पंचकोशादियोगेन तत्तन्मय इव स्थितः। शुद्धात्मा नीलवस्त्रादियोगेन स्फटिको यथा॥
विशुद्ध आत्मा पंचकोशों के तादात्म्य से तन्मय हुआ-सा प्रतीत होता है, जैसे स्फटिक मणि नील वस्त्र आदि के संयोग से वैसे रंग की ही दिखती है।
—आत्मबोध, श्लोक १५
प्रश्नकर्ता: पद्रंहवें श्लोक में शंकराचार्य जी ने ‘तादात्म्य’ शब्द का प्रयोग करा है। कृपया समझाएँ।
आचार्य प्रशांत: तादात्म्य माने तद्-आत्म, 'वह मैं हूँ' — इस भाव को तादात्म्य कहते हैं। ‘तद्’ माने वह, ‘आत्म’ माने मैं। 'वह मैं हूँ', इस भाव को तादात्म्य कहते हैं। अहम् को कुछ-न-कुछ चाहिए होता है अपनी पहचान बनाने के लिए। अहम् अपूर्ण होता है, अकेला होता है और पूर्ण होने की उसकी अभिलाषा होती है, क्योंकि उसका स्वभाव है पूर्णता। उसका स्वभाव है पूर्णता, पर उसकी धारणा है अपूर्णता की, उसका स्वरूप है पूर्णता, पर रूप उसने पहन रखा है अपूर्ण का। तो पूर्ण होने की उसकी कामना होती है। पूर्ण होने के लिए वह किसी-न-किसी चीज़ से जुड़ना चाहता है। इसी जुड़ने को तादात्म्य कहते हैं।
(अलग-अलग वस्तुओं की ओर इशारा करते हुए) कभी कहता है, 'यह मैं हूँ', कभी कहता है, 'यह मैं हूँ', कभी कहता है, 'यह मैं हूँ', कभी कहता है, 'वह मैं हूँ'। शंकराचार्य कह रहे हैं, पंचकोशों से तादात्म्य कर लेता है। पंचकोश से तात्पर्य है अखिल विश्व, जो कुछ भी हो सकता है।
जो कुछ भी उपलब्ध है जुड़ जाने के लिए, अहम् उस सबका दुरुपयोग कर लेता है। वह कहता है, जो कुछ भी मिले, उसी से जुड़ जाओ। संसार मिले तो संसार से जुड़ जाओ; अन्नमय कोश मिले, अन्नमय कोश से जुड़ जाओ; प्राणमय कोश मिले, प्राणमय कोश से जुड़ जाओ; विज्ञानमय कोश हो, विज्ञानमय कोश से जुड़ जाओ; आनंदमय कोश हो, उससे जुड़ जाओ—जो मिले, उसी से तादात्म्य बना लो।
देखते नहीं हो कि किस-किस चीज़ से रिश्ता बना लेते हो? कुछ ऐसा है जिससे तुमने रिश्ता बनाने से इनकार कर दिया हो? विचारों से कह देते हो, 'मेरे विचार हैं', घर को कह देते हो, 'मेरा घर है', शरीर को कह दे तो 'मेरा शरीर है'। सो भी रहे हो, तो कह देते हो, 'मैं सो रहा हूँ', सुषुप्ति को भी कह देते हो, 'मेरी नींद है'। तो जो कुछ भी हो सकता है, किसी भी कोश का हो वह, एकदम बाहरी कोश का है तो अन्नमय है, फिर ज़रा भीतर गए तो प्राणमय, फिर ज्ञानमय, विज्ञानमय, आनंदमय कोश।
इन कोशों से क्या अर्थ है?
पूरा संसार, जो कुछ भी उपलब्ध है। सबसे जो बाहरी कोश है, वह सबसे स्थूल है, और जैसे-जैसे तुम भीतर को आते जाते हो तो सूक्ष्म कोश आते जाते हैं। स्थूल हो, कि सूक्ष्म हो, है तो मानसिक ही न। अहम् किसी को भी नहीं छोड़ता, स्थूल से स्थूलतर को नहीं छोड़ता और सूक्ष्म से सूक्ष्मतर को नहीं छोड़ता। उसको जो मिल जाए, वह उसी के साथ संबंधित हो जाता है – यही तादात्म्य है। वह इतना अकेला है, इतनी तड़प है उसमें कि उसे कुछ-न-कुछ पकड़ना ज़रूर है। यह तादात्म्य है।