प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। अहंकार को चोट लगने पर सारी आध्यात्मिक बातें धरी की धरी रह जाती हैं। जैसे दूसरों को लड़ते देख ये लगता है कि ये बेवज़ह ही फ़िज़ूल लड़ाई कर रहे हैं, दूसरों को छोटी चीज़ों में लिप्त देख लगता है कि मैं तो साक्षी हूँ, पर जब वही चीज़ खुद पर बीतती है तो साक्षित्व मिट जाता है और एक भारीपन-सा सवार हो जाता है। आचार्य जी, आपसे इस विषय में ज्ञान चाहता हूँ, कि जब घटनाओं का केंद्र मैं खुद हूँ तब मैं कैसे उनसे मुक्त रहूँ?
आचार्य प्रशांत: समस्त घटनाओं के केंद्र में हम ही होते हैं; बस कुछ घटनाएँ ऐसी लगती हैं कि दूसरों के साथ हो रही हैं, कुछ घटनाएँ ऐसा लगता है कि हमारे साथ हो रही हैं। जो घटनाएँ हमें लगता है दूसरों के साथ हो रही हैं, उनको भी अमहत्वपूर्ण या अप्रासंगिक कहने वाले हम ही होते हैं।
तो जिन्होंने जाना है उन्होंने यही सिखाया है कि ये मत सोचना कि तुम ‘कुछ घटनाओं' के दृष्टा या साक्षी इत्यादि होते हो; रिश्ता तो हमारा ‘हर घटना' से होता है। हाँ, रिश्ते भिन्न-भिन्न होते हैं, तरीके-तरीके के होते हैं।
अब कह रहे हैं कि "जो मेरे साथ घट रहा है उसको लेकर के मैं निरपेक्ष कैसे रहूँ?" यही है न सार प्रश्न का? तो और किस चीज़ को लेकर निरपेक्ष रहोगे? जिसको तुमने पहले ही मान लिया है कि दूसरे के घर की घटना है, उसके साथ तो तुमने निरपेक्षता पहले ही बना ली। निरपेक्षता तो बनानी ही उन चीज़ों से है जिनको अपना मान रहे हो।
आमतौर पर हम निरपेक्षता का मतलब ये समझते हैं कि अपनी चीज़ के प्रति भी थोड़ा-सा उपेक्षा का, दूरी का भाव रखो। ऐसे ही लगता है न, कि अध्यात्म सिखाता है कि जो चीज़ें अपनी हैं, जो घटनाएँ अपनी हैं, जो रिश्ते अपने हैं, जो धन-संपत्ति अपनी है, देह अपनी है, स्मृतियाँ अपनी हैं, इनके साथ भी थोड़ी दूरी बना कर रखो? इसी को हम कभी दृष्टा-भाव कह देते हैं, कभी साक्षित्व कह देते हैं, कभी निष्पेक्षता कह देते हैं, कभी निर्लिप्तता कह देते हैं। ऐसा ही है न? नहीं, ये नहीं है। निरपेक्षता या साक्षित्व का अर्थ होता है ये जानना कि तुम जिसको अपना कह रहे हो वो तुम्हारा अपना है ही नहीं।
इन दोनों बातों में अंतर साफ़ समझिए। आपसे ये नहीं कहा जा रहा कि अपनी चीज़ों को भी ऐसे देखिए जैसे बेगानी हों। आपसे कहा जा रहा है, “देखिए कि जिन चीज़ों को आप अपना कहते हैं वो आपकी नहीं हैं, बस अभी समय का फेर है, आँखों का धोखा है, कि आपको दिखाई नहीं दे रहा कि जो कुछ अपना माने बैठे हो वो आपका नहीं है।“ अचानक एक दिन पहाड़ से पत्थर गिरेंगे, चट्टानें खिसकेंगी, मिट्टी दरकेगी; सब-कुछ जो जमा हुआ था वो अस्त-व्यस्त हो जाएगा, सब गिर पड़ेगा, भूस्खलन हो जाएगा। तब समझ में आएगा कि जो कुछ नित्य लग रहा था, संतुलित लग रहा था, स्थापित लग रहा था, स्थायी लग रहा था, उसमें दम था नहीं; दम था नहीं, बस वो ऊपर-ऊपर से जमा हुआ लग रहा था तो हमको लगा कि ये तो लम्बा चलेगा, या अमर ही रह जाए क्या पता!
इमारतें गिरती हैं, अक्सर उनमें लोग मरते हैं। होता है न? और खासतौर पर ऐसा होता है बरसात के मौसम में, है न? मुंबई वगैरह की तरफ़ इस तरह की ख़बरें खूब पढ़ते हैं न? आपको ताज्जुब नहीं होता कि इमारत अगर गिरने की हालत में थी तो लोग उसमें रह क्यों रहे थे? एक वजह तो इसकी होती है लाचारी, मजबूरी, गरीबी, कि उनके पास सर छुपाने की और कोई जगह ही नहीं थी तो जाते कहाँ? एक दूसरी वजह भी होती है: अज्ञान और उम्मीद; न समझ पाना कि जो तुमको लग रहा है कि “ये छत अभी चलेगी, एकाध-साल तो और खिंच जाएगा, अगले मॉनसून तक तो चल जाएगी,” उसमें दम है नहीं, और यही उम्मीद कि क्या पता अगले साल तक चल ही जाए।
ऐसे ही हमारी ज़िन्दगी होती है। जब तक हमारे सर पर ही छत टूट कर नहीं गिर पड़ती, हमें समझ में ही नहीं आता कि ये जिस छत के नीचे हम सालों से रह रहे हैं वो बड़ी कच्ची है, बड़ी कमज़ोर है। और जब वो सर पर टूट कर गिर ही पड़ती है, तो अब समझ भी आए तो क्या होगा? मुंडी तो फूट ही गई; अब भागो, पट्टी कराओ।
साक्षित्व का अर्थ होता है अज्ञान और उम्मीद में न जीना; यथार्थ में जीना।
हमारे तो सामने यथार्थ आता भी है तो हम उससे आँखें मूँद लेते हैं, बताओ क्यों? आलस। मान लिया अगर कि हमने जो आशियाना बना रखा है वो बिल्कुल ताश का महल है, कभी-भी ढह सकता है — और यथार्थ यही है — तो क्या करना पड़ेगा? परिश्रम करना पड़ेगा न। इस आशियाने को अपने ही हाथों से ढहाना पड़ेगा, नया खड़ा करना पड़ेगा। कौन उतनी मेहनत करे? उससे अच्छा ये माने चलो और उम्मीद करे चलो कि हमारा ताश का महल ही अमरजीवी होगा।
"कभी नहीं गिरेगा, मेरा महल है। सीमेंट से नहीं, दुआओं से बना है। ईंट-पत्थर पर नहीं खड़ा है, स्टील पर नहीं खड़ा है, आशीर्वाद पर खड़ा है। जज़्बात पर खड़ा है, जज़्बात पर, ये कभी नहीं गिरने वाला।" और जब वो बिल्कुल भरहरा कर गिरता है, ढहता है मुंडी पर, तो कहते तो “हाय-हाय!”
ठोंक बजा कर देख तो लिया करो कि दम कितना है। बार-बार इसीलिए कहता हूँ: प्रयोग, परीक्षण; प्रयोग, परीक्षण। कभी नापते-तौलते ही नहीं! और जान-बूझ कर नापते-तौलते नहीं, क्योंकि नाप-तौल लिया तो मन-ही-मन जानते हो कि हक़ीकत बाहर आ जाएगी; दिख जाएगा कि जिन बातों को दिल से लगाए बैठे हो, जिन बातों में इतना निवेश करते हो ज़िन्दगी का, भावनाओं का, रुपए-पैसे, समय का, वो सब चीज़ें खोखली हैं कतई, तो आँख बंद करके बैठे रहते हो।
साक्षित्व आँख खोलने की बात है।
उसके बाद चोट नहीं लगती, उसके बाद सक्रिय और सार्थक कर्म होता है। दिख जाता है तुम्हें कि क्या-क्या है कहाँ-कहाँ पर जो सड़ा हुआ है, कमज़ोर है, मरने को तैयार है; फिर तुम उसका इलाज करते हो, उपचार करते हो, उसका विकल्प ढूँढते हो।
तुमसे नहीं कहा जा रहा है कि अच्छे-अच्छे जो फल हैं तुम्हारे पास, उनको उठा कर फेंक दो; तुमसे कहा जा रहा है, “तुम्हारी टोकरी में जो कुछ है भाई, उसकी जाँच-पड़ताल कर लो।“ ये कुछ नाजायज़ माँग करी जा रही है? ये साक्षित्व है। अपनी चीज़ छोड़ने का नाम साक्षित्व नहीं है; ये परखने का नाम साक्षित्व है कि जो कुछ मेरे पास है उसमें वाकई अपना कितना है। अपना माने क्या? जो चले, जिसमें नित्यता हो, जिसमें स्थायित्व हो, जो कभी धोखा न दे; वही तो अपना हुआ न? जो कभी-भी तुमको धोखा देकर निकल जाए, उसको अपना बोलोगे क्या? तो साक्षित्व का मतलब समझो: परखना।
अध्यात्म को अक्सर हम बड़ा कठोर, बड़ा हृदयहीन समझ लेते हैं। हमें लगता है अध्यात्म का मतलब होता है अपना घर छोड़ देना, अध्यात्म का मतलब होता है अपनी धारणाएँ छोड़ देना, अध्यात्म का मतलब होता है अपनी प्यारी-प्यारी, मुलायम-मुलायम, मीठी-मीठी, सुन्दर-सुन्दर चीज़ें छोड़ देना; नहीं, अध्यात्म का ये मतलब नहीं होता। अध्यात्म का मतलब होता है वो छोड़ देना जो लग तो रहा है सुन्दर-सुन्दर, मीठा-मीठा, पर अंदर-ही-अंदर सड़ा-सड़ा, कड़ा-कड़ा, मिटा-मिटा, गला-गला, खोखला है। अब ये बात आपके हित की है या अहित की है?
इसीलिए अध्यात्म से सबसे ज़्यादा डर भी किनको लगता है? जिनको पता होता है कि जीवन में भरी हुई हैं सड़ी-गली और खोखली चीज़ें। दो लोग डरेंगे: एक वो जिन्होंने जीवन में खोखली चीज़ें इकठ्ठा कर ली हैं, और दूसरी, जो खोखली चीज़ें हैं वो डरेंगी। आपको डर लगेगा कि अगर जाँच-पड़ताल की तो चीज़ का खोखलापन ज़ाहिर हो जाएगा, और खोखली चीज़ तो जानती ही है कि वो खोखली है, तो वो ज़ोर से चिल्लाएगी, "अरे! अरे!, अध्यात्म की ओर मत जाना, वहाँ बड़ी गड़बड़ होती है।" उसका चिल्लाना लाज़मी है, उसका डर प्राकृतिक है, उसको पता है कि असलियत खुल गई तो उसका पत्ता कट जाएगा।