प्रश्नकर्ता: ये प्रश्न आपके व्यक्तिगत जीवन से जुड़ा है। बहुत सारे लोगों को शायद ये उत्सुकता होगी, मुझे भी है कि हमने आपको हमेशा सत्र में देखा है और यहाँ पर कैंप में आते हैं, यहाँ पर देखा है, यूट्यूब पर देखा है लेकिन उसके बाद आप क्या करते हैं? एक आध्यात्मिक जीवन कैसा होता है? वो आपकी जो रोज़मर्रा का जीवन है, उपनिषदों की जो शिक्षाएँ हैं, वो अपने रोज़मर्रा के जीवन में कैसे उतरती हैं? मैं आपके रोज़मर्रा के जीवन के बारे में इसलिए जानना चाहता हूँ। धन्यवाद।
आचार्य प्रशांत: क्या करोगे जानकर? अच्छा नहीं लगेगा, व्यक्तिगत जीवन, व्यक्तिगत ज़्यादा कुछ है नहीं तो उसमें क्या बताऊँ तुमको? ‘काम के बाद मेरा जीवन कैसा होता है?’ काम खत्म होगा तो दूसरा जीवन होगा न, काम खत्म नहीं होता तो ऐसा कोई व्यक्तिगत जीवन वाकई नहीं है या है भी तो काम के साथ ही है। जिनके साथ काम है, उन्हीं के साथ जीवन बीत रहा तो ये जो यहाँ पर हो रहा है यही व्यक्तिगत जीवन है।
उसमें और तो मेरे पास ऐसे पूछोगे कि बताइए क्या है। तो मेरे पास बताने के लिए कुछ नहीं है। हाँ, इतना ज़रूर बता सकता हूँ, वही “नेति-नेति” के तौर पर कि आप आध्यात्मिक जीवन की जो छवियाँ रखते हैं, उन छवियों से तो बिलकुल भी, कम-से-कम मेरे जीवन का, कोई मेल नहीं है।
आप सोचते होंगे कि आध्यात्मिक आदमी बैठकर ध्यान कर रहा होता है या शान्ति से एक जगह बैठा है, पाठ वगैरह कर रहा है, जप रहा है और बड़ा एक वो नियमबद्ध जीवन जी रहा है। इतने बजे उसके सामने खाना आ ही जाता है, खा ही लेता है, फिर सो ही जाता है, फिर उठ ही जाता है, फिर नहाता है, फिर आधा-पौन घंटा पूजा-आरती में लगाता है, उसके बाद बैठकर के ऐसे देखता है (ऊपर देखते हुए) खुला आकाश, ऊँचे पहाड़। और कोई किताब, कविता वगैरह लिखता है। मेरे साथ तो ऐसा तो कुछ भी नहीं है।
इसीलिए मैं थोड़ा सतर्क भी रहता हूँ कि जो लोग जानते नहीं हैं, उनको बहुत आसानी से अपने व्यक्तिगत जीवन में झाँकने न दूँ। इसलिए नहीं कि मेरे पास छुपाने को कुछ है इसलिए कि तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा। तुम्हारी धारणाएँ टूटेंगी, तुम परेशान हो जाओगे। तुम कहोगे, ‘इसमें वो सब कहाँ है? पूजा-पाठ कहाँ है? ध्यान कहाँ है? मौन कहाँ है? शान्ति कहाँ है? इनके पास तो तनाव ही तनाव है। आधे समय तो ये किसी को डाँट रहे होते हैं। ये कौनसा अध्यात्म है?’
तो तुम्हें पसन्द नहीं आएगा और पहले हो चुका है ऐसा। लोगों को पसन्द नहीं आया है, उनकी धारणाएँ खंडित होती हैं।’ तो हम तो कुछ और सोचकर आये थे।’ मैंने कहा था कुछ और सोचकर आओ? तुम्हारी सोच, तुम्हारे साथ, यहाँ का यथार्थ, यहाँ का यथार्थ है। तो और जान लोगे धीरे-धीरे। उसमें कुछ कोई, कोई विशेष बिन्दु है, कोई खास बात है वो पूछना चाहते हो तो बता दो, बाकी तो अब तुम जानने ही लग गये हो।
(प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए) कहाँ हो? किधर गये? हाथ उठाओ। (प्रश्नकर्ता हाथ उठाते हैं) हाँ, तुम तो जानने ही लग गये हो धीरे-धीरे और जान जाओगे। तो इसमें काफ़ी अस्त-व्यस्त और छितराया हुआ जीवन है। वही रोडरोलर जैसा, लगातार झटके आते रहते हैं, विरोध आता रहता है, उसके ऊपर से गुज़रना होता है। कोई हाइवे नहीं मिलता अध्यात्म में कि इसमें चलते जाओ। वो गृहस्थी में मिलता है। अध्यात्म में तो ऐसा ही है कि बिल्कुल सामने बोल्डर्स हैं, बड़े-बड़े पत्थर हैं और तुम्हें उसमें से राह बनानी है। तो गाड़ी काँपती रहती है। झटके आ रहे हैं, चोट लग रही है। अपना उसमें आगे बढ़ रहे हैं और तनाव रहता है उसमें।
जो लोग शान्ति की तलाश में हों, उनके लिए कम-से-कम मेरी संगत तो नहीं है, मेरा नाम-पता नहीं किसी ने ऐसे ही बस धोखे से रख दिया था। अगर सागर आपके लिए शान्ति का प्रतीक है तो मेरे पास तो नहीं मिलेगी, मैं पहले ही बोले देता हूँ। हाँ, गहराई चाहिए तो मिल जाएगी। पर उस गहराई के साथ लहरें बहुत हैं। बहुत तूफान वगैरह हैं। ऐसा नहीं है कि मैं उद्दंड आदमी हूँ या मुझे शोर मचाने में या तोड़फोड़ में कोई खास रुचि है। स्थितियाँ ऐसी हैं। आपकी दुनिया ऐसी है। मैं क्या करूँ?
मैं पैदा ऐसे समय पर हुआ हूँ जब ज़रूरत है तोड़ने-फोड़ने की, ज़रूरत है थोड़ा मार-पिटाई करने की। अपनी रुचि से नहीं कर रहा ज़रूरी है। ये नहीं आयोजित हो सकता था और अभी भी जितना हुआ है, वो बहुत कम हैं, अधूरा है, सौ कमियाँ हैं। आप सबसे प्रार्थना है मेरी, आप मेरे विषय में कोई छवि बनाएँ तो वो मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है। बाद में मत कह दीजिएगा कि इन्होंने गड़बड़ कर दी। और आपमें से खासतौर पर जो लोग बड़े आध्यात्मिक किस्म के हों उनसे तो विशेष प्रार्थना है। भाई, मैं आपकी तरह वाला आध्यात्मिक आदमी नहीं हूँ।
मुझे एक ने खाते देख लिया। उनका दिल टूट गया। ‘अरे! जानवरों की तरह खा रहा है। तीन मिनट में सब निपटा दिया और भाग गया। हाथ भी नहीं धोया।’ मैं ऐसा ही हूँ। मुझे काम है। मैं पहले बैठकर भोग नहीं लगाऊँगा। बोले, ‘आध्यात्मिक आदमी ऐसा थोड़े ही होता है। बत्तीस बार चबा-चबाकर खाता है। हमारे गुरुदेव ने बताया था। बत्तीस बार चबाने से ये फ़ायदा होता है, वो होता है। पालथी भी नहीं मारी ठीक से, खड़े-खड़े खा रहा था।’ और कुछ होता है न पानी खड़े होकर पीते हैं, दूध बैठकर पीते हैं। कुछ ये सब भी चलता है। बोले, ‘ये तो चलती गाड़ी में खुद ही बोतल खोलकर के ऐसे पी लेता है। आधा अपने ऊपर गिरा लिया, चलता जा रहा है। ऐसा कौन बनना चाहता है!’ मैंने कहा, ‘मुझसे भूल हो गयी। मैंने आपको ये सब देखने दिया ये मेरी गलती है।’
ऐसे ही एक दिन मुझसे किसी ने पूछ लिया, दिन में कितनी बार स्नान करना चाहिए। मैंने कहा, ‘उत्तर देने से पहले बता दूँ, मेरा औसत एक से बहुत कम है’ (श्रोतागण हँसते हैं)। ये सब हो चुका है। ‘आपकी आँखों के नीचे ये काले गड्ढे पड़े हुए हैं, इससे तो पता चलता है कि आपकी दिनचर्या अनुशासित नहीं है।’ नहीं है, नहीं है। बोले, ‘ऐसा थोड़े ही होता है। हमने तो साधुओं की, सन्तों की प्रतिमाएँ, मूर्तियाँ और चित्र सब देखे हैं। उनके तो चेहरे पर अपूर्व तेज होता है।’ मेरे नहीं है। माफ़ कर दीजिए, नहीं है। जिनके होता है, उनके पास सैलून में बैठने का टाइम होगा। ऐसे ही नहीं आ जाता।
किसी ने खरीदकर दिया, बोले, ‘ये लगाइए, इससे डार्क सर्कल्स (आँखों के चारों ओर संकेत करते हुए) मिट जाएँगे।’ नहीं है समय वो भी करने का। आप अपनी जगह बैठकर के जितना नहीं सोच सकते, उससे ज़्यादा मुश्किल है ये काम। बहुत-बहुत ज़्यादा मुश्किल है।
जिनके साथ ये काम कर रहा हूँ, वो भी इंसान हैं, उनके भी परिवार हैं, उनके ऊपर भी तमाम तरह के दबाव हैं; उन्हें भी खींचा जा रहा है। मुझे बताया गया कि यहाँ पर एक देवी जी मौजूद हैं जिनको पिछले शिविर में उनके घरवाले शिविर के बीच से उठा ले गये थे। उसी तरीके के तनाव-दबाव यहाँ संस्था के जो बाकी लोग आपको दिख रहे हैं, उनके ऊपर भी हैं। और उनके साथ मुझे काम करना है और एक आदमी से तीन आदमियों का काम करवाना है। और वो तब करते हैं जब मैं उनसे ज़्यादा करके दिखाता हूँ।
और कोई भी यहाँ पर सुपरह्यूमन, अतिमानव नहीं है। तो सुबह से शाम तक यही चल रहा होता है कि साधारण लोगों से असाधारण काम करवाकर दिखाना है। हमारा समाज, देखिए, ऐसा नहीं है कि उसका जो बेस्ट टैलेंट है उसको वो स्पिरिचुअलिटी की तरफ़ आने दे। नहीं है न। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता कि आइआइटी या आइआइएम में कोई स्प्रिचुअल फाउंडेशन कैंपस प्लेसमेंट के लिए जाएगी। ये सुनने में ही कितना अजीब लग रहा है न। द बेस्ट टैलेंट इस सपोज़ गो टू द बेस्ट पे मास्टर्स (सबसे बेहतर प्रतिभा वहीं जाती है जहाँ उसे बेहतर भुगतान हो)।
तो वो जो सबसे ज़्यादा प्रतिभाशाली लोग होते हैं। वो मेरे पास नहीं आ सकते क्योंकि यहाँ उनको लाखों नहीं दिये जा सकते और काम हमें करना है बहुत-बहुत, बहुत कठिन और वो कठिन काम करना है एक छोटी सी साधारण टीम के साथ। और वो सब लोग अपनी पूरी मेहनत कर रहे हैं। जान लगा रहे हैं। मैं इसमें बिलकुल नहीं कहूँगा लेकिन लोग पहली बात तो कम हैं; दूसरी बात, इसी समाज से आ रहे हैं।
आपको तीन दिन के लिए यहाँ आने में तकलीफ़ हो जाती है। आपके पति-पत्नी, माता-पिता आपको परेशान कर डालते हैं। है न? तो सोचिए जिन घरों की औलादें मेरे पास आकर बैठ ही गयी हैं, उन बेचारों के दिलों पर कितने साँप लोटते होंगे। वो तो पानी पी-पीकर बद-दुआएँ देते हैं। ‘बुड्ढे ने घर बर्बाद कर दिया हमारा।’
ऐसा माहौल रहता है संस्था में। उसके साथ हम करते हैं। और, और बताता हूँ क्या होता है। आप यहाँ बैठे हो न, आप ही के लिए सबकुछ हो रहा है, आप ही हमारे मित्र हो लेकिन आप ही हमारे दुश्मन भी हो। हमें आपसे ही अपनी सुरक्षा भी करनी है क्योंकि आप हम पर कब वार कर दोगे कुछ पता नहीं है। तो तनाव बहुत रहता है। जो लोग थोड़े व्यावहारिक हैं वो समझ रहे होंगे मैं क्या बोल रहा हूँ।
आप यहाँ आये हो लेकिन आपको निकट बुलाकर हमने आपको मौका दे दिया है कि आप हम पर हमला कर दो। तीन-सौ लोग यहाँ से वापस जाएँगे, वो हमारे विषय में क्या कह देंगे, क्या लिख देंगे, मैं नहीं जानता। तो आपके ही विरुद्ध सुरक्षा भी करनी पड़ती है। वो सुरक्षा भी इन्हीं सबको करनी पड़ती है, मुझे करवानी पड़ती है।
यहाँ जो कुछ भी हो रहा है, समझ लीजिए यहाँ का छोटे-से-छोटा इंतज़ाम भी मेरी आँखों के नीचे से होकर गुज़रा है। तब हो रहा है। वो जो आपकी कुर्सियों के पीछे नम्बर लिखे हुए हैं वो भी आखिरी क्षण में मैंने लिखवाये हैं। बहुत सारे काम तो मैंने अपने हाथ से करे हैं। आपको लगता होगा ये तो आते हैं और ऊपर वो ड्रोन है और गाड़ी आयी और रेड कार्पेट (लाल रंग की कालीन) है और ये सब।
ठीक है आपको भी पता है ये सब कैसे है। असलियत ये है कि कोई अगर तीन दिन पहले आ जाए यहाँ पर तो पाएगा कि यहाँ घूम रहे हैं जो, धूल हटा देते हैं, कुर्सियाँ ऐसे लगा दो, ये कर दो, वो कर दो। ये है व्यक्तिगत जीवन मेरा। आपके लिए कुर्सियाँ लगाता हूँ।
अभी सुबह यहाँ आ रहा था, यहाँ पहुँचने का मेरा समय था ग्यारह, साढ़े ग्यारह बजे का। मैं आधे-पौने घंटे देर से आया। उसकी वजह ये थी कि शिविर के ही कुछ लोगों ने सुबह-सुबह शोर मचा दिया कि खाना ठीक नहीं है और चिट्ठियाँ लिखकर भेज रहे हैं। ये बात ठीक नहीं है, आप खाना नहीं दे रहे हो। एक ने तो कह दिया, ‘खाना सिर्फ़ संस्था के वॉलंटियर्स (स्वयंसेवकों) के लिए था। बाकियों के लिए तो खाना था ही नहीं। ये बात ठीक नहीं है।’
ये है व्यक्तिगत जीवन, इससे हम निपटते रहते हैं। हम सो रहे हैं, कोई आकर झंझोड़कर जगाएगा — आचार्य जी, देखिए ये ईमेल आ गयी! देखिए ई मेल में क्या लिखा है, ‘यहाँ तो महोत्सव में सब वयस्कों की बातें हो रही हैं, एडल्ट्स की। लेकिन हमने शिविर में तीन-चार छोटे बच्चों को घूमते हुए देखा है, ये बात ठीक नहीं है।’ हैं यहाँ तीन-चार छोटे बच्चे, उनके माँ-बाप हमसे अनुमति लेकर के, बल्कि प्रार्थना करके उनको लेकर आये हैं कि उन बच्चों को घर नहीं छोड़ सकते तो यहाँ लेकर के आये हैं और बातें हैं।
यही है व्यक्तिगत जीवन। आपके लिए ही काम करना है और आपके ही विरुद्ध संघर्ष है। मेरे लिए सत्र में आना भी एक चुनौती होता है क्योंकि यहाँ आने का मतलब होता है कि मैं पाँच-छः घंटे अपना काम छोड़कर के यहाँ आऊँगा। आपने सोच रखा है कि स्पिरिचुअलिटी का तो मतलब होता है कि खुले आसमान के नीचे नाचना एक टाँग उठाकर के।
आप बहुत मज़े का जीवन जी रहे हैं, मेरी बात सुन मत लीजिएगा (हँसते हुए)। आप तकलीफ़ों में फँसेंगे। कई बार ये भी लगता है, मैं ये सब बातें, ‘ये’ माने सब बातें, ये वाली बात नहीं जो आपको दो दिन से बोल रहा हूँ, जो किताबों में लिखा। मैं क्यों बता रहा हूँ, मुझे पता है आप वो सब पढ़ोगे, आपके लिए मुसीबतें खड़ी होंगी।
आप अभी जैसे भी हो आपका एक रूटीन , ढर्रा चल रहा है, जिसमें आपको सुविधा है, कम्फर्ट है, ठीक तो चल रहा है न। बहुत बार लगता है कि मैं क्यों परेशान कर रहा हूँ। सबका ठीक चल रहा है, चलने दो, क्यों उसको छेड़ना है! लेकिन फिर।