प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अध्यात्म उपनिषद् कहता है कि तुम अहंकार को गला दो, देख लो कि तुम यह भी नहीं हो, वो भी नहीं हो। तो जो देखने वाला है, वो भी तो अहंकार ही है? कृपया प्रकाश डालें।
आचार्य प्रशांत: सवाल यह है कि उपनिषद् कहता है कि अहंकार को गला दो, देख लो कि तुम यह नहीं हो, देख लो कि तुम वो नहीं हो। तो जो गलाने वाला है, वो भी तो 'मैं' ही है, वो भी तो अहंकार ही है। कुछ गला भी दिया तो गलाने वाला तो बच ही जाएगा, तो पूर्ण मुक्ति कैसे पायें?
अहंकार एक अधूरापन है जो पूरेपन की तलाश में है। भ्रम है, मिथ्या है पर अपनी नज़र में वो सबसे बड़ा सत्य है। एक अधूरापन जिसे पूरा होना है, पूरा कैसे होना है उसे? पूरा होना है उसे दुनिया का उपयोग करके, जो भी कुछ मिले उससे जुड़ कर, संपृक्त हो कर। ये उसके पास तरीक़ा है पूरा हो जाने का।
जो कुछ भी अहंकार के सामने आता है वो उसे एक ही दृष्टि से देखता है कि यह मेरे अधूरेपन को भर देगा कि नहीं भर देगा। कुछ अपनी गणित लगाता है, हिसाब-किताब बैठाता है और कुछ पदार्थों को, वस्तुओं को, व्यक्तियों को चुन लेता है, कि ये ठीक है मेरे लिए, इनको पकड़ लूँगा तो पूरा हो जाऊँगा। उनसे हमेशा जुड़ा रहता है। बड़ा डरपोक है, बड़ा अकेला है। इतना अकेला है कि कभी अकेला पाया नहीं जाएगा। इतना अकेला है कि हमेशा किसी-न-किसी के साथ चिपका ही पाया जाएगा। यह अहंकार है।
जो प्रक्रिया उपनिषद् वर्णित कर रहा है वो है अहंकार को हतोत्साहित कर देने की। जिसके साथ भी वो (अहंकार) जुड़ रहा है उसकी सामर्थ्यहीनता दिखा देने की, उसकी निस्सारता दिखा देने की। जुड़ तो इसी आस में रहा है न कि जुड़ूँगा तो अकेलापन दूर हो जाएगा, पूरा हो जाऊँगा, जिससे डर रहा हूँ उससे मुक्ति मिल जाएगी, ख़ौफ़ जाता रहेगा।
नेति-नेति की प्रक्रिया है अहंकार को यह दिखा देने की कि तुम्हारी उम्मीद पूरी नहीं होगी। आज तक भी तुम जिनके साथ जुड़ते आये हो, फ़िलहाल भी जिनके साथ जुड़े हुए हो, उनमें से कोई भी तुम्हारी उम्मीदों को पूरा नहीं कर रहे हैं। जहाँ-जहाँ वो जुड़े वहाँ-वहाँ चोट करनी होती है, वहाँ-वहाँ उससे कहना होता है कि अपनेआप से ईमानदारी से पूछ कि जुड़कर के क्या तुझे तेरी अभीष्ट वस्तु मिल रही है। जिस इच्छा के नाते जुड़ता है, क्या वो इच्छा वास्तव में पूरी हो रही है? नेति-नेति के केन्द्र में यही ईमानदारी है। ईमानदार जवाब नहीं आया तो प्रक्रिया असफल हो जाएगी।
तो जुड़ा हुआ है अहंकार कहीं पर, आप पूछेंगे, ’मिला यहाँ पर वो जो चाहा था?’ वो ईमानदारी से, सिर झुकाकर, धीरे से, निराश स्वर में बोलेगा, ’नहीं मिला।’ तो आप कहेंगे, ’छोड़ दे।’ वो कहेगा, ’और चारा क्या है, छोड़ा।‘ पर यह कहते हुए वो फिर कहीं और जाकर सम्बद्ध हो जाएगा। वो कहेगा, ’मुराद इस वस्तु से या इस व्यक्ति से पूरी नहीं हुई तो कहीं और हो जाएगी।‘ वो कहीं और जाकर के लिपटेगा, चिपटेगा। तत्काल वहाँ भी यही प्रयोग करना है।
तत्काल वहाँ भी अहंकार को यही दर्शा देना है कि तू पुरानी भूल ही दोहरा रहा है। ऐसा तब तक करते रहना है जब तक यह जो चिपकने वाला है, इसके पास कोई बहाना न बचे, इसका उत्साह बिलकुल ही क्षीण पड़ जाए, कोई तर्क ही न बचे इसके पास। ऐसा हो जाए कि अब यह और प्रयास करे तो अपनी ही नज़रों में मूर्ख सिद्ध हो जाए। यह आख़िरी क़दम होता है। यह आख़िरी क़दम प्रायोजित नहीं होता। इसके पहले जो कुछ है उसके लिए 'प्रक्रिया' है, इस आख़िरी कदम के लिए 'प्रार्थना' है।
नेति-नेति वास्तव में आप अहंकार की नहीं करते, नेति-नेति वास्तव में आप उन सब वस्तुओं की, पदार्थों की, व्यक्तियों की, विचारों की करते हैं जिनका अहंकार को आसरा होता है। अहंकार की नेति-नेति तो स्वयं परमात्मा करता है। समझ रहे हैं?
जैसे कि कोई घर से बार-बार निकल भागना चाहता हो और घर में हज़ारों द्वार हों। वो जिस भी द्वार से निकल भागता हो, आप वहीं खड़े हो जाएँ और जैसे ही वो भागे आप उसे कहें कि देख तू भाग रहा है लेकिन इस द्वार से भागकर भी तुझे निराशा ही मिलेगी। जहाँ-जहाँ वो भागना चाहे, जिस-जिस द्वार का उपयोग करके, आप वहीं पर उसका रास्ता अवरुद्ध कर दें, यह नेति-नेति है। यह नेति-नेति है उसके बाहर भागने की।
पर वो घर में ही सन्तुष्ट हो जाए, वो घर में ही शान्ति और समाधि पा जाए, यह प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है। प्रक्रिया के अन्तर्गत आप यह तो कर सकते हो कि उसका भागना रोक दो, क्योंकि भागता वो इस उम्मीद में था कि बाहर कहीं चैन मिलेगा। प्रक्रिया के अन्तर्गत आप यह तो कर सकते हो कि अब वो बाहर नहीं भाग रहा, पर घर में ही उसको शान्ति मिल गयी, यह प्रक्रिया से नहीं होता। वो घर में ही अब जमकर के बैठ गया है, सुकून पा गया है, यह प्रार्थना से होता है।
ज्ञान और भक्ति एक हैं। अन्ततः यहाँ भी प्रार्थना करनी पड़ेगी, नहीं तो अहंकार एक बड़ी ऊहापोह की स्थिति में आकर के बस फँस जाएगा। दूसरों की ओर वो जा नहीं सकता और अपने में शान्ति पाता नहीं। दूसरों की ओर उसका जाना आपने रोक दिया, जिधर को भी चला वहीं पर आपने दर्शा दिया कि यहाँ तेरी माँग नहीं पूरी होने वाली, तो बेचारा अब इधर-उधर कहीं जा नहीं सकता और साथ-ही-साथ अपने में चैन पाता नहीं है।
अपने में चैन आ जाए, यह बात अनुग्रह की है। इसके लिए फिर आगे से किसी का आशीर्वाद चाहिए, तो वहाँ पर आकर के प्रक्रिया वगैरह रोक देनी होती है। वहाँ पर यही कह देना होता है कि जितनी ताक़त से और जितनी ईमानदारी से हम प्रक्रिया का पालन कर सकते थे, हमने किया। अब प्रक्रिया बहुत हुई, आगे का परमात्मा तुम सम्भालो। बेचैनी के द्वार तो हमने सब अवरूद्ध कर दिये पर चैन तो तुम्हीं दोगे न।
याद रखिएगा कि बेचैनी हट जाने भर का नाम चैन नहीं होता। बेचैनी के हट जाने में और चैन के मिल जाने में ज़रा बित्तेभर का फ़ासला होता है। उस फ़ासले को भरने के लिए प्रार्थना चाहिए होती है।
प्र: जब ये होता है तो डिसइंटरेस्ट (अरुचि) काफ़ी आ जाता है वर्ल्ड (संसार) में और फिर डर भी लगने लगता है कि अगर डिसइंटरेस्ट आ रहा है वर्ल्ड में तो फिर क्या होगा!
आचार्य: सवाल है कि जब नेति-नेति की प्रक्रिया चलती है तो दुनिया में अरुचि सी होने लग जाती है और जब अरुचि होती है तो डर लगता है कि दुनिया से अगर अरुचि हो गयी तो जाएँगे कहाँ, रहना तो दुनिया में ही है।
जिस तरीक़े की दुनिया आपने देखी, आपने प्रक्षेपित करी और आपने अपने इर्द-गिर्द बना ली, उससे अरुचि होने लगती है, अच्छा ही है न! दुनिया कोई एक थोड़े ही है। आपने अपने इर्द-गिर्द जिस दुनिया का निर्माण किया था, वो दुनिया डर और लालच की दुनिया थी। आपको अरुचि, समझ लीजिए यह साफ़-साफ़, दुनिया से नहीं हो रही है, दुनिया के आधार से हो रही है। आपने अपनी दुनिया खड़ी ही करी थी बड़े कातर आधार पर, भयभीत होकर, सुरक्षा की ख़ातिर। उस दुनिया से आपको अरुचि होने लग जाए तो अच्छा है न!
इसका अर्थ यह नहीं है कि वो दुनिया हटेगी तो दूसरी दुनिया नहीं है। आपको दुनिया में ही रहना है पर उसी दुनिया में थोड़े ही रहना है जो रुग्ण सी दुनिया आपने कभी रच ली थी? वो दुनिया हटेगी तो हज़ार नये विश्व आने को तैयार हैं। यह बड़ी आम भूल है, यह कर मत बैठिएगा। दुनिया एक नहीं है, एक दुनिया छूटेगी, पाँच नयी दुनिया तैयार खड़ी हैं। आपको आपकी अर्हता के मुताबिक़, आपकी वरीयता के मुताबिक़, आपकी पात्रता और प्रार्थना के मुताबिक़ दुनिया मिल जाती है।
क़रीब-क़रीब वैसी सी बात है कि किसी भी बड़ी संस्था वगैरह में अक्सर कर्मचारियों को घर, वाहन इत्यादि दिये जाते हैं। जो उन्हें घर और वाहन दिये जाते हैं, उनकी ज्येष्ठता के मुताबिक़ दिये जाते हैं। आपकी कितनी सीनियोरिटी (वरिष्ठता) है। अब हो सकता है कि एक ही ओहदे पर रहते-रहते आप एक छोटे से घर के इतने आदी हो गये हों कि आपको लगता हो कि यह घर ही आपकी दुनिया है। और फिर आपकी प्रोन्नति होती है, कोई आकर के आपको सूचना देता है कि यह घर खाली करो, यह घर अब तुम्हारे लिए नहीं है। और आप कहते हो, मेरी दुनिया छिन गयी।
आप समझ ही नहीं रहे हो कि आपका कद बढ़ गया है, आपका ओहदा बढ़ गया है, आपकी ज्येष्ठता बढ़ गयी है। आपको एक नया घर, एक नयी दुनिया दी जा रही है। पहले छोटा वाहन दिया गया था, अब आपको बड़ा वाहन दिया जा रहा है। यह ख़याल में ही नहीं आता क्योंकि अभ्यस्त हो गये हैं, आदत लग गयी है छोटे से घर में रहने की। बड़े की ख़बर ऐसा लगता है जैसे कोई दुखद समाचार आ गया।
जैसे-जैसे आपका ओहदा, आपका रुतबा बढ़ता जाता है, आपको एक बेहतर दुनिया उपलब्ध होती जाती है। तो जो पीछे छूट रहा है, उसको छोड़ने से मत डरिए। वो पीछे छूट ही इसीलिए रहा है क्योंकि उससे कुछ कहीं बेहतर आपको दिया जा रहा है, और बात बेहतर की भी नहीं है, बात है अनुकूलता की। आपको वो दिया जा रहा है जो आपके अनुकूल है, जिसका आपसे मेल है। आप बदल चुके हैं, पुरानी दुनिया में अब आप रहेंगे तो आपका दम घुट जाएगा। आपके पास अब विकल्प ही नहीं है नयी दुनिया को न चुनने का।
आपका कद, आपका आकार बढ़ चुका है, पुराने कपड़े आप कैसे पहने रह जाएँगे? आपके पास अब विकल्प ही नहीं है पुराने कपड़े न छोड़ने का, आपको छोड़ने पड़ेंगे। पुराने कपड़ों में दम घुटता हो, आप कहें कि पुराने कपड़ों से अरुचि हो रही है और मुझे डर लगता है कि कहीं नंगा न जीना पड़े अब, तो यह डर वाज़िब नहीं है। पुराने कपड़ों से अरुचि आपको हो ही इसीलिए रही है क्योंकि अब वो आपके लिए हैं ही नहीं, तो उन्हें छोड़िए। नये स्वच्छ-धवल वस्त्र आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, जाइए, पहनिए। राजकुमार बनकर आइए, हम तालियाँ बजाएँगे।