अच्छा-बुरा, सही-गलत! || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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अच्छा-बुरा, सही-गलत! || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्न: अगर मैं कहता हूँ, ‘मैं अच्छा हूँ?’, तो ये मेरी ईगो है, अहंकार है, या सहजता?

वक्ता: बात बहुत दूर तक जाती है। हम जिन बातों को अच्छा या बुरा कहते हैं, सही या ग़लत कहते हैं, ज़रा ध्यान से देखो तो कि ये आये कहाँ से हैं? ईगो क्या है? कि बाहर से कोई कुछ दे दे तो हम उसको ही सच मानना शुरू कर देते हैं। हमारे सारे अच्छे और बुरे, सही और ग़लत की सारी परिभाषा क्या हमारी हैं? एक देश में जो सही होता है, दूसरे देश में वो ग़लत हो जाता है। अमेरिका अगर चले जाओ तो वहाँ जो एक स्टेट में सही है वो दूसरे स्टेट में ग़लत है। एक घर में जो अच्छा है, उसे दूसरे घर में बुरा माना जाता है। एक धर्म में जो सही है, दूसरे धर्म में उसे ग़लत माना जाता है। एक ही घर में, एक ही देश में आज जो अच्छा है, वो कल बुरा बन सकता है। इसी देश में, इसी ज़मीन पर, आज से दो सौ साल पहले अगर पति मर जाए तो पत्नी का खुद को आग लगा लेना बड़ा पुण्य माना जाता था। मंदिर बनते थे ऐसी औरतों के, ‘सती देवी’ कहा जाता था। आज यहाँ पर कितनी ऐसी महिलाएं हैं जो पति के पीछे अपने को आग लगाना पसंद करेंगी?

(सारे हँस पड़ते हैं)

माहौल विपरीत हो सकता है लेकिन ये ना होगा कि पति मरा तो आग ही लगा ली अपने आप को, तो ये बात आज अधिक से अधिक एक मज़ाक का विषय बन कर रह सकती है। अभी बस उसे इतनी अहमियत दी जा सकती है कि मज़ाक है, तो हंस लो। लेकिन चले जाओ इतिहास में बस दो सौ साल पहले, तो ये मज़ाक नहीं था, ये बड़ा गम्भीर मुद्दा था, प्रथा थी। राज राममोहन रॉय जैसे लोगों को नाकों चने चबाने पड़े थे, इस कुप्रथा को बंद करवाने में।

मूल बात पर वापस आते हैं कि जो अच्छा है या जो बुरा है, ये तो बहुत कुछ स्थान, समय, समाज पर आधारित चीज़ें हैं। ‘हमने खुद जाना कहाँ है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा ! हमने खुद जाना कहाँ? अगर मैं खुद ठीक-ठीक जानूँ कि ये बात है, तो बस यही बात अच्छी है। बाकी सारे अच्छे-बुरे उधारी के हैं, नकली हैं, उनमें कुछ रखा नहीं हैं’। मुझसे पूछो तो मैं कहूँगा एक ही चीज़ अच्छी है और वो है समझ के अनुसार चलना। सिर्फ तुम्हारा अपना होश ही अच्छा है। और फिर एक ही बात बुरी भी है, तुम्हारी अपनी बेहोशी। बाकी अच्छे-बुरे तो बदलते रहते हैं। समझ रहे हो? अगर अपने को अपनी नज़र से जाना तो सब अच्छा है। अपने को अपनी नज़र से जाना तो दुनिया को भी अपनी नज़र से ही देखोगे तो फिर सब अच्छा है। वरना तुमने जितने सही और ग़लत पकड़ रखे हैं, उनमें कुछ रखा नहीं है।

बच्चा जब छोटा होता है तो कोई माँ नहीं होती जो उसे ये ना बताये कि सच बोलो हमेशा, ये बात अच्छी है, और किसी को पीड़ा पहुँचाना ग़लत है। हर बच्चे को ये बताया जाता है ना?

सभी श्रोता(एक साथ): जी सर।

वक्ता: लेकिन दुनिया को देखो अपने चारों ओर। ठीक-ठीक देखो। हत्यारों और बलात्कारियों से भरी हुई है। हर बच्चे को बताया जा रहा है कि गुड क्या है और बैड क्या है, राईट क्या है और रॉंग क्या है, लेकिन ये दुनिया फिर भी ऐसी क्यों है? वज़ह साफ़ है कि जो भी तुम्हें बाहर से बताया जायेगा वो कभी भी पूरे तरीके से तुम्हारे जीवन में, तुम्हारे कर्म में उतरेगा नहीं। बच्चा अगर थोड़ा सा समझदार हो, अगर मूढ़ ना हो तो वो पलट कर पूछेगा माँ से, ‘माँ, हमेशा सच बोलूं क्यों?’ तो माँ कुछ इधर-उधर की बात बतायेगी। बच्चा अगर वाकई जीवंत है तो कहेगा, ‘ठीक-ठीक बताओ कि क्यों मैं दूसरों को इज्ज़त दूँ, मैं क्यों हमेशा सच बोला करूँ?’ तब माँ के पास कोई जवाब नहीं होगा क्योंकि माँ ने भी खुद जाना नहीं है, क्योंकि माँ को भी माँ के माँ ने बताया है और उसको किसी और ने। तो नतीजा ये होगा कि बच्चे को डांट-डपट कर चुप करा दिया जायेगा कि बस चुप रहो और सच बोलना चाहिए यही सही बात है, गुड है।

अब ऊपर से कोई कितना भी थोपता रहे तुम्हारे ऊपर कुछ भी, वो तुम्हारे जीवन में तब तक नहीं उतरेगा, जब तक वो तुम्हारे अपने होश से ना निकले। जब अपने होश से खुद जानोगे कि सच का क्या अर्थ है, तब बात दूसरे की होगी। तो इसलिए महत्वपूर्ण सत्य नहीं है, महत्वपूर्ण है तुम्हारा होश, तुम्हारी समझ। होश से जब कुछ तुम जानोगे तब वो तुम्हारे जीवन में उतरेगा, वरना पढ़ते रहो, उससे तुम्हें कुछ मिलने वाला नहीं है। समझे?

सभी श्रोता(एक साथ): जी सर।

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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