अद्वैत में कैसे जीएँ? || महाभारत पर (2018)

Acharya Prashant

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अद्वैत में कैसे जीएँ? || महाभारत पर (2018)

प्रश्नकर्ता: लगातार अद्वैत में कैसे जिया जाए? कैसे ख़ुद से ख़ुद की दूरी तय करें?

आचार्य प्रशांत: अद्वैत में जीने के लिए अद्वैत को भूल जाइए। जो आपको याद है, वो अद्वैत नहीं हो सकता। जब तक आप हैं और आपकी याद है, तब तक द्वैत-ही-द्वैत है।

अद्वैत से बड़ा झूठ दूसरा नहीं, जब वो आदमी के मुँह से निकलता हो। ज्यों ही आदमी ने कहा, ‘अद्वैत’, वो क्या हो गया? द्वैत। तो छोड़िए, अद्वैत जैसा कोई शब्द है नहीं, अद्वैत कुछ नहीं होता। जब आप ईमानदारी-पूर्वक देख लेते हैं कि आपके जीवन में द्वैत-ही-द्वैत है, तब द्वैत के अतिरिक्त कुछ और उतरता है।

किस पर उतरता है?

आप पर नहीं उतरता। आप तो हैं ही नहीं, द्वैत-ही-द्वैत है। जब द्वैत-ही-द्वैत दिखने लग जाए तो समझ लीजिए कि समझने के लिए आप बचे नहीं, क्या समझेंगे? बात ख़त्म। ये अद्वैत है।

जब तक आपको कुछ भी समझ में आ रहा है, तब तक द्वैत ही है, और जब तक आप कुछ भी समझा पा रहे हैं, समझ लीजिए कि द्वैत ही है। जितने भी अद्वैत आपके सामने आएँ, सबको भगा दीजिए, सब झूठे हैं। अद्वैत जैसा कुछ होता नहीं, और ‘अद्वैत-अद्वैत’ कर-करके हम द्वैत को ही चमकाए जा रहे हैं।

और द्वैत में कोई बुराई नहीं, बस उसे झूठा नाम मत दीजिए। द्वैत को द्वैत कहिए, बिलकुल ठीक है। राजा है और राजा का बन्दर है। बन्दर बेचारे ने क्या पाप किया है? बन्दर को ‘बन्दर’ बोलो, चलेगा, बन्दर को ‘राजा’ बोलते हो तो दिक़्क़त हो जाती है।

जीवन में बन्दर की उछल-कूद मची हुई है, बन्दर समान ही इच्छाएँ हैं, बन्दर समान ही चंचलता है; ‘बन्दर-बन्दर’, ‘बन्दर-बन्दर’, ‘बन्दर-बन्दर’, कहिए न, जहाँ भी देखें अपने-आपको—और जिधर भी देखेंगे अपने-आपको ही देखेंगे—जहाँ भी देखिए, जिधर भी देखिए, तुरंत कहिए, ‘बन्दर-बन्दर’।

ये कहते-कहते, कहते-कहते एक दिन आपका कहना इतना अविरल हो जाएगा कि कहना कभी रुकेगा ही नहीं, धार शाश्वत हो जाएगी। जब कुछ शाश्वत हो गया, अटूट हो गया, तो वो द्वैत से बाहर का हो गया।

आपके जीवन में क्या कुछ भी है जो अटूट हो?

अटूट समझते हैं? जिसका कोई सिरा न होता हो। धागा टूट गया तो उसके दो सिरे हो जाते हैं। अटूट माने जिसके सिरे न होते हों, और सिरे माने द्वैत।

आपके जीवन में है कुछ भी जो अटूट हो, अखंड हो, जो कभी ख़त्म न होता हो?

जब जीवन में ऐसा कुछ भी पा लीजिए जो कभी ख़त्म न होता हो, तो कहिएगा अद्वैत। पर आप ऐसा कुछ कभी पा ही नहीं सकते क्योंकि आप पाने चलेंगे तो उसको ही पाएँगे जो ख़त्म होता हो, क्योंकि मन संज्ञान ही नहीं ले सकता उसका जो ख़त्म न होता हो।

आपके सामने एक दीवार हो जो अनंत हो, जो न कभी शुरू होती हो, न कभी ख़त्म होती हो, आप कह ही नहीं पाएँगे कि वो दीवार है। हम किसी भी चीज़ को उसके होने से नहीं पहचानते, हम किसी भी चीज़ को उसकी समाप्ति से पहचानते हैं।

ध्यान दीजिएगा, आप किसी भी चीज़ को पहचानते ही हो उसके आदि से, आरम्भ से और उसके अंत से, समाप्ति से। जब कोई चीज़ ख़त्म होती है, तब पता चलता है कि वो चीज़ थी, और जब कोई चीज़ शुरू होती है, तब पता चलता है कि वो चीज़ थी। अगर शुरू न हुई हो, अगर ख़त्म न होती हो, तो आपको पता ही नहीं चलेगा कि वो चीज़ है।

फिर मुझे बताइए कि आपको अद्वैत का कैसे पता चलेगा? न शुरू होता है, न ख़त्म होता है, उसका कोई सिरा नहीं है, वो अटूट है। तो आपको जो कुछ भी पता चले, जो भी कुछ आपके सामने आता हो और अपना नाम बताता हो, 'अद्वैत', उसको एक चाटा लगाइएगा और भगा दीजिएगा। "हट झूठा!"

सब द्वैत है, अद्वैत कहीं नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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