे हो कि मोक्ष के बाद भी तो हम तो वही रहेंगे न जिसे अभी भी दुकान की चिंता सताये।

देख नहीं रहे हो कैसे सवाल है ये!

प्र: सर, एक और सवाल है।

आचार्य: पिछला समझ में आया?

(सभी श्रोता हँसते हुए)

अभी उत्तर दिया नहीं तुमने?

पिछले के साथ ठहरो!

प्र: नहीं आपने कहा था भीतर होगा तो बाहर की परिस्थितियाँ भी...

आचार्य: मैंने कुछ और भी कहा है, अभी ठहरो उसके साथ!

जब पूछने का उद्देश्य 'जानना' हो तब एक उत्तर ही काफ़ी हो जाता है। जब पूछने का उद्देश्य 'अपने आपको क़ायम रखना' हो तब एक प्रश्न के बाद दूसरा प्रश्न पूछा नहीं जाता, दागा जाता है। अब पूछने का इस्तेमाल अस्त्र की तरह होता है। अपनी रक्षा के लिए। मुझे 'अपने आपको कायम रखना है' न! तो मैं ऐसे सवाल पूछूँगा जो किसी तरीके से मेरे कवच की तरह काम करें और समाधान को मैं अपने तक आने नहीं दूँगा क्योंकि समाधान यदि आ गया तो प्रश्नेता ही मिट जाएगा। अगर एक भी उत्तर मुझ तक पहुँच गया तो मेरे आगे वाले सारे सवाल मिट जाने हैं इसीलिए मैं किसी उत्तर को अपने तक पहुँचने न दूँगा। मैं तो एक के बाद एक सवाल दागूँगा इसी उम्मीद में कि कोई तो गोली निशाने पर जाकर लगेगी। डरे हुए आदमी को देखा है वो अंधाधुन फायर करता है।

तुम समझो तो सही! ये गोलियाँ तुम अपनी ही शांति पर चलाने की कोशिश कर रहे हो। वो मिटेगी नहीं। वो शांति है, शांति नहीं मिटती। पर हर वार के साथ हर दाँव के साथ तुम स्वयं और अशांत हुए जा रहे हो। तुम जिस समाधान के रास्ते में खड़े हो रहे हो उसका क्या मिट जाना है? वो तो समाधान है! समाधान माने जो मिट गया, समाधिस्थ हो गया वो समाधान है। जो मिट गया उसको तुम और क्या मिटाओगे उसपे वार कर के? पर जितना वार करोगे, उतना तुम अपने आपको वंचित करोगे शांति की संभावना से।

'एक' बात को समझो और एक बात सैकड़ों बातों को स्पष्ट कर देगी! एक बात जान लो बस!

वो कोई भी 'एक' बात हो सकती है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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