एक ठसक, एक आग होनी चाहिए || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

Acharya Prashant

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एक ठसक, एक आग होनी चाहिए || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

प्रश्नकर्ता (प्र): मैं अपने जीवन को देखता हूँ तो मैं दुनिया की चीज़ों से ही घिरा हुआ पाता हूँ अपने-आपको। अगर मैं अपने मन को कभी काम से हटाता हूँ तो उसमें सिर्फ़ दुनिया ही घूम रही होती है; दुःख तो मिलता है उससे, तो व्यवहारिक तौर से इससे फिर निकला कैसे जाए?

आचार्य प्रशांत (आचार्य): ऊँचा माँगो न, ऊँचा।

देखो छोटे-मोटे सुख तो दुनिया में मिलते ही हैं, तभी तो दुनियादारी कायम रहती है। दुनिया से अगर तुम छोटी चीज़ माँगोगे तो दुनिया उसकी आपूर्ति कर देगी। दुनिया कोई बुरी जगह थोड़े ही है; कितने तरीके के सुख हैं दुनिया में, मिलते नहीं देखा लोगों को सुख? वो तो मिलते ही हैं दुनिया में। तो जो छोटी चीज़ माँग रहे हैं, दुनिया उनके लिए पर्याप्त है।

ऋषि होने का मतलब है कि “जो कुछ दुनिया दे सकती है, भाई! मुझे उससे कुछ अधिक चाहिए; अपन को ज़्यादा माँगता।“ अगर वो ज़्यादा नहीं माँगता, तो दुनिया ठीक है न? बोलो क्या चाहिए तुम्हें? छोटा-मोटा—एक ठीक-ठाक-सी पत्नी चाहिए, दो गोलू-मोलू बच्चे चाहिए, एक टू-थ्री बीएचके चाहिए, हर चार-छह महीने में एक छुट्टी, वेकेशन चाहिए; ये सब तो दुनिया में ही मिल जाएगा, इसके लिए तुम काहे को अध्यात्म की ओर जाओगे, ज़रूरत क्या है? इसीलिए आम आदमी ठीक ही करता है कि अध्यात्म की ओर नहीं जाता; या जाता भी है तो ऐसे ही मनोरंजन के लिए, कि हर छह महीने में कहीं एक यूट्यूब वीडियो देख लिया, या गए थे ऋषिकेश अध्यात्म के लिए, क्या कर आए? दो महीने का योगा *कोर्स * (पाठ्यक्रम) कर आए; तो ये बस…

दुनिया जो कुछ दे रही है वो कम नहीं होता है, निन्यानबे-प्रतिशत लोगों के लिए उतना काफ़ी है। भाँति-भाँति के रंगीन अनुभव मिलते हैं दुनिया में कि नहीं मिलते? ज़्यादातर लोगों के लिए उतना बहुत है। ऐसों पर कोई ज़बरदस्ती की नहीं जा सकती, यही कह सकते हो कि “काश! तुम्हारा समय जल्दी आए, काश कि तुम्हारा भ्रम जल्दी टूटे, काश कि तुम्हारे भीतर की प्यास जल्दी-से-जल्दी ज्वाला बन जाए।“

तुम अगर पाते हो—श्लोक कह रहे हैं कि “आत्मा मात्र में सुख है और संसार में बाकी हर जगह दुःख ही दुःख है।" ठीक है? तो तुमको अगर अभी दुनिया में सुख मिल रहा है तो इस बात को अपने ऊपर अपमान की तरह समझो, क्योंकि दुनिया में सुख है तो ज़रूर, पर कैसा है? छोटा-सा। अपमान की बात हो गई न? जैसे कोई आ जाए बहुत ज़बरदस्त, कि, "मैं तो सौ की गति से गेंद फेंकने वाला बॉलर (गेंदबाज़) हूँ", और उसको बोला जाए कि तुम बेबी ओवर कर आओ; ये कितने सम्मान की बात है, कि तुमने उसको बोल दिया कि तुम ओवर करो छोटा-सा?

तो वैसे ही अगर तुम पाओ कि तुम्हें दुनिया में सुख मिल रहा है तो अपने आप को धिक्कार लिया करो, कहा करो “मैं छोटा आदमी होऊँगा ज़रूर, जो इस छोटे से सुख से बिलकुल लार टपका दी मैंने। कि दुकानदार ने कहा- बीस प्रतिशत डिस्काउंट (छूट), और बिलकुल वहीं पर मैंने पूरी ज़मीन गीली कर दी।” ये लाज की, धिक्कार की बात है कि तुम्हें एक छोटे-से सुख से ही ख़रीद लिया गया।

समझ में आ रही है बात?

आत्मा सिर्फ उनके लिए है—ये बात हम बहुत बार दोहरा चुके, लेकिन ज़रूरी है—आत्मा सिर्फ उनके लिए है जिनको बहुत बड़ा वाला चाहिए; और जिन्हें बहुत बड़ा वाला चाहिए वो छोटी चीज़ों पर ध्यान नहीं देते, वो छोटी चीज़ों पर हँसते हैं। और अगर वो छोटी चीज़ों में फँसते हैं तो अपने-आपसे प्रसन्न नहीं रहते, वो सवाल पूछते हैं फिर अपने-आपसे कि “तू इतना गिर गया? तू इतना गिर गया दो सौ रुपये के डिस्काउंट के लिये? इतनी बड़ी चीज़ हो गई तेरे लिए एक शाम की खुशी, एक रात का जोश; इतनी बड़ी चीज़ हो गई? तू कितना छोटा आदमी है, कि एक छोटी-सी चीज़ तुझे ख़रीद ले गई?"

ये पूछना पड़ता है अपने-आपसे, कि, “वो छोटा है मुझे इस बात पर ऐतराज़ नहीं, सवाल मेरा ये है कि मैं कितना छोटा हूँ, कि छोटे से भी छोटा हो गया? हर छोटी चीज़ अगर मेरे लिए बड़ी हो जाए तो मैं कितना छोटा हूँ?” ये सवाल पूछना होता है; आत्मग्लानि ज़रूरी है, लज्जा ज़रूरी है।

समझ में आ रही है बात?

आदमी के भीतर अपनी एक ठसक होनी चाहिए।

वैसे तुम भले ही विनम्र रह लो, लेकिन जिस पल कोई तुम्हारे ज़हन पर छाने की कोशिश करे, तुम्हें ललचाए-लुभाए, उस पल तो तुम्हारी ठसक को बिलकुल जागृत हो जाना चाहिए। तुम्हें कहना चाहिए “ओए छोटे! चुनौती दे रहा है? द लिटिल वन हैज़ कम टु चैलेंज? (छोटू चुनौती दे रहा है?) देखते हैं भाई! तूने हमें कितना छोटा समझ लिया कि तूने ऐसा अनुमान, अंदाज लगाया कि हमें जीत लेगा? तो साहब हमारी अब कुछ इस तरीके की गिनती होने लगी है कि ऐसी छोटी-छोटी चीज़ें हमें जीतने के ख़्वाब देखने लगी हैं। बढ़िया बात है! आज़मा लेते हैं आज!"

समझ में आ रही है बात?

अहंकार न हो, उससे पहले अहंकार हो तो ऐसा हो। जब ऐसा हो जाता है अहंकार, उसके बाद ही मिटता है अहंकार; मिट सके अहंकार, उससे पहले ऐसा होना चाहिए। अहंकार का भी अपना पूरा जैसे एक जीवन होता है, एक लाइफ साइकल (जीवन-चक्र) होता है। एक होता है गया-गुज़रा, चिंदी-चिंदी, चूरा-चूरा अहंकार। मैं जिसकी बात कर रहा हूँ वो है प्रज्वलित, ठोस, दृढ़ अहंकार; ऐसा अहंकार जो दुनिया की किसी ताकत, किसी शय, किसी हस्ती के सामने झुकना नहीं चाहता, वो जैसे तलाश कर रहा हो किसी ऐसे की जिसके सामने झुका जा सके; जो कह रहा हो कि “कोई तो ऐसा मिले, इतना बड़ा, जिसके सामने झुकने में हमें गौरव लगे, जिसके सामने हम खुशी-खुशी सर झुका सकें।“ ऐसे को फिर मिलता है वो, जिसको तुम परम-आत्मा कह देते हो; परम माने उच्चतम। उसको परम-आत्मा कहा ही इसीलिए जाता है क्योंकि वो पहला है जिसके सामने तुम प्रसन्नता-पूर्वक समर्पण कर पाओगे।

बाकी तो कोई छोटू आ जाता है तुमसे कहने कि “झुको, चलो समर्पण करो,” तुम कहते हो “अच्छा! अब छोटुओं की भी इतनी मजाल होने लगी? अब तुम जैसे लोग भी हमें ललचाने के लिए पहुँच गए?" इस तरफ़ एक खड़ा हुआ है छोटू, वो तुमको ऐसे नोट की गड्डी दिखा रहा है और कह रहा है “आजा! आज हराऊँगा तुझको।" वामन, छोटा। इस तरफ़ एक खड़ी हुई है छोटी, वो कामिनी बनकर लुभा रही है तुमको, और तुम कह रहे हो, “छोटी घर जा, तू अंडर-एज (नाबालिग़) है, हम तेरे पकड़ में नहीं आने वाले।"

और सब इन छोटुओं को बर्खास्त करने के बाद भीतर तुम पाते हो कि एक कामना बची हुई है, कि, “कोई तो होता, इतना बड़ा, जिसके आगे सर झुकाने में भी हमें फक्र अनुभव होता, गौरव के साथ आत्मसमर्पण कर पाते।“ तब समझना कि तुम्हें अब परमात्मा की तलाश है, क्योंकि वही इतना बड़ा है।

लेकिन उसकी तलाश तो तुम्हें तब हो न, जब तुम बाकी पूरी दुनिया को छोटा मानने लगो। तुम्हें बाकी पूरी दुनिया ही बड़ी लग रही है, तो परमात्मा की काहे को तलाश करोगे? फिर तो तुमको भूमा यहीं मिल गया; भूमा माने बड़ा। फिर तुमको जो बड़ा था वो यहीं मिल गया, जब यहीं मिल गया तो कौन-सा ध्यान चाहिए? फिर कौन-सा अन्तर्गमन चाहिए? फिर कौन-सा अध्यात्म चाहिए?

अध्यात्म तलाश है उसकी जो बड़े-से-बड़ा है; वो बड़े-से-बड़ा अगर तुमको अपने पड़ोस में ही मिल गया तो परमात्मा का क्या करोगे? इसीलिए ज़्यादातर लोगों को परमात्मा, सत्य, आत्मा, ये सब बातें समझ में ही नहीं आतीं। वो कहते हैं, “परम-सुख तो हमको अपने बिस्तर पर ही मिल जाता है, हम तपस्या क्या करेंगे? भई परम-सुख ही तो चाहिए तपस्या करके? वो तो हमको कई बार मसाला-डोसा में ही मिल जाता है। तो जो चीज़ मसाला-डोसा में मिल जा रही है उसके लिए मैं प्रत्याहार क्यों करूँ? जो चीज़ एक बढ़िया कपड़ा ख़रीदकर के मिल जा रही है उसके लिए कौन तितिक्षा का पालन करे?”

और उनकी कठिनाई तुम समझो; उनको अगर नारियल चटनी बढ़िया मिल गई है तो उनका रेशा-रेशा तृप्त हो जाता है, उन्हें उससे ज़्यादा कुछ चाहिए ही नहीं जीवन में। और इसको वो क्या बोलते हैं? “वी लिव इन द सिंपल प्लेज़र्स ऑफ लाइफ (हम जीवन के सामान्य सुखों में जीते हैं), यही तो अध्यात्म है।"

अध्यात्म ये नहीं है कि नारियल चटनी खाकर के ही अघा गये बिलकुल, “आहाहा”, और सांभर ही तुम्हारे लिए प्रसाद हो गया।

अध्यात्म ऐसा है जैसे भीतर आग लगी हुई हो।

एक प्रज्वलित चेतना है अध्यात्म, जो इतनी ज़ोर से जल रही है क्योंकि उसे प्रकाश चाहिए; प्रकाश उसे बाहर से कहीं मिल नहीं रहा तो वो कह रही है, “खुद को ही जलाऊँगी रोशनी के लिए।" रोशनी उसे पूरी मिल जाती है, लेकिन खुद को जला कर खुद को मिटा कर।

बात समझ में आ रही है?

तुम्हें बहुत-बहुत रौशनी चाहिए और बाहर से मिल नहीं रही, दुनिया उतनी रौशनी देने में सक्षम नहीं है, तो तुम्हारी चेतना कहती है, “खुद को ही जलाएँगे, आत्मदाह करेंगे, सेल्फ इम्मोलेशन * ।" उस आत्मदाह से जो रौशनी निकलती है, उसमें चेतना कहती है, “वाह...!” जैसे मरते हुए आदमी की आखिरी साँस कह रही हो, “वाह…! यही रौशनी तो चाहिए थी।“ लेकिन वो रौशनी तो खुद को जला कर ही मिलनी है; ऐसों के लिए है अध्यात्म, मसाला डोसा में * हैप्पी (खुश) हो जाने वालों के लिए नहीं है।

समझ में आ रही है बात?

तुम चित्रित तो करो उनको, जो सालों-सालों नदी किनारे बैठे रहते होंगे; कैसे ज़िद्दी लोग होते होंगे? और कैसे व्याकुल और कैसे आतुर लोग होते होंगे? तुम्हें क्या लग रहा है ये संतोषी लोग थे? ये तुम्हें संतोषी आदमी का काम लग रहा है कि कोई ऐसी चीज़ पाने के लिए वो चला गया है, कहीं जंगल और नदी किनारे बैठा हुआ है? जहाँ पर जंगली जानवर भी हैं, खाने-पीने का कोई ठिकाना नहीं, रहने का कोई बसेरा नहीं, कुछ पता ही नहीं कि यहाँ ज़िंदगी क्या होगी, क्या नहीं होगी। और जो पाना चाहता है वो भी चीज़ कैसी है? अभौतिक, पराभौतिक। ऐसा नहीं है कि उसको दो दर्जन केले चाहिए या एक नया घर चाहिए; वो माँग क्या रहा है? वो कह रहा है, “परमात्मा चाहिए,” और उस परमात्मा को पाने के लिए, जिसका न नाम न ठिकाना, न चित्र, न रुप, न गंध, न आकार, उस परमात्मा को पाने के लिए वो दुनिया की सारी तकलीफ़ें झेल रहा है; ऐसा चित्त, ऐसी जलती हुई चेतना चाहिए, ऐसा ज़िद्दी मन चाहिए, धृति चाहिए ऐसी।

बात समझ रहे हो?

और दुनिया तो उसे अभी भी बुला रही है- “आ जाओ! आ जाओ!” युवा सन्यासी है; रुपया, पैसा, दुनिया के तुम्हारे सब राग-रंग, परिवार छोड़कर गया है। दुनिया बुला रही है, “आ जाओ,” और दुनिया समझ ही नहीं पा रही ये पाना चाहता क्या है। और वो लगा हुआ है, लगा हुआ है, दसियों सालों तक लगा हुआ है। किस चीज़ को पाने के लिये लगा हुआ है? कोई समझ नहीं पाया; ऐसा चित्त चाहिए, और ऐसे ही फिर ज़िंदगी को पूरा जीते हैं।

यही वो हैं, समझ लो, अकेले, जो जी पाए, जो वास्तव में पैदा हुए; बाकी तो ऐसे, जो समझ लो पैदा ही नहीं हुए, वो मरे-जैसे ही रहे जीवन भर।

एक पागलपन, जैसे एक सनक हो; वो पागलपन नहीं है अगर जीवन में तो तुम बहुत मुर्दा आदमी हो।

एक सुव्यवस्थित, समायोजित, संतुलित जीवन अगर तुम्हारा चल रहा है, तो चल ही क्यों रहा है? कहे “बिलकुल एकदम बढ़िया आदमी है, रोज रात में सो जाते हैं दस बजे और सुबह ठीक पाँच बजे इनकी आँख खुल जाती है।" करोगे क्या दस बजे सोकर और पाँच बजे आँख खोलकर? एक दिन तो ऐसा आएगा जब आँख खुलनी ही नहीं है, तब बता देना भैंसे वाले को कि “हमने तो रोज़ सुबह पाँच बजे खोली थी।" वो कहेगा, “कोई बात नहीं जिन्होंने छह बजे खोली, आठ बजे खोली, बारह बजे खोली, उनकी भी अब कभी नहीं खुलेगी, ठीक वैसे जैसे तेरी कभी नहीं खुलेगी रोज़ सुबह पाँच बजे खोलने वाले।"

जीवन ऐसा चाहिए जो रातों की नींद उड़ा दे।

ये नहीं कि “दस बजे नहीं कि हमें तो नींद आ ही जाती है, बिस्तर पकड़ लेते हैं, और इस बात का बड़ा गौरव भी है।“

साधु, फ़कीर विख्यात हैं, कि जब पूरी दुनिया सो जाती है तो वो जगते हैं, टुकुर-टुकुर दुनिया को निहारते हैं, कुछ चुपचाप गाते हैं; ये तो बहुत बेहोश लोगों का काम है कि सो गए। क्यों सो गए? सो भी इसलिए नहीं गए कि दस बजे में कुछ खास है, इसलिए क्योंकि सुबह आठ बजे फिर से रोटी-पानी का जुगाड़ करने निकलना है; नौ बजे नहीं पहुँचे तो बॉस बहुत जुतिआएगा, इसलिए रात में जल्दी सो जाते हैं। और इस बात को फिर बहुत गौरव से बताते हैं, कि, “देखिए मैं तो बहुत अनुशासित आदमी हूँ।“

मुझे रात को जल्दी सो जाने वालों से कोई आपत्ति नहीं है, पर मैं उदाहरण की तरह इशारा किधर को कर रहा हूँ ये समझो!

आध्यात्मिक मन कोई बहुत एडजस्टेड (समायोजित) मन नहीं होता है, वो मेल नहीं बैठा पाया होता है; वो बेमेल होता है, मिसफिट (अनुपयुक्त) होता है।

जैसे तुम्हारे फिल्मी गानों में कहते हैं न, “एक में भी तनहा थे हम, सौ में भी अकेले, आईने के सौ टुकडे करके हमने देखे।” कुछ-कुछ ऐसा समझो। सौ टुकड़े आईने के, जिसमें संसार के सौ रूप प्रतिबिंबित हो रहे हैं, और हर रूप में एक चीज़ साझी है- अकेलापन।

प्र: आपसे सुनकर और ग्रंथों को पढ़कर मुझे भी लगता है कि दुनिया के सुखों में कहीं-न-कहीं एक झूठ छुपा हुआ है, और यही कारण भी रहा है मेरा आध्यात्मिकता के पथ पर आने का। परन्तु मेरे अंदर इस दुनिया के लिए चाहतें भी बची हुई हैं। पहले मैं मन बहलाने के लिए कभी कुछ स्वादिष्ट खा लेता था, कहीं घूम आता था, पर अब मुझे ये सब भी बेकार लगते हैं। आपने कहा कि मुक्ति के लिए एक आग चाहिए, एक लपट चाहिए। मेरे अंदर एक आग तो है, पर वो उतनी प्रज्वलित नहीं लगती कि लपट बन जाए। आचार्य जी, मैं बीच में फँस तो नहीं जाऊँगा?

आचार्य: फँस भी सकते हो, निकल भी सकते हो; सब तुम्हारे ऊपर है, तुम्हारे चुनाव की बात है।

भीतर अगर लपट ऐसी ही है, कमज़ोर-सी, तो दो चीज़ें तुम्हें चाहिए: समय और संगति। गीली हो लकड़ी, और उसमें से बहुत कमज़ोर-सी लपट उठ रही हो, तो एक अच्छी संभावना ये हो सकती है कि धीरे-धीरे, धीरे-धीरे उस कमज़ोर-सी लपट के कारण ही लकड़ी सूख जाए; और लकड़ी जब सूख जाएगी तो वो लपट बढ़ जाएगी। और दूसरी चीज़ ये हो सकती है कि किसी तरीके से संगति मिल जाए दूसरी ज्वालाओं की, उनकी संगति में ये जो गीली लकड़ी है ये ज़्यादा तेजी से सूखेगी; तो समय चाहिए।

कमज़ोर लपट के लिए दम तोड़ना बहुत आसान होता है। टिके रहना भी अपने आप में यहाँ पर बड़ी बात हो जाती है, कि टिके रहो धीरे-धीरे लकड़ी सूख रही है; लपट अपने आप उग्र होती जाएगी। और दूसरी बात संगति सही करो; तुम्हें बनना है लपट और जाकर संगति कर आए कीचड़ की। लकड़ी तुम्हारी पहले ही गीली थी, उसको कीचड़ में और डुबो लाए और फिर कह रहे हो कि “मुझे भभक के जलना है, मेरी ज्वाला क्यों नहीं उग्र हो रही?” तो ये तुम नाजायज़ माँग कर रहे हो फिर।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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