अब न ये खुशखबरी है, न 'गुड न्यूज़' || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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अब न ये खुशखबरी है, न 'गुड न्यूज़' || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: हमारी खुशियाँ खा गयीं पृथ्वी को। जितना हम भोग रहे हैं उतना हमें खिला पाने के लिए पृथ्वी के पास हैं नहीं, तो हम पृथ्वी को ही खा गयें। और हम कम पड़ रहे थे तो हमने अपनी तादाद बढ़ा ली, ताकि हम बहुत सारे हो जाएँ पृथ्वी को खाने के लिए। हम आठ अरब हो गयें।

और अभी भी हमारी खुशियों का पैमाना वही है, ‘घर में बच्चा हुआ कि नहीं हुआ?’ हम समझ ही नहीं रहे हैं कि हर बच्चा जो पैदा हो रहा है, वो हज़ारों पेड़ों और हज़ारों पशुओं की लाश पर पैदा हो रहा है। आज के समय में अहिंसा ये नहीं है कि माँस नहीं खायी, आज के समय में हिंसा ये है कि समझो कि अगर तुम बच्चा पैदा कर रहे हो, तो तुम हज़ारों जानवरों का कत्ल करके बच्चा पैदा कर रहे हो। और तुम कहते हो, 'नहीं साहब, हम तो मुर्गा नहीं खाते।'

हर बच्चा जो पैदा हो रहा है, उसके पीछे जले हुए पेड़ और कटे हुए पशु हैं। और पशु ऐसे नहीं काटेंगे कि पशु को खाएगा, जब पेड़ ही नहीं हैं तो पशु कहाँ जाएँगे? आप कहेंगे, ‘साहब हम पेड़ तो काटेंगे नहीं’। अच्छा, पेड़ नहीं काटोगे कोई बात नहीं, क्या खाओगे? ‘नहीं, हम तो बस रोटी-चावल खा लेंगे।’ रोटी-चावल पैदा कहा होगा बेटा? खेत में। खेत कहाँ से आएगा? चाँद पर खेती करोगे? खेती कहाँ होगी? जंगल काटकर तो खेती होगी!

तुम्हें बात समझ में ही नहीं आ रही है?

तो पहली बात तो हमारी खुशियाँ कहती हैं कि भरा-पूरा घर रहे, खुशियों से गुलज़ार रहे, किलकारियाँ गूँजती रहे। और उसके बाद जितने लोग हों घर में, वो सब छककर के कंज़म्प्शन करें, छककर के!

खुशी का पैमाना यही है कि कितने किलो वो हर आदमी चूस रहा है, ऊर्जा। ऐसे ही नापा जाता है, तरक़्क़ी ऐसे ही नापी जाती है। कहते हैं, ‘भारत में प्रति व्यक्ति इतनी ही बिजली की खपत है जबकि अमेरिका में प्रति व्यक्ति बिजली की खपत इतनी ज़्यादा है तो देखो, भारत कितना पिछड़ा हुआ है।’ ये बिजली की खपत खा गयी न। बिजली कहाँ से आती है? कोयला जलाकर आती है। आज भी विश्व में अधिकांश बिजली कोयला जलाकर आती है। और कोयला जलेगा तो क्या निकलेगा? कार्बन।

और आदमी जितनी भी चीज़ों को भोगना चाहता है, उन चीज़ों के निर्माण में क्या लगती है? ऊर्जा; ऊर्जा माने बिजली। आदमी की सबसे बड़ी ज़रूरत इस समय क्या है? ऊर्जा और ऊर्जा तो आएगी ही न फ़ॉसिल फ़्यूल जलाकर के, और कहाँ से लाओगे? लोग कहते हैं, 'नहीं साहब, कार पुरानी हो गयी है, नयी ले आएँगे।’ ठीक है? लेकिन पुरानी कार तीन थी जो ज़्यादा पेट्रोल पीती थी, नयी कार कम पेट्रोल पीती है लेकिन नयी कार तीस है। अब बताओ, पहले की अपेक्षा कार्बन कम उत्सर्जित होगा या ज़्यादा? क्योंकि पहले की कार धुआँ भले ज़्यादा छोड़ती थी, पर कार थी ही कुल तीन मोहल्ले में। आज मोहल्ले में कितनी कार हैं? तीस। अब बताओ, धुआँ कम हुआ या बढ़ा? हम समझ ही नहीं पा रहे कि समस्या की भयावहता कितनी गहरी है।

तो हम क्लाइमेट चेंज की जब बात आती है, तो नन्हें-नन्हें उपाय सामने ले आते हैं और ये नन्हें उपाय सामने लाकर के हम समस्या का मज़ाक बना देते हैं। कोई कहता है, ‘देखिए, हमारी न डीज़ल कार थी, उसको बेचकर हम हाइब्रिड कार ले आये हैं, इलेक्ट्रिक कार ले आये हैं’, ये हमारा योगदान है इस समस्या के समाधान के प्रति। ये बेवकूफ़ी की बात कर रहे हो। इलेक्ट्रिक कार किससे चलेगी? इलेक्ट्रिसिटी कहाँ से आएगी? कोयला जलाकर।

तुम्हारी इलेक्ट्रिक कार से क्या हो जाएगा भाई, फिर इलेक्ट्रिक कार बनी किस चीज़ से है? स्टील से, स्टील कहा से आया है? कोयले से आया है। किसको बेवकूफ़ बना रहे हो? कि हम देखिए, नयी इलेक्ट्रिक कार ले आये हैं, इससे काम बन जाएगा। या फिर स्कूलों में चलता है, 'पेड़ लगाओ, पेड़ लगाओ' इससे ग्लोबल वार्मिंग रुकेगी। अरे भाई, पेड़ों से नहीं रुक जानी है। अब वो सीमा हम कब के पीछे छोड़ आयें कि वृक्षारोपण से हम ग्लोबल वार्मिंग रोक लेंगे। पेड़ बेचारे को तो बड़ा होने में ही दस साल लग जाएँगे। और हमने कहा कि एक पेड़ चालीस साल अगर जियेगा, तो एक टन कार्बन डायऑक्साइड सोख पाएगा बेचारा, अगर चालीस साल जी पाया तो! चालीस साल जियेगा भी कैसे? हमें तो खेत बनाने हैं, कंक्रीट जंगल बनाने हैं। एक बच्चा अट्ठावन टन कार्बन डाईऑक्साइड, एक पेड़ चालीस साल में एक टन। आप बताओ कितने पेड़ लगाओगे, कितने पेड़ लगाओगे? और लोग इस तरह की बात करते हैं, 'रीसाइकल करो, थ्री स्टार एसी की जगह फाइव स्टार एसी ख़रीद लो', ये सब कार्बन को कम करेंगे थोड़ा सा, इसमें कोई सन्देह नहीं है।

पर ज़्यादा बड़ी दिक्क़त ये है कि ये सब छोटी-छोटी चीज़ें करके हमें लगेगा, हमने प्रायश्चित कर लिया। हमें लगेगा हमारे कर्तव्य की इतिश्री हो गयी। हम कहेंगे, ‘देखो न, हम ज़िम्मेदार नागरिक हैं, हम प्लास्टिक का कम इस्तेमाल करते हैं, हमने चार पेड़ लगा दिये हैं, हम थ्री स्टार की जगह फाइव स्टार एसी का इस्तेमाल करते हैं, हमने फिलामेंट बल्ब की जगह — कौन से कहलाते हैं ये? (श्रोताओं से पूछते हुए) एलईडी बल्ब लगा दिये हैं, इलेक्ट्रिक कार यूज़ कर रहे हैं, और घर में हम एक साइकिल ले आये हैं। तो छोटी-छोटी दूरियों के लिए हम साइकिल का इस्तेमाल करते हैं, हम धुआँ नहीं उड़ाते। तो अब हम ज़िम्मेदार नागरिक हो गये हैं। देखो, हमने अपना काम कर दिया ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिए।'

ये जो आप काम कर रहे हैं, ये ऊँट के मुँह में जीरे बराबर है। जो असली काम चाहिए वो है कि उपभोक्तावादी, मन को उपभोक्तावादी, संस्कार को ही रोका जाए और उससे भी ज़्यादा जो काम चाहिए, वो ये है कि आदमी की ये धारणा तोड़ी जाए कि घर में सन्तान का होना बहुत ज़रूरी है। जब तक सन्तान पैदा करने की आदमी की धारणा नहीं तोड़ी जाएगी, पहली बात। और दूसरी बात, जब तक आदमी के मन से ये धारणा नहीं निकाली जाएगी कि जीवन की सफलता, वस्तुओं के संग्रह और वस्तुओं के उपभोग में है। तब तक समझ लीजिए कि इस पृथ्वी के बचने की कोई सम्भावना नहीं है। तो कुल मिला-जुलाकर मैं देख रहा हूँ कि पूरी बात आध्यात्मिक है।

दो ही तलों पर इसका समाधान मुझे दिखाई दे रहा है, पहला जो सबसे महत्वपूर्ण तल है, आदमी के मन से ये धारणा निकालो कि बच्चा पैदा करना बहुत बड़ी, बहुत क़ीमती, बहुत सम्माननीय, बहुत ज़रूरी, बहुत केन्द्रीय बात है। और दूसरी बात, आदमी के मन से धारणा निकालो कि जो जितना उपभोग कर रहा है, जो जितना कंज़्यूम कर रहा है, वो उतना सुखी है। सुख और उपभोग का हमने जो रिश्ता बना लिया है, उसको तोड़ो। और ये दोनों ही काम सरकारें नहीं कर पाएँगी। इसलिए सरकारी तल पर विफलता मिल रही है।

सरकार क्या कर लेगी? जनतन्त्र है भाई, सरकार तो वही करेगी, जो लोग चाहेंगे। सरकार लोगों को बच्चा पैदा करने से थोड़े ही रोक सकती है। इसीलिए उस तल पर सफलता मिलना मुश्किल है। इसलिए वैज्ञानिक भी कुछ नहीं कर पा रहे। इसीलिए सामाजिक कार्यकर्ता भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि जो समस्या है, वो आदमी की वृत्ति के तल पर है, उसका समाधान सिर्फ़ अध्यात्म कर सकता है। ये हमारी बड़ी पुरानी पाश्विक वृत्ति है कि भोगो और कुनबा बढ़ाओ, भोगो और कुनबा बढ़ाओ।

आप कोई भी जानवर देख लीजिए, आप उसे दो ही काम करता पाएँगे — या तो खा रहा होगा या मादा का पीछा कर रहा होगा। खाएगा, मादा का पीछा करेगा। खाएगा, मादा का पीछा करेगा। सड़क का कुत्ता हो, चाहे जंगल का खरगोश। दो ही काम करता है न, खाता है, सम्भोग करता है। और तो कुछ वो करता नहीं, बीच-बीच में सो जाता है, आराम कर लेता है। ताकि थोड़ी ऊर्जा इकट्ठा कर ले, खाना ढूँढने के लिए।

जंगल में पशु जब तक ये काम कर रहा था कि बच्चे पैदा करो, कंज़म्प्शन करो; तब तक कोई बात नहीं थी क्योंकि पशु की इच्छाएँ सीमित होती हैं, और पशु का सामर्थ्य भी सीमित होता है। वही काम जब आदमी ने करना शुरू कर दिया अपनी बुद्धि का, अपने बल का सहारा लेकर के, तो विनाश की ये स्थिति हमारे सामने आ गयी है।

आप समझ रहे हो?

ये जो ग्रीन टेक्नोलॉजी इत्यादि की बात है ये बिलकुल बहाना है, इससे कुछ नहीं होगा। जो होगा बहुत थोड़ा होगा, करना हमको इतना है (बहुत), फुट भर और ये ग्रीन टेक्नोलॉजी इत्यादि से जो होगा, वो होगा मिलीमीटर और सेंटीमीटर भर। जो असली समाधान है, वो दूसरा है और उसकी बहुत कम लोग बात कर रहे हैं। भाई, सारी समस्या इंसान की आबादी और इंसान का उपभोग है। और इन दोनों समस्याओं के केन्द्र में आदमी की पाश्विक वृत्ति है। उस वृत्ति को कौन हटाएगा? सरकारें हटा देंगी? वैज्ञानिक हटा देंगे? नहीं। उस वृत्ति को न सरकारें हटा सकती हैं, न वैज्ञानिक हटा सकते हैं, उस वृत्ति को सिर्फ़ अध्यात्म हटा सकता है।

जब तक आदमी को समझाया नहीं जाएगा कि तुम्हारी जो वृत्तिगत अपूर्णता है उसका समाधान तुम न तो बच्चे पैदा करके कर पाओगे और न कंज़म्प्शन करके कर पाओगे। उसका समाधान कुछ और है। तब तक आदमी ग़लत जगह ही शान्ति ढूँढता रहेगा न? भई, जब आप अपनी अपूर्ण वृत्ति को शान्त करना चाहते हो, तभी तो आप कंज़म्प्शन की ओर भागते हो न? और कंज़म्प्शन से शान्ति मिलती भी नहीं।

अब ये बात सरकारें थोड़ी आपको समझा पाएँगी। ये बात सरकारें नहीं समझा सकती, और न ही ये बात सामाजिक, नैतिकता के तल पर आपको समझायी जा सकती है। ये बात तो अध्यात्म और आध्यात्मिक ग्रन्थ ही आपको समझा पाएँगे न। क्या आपको ज़िन्दगी में जो चाहिए, वो न तो कुनबा बढ़ाकर मिलने वाला है, न आदमी औरत इकठ्ठा करके मिलने वाला है। और न ही और ज़्यादा कपड़े, और ज़्यादा गाड़ियाँ, और ज़्यादा रुपया-पैसा इकट्ठा करके मिलने वाला है। वो कहीं और मिलेगा। और जिस दिन आदमी को वो चीज़, सही चीज़ मिलने लग गयी, जिसके लिए उसकी अपूर्ण वृत्ति वास्तव में तड़प रही है, उस दिन वो उपभोग की दिशा में भागेगा ही क्यों?

बात समझ रहे हैं?

तो कुल मिला-जुलाकर हुआ ये है कि हमें वो नहीं मिल रहा, हमें जिसकी तलाश है। क्यों? क्योंकि हमारा जीवन आध्यात्मिकता से रहित है, स्कूलों में नाम भी नहीं लिया जाता आध्यात्मिक ग्रन्थों का। भई, हम धर्मनिरपेक्ष लोग हैं न? सन्तों-ऋषियों की बात ही नहीं की जाती। बात की भी जाती है तो बस ऐतिहासिक सन्दर्भों में कि फ़लाने वर्ष में पैदा हुए थे, फ़लाने वर्ष में मर गयें इत्यादि-इत्यादि।

बच्चों का वास्तविक अध्यात्म से परिचय ही नहीं कराया जाता और एक बार वो जीवन में आ गया, समाज में उतर आया, उसके बाद तो तमाम तरीक़े के सामाजिक दबाव और मीडिया और इधर-उधर की बातें और भीतर से वृत्ति का उफान, वो कभी समझ ही नहीं पाता कि वो जी किसलिए रहा है। वो कभी समझ ही नहीं पाता कि भीतर की बेचैनी और तड़प वास्तव में है किसलिए। तो वो भीतर की बेचैनी का क्या इलाज ढूँढता है? उपभोग, कंज़म्प्शन। उसी कंज़म्प्शन से क्या पैदा हो जाती है?

श्रोता: कार्बन डायऑक्साइड।

आचार्य: कार्बन डायऑक्साइड बाद में पैदा होती है, पहले बच्चे पैदा होते हैं। कंज़म्प्शन से ही तो बच्चे पैदा होते हैं। स्त्री का शरीर लिया और भोग डाला उसको, लो आ गयी औलाद। जैसे आप सॉफ़्ट ड्रिंक का उपभोग करते हो, जैसे आप जूते का उपभोग करते हो, जैसे आप कपड़ो का उपभोग करते हो, जैसे आप कार का उपभोग करते हो, वैसे ही आप किसी के जिस्म का भी उपभोग कर लेते हो; लो आ गयी औलाद। वो उपभोग आदमी कर ही रहा है इसलिए क्योंकि उसको अध्यात्म से भी परिचित कराया नहीं गया। उसको अगर सही जगह शान्ति मिल गयी होती, तो ग़लत जगह शान्ति क्यों ढूँढने जाता भाई?

अब आप करते रहो इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंसेस (वैश्विक सम्मेलन), उनसे आदमी के भीतर की अशान्ति और अपूर्णता तो दूर नहीं होने वाली न। जिस दिन तक आदमी भीतर से अधूरा है और बेचैन है, उस दिन तक वो अपनी बेचैनी का यही झूठा इलाज निकालेगा। क्या? पकड़ो और भोगो, पकड़ो और भोगो। और उसी भोगने के फलस्वरुप कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड ये सब बढ़ते रहेंगे। और बहुत दिनों तक उनके बढ़ते रहने की नौबत नहीं आने वाली, उससे पहले ही मानवता पूरी साफ़ हो जाएगी। चले थे भोगने, चले थे पृथ्वी को खाने; पृथ्वी खा गयी सबको।

तो बात की शुरुआत में मैंने कहा था कि आदमी का बुखार पृथ्वी को लग गया है। और मैं कह रहा हूँ, पृथ्वी को जो बुखार आ गया है तो आदमी बचेगा क्या? पृथ्वी को जो बुखार आ गया आदमी बचेगा क्या? “खेल ख़तम, पैसा हज़म।” भोग लो!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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