आचार्य जी, आप कौन हैं? || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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आचार्य जी, आप कौन हैं? || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्न: आचार्य जी, आप कौन हैं? अगर आपने जाना है, तो मुझे भी बताईए कि मैं स्वयं को कैसे जानूँ ।

आचार्य प्रशांत जी:

मैं कौन हूँ, ये तुमपर निर्भर करता है। तुम मुझमें जो पाना चाहोगे, वही देखोगे।

अगर तुम्हें बाज़ार से भिन्डी-लौकी खरीदनी है, तो मैं कोई नहीं हूँ। तुम यहाँ पाए ही नहीं जाओगे यहाँ भिन्डी-लौकी का कोई काम नहीं। तुम्हें अगर किसी ऐसे व्यक्ति से मिलने का रोमांच लेना है, जो दुनियावी तौर पर सफल हो सकता था, पर हुआ नहीं – तो मैं वो हूँ। तुम आओ, और कह दो, “आज मैं एक ऐसे आदमी से मिलकर आया जो आई.आई.टी., आई.आई.एम., सिविल सर्विसेज़ करके अब न जाने क्या कर रहा है।”

तुम ज्ञान इकट्ठा करना चाहते हो, तो तुम यहाँ आकर ज्ञान सुन सकते हो – मैं वो हूँ। तुम कहोगे, “मैं एक ज्ञानी से मिलकर आ गया।”

तुम्हारी नज़र निर्धारित करती है – मैं कौन हूँ। और अगर तुम्हें पार जाना है, भवसागर लाँघना है – तो दोस्त हूँ मैं तुम्हारा। जैसे मेरा इस्तेमाल करना चाहो, कर लो। ये पक्का है, तुम से भिन्न मैं कुछ भी हो नहीं सकता – ये मेरी मजबूरी है।

तुम जो नहीं हो, वो मैं हो नहीं सकता। और तुम बदलकर देखो, मैं तत्काल बदल जाऊँगा।

इतने लोग अभी यहाँ बैठे हैं, तुम्हें क्या लगता है – सब एक ही बात सुन रहे हैं? तुम वो सुन रहे हो, जो तुम हो। तुम मुझमें वो देख रहे हो, जो तुम हो।

अचरज मत मानना अगर कोई ऐसा भी हो, जिसको सिर्फ़ इस कुर्ते से सरोकार हो। जिसकी चेतना में कपड़ा-ही-कपड़ा भरा हो, उसके लिए मैं कौन हूँ? एक ‘कुर्ताधारी’, बस। जिसकी चेतना में शरीर-ही-शरीर भरा हो, उसके लिए कौन हूँ मैं? एक ‘शरीर’, बस। स्त्री साहिकाएँ आती हैं, और कई बार गड़बड़ हो जाती है। उनकी साधना बहुत आगे नहीं बढ़ पाती। वो चाहकर भी बहुत नहीं सीख पातीं क्योंकि वो अटल हैं कि वो स्त्री ही हैं। तुम अगर ‘स्त्री’ ही हो, तो मैं ‘पुरुष’।

फ़िर मैं गुरु नहीं हो पाया।

तुम जो हो, वो निर्धारित करता है कि – मैं कौन हूँ।

पुराने मेरे कॉलेज के मित्र, वो मुझसे न कुछ जान पाए, न सीख पाए। अरे, वो सुन भी नहीं पाए। क्योंकि वो यार हैं, और वो यार हैं तो मैं भी बस ‘यार’ हूँ। और ‘यार’ से कौन कब सीखता है?

तुम तय करोगे मैं कब, क्या हूँ।

भूखा शेर अभी यहाँ आ जाए, तो मैं क्या हूँ? भोजन हूँ, और क्या हूँ। कहाँ के गुरुदेव?

(हँसी)

पिछले वर्ष डेंगू हुआ था, उस वायरस के लिए मैं क्या था? शरीर, होस्ट। तुम वायरस हो, तो मैं खून हूँ। हाँ, तुम साधक हो, तो मैं साधु हूँ।

तुम बताओ तुम कौन हो? बात तुम्हारे ऊपर पलट गई।

(हँसी)

तुम कौन हो? जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।

‘मैं’ – कोई नहीं हूँ!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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