अगर देश के लिए खेलने का अरमान हो || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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अगर देश के लिए खेलने का अरमान हो || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: मैं एक जिला-स्तरीय क्रिकेट खिलाड़ी हूँ। मेरे जीवन में ढर्रे हैं और वो मुझे खेल में आगे बढ़ने से बहुत रोक रहे हैं। तो एक युवा होने के नाते किस तरीके से मैं आगे अनुशासन के साथ इस खेल में उतर सकता हूँ? मैं देश के लिए खेलना चाहता हूँ। कृपया मेरा मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: देश के लिए खेलना चाहते हो, तो फिर देश के लिए खेलने को ही जीवन बना लो, जीवन में और दूसरी कोई बात बचनी ही नहीं चाहिए।

अस्तित्व का नियम समझो। हंस, हंस के साथ रहता है; कौवा, कौवे के साथ रहता है। शेर और कुत्ते को तुम एक झुंड में घूमता नहीं पाओगे। जिसको बहुत ऊँचे जाना हो वो फिर उस ऊँचे को ही जीवन बना ले। वो ये नहीं कर सकता कि - "एक लक्ष्य तो मेरा ये है कि देश के लिए क्रिकेट खेलना है, राष्ट्रीय टीम का सदस्य बनना है, और दूसरा लक्ष्य मेरा ये है कि वहाँ चौराहे पर मुफ़्त के गोलगप्पे भी खाने हैं।"

अब या तो तुम राष्ट्रीय टीम की ओर देख लो, या फिर तुम ये जो घटिया काम हैं इन्हीं को जीवन में रख लो - दोनों को एक साथ नहीं रख पाओगे। पर हमारी बड़ी ज़िद होती है, बड़ी मूर्खतापूर्ण ज़िद होती है कि हमें तो दोनों चाहिए, ऊँचे-से-ऊँचा भी चाहिए और ये सब जो अंडू-पंडू चीज़ें हमने जीवन में शामिल कर रखी होती हैं, हमें उनको भी रखना है; दोनों को एक साथ नहीं रख पाओगे।

राष्ट्रीय टीम की ओर अगर देखना है तो चौपले के अपने अरमानों को तुम्हें विदा करना पड़ेगा। और चौपला ही तुम्हें बहुत प्यारा है, कि, “वहाँ जाएँगे और वहाँ मेरे ही जैसे पाँच-सात होते हैं, उन्हीं के साथ मूँगफली खाएँगे, गोलगप्पे खाएँगे, एकाध-दो घण्टे गपशप करेंगे।” तो तुम फिर यही कर लो, फिर राष्ट्रीय टीम को भूल जाओ।

जिसे जहाँ जाना होता है उसे वहाँ पहुँचने से पहले ही वहाँ का हो जाना पड़ता है, नहीं तो फिर तुम जहाँ के हो वहीं के रह जाओगे।

तुम ये थोड़े ही कहते हो कि राष्ट्रीय टीम में प्रवेश मिलेगा उसके बाद तुम फिटनेस ठीक करोगे अपनी, या उसके बाद तुम अपने खेल में सुधार लाओगे। राष्ट्रीय टीम में अगर तुमको जाना है तो राष्ट्रीय टीम में पहुँचने से बहुत-बहुत पहले ही तुम्हें अपनी फिटनेस उस टीम के सदस्यों के बराबर कर लेनी होगी, तुम्हें अपने खेल का स्तर भी उस टीम के सदस्यों के बराबर या उनसे बेहतर कर लेना होगा।

ये अलग बात है कि वो सब टीम के सदस्य हैं, तुम अभी टीम से बाहर हो, लेकिन टीम से बाहर होते हुए भी तुम्हें अपना स्तर टीम जितना ही कर लेना होगा। टीम से बाहर होते हुए भी अगर तुम अपना स्तर टीम जितना नहीं कर पाए, तो टीम में कभी प्रवेश नहीं पाओगे।

तो मैंने कहा - जिसको जहाँ जाना है उसे वहाँ पहुँचने से पहले ही वहाँ पहुँच जाना होता है।

हंसों की जमात में अगर तुम्हें शामिल होना है, तो कौवों के बीच रहते हुए भी तुम्हें कौवों से दूरी बनानी पड़ेगी। हंसों का झुंड हो सकता है तुमसे बहुत दूर हो, लेकिन उस दूरी के बावजूद तुम्हें हंस जैसा जीवन जीना पड़ेगा, तब एक दिन ऐसा आएगा कि तुम 'हंस-ग्यारह' के सदस्य बन पाओगे। तुम ये नहीं कह सकते कि - "मैं तो अभी कौवों के बीच में हूँ तो मैं कौवों जैसा ही जीवन बिताऊँगा", ना। तो राष्ट्रीय टीम में जाना है यदि, तो आज से ही वैसा जीवन बिताना शुरू कर दो जैसा राष्ट्रीय टीम वाले बिताते हैं।

मेरा अर्थ इससे ये नहीं है कि तुम भी सुपरबाइक ख़रीदना शुरू कर दो, या तुम भी सिने-तारिकाओं को गर्लफ्रेंड बनाने की कोशिश शुरू कर दो। मेरा आशय है कि - तुम भी अपने खेल का स्तर वही कर लो जो राष्ट्रीय टीम के सदस्यों का है, तुम भी अपनी दिनचर्या वही कर लो जो राष्ट्रीय टीम वालों की है; वो टेस्ट तुम जहाँ बैठे हो वहाँ बैठे-बैठे ही पास करने की कोशिश करो। वैसे हो गए तब तो ऊपर बढ़ पाओगे, नहीं तो नहीं।

देखो, हम जहाँ पर शारीरिक रूप से मौजूद होते हैं, वो जगह हमारे ऊपर बड़ा प्रभाव डालती है, और वहाँ पर जो लोग होते हैं, जो माहौल होता है, वो हमपर बड़ा प्रभाव डालता है। अब बात ये है कि तुम जिस जगह होते हो वहाँ के लोग भी उसी ज़मीन, उसी मिट्टी के होते हैं, तो उनकी संगत में अगर तुम रह रहे हो, तो वो तुम्हें उस जगह से आगे जाने भी नहीं देंगे। विशेषकर, अगर कौवों के बीच में एक हंस आ गया हो, तो कौवों का स्वार्थ उन्हें अनुमति ही नहीं देगा हंस को छोड़ने की, वो तो हंस को पकड़ कर उसपर चेरी-ब्लॉसम कर देंगे। कहेंगे, “ये कर तू, तेरी सुन्दरता बढ़ जाएगी।"

तो या तो संतुष्ट रह लो जिस माहौल में हो, अभी तुम जिला स्तर पर खेलते हो, संतुष्ट रह लो जिला स्तर से। और जिला स्तर पर तमाम खिलाड़ी होंगे, वो भी ठीक-ठाक खिलाड़ी होते हैं, पर उनके खेल में परिपक्वता नहीं होती है, उत्कृष्टता नहीं होती है। या तो तुम उन्हीं से दोस्ती-यारी बनाए रहो और जैसे उनके ढर्रे हैं, उनके ऐब हैं, उनकी सीमाएँ हैं, उनके साथ संधि किए रहो।

या फिर तुम कह दो कि, “मैं इनके बीच में हूँ, लेकिन मुझे इनसे कोई लेना-देना नहीं है, ना बात ना चीत, हमारा निशाना कहीं और है। हम उनके जैसा जीवन जिएँगे जहाँ हमें जाना है। इनके जैसा जीवन जिएँ ही क्यों जिनके बीच में फँस गए हैं? हम फँस गए हैं इनके बीच में, ये संयोग की बात है, जहाँ हमें जाना है वो हमारे प्रेम की बात है। तो चलो संयोग ही सही कि अभी हम इनके बीच में फँसे हुए हैं, लेकिन इनके जैसे होकर नहीं रहेंगे, बिलकुल इनके जैसे होकर नहीं रहेंगे।"

ना चौपला, ना गोलगप्पा, ना गॉसिप , हम्म?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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