प्रश्न: आचार्य जी, आत्मा ही परमानन्द स्वरूप हैं, यदि आत्मा न हो तो शरीर से कौन प्रेम करेगा?
आचार्य प्रशांत: श्लोक कहता है कि अगर आत्मा न हो तो शरीर से कौन प्रेम करेगा? शरीर की बात नहीं है, तुम्हे जब भी प्रेम का अनुभव होगा, वो आत्मा से और आत्मा के प्रति ही होगा; आत्मा के अभाव में प्रेम हो नहीं सकता।
जो उन्होंने उदहारण दिया है कि आत्मा के अभाव मे शरीर से कौन प्रेम करेगा? वो ये कहना चाहते है कि जब तक प्राण है शरीर में तभी तक उससे प्रेम रहता है, जिस शरीर में प्राण नहीं बचे उससे प्रेम नहीं रहता है। प्राण को आत्मा की संज्ञा दी है, जो कि एक सीमा तक ठीक भी है, लेकिन बात को उसकी पूर्णता में देखना जरूरी है। आत्मा का अर्थ है – तुम्हारा सत्य, आत्म! तुम्हारा सत्य। तुम अपने आपको मान के कुछ और बैठे रहते हो।उस, कुछ और मानने में, जो तुम हो नहीं, खीज है, बेचैनी है, अड़चन है, मिसमैच है, स्वभाव के विरुध्द जाना है। ऐसे मे जब भी कभी कुछ ऐसा तुम्हारे संपर्क मे आता है जो तुम्हें तुम्हारे सत्य की याद दिलाता है, तुम उसकी तरफ खिंचोगे ही खिंचोगे – यही प्रेम है।
स्वास्थ्य की तरफ जाना, यही प्रेम है, और स्वास्थ्य है आत्मा।
कैसे जानें कि प्रेम है या महज आकर्षण?
सत्य बदलता नहीं है, आता जाता नहीं है। जब भी कभी किधर को खिंच रहे हो, तो अपने आप को देखना कि जिधर को जा रहे हो वहाँ क्या बदलने की कुछ संभावना है। अगर है तो महज आकर्षण है। और अगर किसी ऐसी दिशा मे जा रहे हो जहाँ जितना आगे बड़ो बात उतनी अपरिवर्तनीय होती जा रही है तब जानना कि प्रेम है। जहाँ बदलाव की गुंजाइश हो वहाँ मोल, लगाव, आकर्षण ये सब तो हो सकता है, प्रेम नहीं हो सकता।
प्रेम सिर्फ सत्य का सत्य के प्रति, सिर्फ आत्मा का आत्मा के प्रति ही हो सकता है। असली और असली के संबंध का नाम है प्रेम।
तो जाहिर ही है कि प्रेम सर्वप्रथम तुम्हारा तुमसे संबंध है क्योंकि दो असली तो हो नहीं सकते, असली तो एक ही होगा। अगर असली और असली, आत्मा और आत्मा के संबंध का नाम प्रेम है, तो इसका अर्थ यह है कि प्रेम पूरे तरीके से एक आत्मिक घटना है, इसका वास्तव मे किसी दूसरे से कोई लेना देना नहीं है। इसको ऐसे भी कह सकते हो कि आत्मा अपने ही प्रकाश मे जब स्वयं को देखती है तो उसकी विमुग्धता का नाम है प्रेम। आत्मा का अपने ही प्रकाश मे स्वयं को देखना और मुग्ध रह जाना, यही प्रेम है।
सत्य को देखो उसके अतिरिक्त तो और कुछ है नहीं जिसे देखा जा सके ना? और अगर सत्य के अतिरिक्त कुछ और दिखाई दे रहा है तो उससे आसक्ति तो हो सकती है प्रेम नहीं हो सकता।
प्रश्न: एक बात आपने ही कही कि प्रेम के लिये दो का होना, यहाँ पर भी ऐसा आया सत्य, सत्य को कैसे देखे? सत्य वाली बात इसमें भी आ रही है देखने के लिए दो होना पड़ेगा सत्य, सत्य फिर दो सत्य थोड़ी है?
आचार्य जी: सत्य दो ही नहीं है, सत्य असंख्य है। सत्य असंख्य है, अंतर समझना। असंख्य सत्य नहीं है, पर सत्य असंख्य है। बहुत सारे सत्यनहीं होते लेकिन सत्य बहुत हैं। ये जो बहुत बहुत बहुत बहुत हैंं, जब ये अपना असली स्वरूप जानते हैं तो इनके आपस मे जो संबंध होते हैं उनका नाम होता है प्रेम। एक अंश जो स्वयं को पूर्ण जान चुका है, अपने केंद्र पर स्थित हो चुका है, स्वास्थ्य को प्राप्त हो चुका है, उसका जो संपूर्ण जगत से नाता होता है उसका नाम होता है प्रेम।
और याद रखना जब तुम अपने केंद्र पर स्थित होते हो, स्वस्थ होते हो तो दुनिया भी स्वस्थ होती है, क्योंकि दुनिया और कुछ नहीं तुम्हारा प्रतिबिंब है। तो, आत्मा का आत्मा से संबंध, इसी का नाम है प्रेम। और, आत्मा का आत्मा से और कोई संबंध होता नहीं, प्रेम के अतिरिक्त। और, प्रेम आत्मा और आत्मा के संबंध के अतिरिक्त कुछ हो नहीं सकता। मन का मन से संबंध प्रेम नहीं, शरीर का शरीर से संबंध प्रेम नहीं, और कोई भी संबंध प्रेम नहीं। इसका अर्थ ये है कि अगर प्रेम की अभीप्सा उठती है मन में तो इतना निश्चय जान लीजिए कि बिना आत्म बोध के वो आपको नहीं मिलेगा।
आपको बड़ा भ्रम है अगर आप सोचते है कि आप बिना स्वयं को जाने, सत्य को जाने, बिना पूरे तरीक़े से जाग्रत हुए प्रेमी हो सकते हैं। आप प्रेम को छू भी नहीं पाएँगे, आपकी जिंदगी बीत जाएगी और अधिकांश मानवता ऐसे ही जीती है। सत्तर साल, अस्सी साल, सौ साल के होकर मर जाते है, प्रेम का एक पल उन्हें नसीब नहीं हुआ होता है। हालांकि आप उनसें पूछेंगे तो वो आपसे कहेंगे कि हाँ हाँ बड़ा सुखद, स्वस्थ, सामान्य जीवन है मेरा! मेंने प्रेम किया है, मेंने प्रेम पाया है। पर उन्हें कुछ मिला नहीं होता।
आत्मबोध के अभाव में, आत्मा के अभाव में प्रेम संभव नहीं है। और ये एक अच्छी खासी सज़ा है। जो आदमी अज्ञान से चिपटा रहे, अज्ञान के समर्थन मे खड़ा रहे, उसकी सज़ा ही यही है कि उसका जीवन प्रेम से खाली रहेगा आखिरी दम तक। उसके जीवन में ऊब रहेगी, बेचैनी रहेगी, चिढ़ रहेगी, इर्ष्या रहेगी, हिंसा रहेगी। उन सबको वो जानेगा, आसक्ति भी रह सकती है, मोह भी रह सकता है, वासना भी रह सकती है, प्रेम नहीं रहेगा। हाँ, वो वासना को, और आसक्ति को, और आकषर्ण को, प्रेम का नाम देता रहे तो दे सकता है। जिंदगी अपनी वो पूरी चाहे तो भ्रम में बिता सकता है, लेकिन प्रेम उसे कभी पता नहीं चलेगा।
प्रेम बूढों के लिये नहीं होता है, बेहोशी में कोई प्रेम नहीं होता है। तो, दोनों बाते है – पहली, जिसनें आत्मा को नहीं जाना, उसका मन और जीवन प्रेम से सदा शून्य रहेगा, खाली! और दूसरी बात, जिसने आत्मा को जान लिया अब उसके जीवन से सिर्फ प्रेम की ही धार बहेगी, उसके एक-एक संबंध में प्रेम छलकेगा, प्रेम के अतिरिक्त अब वो और कुछ हो नहीं सकता, बाँट नहीं सकता – ये भी एक र्निविकल्पता ही है। आप चाहें तो भी अब आप हिंसक नहीं हो सकते। हिंसक होने का अभिनय कर सकते है, पर वो अभिनय भी आप प्रेम के कारण ही कर रहे हैं।