आत्मबोध, ध्यान और तपस्या || आचार्य प्रशान्त (2016)

Acharya Prashant

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आत्मबोध, ध्यान और तपस्या || आचार्य प्रशान्त (2016)

प्रश्नकर्ता: व्हाट इस सेल्फ रियलआईजेशन (आत्मबोध क्या है)?

आचार्य: यही कि सेल्फ है क्या। सेल्फ मतलब वो जो तलाशने की कोशिश में रहता है, वो जो इधर-उधर लगा रहता है, कभी ये जुगाड़ कभी ये जोड़-तोड़।

वो क्या चीज़ है? सेल्फ रियलाइजेशन का मतलब यह नहीं है कि सेल्फ अर्थात 'आत्म' कोई वस्तु है, कोई सिद्धांत है, कोई विचार है जिसका आपको ज्ञान हो जाएगा। सेल्फ रिअलाइजेशन जो होता है वो मात्र अहंता का होता है।

यहाँ पर सेल्फ को सत्य मत मान लीजिएगा। कोई सत्य को नहीं जान पाया है। सत्य को सत्य ही जानता है। आप और मैं होते कौन हैं सत्य को जानने वाले!

तो सेल्फ रिअलाइजेशन को यह मत मान लीजिएगा कि कोई है जो सत्य का जानकार हो जाएगा। कहीं से सत्य की जानकारी नहीं मिलने वाली। न कोई सत्य का जानकार होता है, न आज तक हुआ है, न आगे होगा।

अहंकार को जाना जा सकता है। अहंता का ज्ञान हो सकता है और अहंता का ज्ञान ही मंत्र बन जाता है। अहंता का ज्ञान ही आपको बोध में प्रविष्ट करा देता है।

आप जब जान जाते हो कि 'आप कौन हो' और 'आप कौन हो' से मेरा मतलब कोई विशिष्ट आपकी पहचान से नहीं है। 'आप कौन हो' से मतलब आप यही सब हो — आप, मैं — जो कुर्ता, टीशर्ट पहन कर बैठे हैं, जो कुर्सी पर बैठते हैं, जो खाते हैं, पीते हैं, जिनको अपेक्षाएँ होती हैं, जिनको बेचैनी होती है, जो उठते हैं, गिरते हैं, सोते हैं, जगते हैं, रिश्ते बनाते हैं, आगे बढ़ते हैं, पीछे हटते हैं—यही सब, हम लोग।

बात समझ रहे हैं?

तो सेल्फ रिअलाइजेशन मतलब अपने को जानना और अपने माने फिर कह रहा हूँ वो कोई गुप्त, गोपनीय सत्य नहीं है कि अच्छा इसे पता चल गया — 'हू एम आई'। चलो भई, बताओ 'हू एम आई' और फिर वो बैठकर के विद्वत्ता बता रहा है अपनी।

प्र: जैसा कि मैं समझ रहा हूँ, सेल्फ रियालाइजेशन का मतलब यह नहीं है कि हम जानें कि 'मैं क्या हूँ' बल्कि हम यह जानें कि 'मैं क्या नहीं हूँ।'

आचार्य: वो हम समझे ही हैं। सेल्फ रिअलाइजेशन का मतलब है कि तुम समझे तो हुए ही हो कि तुम क्या हो। हम में से कौन है जो नहीं जानता? न जानते होते तो अनुभव कैसे करते? आप अनुभव करते हो तभी तो कहते हो न कि आप एक पिता हो। आप अनुभव करते हो तभी तो कहते हो न कि ईर्ष्या है।

अच्छा, ठीक है, कई बार कहते नहीं, पर अनुभव तो करते हो कि ईर्ष्या है। तो सेल्फ रिअलाइजेशन का अर्थ इतना ही है कि जो अनुभव हो रहा है उसे ईमानदारी से स्वीकार करो, झूठमूठ उसको दबाओ मत।

आत्मज्ञान होता है, आत्मबोध जैसा कुछ नहीं होता। आत्मबोध तो बड़ी शून्यता है, वो कुछ है नहीं और उसकी कोई उपयोगिता भी नहीं है। आत्मबोध तो मौन है, आत्मबोध तो सत्य है। वो तुम्हारे किसी काम नहीं आएगा।

सत्य किसी के काम का नहीं होता और तुम्हें कुछ ऐसा चाहिए जो तुम्हारे काम का हो। आत्मज्ञान तुम्हारे काम का है, आत्मज्ञान का मतलब हुआ यह जो इकाई है जिसे शरीर कहते हो इसकी गतिविधियों को ईमानदारी से जानो और स्वीकार करो, उनके ऊपर ग़लत नाम के पर्चे मत चिपकाओ।

यदि ईर्ष्या उठ रही है तो उसको प्रेम का नाम मत दो, ये आत्मज्ञान है। और आत्मज्ञान के लिए कुछ करना नहीं है क्योंकि हम सब निरंतर अनुभवों में ही जीते हैं। अनुभव तो हो ही रहा है न। कोई ऐसा है जिसको ईर्ष्या उठती हो और उसे ईर्ष्या का अनुभव न होता हो?

ईर्ष्या का मतलब ही है एक प्रकार का अनुभव। उस अनुभव को बस छुपाओ मत। मैं नहीं कह रहा हूँ कि नगाड़ा बजाओ कि मुझे ईर्ष्या है। अपने से मत छुपाओ। डरे हुए हो तो उस डर को सतर्कता का नाम मत दो कि 'नहीं साहब, हम डरे हुए नहीं हैं हम तो मात्र जागरूक हैं।'

नींद क्यों नहीं आ रही, क्योंकि हम जागरूक हैं। जागते रहो। अरे सच-सच बताओ कि सोया जा नहीं रहा है, यह तुम्हारी जाग्रति नहीं है, ये तुम्हारा डर है। समझ रहे हैं?

अब इस पूरी चीज़ में दिक्क़त ये है कि ये बड़ी अनाकर्षक है, ग्लैमरहीन है। हम जैसे दुनिया में कुछ तलाशते हैं अद्भुत, चमकता हुआ, सुंदर, मनभावन वैसे ही अध्यात्म में भी हम तलाशते हैं कि कुछ मिल जाए चमकता हुआ हीरा। और जो बात है वो निपट सादी है।

तो उसमें कुछ लगता ही नहीं कि क्या है, सारी चमक-धमक ही हटा दी। सुन्दर, सलोनी गुड़िया तैयार की थी उसका पूरा मेकअप पोंछ दिया, कुछ बचा ही नहीं अब।

सत्य तो ऐसा ही है 'ना कजरे की धार, ना…'। वहाँ नहीं है। इसीलिए अक्सर जिन लोगों से बात करता हूँ वो मुझसे बात करने के बाद थोड़े से निराश होकर के जाते हैं। कहते हैं, 'कुछ मिला ही नहीं, कोई सुंदर कल्पना नहीं मिली, कोई मनोहारी चित्र नहीं मिला, किसी ने बताया ही नहीं कि अरे देखो कान्हा की मुरली पर ध्यान करो और जो चिचोर मोर पंख है वही तुम्हें निर्वाण दिलाएगा। ऐसा यहाँ कुछ मिलता ही नहीं।'

यहाँ तो सीधा-साधा, निपट, सपाट मैदान है। जो बात सामने है वो सामने है। कुछ छुपा हुआ नहीं है, सब ज़ाहिर है। और हमें चाहिए कुछ ऐसा जो ज़रा पर्दे के पीछे हो। पर्दे उठाने में बड़ा मज़ा आता है हमें लगता है हमने कुछ हासिल किया।

मैं कह रहा कुछ है ही नहीं पर्दा। तो ज़रा स्वाद नहीं आता। क्यों भई?

देखिए शब्द शब्द होता है। और शब्द हमेशा सामाजिक होता है। शब्द के अर्थ क्या हैं वो समाज तय करता है। अगर आप शब्दों की उत्पत्ति की जो पूरी प्रक्रिया है, एटिमोलॉजी है उस पर ध्यान देंगे तो आप पाएँगे कि एक ही शब्द का अर्थ कहीं और होता था कुछ, अब कुछ और हो जाता है।

अगर वो कह रहे हैं आत्मज्ञान या आत्मबोध तो उसके वो अर्थ मत लगाइए जो आप सोचते हैं। एक बुद्ध का या एक रमण महर्षि का क्या कहना है ये उनके निकट जाकर ही जाना जा सकता है। बुद्धत्व से यदि आपकी निकटता नहीं है तो आप बुद्ध के शब्दों का अनर्थ ही करेंगे। उनके बारे में कुछ कहना ज़रूरी नहीं है, उनके साथ रहना ज़रूरी है। क्या होगा यदि मैं कुछ कह भी दूँगा। उनका सामीप्य चाहिए, उनका सत्संग चाहिए। और

प्र: वास्तव में जितने भी हम स्पिरिचुअल मास्टर्स (आध्यात्मिक गुरु) की बात करते हैं ये सारे एक प्लेस (जगह) पर नहीं हैं [unclear at 8:33]

आचार्य: क्या फ़र्क पड़ता है वो जो सेम थिंग है वो हमारे लिए सेम थिंग ही रह जाएगी अगर हमारा उससे निजी परिचय नहीं है।

प्र: जब हम उस निजी परिचय की बात करते हैं तो क्या वो रास्ता एक ही नहीं है जहाँ पर ये बात कही गई है?

आचार्य: नहीं, देखिए अगर मैं कहूँगा एक ही है तो उस एक को आप वहीं पर छोड़ नहीं देंगे, आप फिर उस एक की कोई सजीव कल्पना भी कर लेंगे।

प्र: वो कल्पना शायद जगह नहीं है। वो शायद कोई रास्ता या एक्सपीरियंस (अनुभव) है?

आचार्य: वो कोई रास्ता नहीं है, वो कोई एक्सपीरियंस नहीं है। और अगर आप उसमें रास्ते या अनुभव की बात करेंगे तो इनके सबके रास्ते बहुत अलग-अलग थे। इनके सबके अनुभवों में हज़ार तरह की विविधताएँ थी।

तो रास्ते और अनुभव और जीवन और विधियाँ और वचन इनमें आप कभी भी साम्य नहीं पाएँगे। ये तो आपको इतने अलग-अलग दिखायी देंगे कि आप चाहें तो इनके पीछे दल बनाकर के गुट बनाकर के जैसे आज हो रही है वैसे ही मोर्चाबंदी कर सकते हैं।

कैसे आप कहेंगे कि बुद्ध ने जो कहा और रूमी ने जो कहा वो एक है, बड़ा मुश्किल हो जाएगा, बड़ा अंतर दिखायी देगा।

प्र: दोनों ने प्रकाश की बात करी है जहाँ आप नहीं होंगे, जहाँ मैं नहीं होऊँगा, सिर्फ़

आचार्य: बुद्ध ने सिर्फ़ ये कहा है कि "नहीं है," रूमी बार-बार कह रहे, "है ही नहीं, मेरा यार है।"

बुद्ध कहते जा रहे हैं, "नहीं है" उनकी पूरी भाषा निषेध की भाषा है। और रूमी कहते जा रहे हैं, "है भी और साकी है मेरा"। अब कैसे दोनों को आप कहेंगे कि एक बात कह रहे हैं, कैसे कहेंगे?

तो इसीलिए उनकी बात पर ध्यान मत दीजिए, वो बात कहाँ से आ रही है, आप वहाँ पहुँचिए। वो बात कहाँ से आ रही है, आप ख़ुद वहाँ पहुँचिए। तब आपको सब एक दिखायी देंगे। फिर बुद्ध की बात और मीरा का नाच एक सा लगेगा, अन्यथा नहीं लगेगा। अन्यथा आप उसमें अगर कोई ऐक्य ढूँढ भी लेंगे तो वो सतही होगा, थोपा हुआ होगा कि भई सिद्ध करना है कि सब एक ही बात कह रहे हैं तो किसी तरीक़े से सिद्ध कर दो। उसकी जो आंतरिक एकता है आप उससे एक नहीं हो पाएँगे।

देखिए, दुनिया भर की सारी जिज्ञासाओं में से—आपको आश्वस्त कर रहा हूँ—सबसे निरर्थक जिज्ञासा है किसी बुद्ध के बारे में प्रश्न करना। बुद्ध की फजीहत है। लेकिन वो हो नहीं सकती तो फिर वो सवाल ही फजीहत है।

प्र: हम शायद बुद्ध के बारे में सवाल न करें, पर वो जो मार्ग है, जो लाइफस्टाइल (दिनचर्या) है या कोई विचार धारा है। जो हमारे जीवन में परिवर्तन चाहिए वो बुद्ध की जीवनशैली से या ऐसे जो संत हुए हैं उनकी जीवनशैली से क्या कुछ मिल सकता है?

आचार्य: बहुत अलग-अलग हैं, सबकी जीवन शैलियाँ बहुत अलग-अलग हैं। और बुद्ध ने कोई विचारधारा नहीं दी है। बुद्ध ने लगातार यही बोला है कि आपके जितने विचार हैं सब शून्य हैं। सब ऐसे ही हैं, नकली। तो आप कौनसी धारा का अनुगमन करेंगे?

वो तो कह रहे हैं कि धारा जो होती है वो अवसाद की धारा है, दुख की धारा है। बुद्ध बस एक प्रवाह को जानते हैं, दुख के प्रवाह को। तो आप किस धारा के पीछे जाएँगे?

प्र: हर संत के जीवन में एक ट्रिगर प्वाइंट (प्रवर्तक बिंदु) आया है। तो बुद्ध के जीवन में कोई ट्रिगर प्वाइंट क्यों नहीं होना चाहिए?

आचार्य: ना, ना। आप कुछ ऐसा नहीं कह सकते हैं। ये सब हमारी व्यक्तिगत कोशिशें रहती हैं। अव्यक्त को किसी तरीक़े से एक ढाँचे में पकड़ लेने की।

हम ये दावा करना चाहते हैं—और इसमें बात आपकी नहीं है, किताबों ने भी यही किया है, शास्त्रों ने भी यही किया है, बुद्ध के जीवन को प्रस्तुत इसी तरीक़े से किया गया है—हमारी कोशिश यह रहती है कि हम जो मिस्टिक (रहस्यवादी) है उसके जीवन को किसी प्रकार से ढर्राबद्ध कर दें। हम ये कह दें कि हमें कारण पता है बुद्धत्व का या कारण नहीं पता है तो कम-से-कम जैसा आप कह रहे हैं ट्रिगर पता है बुद्धत्व का।

कोई ट्रिगर वग़ैरह कुछ नहीं होता। ये सब ऊपर-ऊपर से लगते हैं। आप ऊपर-ऊपर से देखकर कह सकते हैं कि बुद्ध ने वो चार घटनाएँ देखीं जिसके बाद भीतर कुछ अचानक हिल गया, भीतर से अचानक जैसे कोई विस्फोट हो गया। फिर राजमहल त्याग दिया, जंगल आ गए ईत्यादि।

ये सब बातें सतही हैं। वास्तव में क्या हो रहा है वो हमें कभी नहीं पता लगेगा। आप उसके अंतर्जगत में कैसे प्रवेश करोगे, बिना बुद्ध हुए आप बुद्ध को जानोगे कैसे? आप बाहर से बैठकर के बस अनुमान लगाते रहोगे और वो सारे अनुमान मिथ्या हैं।

पर यह कोशिश हम ख़ूब करते हैं, हम कहते हैं कि हमें अच्छे से पता है कि कृष्णमूर्ति के साथ क्या हुआ था, हमें पता है कि रामकृष्ण को जब काली के दर्शन होते थे तो उनको ऐसे हो जाता था, वैसे हो जाता था।

अरे! हमें क्या पता है, हमें वही तो पता है जो आँखों से दिख रहा है। हमें वही तो पता है जो उनकी देह का दृश्य है, उसके आगे का आपको क्या पता! उसके आगे का पता चलने के लिए, फिर कह रहा हूँ, आपको उनसे निकटता चाहिए।

ऊपर-ऊपर से जो दिखायी देता है उसके आधार पर हम धारणाएँ बना लेते हैं। वो धारणाएँ व्यर्थ हैं, बहुत नुक़सान करती हैं।

प्र: अगर ट्रिगर ही होता तो फिर इतने शताब्दियों में किसी और को भी हो गया होता।

आचार्य: बिलकुल हो गया होता। बुद्ध को जो अनुभव हुए, चलिए हम सब उन्हीं अनुभवों से फिर से गुज़रते हैं और हम देखते हैं कि कितनों को बुद्धत्व प्रकट हो जाता है, चलिए देखें। करिए न।

अगर कारण होते हैं बुद्ध होने के तो उन कारणों से हम भी गुज़र के देख लेते हैं।

प्र: कॉज एंड ईफेक्ट (कारण और परिणाम) पढ़ाया गया है बचपन से। अगर इंडियन माइथोलॉजी (भारतीय पौराणिक कथा) की मानें तो एक सोल और अपने साथ कुछ पूर्वाग्रह साथ लायी है, और हर जीव का एक चीज़ को लेकर के रिएक्शन (प्रतिक्रिया) है। जैसे आपकी ही पुस्तक पढ़ने के बाद अलग-अलग स्टेजेस पर अलग-अलग मीनिंग मिलती है। वही एक एक्ट (क्रिया), एक सोल के ऊपर एक अलग इंप्रेशन (छाप) दे सकती है।

आचार्य: नहीं, देखिए सोल के ऊपर कोई अलग इम्प्रेशन नहीं आ सकता। आत्मा पर आप किसी प्रकार का अलंकार आरोपित नहीं कर सकते।

वो निरंजन होती है। निरंजन समझते हैं? निरंजन मतलब?

प्र: मन।

आचार्य: मन, मन। ठीक है? तो मन का प्रवाह होता है। मन पर तमाम तरह के प्रभाव पड़ते हैं। मन आकार लेता है, मन उठता है, मन गिरता है ये सब होता है। ठीक है, मन है। यही तो जानना है कि मन ही तो है।

आत्मा को अकेला छोड़ दीजिए, उसे अस्पर्शित रहने दीजिए क्योंकि अस्पर्शित रहना ही उसका स्वभाव है। उसको छूने की कोशिश मत करिए। और कोई यदि आपसे कहे कि वो आपको आत्मा तक पहुँचने का मार्ग दिखा देगा तो जो मार्ग वो दिखा रहा हो उसी पर पलट के दौड़ जाइए।

आत्मा तक पहुँचने का कोई मार्ग नहीं होता क्योंकि आत्मा हमारे अर्थों में है नहीं। और जो वो है वहाँ पर कोई मार्ग नहीं होता "साईं की नगरी परम अति सुंदर, जहाँ कोई आवे न जावे"। कोई मार्ग ही नहीं है कोई आएगा-जाएगा कैसे वहाँ?

और यहाँ गुरु लोग बैठे हैं जो कह रहे हैं आओ मार्ग दिखाएँगे। कैसा मार्ग? कहाँ को जाएगा मार्ग? "वहाँ कोई आवे न जावे" कैसे जाओगे? वहाँ कोई आवागमन नहीं है।

प्र२: प्रैक्टिकली जैसे मैंने देखा हर संत ने मेडिटेशन (ध्यान) की बात कही है। हर ग्रंथ में मेडिटेशन की बात हुई है। व्हाट इस मेडिटेशन ईज ऑल अबाउट (यह ध्यान है क्या)?

आचार्य: कुछ भी नहीं है। मेडिटेशन का अर्थ है कि ध्यान सदा सत्य पर है। जब ध्यान सत्य पर होता है तो जो कुछ भी सामने है वो हमेशा सत्य से एक सीढ़ी नीचे का हो जाता है। मज़ेदार बात यह है कि जब सबकुछ सत्य से नीचे का होता है तब सबकुछ स्पष्ट दिखायी देता है।

'ध्यान सत्य पर है' से मतलब क्या है, इसका कोई ख़ास मतलब नहीं है कि सत्य कोई चीज़ है उस पर ध्यान लगाना है। इसका मतलब ये है कि झूठ पर ध्यान नहीं है। इसका मतलब ये है कि असत्य के प्रति कोई निष्ठा नहीं है। ध्यान का इतना ही अर्थ है कि मेरी वफ़ादारी झूठ से नहीं है।

आपको किसी सत्य की तलाश नहीं करनी है। जब मैं कहता हूँ सत्य पर ध्यान रहे और यही मेडिटेशन का अर्थ है। ध्यान का अर्थ है सत्य पर ध्यान। तो उसका इतना ही अर्थ है कि 'झूठ पर ध्यान नहीं', निषेध की बात है, झूठ पर ध्यान नहीं। जब झूठ पर ध्यान नहीं तो सामने जो कुछ है वो बिलकुल सपाट, साफ़-सुथरा, स्पष्ट दिखायी दे जाएगा, यही है और कुछ नहीं।

प्र२: जो स्पष्ट दिखेगा वो है ही नहीं क्योंकि उसका न कोई स्वरूप है न आकार?

आचार्य: जो स्पष्ट दिखेगा वह है क्योंकि हम होना इसी को परिभाषित करते हैं। जब तक मैं हूँ, मैं वो जो इस कुर्सी पर बैठा हूँ, देह रूपी–उसके लिए तो ये सब कुछ है ही। बात यही है कि यह जानना कि क्या है ये सब।

जैसे ही तुम इसको जानते हो कि यह सब क्या है—और इसमें भी कोई बहुत गोपनीय बात नहीं है। कि क्या है यह सब, पता ही है, अनुभव ही हो रहा है। यदि इन किताबों को देखकर के मन में दहशत उठती है तो ये सब क्या है, डर है और क्या है! यही तो बस स्वीकार करना है। यह नहीं करना है कि यहाँ आते हो और यहाँ बड़े-बड़े ग्रंथ रखे हैं इनको देखकर के मन हो तो संकुचित जाता है लेकिन कहते हो कि "वाह! प्रणाम।"

यही है ध्यान कि सच्चा रहूँगा और नहीं है कुछ ध्यान। ध्यान का अर्थ यह नहीं है कि बैठ गए हो आँख बंद करके कि माला जप रहे हो या आसन मार लिया है, वो सब ध्यान थोड़े ही होता है!

ध्यान वो है जिसमें निरंतरता हो, जो लगातार तुम्हारे साथ रह सके, तुम ध्यान में जी सको, खा सको, पी सको, दौड़ सको। तो जो कुछ भी चल रहा है वहाँ सच्चाई का साथ न छोड़ना, यही ध्यान है और कुछ नहीं है ध्यान।

प्र२: कबीर साहब ने जैसे अनुराग सागर में स्टेजेस बतायी है कि मेडिटेशन के अंदर एक सोल की प्रोग्रेस इस तरीक़े से होती है।

आचार्य: मन की।

प्र२: मन की?

आचार्य: हाँ, मन की।

प्र२: एक लेवल के बाद, वो कहते हैं मन और आत्मा का साथ छूट जाता है। और आत्मा फ्री मूवमेंट करती है।

आचार्य: देखिए, ये सारी बातें समझाने के लिए कही जाती हैं और इस पर निर्भर करता है कि किससे कही जा रही हैं। अनुराग सागर एक संवाद है, अनुराग सागर में सामने एक व्यक्ति बैठा हुआ है उससे ये सब बातें कही जा रही हैं। उसकी मनोस्थिति को ध्यान रखते हुए कही जाती हैं ये सब बातें।

आप यदि कबीर साहित्य पढ़ेंगे तो उसमें तो आपको परस्पर विरोधाभासी हज़ार बातें मिलेंगी। इसीलिए बातों को जिसने पकड़ा वो बातों तक ही रह जाएगा। कबीर तक जाना होता है, कबीर की बातों तक नहीं।

कभी एक बात बोलते हैं और उसी बात का ठीक विपरीत बोलते हैं। कभी एक तरफ़ तो यह कहते हैं कि भय मृत्यु समान है दूसरी ओर यह भी कहते हैं कि "निर्भय होए न कोय, भय पारस है जीव को" कि भय के अलावा तुम्हारा कोई इलाज़ नहीं है, ये भी बोलते हैं।

श्रोता: हर बात एक अलग कांटेक्स्ट में है।

आचार्य: तो कबीर तक जाइए।

प्र२: तो उसका क्या रास्ता है, क्या लाइफस्टाइल है?

आचार्य: कोई रास्ता नहीं है। आप कबीर हैं ही। सारे रास्तों को जब आप व्यर्थ जान लेते हैं तो अचानक दिखायी देता है कबीर ही तो हैं।

कबीर कहीं जा रहे हैं क्या? कबीर कबीर होने का रास्ता खोज रहे हैं क्या? क्या कबीर कबीर बनने का रास्ता खोज रहे हैं?

कबीर कौन है? जो कबीर है ही। आप कबीर होने का रास्ता खोज रहे हैं। कबीर कबीर होने का रास्ता नहीं खोज रहे हैं। आप कभी कबीर हो पाएँगे? यहीं पर तो अंतर आ गया न, कबीर कबीर होने का रास्ता खोज रहे हैं? नहीं। आप कबीर होने का रास्ता खोज रहे हैं। तो क्या आप और कबीर एक हुए? अलग-अलग हो गए।

प्र२: अभी जो पाथ की बात कर रहे थे, एक कॉमन पाथ जो हर मिस्टिक में रहता है। हर स्पिरिचुअल मास्टर ने आत्मबोध का एक प्रोसेस अडॉप्ट (प्रक्रिया अपनाना) किया है, एक प्रयास किया है। यह एक सिमिलरिटी (समानता) तो हम सब में देखेंगे, सारे में रहता है।

आचार्य: नहीं, प्रयास सबने नहीं किया है। बहुत आपको उदाहरण मिल जाएँगे जिनको बैठे-बैठे हुआ या जिनको कहा जाता है कि वो पैदा ही बोधयुक्त हुए थे। तो ऐसा नहीं है कि सबने प्रयास किया।

मुझे ज़रा बताइए कि कृष्ण ने कौनसी तपस्या की थी। किस ग्रंथ में आपने पढ़ा है कि कृष्ण गये थे पहाड़ की चोटी पर साधना करने? क्या प्रयास था?

प्र२: शायद चोटी पर नहीं गये होंगे जो आखि़री वक़्त बताया जाता है कृष्ण का कि वह ध्यान में थे।

आचार्य: अगर वो आख़िरी वक़्त था तो गीता उससे पहले आ गई अर्थात् गीता उनके ध्यान से पूर्व की है। फिर तो गीता का कोई मोल नहीं रहा। गीता है महाभारत के मैदान की और कृष्ण की तपस्या यदि आख़िरी वक़्त की है तो फिर गीता का क्या महत्व रह गया?

प्र२: तपस्या शायद वन शार्ट स्टेज (एक ही बार में होने वाला) नहीं है कि आप आज से तपस्या में चलेंगे।

आचार्य: तपस्या कुछ है ही नहीं। तपस्या का अर्थ इतना ही है कि जब सच्चाई के साथ रहते हो तो सच्चाई का ताप सारे झूठों को जलाता जाता है। यही तपस्या है।

तपस्या कोई क्रिया नहीं है कि साहब अभी तपस्या कर रहे हैं। अभी क्या कर रहे थे, अभी थोड़ी देर पहले नहा रहे थे। अब क्या कर रहे, तपस्या कर रहे हैं। तपस्या कोई दैनिक गतिविधि का हिस्सा थोड़ी है कि बीच-बीच में तपस्या कर लिया करते हैं। क्या हो रहा था आज? 'ज़रा पेट भारी था तो तपस्या करने चले गए।'

तपस्या सत्य की निरंतरता है। सच्चाई के साथ जब लगातार हो तो उसका ताप, तप झूठ को जलाता रहता है, यही तपस्या है। बीच-बीच में नहीं होती है तपस्या, जीवन में एक बार नहीं होती है तपस्या, हर साँस के साथ होती है तपस्या।

प्र२: फ्रॉम योर जर्नी जो कमर्शियल एंगल से आपने स्पिरिचुअल टर्न लिया, आपके जीवन यात्रा से उदाहरण लेते हुए आपने जो व्यवसायिक क्षेत्र से आध्यात्मिक क्षेत्र की ओर रुख़ किया, क्या यह तपस्या नहीं है?

आचार्य: देखिए न कुछ कमर्शियल है न कुछ स्पिरिचुअल है। ये सब जीवन के हिस्से हैं जो वास्तव में अविभाज्य हैं। आपको क्यों लग रहा है कि अभी जो कुछ है उसमें कुछ भी कमर्शियल नहीं है, व्यवसायिक नहीं है।

आप ये किताबें रखी हैं क्या इनका दाम नहीं चुकाते? तो और तब आपको ऐसा क्यों लग रहा है कि कुछ आध्यात्मिक नहीं था।

प्र२: प्रायोरिटीज की बात है?

आचार्य: नहीं, प्रायोरिटीज की बात नहीं है, सब‌ एक हैं। बात बस इतनी सी है कि जब आप तने को देखते हैं तो फूल का अंदाज़ा नहीं होता, लेकिन वो सब एक हैं। और जब कहीं जड़ दिख जाए—कई बार होता है जड़ सतह से ऊपर आ जाती है ज़रा—जड़ दिख जाए तो कौन जड़ को देखकर कह पाएगा कि यह गुलाब का फूल है। समय धोखा दे देता है न, स्थान धोखा दे देता है न।

प्र२: तो इंपॉर्टेंट (महत्वपूर्ण) यह है कि हमें जो ब्रेक अप्लाई (अवरोध लगाना) करने हैं वह कौन से स्टेज (स्थिति) पर करने हैं?

आचार्य: हर स्टेज पर। जब तक कोई स्टेज है—स्टेज मतलब स्थिति—जब तक कोई स्थिति है उस स्थिति को जानते रहिए। और वो जानना कभी रुक नहीं जाता। कभी कोई आख़िरी पड़ाव नहीं आ जाता है।

मुझे यदि तब जानना था तो मुझे अब भी जानना है। मुझे यदि तब जानना था तो अब भी जानना है और कोई विशेष घटना नहीं घट गई है बीच में।

मैंने पहले भी कहा और फिर कह रहा हूँ जहाँ तक मेरे व्यक्तिगत जीवन की बात है उसमें कोई ख़ास मुकाम कभी नहीं आया। एक साधारण जीवन रहा है। मैं न आज दावा कर रहा हूँ, न कभी आगे कहने वाला हूँ कि मुझे किसी विशेष क्षण में बोध प्राप्त हो गया था। कभी न ऐसा मेरे साथ हुआ है न आगे किसी के साथ होगा।

एक निरंतरता रही है। हाँ, उसमें कभी कुछ प्रकट रहता है कभी कुछ अप्रकट रहता है। आज कदाचित ज़्यादा प्रकट है, तब उतना प्रकट नहीं था लेकिन जो आज है वही तब था। सत्य कोई बदलता थोड़े ही है!

प्र२: हमारा उसके साथ रिश्ता, [unclear at 27:05]

आचार्य: बिलकुल। इतना ही और कुछ नहीं है। पेड़ होता है, अभी उसमें यदि फल नहीं आये हैं, आम का वृक्ष है, उसे देखकर कौन कह पाएगा कि इतनी मिठास है इसमें। फल नहीं लगा है अभी, पत्तियाँ हैं, कौन देखेगा और कहेगा कि इस झाड़ में इतनी मिठास और इतनी सुन्दरता होगी, कह पाएँगे क्या? बात सिर्फ़ प्रकट होने की है। प्रकट होना तो वक़्त की बात है, वक़्त-वक़्त की बात है, कुछ उसमें विशेष नहीं है।

प्र२: सुनते ही यही आये हैं न कि जो संबोधि का क्षण है।

आचार्य: नहीं, कोई संबोधि का क्षण नहीं होता है और जिन्होंने यह दावा करा है कि उनको कोई ऐसा विशेष संबोधि का, ज्ञान का, अवतरण का क्षण उपलब्ध हुआ उन्होंने किसी विशेष संदर्भ में बोला है।

वो सब बोला भी इसीलिए जाता है ताकि सुनने वालों की मदद हो सके। मैं मदद करने के लिए अपरिहार्य यही समझता हूँ कि आपको सीधे-सीधे यही बोल दूँ कि वैसा कुछ होता ही नहीं है, क्यों धोखे में रहते हो। और उसकी तलाश में बहुत लोगों ने पूरा-पूरा जीवन बिता दिया है कि मुझे वो विशिष्ट क्षण क्यों नहीं उपलब्ध हो रहा है, वो मेरा साक्षात्कार क्यों नहीं हो रहा, कब होगा ब्रह्म दर्शन।

जब ब्रह्म कुछ है ही नहीं तो दर्शन तुम्हें किसका होगा!

प्र२: विधियों में भी फँसाया हुआ है लोगों को कि ईतना हो जाएगा, इतने नाम हो जाएँगे तो

आचार्य: कृष्णा जी, चमत्कार यह है कि वो विधियाँ कई बार सफल भी हो जाती हैं।

श्रोता: आदमी अगर पचास साल बाद महसूस करे कि मैं बेवकूफ़ बन गया तो उसकी हिम्मत नहीं होती बताने की।

आचार्य: अरे, पचास साल बाद कईं ऐसे होते हैं जिन्हें लगता है कि वो अक्लमंद हो गए। अगर कोई मान ही ले कि बेवकूफ बन गया तब तो अभी उसमें कुछ बाक़ी है।

ऋषिकेश में इस साल काफ़ी वक़्त गुज़ारा, वहाँ कईं थे जिन्हें हो गया था, उन्हें ब्रह्म दर्शन होता रहता था बीच-बीच में। मैं पूछता था कि फिर यहाँ कैसे पधारे आप? कहते थे नहीं वो होता है फिर गायब हो जाता है। तो मैं पूछता था ये ब्रह्म कौनसा है जो गायब होता रहता है। हमने तो ये जाना था कि ब्रह्म वो जिसमें नित्यता हो, जो न आता है न जा सकता है। यह कौनसा सत्य है जो बीच-बीच में विलुप्त होता रहता है।

मन में होता है कि कुछ उठता है, कुछ गिरता है। ये सब तो माया का काम है आना-जाना। ब्रह्म थोड़े आने-जाने का काम करता है।

पर उनका यह था, 'नहीं, देखिए हमें यह तो पता है हमने पकड़ लिया था एक बार, पर छूट गया। अब बच्चू को दोबारा कैसे पकड़े।' अब कैसे बताये कि कैसे पकड़े?

तो फिर बड़े निराश होकर जाते थे या कई बार तो कुपित होकर जाते थे कि ये या तो जानता है तो बता नहीं रहा, रसगुल्ला अपने ही दबाये रखना चाहता है या फिर ये जानता ही नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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