अध्यात्म का मज़ा ये कि बेवकूफ़ी मन में उठती ही नहीं || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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अध्यात्म का मज़ा ये कि बेवकूफ़ी मन में उठती ही नहीं || आचार्य प्रशांत (2017)

प्रश्न : आचार्य जी, कल भजन गा रहे थे, “अमृत फल लिये हाथ, रुचै नहीं रार को।” भजन तो स्पष्ट है पूरा। रार जिसको समझाया है वो रार वो है जो दो को बताती है अलग-अलग। और अभी जो हम बात कर रहे हैं वो एक तरीके की तुलना कर रहे हैं और एक दूसरा है। इसका सही प्रसंग कैसे समझें क्योंकि अगर रार वही जो दो को बताती है, अलग-अलग है और यहाँ भी ऐसा दिख रहा है कि दो है तभी तुलना भी है उसमें और वो दिख रहा है तो प्रसंग कैसे समझें।

आचार्य प्रशांत : पानी रखा है और ज़हर रखा है। अगर होश में हो, तो क्या कोई द्वन्द है? “रार” माने द्वन्द, ‘तकरार’ से आया है, द्वन्द। पानी रखा है और ज़हर रखा है, और तुम होश में हो, तो कोई द्वन्द है? कोई रार है? जो बेहोश है, उसी के लिए तो द्वन्द है, उसी के लिए रार है।

पानी और ज़हर होते हमेशा हैं, गंगा जल भी है, और शराब भी है। दोनों होते हमेशा हैं। पर जो होश में हैं उसको एक ही दिखता है, रार नहीं है। रार कौन? जिसे दोनों दिखें, और उसे समझ में ही न आए कि पानी पियूँ कि ज़हर पियूँ। ये पगला है, बेहोश है। ये ऐसी बातें कर रहा है कि मुझे ये भी ठीक लगता है और वो भी ठीक लगता है। अब इसके भीतर क्या है? गृहयुद्ध। ये रार है। जिसे साधु और शैतान, में भेद समझ न आये। जो कहे कि ये बात भी ठीक है, और वो बात भी ठीक है।

शैतान को भी एक ही बात ठीक लगती है, कौन सी? उधर वाली। साधु को भी एक ही बात ठीक लगती है, कौन सी? इधर वाली। रार कौन? जो कभी इधर का है, और कभी उधर का है। शैतान पूर्णतया उधर का है, संत पूर्णतया इधर का है। और कबीर रार किसको कह रहे हैं? जो गंगाजल और शराब में भेद ही नहीं कर पाता, कि ये लूँ या वो लूँ।

गुरु की मौजूदगी में तो गंगाजल, तो ठीक है, और जहाँ इधर-धर हुए, “दो सोडा” कल इस बात पर भी भिड़े हैं, एक कहे, “पानी से”, दूसरा कहे, “नहीं सोडा मंगाना है।” तो उसने बोला, “फिर सोडा के तू देगा।” बोला, “भाई जब सब साझा है तो सोडा का मैं ही क्यों दूंगा?” बोला, “तो मैं तो पानी से तैयार हूँ, तुझे सोडा क्यों चाहिए?” अब ये चल रही है महाभारत। अद्भुत।

नर्क यही है। “पानी में मीन प्यासी” का अर्थ यही है, हिमालय खड़ा है और गंगा बहती है। और तुम्हें क्या चाहिए? शराब। यही तो है, पानी में मीन प्यासी। तुम्हारे सामने अमृत मौजूद है, और तुम पता नहीं कहाँ खोए हो।

श्रोता : तो द्वन्द, रार, अस्तित्व ही बेहोशी में रखता है। होश में उसके लिए जगह ही नहीं है।

आचार्य जी: बहुत बढ़िया। जो होश में है, उसे दो रास्ते कभी दिखाई पड़ते हैं?

अच्छा एक बात बताओ! गाड़ी किस-किस को चलानी आती है? बाकियों को बाइक तो चलानी आती होगी? जब चला रहे होते हो गाड़ी, स्टीयरिंग हाथ में होता है, तो ये तो हो ही सकता है ना कि गाड़ी उतार दो सड़क से। कीचड़ में डाल दो, धूल में डाल दो या खाई में ही डाल दो। स्टीयरिंग मोड़ोगे तो गाड़ी उधर जाएगी कि नहीं। विकल्प तो उपलब्ध है ही। पर ये विकल्प दिखाई पड़ता है कभी? अगर होश में हो तो सिर्फ क्या दिखाई पड़ेगा?

श्रोता : सड़क।

आचार्य जी: सीधी, सच्ची सड़क। रार है ही नहीं, द्वन्द है ही नहीं। जो बेहोश है, उसको तमाम तरह के खयाल आएँगे। अब पहाड़ से उतर रही है गाड़ी, नीचे जाना है शहर तक। वो कहेगा कि सड़क सड़क काहे को जाना है? अरे उतार ही दो ना। वो खाई, मंज़िल दिख रही है साफ़ सामने। उस शहर तक ही तो पहुँचना है, उतार दो। अब उसको आ रहे हैं, परस्पर विरोधी ख्याल, और समझ ही नहीं पा रहा कि करें क्या? ये पगला है, ये बेहोशी है।

जो होश में है उसे एक दिखता है, सीधा रास्ता। उसके मन में वैकल्पिक विचार आते ही नहीं। और इससे बड़ा आनंद नहीं हो सकता कि तुम्हारे मन में इधर-उधर के फ़ालतू विचार उठे ही नहीं। विचार उठा, फिर तुमने उसे संघर्ष करके उसे दबा दिया, उसमें कोई मज़ा नहीं। व्यर्थ विचार उठे, और तुम्हें उनसे संघर्ष करना पड़ा, और दमन कर दिया, ये तो अपनी ही ऊर्जा का क्षय है।

आध्यात्म का मज़ा इसमें है, कि बेवकूफी की बात मन में उठती ही नहीं है। ये आया मज़ा। अब डर लग रहा है, लग रहा है, और तुम डर के खिलाफ लड़े जा रहे हो, इसमें क्या मज़ा है। आध्यात्म का मज़ा इसमें है कि डर उठा ही नहीं। अब है मज़ा। द्वन्द है ही नहीं। निर्णय लेने ही नहीं पड़ रहे। क्यों? क्योंकि निर्णय लिया जा चुका है। निर्णय तो तब लेने पड़े ना जब कई विकल्प मौजूद हों। “हमें कई विकल्प दिखते ही नहीं, हमें तो एक राह दिखती है, उसके अलावा हमे कुछ दिखता ही नहीं।”

कितने ही आते हैं, मेरे पास कि फलाना फैसला करना है, ‘निर्णय करना’, कि बड़ी सरदर्दी, कैसे करें। जब तक तुम्हें निर्णय करना पड़ रहा है तब तक समझ लो कि भीतर कोई है जिसे नहीं होना चाहिए। जीवन के सहज सरल प्रवाह में निर्णयों की ज़रुरत पड़नी नहीं चाहिए। काम, चुटकी बजाते होने चाहियें। किसी ने पूछा चलोगे, तुम्हें सोचने की ज़रुरत नहीं होनी चाहिए, तुम कहो, “हाँ।” या फिर तुम सीधे कहो “ना।” ये नहीं कि कल तक सोच के बताएँगे।

अभी आए थे एक, बोले, “जिया नहीं जा रहा है।” मैंने कहा, क्यों? बोले, “प्रेम प्रस्ताव रख दिया है उसके सामने, वो ना हाँ करती है, ना न। बोलती है, “अभी सोच रही हूँ।” मैंने कहा, “पगले! सोच-सोच कर अगर वो हाँ भी बोल दे, तो उसकी हाँ टिकेगी? गाँठ तो तब बंधी, जब तुम्हें प्रस्ताव रखना न पड़े, और उसे हाँ बोलनी न पड़े।” ये कोई व्यापार चल रहा है क्या कि तुमने प्रस्ताव रखा है और फिर वो बैठ कर के उसका बारीकी से निरीक्षण कर रही है- “अच्छा, ये जो चौथे नंबर की बात है, इसको ज़रा बदलने की ज़रुरत है। अठारह प्रतिशत नहीं, इसको बाईस करेंगे। और ये क्या है, सांतवा नंबर- हफ्ते में दो बार नहीं, मुझे कम से कम चार चाहिए।

एक्सेल शीट देख देख के जीवन चलाओगे? हर जगह टंगी हुई है, एक बिस्तर के ऊपर, एक गुसलखाने में। एक बिलकुल द्वार पर। एक मुँह पर भी टाँग लो। कि कितनी दफ़े चूमना है एक दूसरे को! और जितने बार चूम लिया उतना हरा होता जाएगा, बाकी अभी लाल है। और जितने काम करने से रह गए, उसकी पेनल्टी पड़ेगी। सही वक़्त पर शुल्क अदा नहीं करा, तो हर माह ब्याज पड़ेगा।

हमारा तो ऐसे ही चलता है। भाई पहले देखिये, आमने सामने सारी बातें तय होनी चाहिये। चैक से देंगे, कि कैश में? हँस क्या रहे हो? घर में अगर शादी ब्याह हुआ है तो जानते हो कि ऐसे ही होता है। होता है कि नहीं होता है? ये प्रेम है? एक घूम रहा था, मैंने पूछा, “तय हुई तेरी शादी?” बोला, “वो अभी निर्भर करता है।” मैंने कहा, “किस पर?” बोला “इंटरव्यू दिया है, नौकरी लग गयी तो हो जाएगी। नहीं लगी तो मना कर देंगे। साफ़ कर दिया है। दो ही चार दिनों में नतीजा आ जाएगा।” ये डिपेंडेंसी क्लॉज़ डाला गया है, एग्रीमेंट। ऐसे चल रहा है। एक बैठा जावा रट रहा था, मैंने कहा क्या हुआ? बोला, “इम्तिहान होगा, पास हो गए तो मिल जाएगी, नहीं तो नहीं।”

किसी जिम चले जाओ, वहाँ बहुत सारी किशोरियाँ बहुत दौड़ लगा रही होती हैं। तोड़े जा रही हैं ट्रेडमिल को, एक तोड़ी, उसके बाद दूसरी तोड़ी। और क्या, कुछ नहीं है, वही है कि होने वाले ने, साठ किलो का कट ऑफ रख दिया है, अब उन्हें कट ऑफ क्लियर करना है। अब बहत्तर पर बैठी हैं, साठ पहुँचना है, कट ऑफ तो पार करना है ना तभी तो एडमिशन मिलेगा।

जहाँ शर्तें हों, जहाँ तुम्हारा निर्णय इस बात से या उस बात से हिल जाता हो, जहाँ तुम्हें जीवन की आत्यंतिक बातों के लिए भी समय का सहारा लेना पड़े, अपना स्वार्थ गिनना पड़े, वहाँ जान लेना, निर्णय करने की ज़रुरत ही नहीं, क्योंकि जो भी निर्णय होगा वो गलत ही होगा। हर निर्णय के पीछे, निर्णय करने के कुछ क्राइटेरिया, मापदंड होते हैं, है ना? अगर वो मापदंड ही गलत हो, तो निर्णय चाहे इधर का करो, गलत होना ही है। बोलो?

हमारे मापदंड कुछ ऐसे होते हैं, कि पूछें, कि रोटी खाओगे कि परांठा? तुम देखो कि आज तुम्हारे कुर्ते का रंग, सफ़ेद है कि बैंगनी, अब इस मापदंड के अनुसार अगर तुम अपना भोजन तय करोगे, तो तुम रोटी बोलो तो भी गलत होगा, और परांठा बोलो तो भी गलत होगा, क्योंकि नीचे जो मापदंड बैठा है, सर्वप्रथम वही गलत है। तुम जिस आधार पर जीवन जी रहे हो और जीवन के निर्णय कर रहे हो, वो आधार ही गलत है। जो सत्य के संपर्क में आ गया, वास्तव में, उसे फिर फैसला नहीं करना पड़ता, सोचना नहीं पड़ता।

अगर तुमको संत और शैतान के मध्य निर्णय करने के लिए सोचना पड़ रहा है, तो मैं दोहरा रहा हूँ, तुम दोनों में से किसी के भी संपर्क में नहीं हो। सत्य के सम्पर्क में होते तो शैतान तुम्हें याद ही नहीं आता। और तुम पूरी तरह शैतान के ही हो जाओ, तो भी फिर अब निर्णय क्या बचा? जो पूरी तरह शैतान का हो गया, वो निर्णय कर ही चुका है, अब तो उसका निर्णय पलटना बाकी है। तुम हो जाओ पूरी तरह शैतान के, फिर देखना कि तुम्हारा निर्णय पलटेगा कि नहीं पलटेगा!

इसीलिए मैं एक विधि लगाता हूँ। मैं कहता हूँ, “जो मेरे पास हो, वो पूरी तरह होगा। ये चार कदम की दूरी बना के फिर नहीं चलोगे। बिलकुल कंधे से कंधा मिला के चलो। और जो ज़िद पर अड़ते हैं, कि चार कदम की दूरी बना के चलनी है, उन्हें मैं बिलकुल दूर कर देता हूँ। मैं कहता हूँ, अब तुम बिलकुल शैतान के ही घर में घुस जाओ। जब एकदम दूर हो जाओगे, तब तुम पलटोगे। जब तक बीच में चल रहे हो तब तक तुम्हें सुविधा है। मैं बीच में चलने नहीं देता। मैं कहता हूँ, आओ। या तो बिलकुल करीब आओ, या एकदम दूर चले जाओ। अंगुलिमाल हो जाओ, फिर पलटोगे। वाल्मीकि हो जाओ, फिर पलटोगे।

जाओ नर्क में, वहाँ पकोड़ा बनो। फिर पलटोगे। पलटते हैं। पर कई बार बहुत देर हो जाती है। इसीलिए आसानी से लोगों को मैं बेदखल करता नहीं। जब तक कोई बिलकुल ही परम उपद्रव पर न उतारू हो जाए, मैं किसी को भगाता नहीं। कोई अपने आप ही भग जाए तो अलग बात है। क्योंकि जो गया एक बार, उसके इस जन्म में लौट के आने की सम्भावना नगण्य रहती है। परमात्मा की उसपर बहुत ही कृपा हो, कि सद्बुद्धि उतर आये, तो अलग बात है। लेकिन जब यहाँ रहते नहीं उतरी सद्बुद्धि तो दूर जा के क्या उतरेगी?

श्रोता : रोकने के उपाय भी होते हैं।

वक्ता : मैंने कहा ना, जो जीव पैदा होता है, एक आज़ादी ले के पैदा होता है। उसके साथ बहुत ज़बरदस्ती नहीं करनी चाहिए।

ये जो मैं बातचीत कर रहा हूँ, ये रोकने का उपाय ही तो है, और क्या है? अब बेड़ियाँ डाल कर तो किसी को रोकना उचित है नहीं। और जिस पल कोई बिलकुल ही पाँव पटक के, और तय कर के बोले कि जाना है, तो फिर नमस्ते (हाथ जोड़ते हुए) करना पड़ता है। चूक ये हो जाती है कि यहाँ से निकल कर पूरी तरह से जाते भी नहीं। मैं तो कहता हूँ, के अब जब जा रहे हो, तो विदाई पूरी होनी चाहिए। अब न तो तुम कोई वीडियो देखना, न मुझे याद करना, न किसी भी उस विधि का पालन करना जो मुझसे ली है। मेरा पूर्ण परित्याग करो। पर यहाँ से निकल के भी, वो चुपके चुपके कुछ ऐसा कर लेते हैं कि नर्क काबिल-ए-बर्दाश्त रहा आता है। समझ रहे हो ना? जैसे किसी ने, रेगिस्तान में थोड़ी सी छाँव ढूंढ ली हो। तो फिर रेगिस्तान बर्दाश्त किया जा सकता है। मैं तो कहता हूँ, पूरे तरीके से जाओ। पूरे तरीके से जाते नहीं।

(मुस्कुराते हुए) ये धमकी है, खुली।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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