प्रश्नकर्ता: नमस्कार सर! यह आत्मा क्या है? आप क्यों कहते हैं कि आत्मा ना आती है, ना जाती है, ना देखती है, ना सुनती है?
आचार्य प्रशांत: वैसे तो वर्तमान में आत्मा के बहुत सारे अर्थ प्रचलित हो गए हैं, पर आत्मा का असली, मौलिक अर्थ क्या है, यह उन्हीं से पूछ लेते हैं जिन्होंने हमें आत्मा शब्द दिया — ‘आत्मा’ शब्द आता है वेदों से, ख़ासकर उपनिषदों से। तो उपनिषदों के ऋषियों ने क्यों करी आत्मा की बात? हममें से किसी के भी जीवन में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति कौन होता है? आपसे कहा जाए कि आपके जीवन में सबसे महत्वपूर्ण कौन है या क्या है, तो आप किसी व्यक्ति का नाम लेंगे, किसी चीज़ का नाम लेंगे, लेकिन थोड़ा और गहराई से देखेंगे तो पता चलेगा कि जो इंसान है या जो चीज़ आपके लिए महत्वपूर्ण है, कीमती है, वह आप ही के लिए तो महत्वपूर्ण और कीमती है न। तो वह चीज़ भी कीमत रखती है तब तक जब तक वह आपके लिए कीमती हो, तो सबसे ज़्यादा कीमती तो किसी के लिए भी वो व्यक्ति स्वयं ही हुआ न।
आप यह भी कह सकते हो कि नहीं आपको किसी से बहुत लगाव है, प्रेम है और वह व्यक्ति आपके लिए बहुत कीमती है। पर वह व्यक्ति भी कीमती है क्योंकि आप उसकी कद्र करते हो, है न? ‘आपके लिए’ कीमती है, तो सबसे महत्वपूर्ण किसी के लिए भी वह व्यक्ति स्वयं ही हुआ, ‘आत्म’, ‘मैं’। तो ऋषियों ने कहा कि ‘मैं’ है क्या पता तो करें। खोजी किस्म के आदमी थे, जिज्ञासु तबियत थी उनकी, तो पता करने लगे कि यह ‘मैं’ क्या चीज़ है, ‘मैं हूँ कौन?’ अपने बारे में जानना था उनको।
असल में उन्हें सब के बारे में जानना था, पर जैसा अभी हम कह रहे थे सब के बारे में जानने की इच्छा भी तो इस ‘मैं’ को ही उठ रही है न, तो सब के बारे में भी अगर जानना है तो सबसे पहले ‘मैं’ के बारे में, स्वयं के बारे में जानना पड़ेगा। तो उन्होंने कहा, “मैं हूँ कौन?” वो अपने-आपको जानने निकले तो जितना देखें अपने शरीर को और मन को, उतना पता चले कि इसमें तो जो कुछ है उसके साथ पहचान जोड़ी नहीं जा सकती क्योंकि वह तो बदल रहा है, आज है कल नहीं है। इतना ही नहीं, जैसा अभी दिख रहा है वैसा भी ज़रूरी नहीं है कि वह हो क्योंकि देखने वाले भी तो हम ही हैं, अगर हम ही बदल रहे हैं और अपने ही माध्यम से हमने खुद को देखा है तो हमने जो कुछ भी हो, जैसा भी देखा खुद को, उसमें भी कितनी सच्चाई है। तो यह वह देखते गए और देखने का नतीजा यह निकला कि जो कुछ भी वह अपने-आपको समझते थे, उसको काटते गए। ऐसा तो उन्हें कुछ पता चला नहीं कि ‘मैं कौन हूँ’, कि भीतर कोई असली पहचान छुपी बैठी हो, भीतर कोई असली ‘मैं’ मिल गया हो। भीतर कुछ असली इत्यादि तो नहीं मिला लेकिन जो कुछ भी एक इंसान अपने-आपको आमतौर पर समझता है, उससे वो मुक्त होते गए। समझ रहे हो?
“मैं क्या अपनी उम्र हूँ? नहीं, ये चीज़ तो बदल रही है। मैं क्या अपनी जाति हूँ? नहीं, इसका तो शरीर से ताल्लुक है, शरीर भी बदलता रहता है। मैं क्या मेरी विचारधारा हूँ? नहीं, वह तो दूसरों से प्रभावित है; एक विचार जो आज सही लगता है, कल ग़लत हो जाता है। मैं क्या मेरी भावनाएँ हूँ? ना, ना, ना! भावनाओं का क्या, वो तो सूचनाओं पर आधारित हैं, सूचना ही इंद्रियों से भीतर आती है और इंद्रियाँ तो बहुत सीमित होती हैं।”
तो जितनी उन्होंने अपनी खोजबीन की, उतना वह अपने बारे में जो झूठ पकड़े बैठे थे, उस झूठ से मुक्त होते गए। अंततः उन्होंने कहा कि मैं वह हूँ जो प्रकृति से बिलकुल अलग है। प्रकृति माने वह सब कुछ जो आपको बाहर दिखाई देता है। ऋषियों की भाषा में प्रकृति माने जंगल, पहाड़, नदी, यही नहीं होता; प्रकृति माने वह सब कुछ जो आपको दिखाई-सुनाई देता है, वह सब कुछ जिसको आप कल्पना में देख सकते हैं, जिसकी आप बात कर सकते हैं, वो सब प्रकृति है। जिसको कभी देखा ना जा सके बस जिसकी कल्पना भी की जा सके, वह भी प्रकृति है।
तो अंततः उन ऋषियों ने कहा कि प्रकृति नहीं हूँ मैं, इतनी बात समझ में आ गई। माने कि मैं ऐसा तो कुछ भी नहीं हूँ जिसे देखा जा सके, जिसे सुना जा सके, जिसे छुआ जा सके, जिसकी सीमा पर पहुँचा जा सके, जिसे हाथ में लिया जा सके, जिसके सामने खड़ा हुआ जा सके, जिसे कभी पाया जा सके, जिसे कभी गँवाया जा सके। तो प्रकृति नहीं हूँ, प्रकृति से परे हूँ मैं, ऐसा कहते हैं उपनिषदों के श्लोक। फिर अपने बारे में कहा कि ‘बोधो अहम्’, कभी कहा कि ‘पूर्णों अहम्’, फिर कहा ‘शून्यों अहम्।’
बोध मात्र हूँ मैं, और बोध का मतलब क्या है? सब सूचनाओं के पार जो जानना है, माने सूचनाओं से मुक्ति, सीधी सी बात। सूचना से मुक्त हैं इसलिए बिलकुल खाली हैं। जो सूचना से मुक्त है, जो बिलकुल खाली है उसके भीतर बहुत जगह खुल जाती है, जैसे एक अनंत आकाश खुल जाता है समझने के लिए, उसे बोध कहते हैं। जिसके दिमाग में पूर्वाग्रह नहीं है, पहले से बैठे हुए मत-मतांतर नहीं है, उसके दिमाग में फिर बहुत सारी जगह होती है। मन अगर भरा हुआ है दूसरी चीज़ों से तो भरा है, उसमें और क्या-क्या समाएगा? पर जब मन में कुछ नहीं होता तो मन अनंत हो जाता है, तो ऋषियों ने कहा, “बोधो अहम्”। इसी तरह उन्होंने कहा, “शून्यों अहम्”, ‘शून्यों अहम्’ से मतलब था उनका कि मैं अपने बारे में जितने झूठ जानता था, जब उनसे मुक्त हो गया, माने वह झूठ जब शून्य हो गए, तो मैं हूँ। ऐसे ही कहा "पूर्णों अहम्", ‘पूर्णों अहम्’ माने जितनी भी चीज़ें मेरे बारे में सीमित थीं, छोटी थी बिलकुल लघु, क्षुद्र उनसे जब आज़ाद हो गया मैं, उनके साथ नाम पहचान जोड़ने से, उनके साथ आकर्षण से, मोह से, हर चीज़ जो छोटी है, हर चीज़ जो बिलकुल पकड़ने लायक नहीं है, हर चीज़ जो मेरे सामर्थ्य और मेरी हैसियत, मेरे रुतबे के काबिल नहीं है, उससे मुक्त हो गया मैं, तो फिर जो बच रहा है वह मैं हूँ। तो यह आत्मा है।
इसी बात को आगे बढ़ाकर के उन्होंने यह भी फिर पूछा कि यह दुनिया क्या है, लेकिन पहले तो यही पूछा कि मैं कौन हूँ। पूछा, “मैं कौन हूँ? यह दुनिया क्या है?” यह दोनों सवाल बिलकुल साथ-साथ चले। इन दोनों सवालों में यह सवाल पहले क्यों है कि ‘मैं कौन हूँ’, क्योंकि ‘दुनिया क्या है' यह भी पूछने वाला कौन है? मैं ही हूँ।
तो उपनिषदों के ऋषि इन दो प्रमुख सवालों पर लगातार विचार कर रहे थे और यही दोनों सवाल पूरे वेदांत की विषय-वस्तु हैं। कोई आपसे पूछे कि वेद बिलकुल हृदय से किस विषय का प्रतिपादन करते हैं? माने कि वेद क्या बात करते हैं? तो आप कहिएगा कि बाहर-बाहर तो वेद बात करते हैं मंत्रों की, देवी-देवताओं के पूजन की, संहिताएँ हैं उसमें, किस तरीके से पूजा करनी है, यज्ञ करना है, ये सब बाहर-बाहर की बातें हैं। बिलकुल अपने केंद्र पर वेद क्या बात करते हैं? अपने केंद्र पर वेद यही दो सवाल पूछते हैं – ‘मैं कौन हूँ?’ और ‘यह जगत क्या है?’ ‘यह जगत क्या है?’ जब पूछा ऋषियों ने, तो वहाँ भी उन्होंने वही प्रक्रिया अपनाई जानने के लिए जो उन्होंने ख़ुद को जानने के लिए अपनाई थी। जो कुछ दिखाई देता है उसमें जो कुछ झूठ था, उसको काटते चले, अस्वीकारते चले। अंतत: उन्होंने कहा कि यह बाहर जितनी अलग-अलग चीज़ें दिखाई देती हैं, यह सब तो क्षणिक हैं, इनका कोई भरोसा नहीं। बाहरी जगत की एक ही सच्चाई है और उस एक सच्चाई को उन्होंने नाम दिया – ‘ब्रह्म’। और फिर उन्होंने कहा कि जो बाहरी जगत की सच्चाई है और यह मेरे आंतरिक जगत की सच्चाई है, यह दोनों एक हैं। तो उन्होंने कहा है, “अयं आत्मा ब्रह्म”, यह जो आत्मा है यही ब्रह्म है। यह सब उपनिषदों के महावाक्य हैं, जिनकी आपसे मैं बात कर रहा हूँ।
यह महावाक्य ही अगर आप बिलकुल ठीक से समझ लें, तो समझ लीजिए कि वेदों का निचोड़ पी लिया आपने। फिर जो हम अपने-आपको समझ रहे थे ‘अहम’, वह तो हो गया नष्ट। वो जो अहम् था वह वास्तव में निकला आत्मा, अहम् अपने-आपको पता नहीं क्या-क्या समझे बैठा था, मैं यह हूँ, स्त्री हूँ, पुरुष हूँ, छोटा हूँ, बड़ा हूँ, अमीर हूँ, गरीब हूँ, अहम् यह सब सोचता था अपने-आपको, वह सारी धारणाएँ तो हो गई नष्ट। अहम् निकला आत्मा और आत्मा बराबर निकली ब्रह्म के, तो फिर वहाँ से अगला महावाक्य आ गया कि “अहम् ब्रह्मास्मि”। अहम् किसके बराबर निकला? अहम् अगर शुद्ध है तो आत्मा है और आत्मा तो ब्रह्म ही है, तो फिर कह दिया गया, “अहम् ब्रह्मास्मि"।
पर यह बात सिर्फ़ उस अवस्था में लागू होती है जब अहम् शुद्ध है, अन्यथा यह बात लागू नहीं होती। तो यह है आत्मा की विशुद्ध विवेचना, कि व्यक्ति के भीतर का, व्यक्ति के बाहर का, ब्रह्म का, ब्रह्मांड का, और जीव का जो एकमात्र सत्य है उसका नाम है आत्मा। वो जो एकमात्र सत्य है उसके विषय में क्या कहते हैं उपनिषद? उसके बारे में कहते हैं कि वह इंद्रियों से तो बिलकुल ही परे है क्योंकि इंद्रियों से तो क्या दिखाई देती है? प्रकृति, और आत्मा है प्रकृति से परे तो माने आत्मा इस दुनिया की कोई चीज़ नहीं हो सकती, माने सीधी सी बात समझ लो – आत्मा दुनिया में नहीं हो सकती, माने आत्मा एक जगह से दूसरी जा नहीं सकती क्योंकि यह जितनी जगह हैं यह कहाँ हैं? सब दुनिया में हैं। जब जगहें दुनिया में हैं और आत्मा प्रकृति से परे है, तो आत्मा ऐसा नहीं कर सकती कि एक घर से निकल कर दूसरे घर चली गई। दूसरी बात, आत्मा अनंत है क्योंकि ये जो जीव है और जो ब्रह्मांड है, इसमें जो कुछ है वह स-अंत है। ‘स-अंत’ माने उसका अंत है तो उसे बोलते हैं – ‘सांत'।
दुनिया में जो कुछ भी है उसका अंत है, उसकी सीमा है और आत्मा अनंत है। जो अनंत है वह तो इतना बड़ा हुआ न कि उसके अलावा कुछ होगा ही नहीं। अगर कुछ अनंत है तो उसको बड़ा कहना भी छोटी बात हो गई। कुछ अगर बड़ा है तो उसके बगल में कम-से-कम छोटी चीज़ तो रखी जा सकती है, पर अगर कुछ अनंत है तो उसकी तो कोई अगल-बगल होती ही नहीं। उसके तो कुछ भी कहीं रखा नहीं जा सकता तो माने आत्मा के अतिरिक्त और कुछ होता नहीं है। और आत्मा का कोई आकार नहीं होता और अगर आकार की बात करनी ही है, बहुत मन कर रहा है तुम्हारा तो समझ लो आत्मा अनंत है। उसका आकार कितना है? अनंत, सीमाहीन।
तो माने आत्मा कहीं प्रवेश नहीं कर सकती क्योंकि अगर किसी चीज़ को कहीं प्रवेश करना है तो उसे अपने से एक बड़ी चीज़ चाहिए। तुम्हें अगर किसी कमरे में घुसना है तो क्या ऐसे कमरे में घुस सकते हो तुमसे छोटा है? नहीं न, ठीक है? तो आत्मा अगर सबसे बड़ी है तो आत्मा कहीं प्रवेश नहीं कर सकती तो माने हमें इस तरह की भ्राँति से मुक्त होना पड़ेगा कि आत्मा शरीर में प्रवेश कर सकती है। इसी तरीके से आत्मा कहीं आ-जा नहीं सकती। क्यों कहते हैं उपनिषद कि आत्मा ना कुछ देखती है, ना सुनती है, ना कहती है, ना जानती है? क्योंकि कहने-सुनने के लिए कोई दूसरा भी तो चाहिए न। किससे बात करोगे तुम? किससे कहोगे, किससे सुनोगे जब तुम्हारे अलावा कोई दूसरा है ही नहीं?
अभी यूट्यूब पर मुझे एक बड़ा रोचक कमेंट किसी ने भेजा। वो कह रहें हैं कि "आचार्य जी आप जैसे बोलते हैं उससे तो प्रतीत होता है कि आत्मा गूँगी-बहरी है। इतनी ऊँची चीज़ होती है आत्मा, और आप कह रहे हैं कि वो ना बोलती है, ना सुनती है, तो क्या गूँगी-बहरी है, लूली-लँगड़ी है कि कहीं आ-जा नहीं सकती? आत्मा तो खूब इधर-उधर यात्रा भ्रमण करती होगी न?" नहीं भाई! आत्मा को ना बोलना है, ना सुनना है क्योंकि आत्मा के पास कोई है ही नहीं बोलने-सुनने के लिए। दो आत्माएँ ही नहीं होती, बात समझ लो। अनंतता तो एक ही हो सकती है न। तो एक बात इससे तुम और भी समझ लो – भ्राँति से मुक्त हो जाओ कि जब भी कोई ‘आत्माएँ’ शब्द का प्रयोग करे, बहुवचन का इस्तेमाल करे आत्मा को लेकर के तो तुरंत समझ जाना कि अनाड़ी आदमी है। ‘आत्माएँ’ जैसा कुछ नहीं होता। कहीं इस तरह की बात बोली जाती है कि सुनो कि, "बहुत सारी आत्माएँ हैं, हम सब आत्माएँ हैं", तो जान लेना कि यह वह लोग हैं जिनका सनातन धर्म से कोई लेना-देना नहीं। यह वह लोग हैं जिन्होंने या तो वेद-उपनिषद कभी पढ़े नहीं हैं या फिर यह वेदों-उपनिषदों के ख़िलाफ हैं भीतर-ही-भीतर।
आत्माएँ नहीं होतीं, आत्मा मात्र होती है।
श्रीमदभगवतगीता में जीवात्मा शब्द बहुत बार आता है। श्रीमदभगवतगीता पर आपकी संस्था बहुत सारे कोर्स कई बार चला चुकी है, जहाँ पर पूरी गीता की सविस्तार व्याख्या की गई है और वो सब कोर्सेस उपलब्ध भी हैं वेबसाइट पर। आप उनमें अगर जाएँगे तो आपको पता चलेगा कि जीवात्मा पर हमने बहुत विस्तार से खुलकर चर्चा की है। जीवात्मा आत्मा नहीं होती। श्री कृष्ण बहुत साफ़-साफ़ भेद करते हैं आत्मा और जीवात्मा में। जीवात्मा माने वह जिसे जीव आत्मा समझे बैठा है। जीव किसको आत्मा समझता था? अहंकार को, तो जीवात्मा माने अहंकार। जीवात्मा को आप मन कह सकते हैं, अहंकार कह सकते हैं। जीवात्मा आत्मा नहीं होती।
अब आगे बढ़ते हैं, आत्मा को कुछ करना नहीं है, आत्मा को कुछ पाना नहीं है, क्यों भाई? जब भी कभी हम इस तरह की बातें सुनें कि हमारी आत्मा को दु:ख हो रहा है तो समझ लीजिए कि हम कुछ जानते नहीं हैं। या हम ऐसी बात सुनें कि, "भगवान मृतक की आत्मा को शांति दे", तो समझ लीजिए कि ऐसा कहने या लिखने वाले ने आत्मा से कभी कोई संबंध ही नहीं रखा। आत्मा अशांत ही नहीं हो सकती, उसको शांति क्या मिलेगी। मन अशांत होता है, आत्मा नहीं अशांत होती। समझ में आ रही बात?
इसी तरीके से आत्मा चूँकि पूर्ण है, ‘पूर्णो अहम्’ तो आत्मा को कुछ पाना नहीं है, इसीलिए आत्मा कुछ करना नहीं चाहती। आत्मा ना कर्ता है, ना भोक्ता है। उपनिषद बहुत स्पष्टता से और बार-बार, बार-बार बताते हैं। आत्मा ना कर्ता है, ना भोक्ता है, क्यों? क्योंकि आत्मा पूर्ण है। जो पूर्ण है वह क्यों करेगा, कैसे करेगा, किसके लिए करेगा, कहाँ करेगा? सारी जगहें आत्मा के अंदर हैं, आत्मा अनंत है। तो जो भी तुमको जगह दिखाई दे रही है, वह आत्मा से बाहर तो है नहीं। कुछ करने के लिए जगह चाहिए न, कुछ करने के लिए कोई दूसरा चाहिए न, कुछ करने के लिए कोई उपकरण भी चाहिए न। आत्मा के साथ कर्ता-कर्म-करण इनका कोई नाता नहीं जोड़ा जा सकता क्योंकि आत्मा अपने-आपमें पूर्ण है। सत्य एक होता है, पचास नहीं होते। आत्मा के हिस्से नहीं होते, आत्मा को इसीलिए अन-अवयव कहा गया है। उसके कोई हिस्से नहीं होते, उसके कल-पुर्जे नहीं होते। उसे अखंड कहा गया है, उसे तुम तोड़ नहीं सकते; दो आत्माएँ नहीं हो सकती हैं। आत्मा को अतुल्य कहा गया है, आत्मा को अनुपम कहा गया है, आत्मा को अचिंत्य कहा गया है, आत्मा को अकथ्य कहा गया है। उसके बारे में सोचा नहीं जा सकता, उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। आत्मा की कल्पना तक नहीं करी जा सकती और हम आत्मा को लेकर के कितनी कहानियाँ बनाते रहते हैं। आत्मा को अनिकेत कहा गया है, अनिकेत माने आत्मा का कोई घर नहीं होता। घर कैसे होगा, सारे घर आत्मा के अंदर हैं, आत्मा किसी घर में कैसे पहुँच जाएगी? पर हम कहते हैं, “नहीं, आत्मा तो मेरे शरीर के भीतर है।" यहाँ कहा जा रहा है कि आत्मा बड़े-से-बड़े घर में भी नहीं हो सकती, पूरे ब्रह्मांड में भी नहीं हो सकती आत्मा, पर लोगों को ग़ुमान रहता है कि आत्मा उनके शरीर के भीतर है।
यह धर्म में बड़ी भारी भ्राँति आ गई है और अज्ञानी लोगों ने इस भ्राँति को खूब आगे बढ़ाया है। वह इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करते रहे हैं कि ‘मेरी आत्मा’ और ‘आत्मा में दर्द हो रहा है’ और ‘आत्मा बाहर निकल गई’ और ‘आत्मा ऐसी हो रही’, ‘आत्मा पर चोट लग गई’, ‘मैं तुम्हें आत्मा से प्रेम करता हूँ’ या पचासों तरह की बातें जिनका संबंध उन्होंने आत्मा से जोड़ रखा है। नहीं, आत्मा एक परम आदरणीय शब्द है। आत्मा एकमात्र सच्चा शब्द है। आत्मा शब्द का इस्तेमाल हल्के में नहीं करना चाहिए क्योंकि अगर आत्मा नहीं है तो बस अहंकार है और अहंकार देता है दु:ख। तो आत्मा शब्द ही हमें इसलिए दिया गया, आत्मा नामक सत्य से हमारे अहंकार को परिचित ही इसलिए कराया गया ताकि हमें शांति मिल सके। बात समझो, नहीं तो कोई ज़रूरत नहीं थी। हर आदमी अपने-अपने व्यक्तिगत झूठ लेकर के तो घूम ही रहा है न, तुम (एक श्रोता) अपने-आपको कुछ समझते हो, वो (दूसरा श्रोता) अपने-आपको कुछ समझता है, अहम्, अहम्, अहम्, अहम्। सबका अहम् तो चल ही रहा है, ‘मैं ऐसा, मैं वैसा’ इसी को अहम् बोलते हैं। ‘मैं ऐसा, मैं वैसा’, इसको बोलते हैं अहम्। यह सब तो चल ही रहा है और इन सब के साथ चल रहा है दु:ख का ज़बरदस्त खेल। यह खेल ऋषियों को पसंद नहीं आया, करुणा बहुत थी उनमें, उन्होंने कहा हर आदमी दुखी है और उन्होंने जितनी जाँच पड़ताल की, जितना शोध किया, उन्हें समझ में आया सारे दु:ख का कारण अहम् है। इसी अहम् से मुक्ति मिल सके इसलिए ऋषियों ने हमारा परिचय कराया आत्मा से।
आत्मा माने अहम् की शुद्धता। यही अहम् जब शुद्ध, शुद्ध, शुद्ध, शुद्ध होता जाता है तो आत्मा में जा कर के फिर बैठ जाता है, विश्राम ले लेता है। तो मन के ही फिर शुद्धतम बिंदु को आत्मा भी कह दिया जाता है, यह आत्मा है। अब आत्मा को लेकर के तुम किसी भी तरीके के अंधविश्वास और व्यर्थ वाद में आइंदा विश्वास मत कर लेना। आत्मा को लेकर के न जाने कैसी-कैसी बातें चल रही हैं। कोई कह रहा है कि आत्मा को बोतल में बंद कर लिया, कोई बोल रहा है कि वह फलाने मंडल में आत्माएँ तैरती रहती हैं; कैसी-कैसी बातें! तो कुछ नहीं। तुम जीव हो और जीव अपने भीतर अहंकार लेकर के चलता है। अहंकार अपने-आपको जो मानता है, अहंकार दुनिया को जैसा मानता है, वह सब झूठ है क्योंकि समय अहंकार की हर मान्यता को खंडित कर देता है, झूठा साबित कर देता है। ऋषियों ने कहा कि समय से और धोखा नहीं खाना है, समय माने काल, समय माने मृत्यु, तो उन्होंने कहा कि समय से, मौत से और ज़्यादा धोखा नहीं खाना है। हमें वह बताओ जो सच्चा हो, वह सब बातें ना बताओ जो अभी ऐसी लग रही हैं, थोड़ी देर में आए तो वैसे लगने लगीं, धोखा खा गए, फिर चोट लगी। यह सारी बातें कही ही इसलिए जा रही हैं ताकि हम किसी तरीके से चोट से, माने दु:ख से बच सकें – अध्यात्म का यही उद्देश्य है।
अध्यात्म इधर-उधर का मायाजाल, टोना-टोटका, झाड़-फूँक, मंतर-जंतर यह सब नहीं होता। अध्यात्म का एक ही उद्देश्य है – तुम अपनी मिथ्या धारणाओं से बाज आओ और दु:ख से मुक्ति पाओ, समझ में आ रहा है? इसी उद्देश्य के लिए आत्मा से हमें परिचित कराया गया, कि तुम जिस दुनिया को जानते हो वह दुनिया परिवर्तनशील है, वह दुनिया मिथ्या है क्योंकि उस दुनिया में जितनी खोजबीन करो, उतना पता चलता है कि पिछली बात जो थी, जिसको तुम सच मानते थे, वह झूठी थी और जब तक दुनिया ऐसी है कि तुम किसी भी बात पर भरोसा ही नहीं कर सकते, क्योंकि हर बात झूठी है, तुम्हें चैन नहीं मिलेगा। तो इसलिए एक ऐसी चीज़ हमको दी गई जिस पर भरोसा किया जा सकता है, उस एकमात्र चीज़ का, उस एकमात्र भरोसेमंद वस्तु का नाम है आत्मा और वो कोई वस्तु नहीं है। और वो कोई वस्तु नहीं है क्योंकि सारी वस्तुएँ तो परिवर्तनशील होती हैं, समझ में आ रही है बात?
यह पूरी दुनिया विश्वासघाती है और विश्वास तो हम करते ही हैं। तुम्हारा कोई विश्वास है ऐसा जो टूटेगा नहीं? क्योंकि तुम्हारे पहला विश्वास तो यह है कि तुम हो और वही विश्वास टूटने वाला है। तुम अपने-आपको ही जो मानते हो, तुम्हारा वही विश्वास टूटने वाला भी नहीं है, वो अतीत में भी बार-बार टूट चुका है। जब भी तुम ज़रा होश में आते हो, वो टूट ही जाता है। परिस्थितियाँ जब भी ज़रा करवट बदलती हैं तुम्हारा अपने बारे में विश्वास टूट ही जाता है। ऐसे नहीं कि आत्मविश्वास टूट गया, ऐसे कि जो मान्यता थी अपने बारे में पता चला कि वो झूठी थी। हम वैसे हैं ही नहीं जैसा अपने-आपको समझते थे। तो जब तुम्हारा अपने बारे में ही जो भरोसा है, जो छवि है तुम्हारी अपनी नज़रों में, वही बार-बार बनती-बिगड़ती रहती है तो दुनिया की तुमने जो इन बनती-बिगड़ती नज़रों में छवि बना रखी है, वह कैसे शाश्वत रह पाएगी? और जब तक तुम्हारे जीवन में कुछ ऐसा नहीं है, जो शाश्वत है, जो पूरे तरीके से विश्वसनीय है, जिस पर तुम आँख मूँदकर भरोसा कर सको, तुम रहते हो तिलमिलाए से, तुम्हें नींद नहीं आती ठीक से, विश्राम नहीं मिलता।
मन की यह जो बेचैन, व्याकुल स्थिति है, रुग्ण स्थिति है जिसमें तुम्हें बुख़ार सा चढ़ा हुआ है, जिसमें तुम ज्वर मग्न हो, उससे मुक्ति पाने के लिए आत्मा कहा गया कि देखो दुनिया में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं है जो भरोसे के काबिल है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कुछ भी हो ही नहीं सकता जो भरोसे के काबिल है। तो वो अकेली चीज़ जो भरोसे के काबिल है उसको कहा गया ‘आत्मा’ और जो सारा पूजन है, जो सारी निष्ठा है, जो सारा समर्पण है, वह होना ही है आत्मा की तरफ़। वास्तव में एक उपनिषद ही है जिसका नाम है आत्मपूजा उपनिषद, अति संक्षिप्त उपनिषद है, आप सबको पढ़ना चाहिए, ‘आत्मपूजा उपनिषद’। उस पर भी मैंने अतीत में काफी बोला हुआ है, वीडियो आप लोग देखेंगे तो मिलेंगे आपको। आत्मपूजा उपनिषद, कि आत्मा के अलावा और किस की पूजा कर रहे हो। आत्मा के अलावा कोई दूसरा है नहीं जिसकी पूजा की जा सकती है, क्योंकि झूठ की थोड़े ही पूजा करोगे और एकमात्र सच है आत्मा, तो उसी की तो पूजा होगी। बात आ रही समझ में? आत्मा क्या है स्पष्ट हो रहा है?
हाँ बताइए आत्मा के बारे में क्या पूछना चाहते हैं?
प्र: आचार्य जी, आत्मा के संबंध में यह एक बहुत बड़ी भ्राँति है जो समसामयिक आध्यात्मिक जगत में फैली हुई है कि शरीर तो मर जाता है लेकिन आत्मा ज़िंदा रहती है और फिर कोई और रूप लेकर दोबारा पैदा होती है। आपको भी हमने पुनर्जन्म के विषय में बहुत बार सुना है तो आप कहते हैं कि जिसे मरना ही है, जो मरण-धर्मा है वह तो दोबारा जन्म नहीं लेता लेकिन अहंकार और वृत्तियाँ दोबारा जन्म लेती हैं।
आचार्य: अब आप सीधे ही पुनर्जन्म के मुद्दे पर आ गए हैं। इससे संबंधित हमारे पास सवाल आया हुआ है, तो चलो फिर उसको ले ही लेते हैं क्योंकि आत्मा और पुनर्जन्म आपस में बहुत गुथे हुए मुद्दे हैं।
देखो, जन्म-मृत्यु यह सब होते हैं प्रकृति में, किसमें होते हैं? प्रकृति में, आत्मा प्रकृति से परे है। प्रकृति में गति होती है, आत्मा में कोई गति नहीं होती। प्रकृति में कुछ बड़ा होता है, कुछ छोटा होता है, आत्मा में कुछ बड़ा-छोटा नहीं होता। प्रकृति में विविधताएँ होती हैं, अनेकताएँ होती हैं, आत्मा में कोई विविधता नहीं, कोई अनेकता नहीं है। पुनर्जन्म आत्मा का हो ही नहीं सकता क्योंकि आत्मा का तो कभी पहला ही जन्म नहीं हुआ। जिसका पहला जन्म नहीं हुआ, उसका दूसरा कैसे होगा? दूसरा जन्म, तीसरा जन्म, चौथा जन्म होने के लिए, पुनर्जन्म के लिए पहला जन्म तो हो। जन्म होने के लिए समय चाहिए, आत्मा कालातीत है, काल से बाहर की है। आत्मा का तो पहला ही जन्म नहीं होता, ना जन्म होता है, ना मृत्यु होती है।
यह बात दिमाग में समाएगी नहीं आसानी से, आप सोचने बैठोगे कि ऐसी क्या चीज़ हो सकती है जो ना कभी जन्म लेती है, ना मरती है, तो आपको नहीं समझ में आएगा। इसलिए तो आत्मा को अचिंत्य कहा गया है। आत्मा को क्यों कहा गया है कि विचार की पकड़ में नहीं आएगी? आप अगर ईश उपनिषद के पास जाएँ या केनोपनिषद के पास जाएँ, वो तो बड़े रोचक तरीके से आत्मा के बारे में कहते हैं, कहते हैं कि, “वह वह है जिसके बारे में मन सोचने निकलता है तो थक-हार कर वापस बैठ जाता है। आँखें खोजने निकलती हैं तो पाती नहीं। ज़बान बोलने निकलती है तो इधर-उधर का बोल करके वापस लौट आती है। कान सुनना चाहते हैं तो उन्हें कुछ सुनाई नहीं देता।"
ऋषि भी कवि थे तो उन्होंने बड़े रोचक तरीके से आत्मा के बारे में बातें करी हैं। तो तुम सोचना चाहोगे कि प्रकृति से परे क्या चीज़ हो सकती है, ऐसी क्या चीज़ होती है जो दुनिया में ही नहीं है, तो तुम्हें नहीं समझ में आएगा। इसीलिए आत्मा से परिचय होता है मन की ध्यानस्थ शांति में। विचार चलाओगे आत्मा को नहीं पाओगे, जब विचार थम जाता है तो आत्मा-ही-आत्मा है। समझ में आ रही है बात?
अब प्रकृति में जन्म होता है, मृत्यु होती है। प्रकृति में निश्चित रूप से पुनर्जन्म होता है, आत्मा का नहीं होता लेकिन। पहली बात तो कोई यह ना बोले कि आत्मा ने जन्म लिया। प्रकृति में लगातार पुनर्जन्म का चक्र चल रहा है। प्रकृति में पुनर्जन्म का चक्र कैसे चल रहा है? ऐसे चल रहा है कि आलू है, उसी आलू से संबंधित एक दूसरा आलू है कहीं-न-कहीं क्योंकि मूल रूप से तो सब आलू किसी एक माँ से ही आ रहे हैं न। मूल रूप से तो जितने भी आलू हैं, वह सब किसी एक जगह से ही आ रहे हैं, तो एक आलू यहाँ है, एक आलू वहाँ है। जो पहला आलू का पौधा था वह मर गया, दूसरा कहीं पर जन्म ले रहा है। जो दूसरा जन्म ले रहा है, उसमें पिछले वाले पौधे के लगभग सारे ही गुण हैं। तो इसको कह दिया जाता है — पुनर्जन्म।
इसको मैं और साफ़ तरीके से लहरों के माध्यम से समझाता हूँ। एक बड़ा विशाल सागर है प्रकृति में, ठीक है? प्रकृति कैसी है? जैसे एक बड़ा सा सागर है, समुद्र है। उसमें लहर उठ रही है एक, यह जो लहर उठ रही है यह एक जन्म है। वह लहर गिर गई, यह मृत्यु है, ठीक है? लहर के उठने, लहर के गिरने के बीच में समय का एक अंतराल था, वह जीवन है। उस जीवन में लगातार गति रही है। देखो ये गति है (हाथ से लहरों का इशारा करते हुए)। वो लहर तो गिर गई, उस लहर में जो कुछ था वह सागर में वापस चला गया, प्रकृति में वापस चला गया। मिट्टी से उठे हो, मिट्टी में वापस चले जाते हो। वैसे ही लहर में जो कुछ था वो किसमें वापस चला गया? समुद्र में वापस चला गया। पानी पानी में मिल गया, नमक नमक में मिल गया, कुछ और खनिज रहे होंगे, कुछ और पदार्थ रहे होंगे उस लहर में, वह सब भी वापस कहाँ चले गए? जहाँ से वो आए थे। जैसे शरीर में जितने तरीके के खनिज पदार्थ जो कुछ भी होता है वो कहाँ चला जाता है? जहाँ से वो आया था, मिट्टी से उठे थे मिट्टी में चले गए।
लेकिन वह आख़िरी लहर नहीं थी, ना पहली थी। थोड़ी देर में क्या होगा? फिर एक और लहर उठेगी और यह लहर बिलकुल पिछली लहर जैसे ही होगी, कम-से-कम पिन्च्यानवे-प्रतिशत, निन्न्यानवे-प्रतिशत। तुम्हें दो लहरों की तस्वीर दिखाई जाए, तुम्हारे लिए बड़ा मुश्किल होगा कहना कि ये अलग-अलग हैं, और अनंत लहरे हैं जो प्रतिपल उठ रही हैं सागर में। तो ये जो दूसरी लहर उठी है, एक तरीके से पुनर्जन्म है क्योंकि ये पिछली लहर जैसी ही है। लेकिन पुनर्जन्म किसका हुआ है? पहली बात — आत्मा का नहीं हुआ क्योंकि आत्मा का तो पहला ही जन्म नहीं होता। दूसरी बात — पिछली लहर का पुनर्जन्म नहीं हुआ है, सागर ने पुनः जन्म दिया है। इन दो बातों में अंतर समझो, जो पिछली लहर थी उसका पुनर्जन्म नहीं हुआ है, उसका तो एक ही जन्म होता है। एक लहर, एक जन्म, याद रखो। एक लहर, एक जन्म, लेकिन सागर लहराता रहता है तो सागर पुनः पुनः जन्म देता है, यह पुनर्जन्म है। पुनः पुनः जन्म यह है पुनर्जन्म। तो प्रकृति का जो यह अनंतसागर है, यह पुनः पुनः जन्म देता रहता है, यह पुनर्जन्म है।
इसका मतलब यह नहीं है कि वह जो एक लहर थी, उस लहर का तुम कुछ नाम रख लो, राजू लहर, और वो फिर जो एक और कहीं लहर उठी, पहली लहर गिरी दूसरी लहर कहीं उठी, उसका नाम तुम रख लो काजू लहर, इसका मतलब यह नहीं है कि राजू ने काजू बनकर पुनर्जन्म लिया। राजू का तो एक ही जन्म होगा, राजू आएगा और राजू जाएगा। इसीलिए संतो ने तुम्हें बार-बार याद दिलाया है कि ‘हीरा जनम अमोल है, कौड़ी बदले जाए’। समझ में आ रही है बात? इतनी बार संत तुम्हें ‘मौत कब है’ दिखाते हैं। दिखाते हैं कि नहीं दिखाते हैं? बार-बार बोलते हैं कि समय मत बर्बाद कर, समय मत बर्बाद कर। ‘आया था किस काम को, सोया चादर तान, सुरत संभाल गाफ़िल, अपना आप पहचान’, कि जिस काम के लिए आए हो वो काम पूरा करो।
अगर तुम्हारा ही दोबारा, तिबारा, पचास बार जन्म होता तो कहते समय अनंत है तुम्हारे पास, अभी यहाँ क्यों कहा जा रहा है कि समय ना बर्बाद करो क्योंकि जो एक लहर, जो राजू लहर है, उसके पास तो सीमित ही समय है। उसका कोई पुनर्जन्म नहीं होना। हाँ, प्रकृति – दुहरा रहा हूँ — पुनः पुनः, बार-बार जन्म देगी। जो दूसरी लहर आएगी, वह बिलकुल पिछली लहर जैसी है लेकिन इन दोनों लहरों का आपस में कोई संबंध नहीं है। इन दोनों में समानता बस ये है कि इन दोनों का साझा संबंध सागर से है। राजू का काजू से कोई संबंध नहीं, काजू का राजू से कोई संबंध नहीं। काजू कृपा करके यह दावा ना कर दे कि, "पिछले जन्म में मैं राजू था!" काजू का राजू से कोई संबंध नहीं, हाँ, काजू और राजू दोनों का संबंध सागर से है। दोनों सागर से उठे हैं और चूँकि दोनों सागर से उठे हैं इसीलिए दोनों में बहुत समानताएँ हैं। दो लहरों में बहुत समानताएँ होती हैं। समझ में आ रही बात?
अब पुनर्जन्म को लेकर के बहुत भ्राँतियाँ फैली हुई हैं। हमें लगता है जीव का पुनर्जन्म होता है, राजू भी सोच रहा है कि मेरा पुनर्जन्म होगा और रजनी भी सोच रही है कि मेरा भी पुनर्जन्म होगा। और बहुत सारे गुरु लोग हैं जो अपने पुनर्जन्म की कहानियाँ भी सुना कर के लोगों को बुद्धू बना रहे हैं क्योंकि तुम वैसी कहानियाँ सुनना चाहते हो। हो सकता है उनमें से एक-आध किसी गुरु को तो यह बात समझ में भी आ गई हो कि जीव का पुनर्जन्म नहीं होता, लेकिन तुम इतना दबाव डालते हो, तुम्हारी इतनी सख्त मान्यताएँ हैं कि तुम उन गुरु लोगों को भी मजबूर कर देते हो कि वह भी तुम्हें झूठी बातें बताएँ। तो वह भी फिर खूब बताते हैं किस्से कहानियाँ। नब्बे-प्रतिशत तो गुरु लोगों को ही नहीं पता होता है कि पुनर्जन्म की वास्तविक बात क्या है, सच्चाई क्या है, तो उन्हें खुद ही भ्राँति होती है तो वो तुम्हें सच्चाई क्या बताएँगे। समझ में आ रही है ये बात? पुनर्जन्म की बात बिलकुल स्पष्ट है?
जीव का पुनर्जन्म नहीं होता, ना आत्मा का पुनर्जन्म होता है। पुनर्जन्म होता है प्रकृति का और प्रकृति में जो पुनर्जन्म हो रहा है, वह वास्तव में पुन: जन्म है।
प्रकृति एक ऐसी महा माँ है जो लगातार जन्म देती ही रहती है, और जो लगातार मृत्यु देती ही रहती है। वो जन्माती ही रहती है, जन्माती ही रहती है और मारती रहती है, मारती ही रहती है। प्रकृति का काम है जन्माओ, जियाओ, मारो। जन्म दो, जीवन जियाओ और फिर मार दो, यह प्रकृति का काम है। जहाँ से तुम आए हो, जिसने तुम्हें जन्म दिया है वही तुमको मारता भी है। इसीलिए सनातन धर्म में देवियों की उपासना दो तरीकों से होती है। कभी उनको कहा जाता है जगत-जननी और कभी उनको कहा जाता है काल-भैरवी। कभी उनको जननी भी कह देते हैं, कभी उन्हें काली भी कह देते हैं। कभी जन्म दे रही हैं और कभी वह महाकाल हैं, मौत भी दे रही हैं। दोनों काम प्रकृति के हैं। सब देवियाँ प्रकृति का ही प्रतिनिधित्व करती हैं। शक्ति प्रकृति की ही प्रतिनिधि हैं, तो प्रकृति में ही जन्म है, प्रकृति में ही मृत्यु है, जीव लहर समान है, जीव का एक ही जन्म है। समय मत ख़राब करो, यह मत सोचना कि तुम्हारा कोई दूसरा जन्म वगैरह हो जाएगा। और उस तरह की कहानी में तो यक़ीन कर ही मत लेना कि गुरु महाराज बता रहे हैं कि चार जन्म पहले मैं ऐसा था, या कहीं कोई लड़की पैदा हुई आठ साल की, वो बताने लगी कि पिछले जन्म में मैं बगल के गाँव में थी और वह अपना सब किस्सा-कहानी बता रही है और लोगों को लगा कि सही बात, इसे सब कुछ याद है। यह बेकार की बातें हैं। और कोई भ्राँति?
प्र२: आचार्य जी, फिर इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि चौरासी-लाख योनियों का क्या अर्थ है कि प्रकृति ही जन्म लेती रहती है, मगर फिर यह जो मुक्ति के लिए जो बातें चलती हैं, तो यह तो फिर ऐसा लग रहा है कि प्रकृति के ख़िलाफ ही हम साज़िश कर रहे हैं।
आचार्य: कौन साज़िश कर रहा है प्रकृति के ख़िलाफ? तुम कौन हो? या तो प्रकृति है या आत्मा है, तुम कौन हो जो प्रकृति ख़िलाफ साज़िश करोगे। अगर प्रकृति के ख़िलाफ कोई साज़िश कर रहा है तो प्रकृति से बाहर का होना चाहिए, तो फिर तो आत्मा होना चाहिए उसको क्योंकि प्रकृति के बाहर तो सिर्फ़ आत्मा है। तो क्या आत्मा साज़िश कर रही है? आत्मा नहीं साज़िश कर रही है। यह जो मुक्ति माँग रहा है, यह भी प्रकृति के भीतर ही है। माने समझो जैसे प्रकृति स्वयं ही मुक्ति चाहती हो। ये जो अहंकार है न, यह भी प्रकृति के भीतर ही होता है। इसीलिए तो प्रकृति से इतना लिप्त रहता है, इतना गुथा हुआ रहता है। तुम देखते नहीं हो कि तुम्हें तुम्हारी कमीज़ कितनी प्यारी है, तुम देखते नहीं हो कि चेतना को शरीर से अलग करना कितना मुश्किल है। भाई, शुद्ध चैतन्य ही आत्मा है, ठीक है? लेकिन यह जो शुद्ध चैतन्य है, यह कभी प्राप्त ही नहीं होता, बड़ा मुश्किल होता है क्योंकि चेतना हमेशा लिपटी रहती है, किससे? प्रकृति से। अहंकार प्रकृति का ही एक तत्व है। श्रीमद्भगवद्गीता — अहंकार प्रकृति का ही एक तत्व है इसीलिए वह प्रकृति के अन्य तत्वों से बहुत ज़्यादा निकटता अनुभव करता है। जैसे वह सब उसके भाई-बहन हों, उन सब से हाथ जोड़े खड़ा रहता है। आत्मा क्या है? आत्मा अहंकार का प्रेम है और प्रकृति के सारे तत्व उसके रिश्तेदार हैं।
तो फिर इसीलिए संत गाते हैं कि "पिया के पास जाऊँ कि बाबुल के यहाँ रहूँ।" अब मतलब समझना, कौन गा रहा है? अहंकार गा रहा है। पिया कौन है? मुक्ति। और बाबुल क्या है? यह जो बाकी सब रिश्तेदार हैं, जहाँ जन्म हुआ — जन्म किसमें होता है, प्रकृति में — जहाँ जन्म हुआ, जहाँ रहे, जहाँ खाया-पिया, जहाँ बड़े हुए, ये सारे काम प्रकृति में हो रहे हैं। तो प्रकृति में जो कुछ है, वह तुम्हारा रिश्तेदार है। उससे तुम्हारा खून का रिश्ता है, उससे तुम्हारा जन्म का रिश्ता है। उसको छोड़ना बड़े दिल दुखाने वाली बात होती है। साथ-ही-साथ मुक्ति से, पिया परमेश्वर से तुम्हारा प्रेम का रिश्ता है। अब प्रेम भी नहीं टूटा जाता, प्रेम को पकड़ें या खून के रिश्ते निभाएँ? बहुत लोग होते हैं जो प्रेम को छोड़कर के खून के रिश्ते निभाते रह जाते हैं, वह बंधक बने रह जाते हैं। कुछ होते हैं जो खून के रिश्तों को छोड़ करके, देह के नातों को छोड़कर के प्रेम को अपनाते हैं, वह मुक्त हो जाते हैं। और?
प्र: इसमें वही चीज़ वापस आ गई न कि हम कह रहे हैं कि वह (अहम्) मुक्त हो जाता है, मगर वह तो इंडिविजुअल आईडेंटिटी (व्यक्तिगत पहचान) है जो कि वैसे भी मरने के बाद खत्म हो जाता है, तो वो शंका अभी रह ही गई।
आचार्य: वह मरने से खत्म हो जाता है। एक खात्मा होता है जो मरने के बाद होता है और एक है कि मरण का खात्मा हो गया। अहम् जब तक प्रकृति में बैठा हुआ है, तो वह बार-बार खत्म होता रहेगा क्योंकि प्रकृति में तो खात्मा निश्चित है। और दूसरा काम यह कर सकता है अहम् कि अपने-आपको प्रकृति से अलग जान ले। अब मरने का खात्मा हो गया, अब मृत्यु कभी नहीं आएगी, अब मृत्यु की मृत्यु हो गई, क्योंकि मृत्यु कहाँ थी? प्रकृति में, अब वह मृत्यु से ही ऊपर उठ गया, प्रकृति से ऊपर उठ गया, अब मौत जो होती हो सो हो। जो चीज़ें अभी भी प्रकृति में हैं, उनकी अभी भी मौत होगी। हम प्रकृति में हैं ही नहीं, तो हमारी मौत क्यों होगी? ये है।
प्र३: आचार्य जी, आत्मा से ही जुड़े कुछ और सवाल भी हैं कि घर में बहुत बार आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध रखे जाते हैं। बहुत बार बात की जाती है कि बुरी आत्माएँ होती हैं। कभी-कभार मन में ये सवाल भी उठता है कि जैसे अभी चौरासी-लाख योनियों की बात हो रही थी, तो जानवर की आत्मा और इंसान की आत्मा, यह कोई विभाजन होता है क्या?
आचार्य: देखो, ना जानवर की आत्मा होती है, ना इंसान की आत्मा होती है। आत्मा को लेकर के कहा गया है कि वह उपाधि रहित होती है। उपाधि माने उसके साथ कोई विशेषण नहीं लगाया जा सकता, विशेषण समझते हो? कोई भी ऐसी चीज़ जो उसकी गुणवत्ता को प्रदर्शित करती हो। आत्मा निर्गुण होती है। उसको छोटा-बड़ा, काला-सफेद, अच्छा-बुरा दुखी, प्रसन्न, कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तो आत्मा की शांति के लिए अगर कोई किसी तरह का आयोजन कर रहा है तो यह बहुत अशांति की बात है, आत्मा के लिए जो आयोजन कर रहा है उसके लिए। आत्मा को तो कौन अशांत करेगा कि आत्मा को शांति की ज़रूरत पड़ गई। लेकिन जो लोग इस तरह की बातें सोचते हैं कि किसी व्यक्ति की मृत्यु हो गई तो उसकी आत्मा की शांति के लिए कुछ करें, वह लोग ख़ुद बहुत अंधेरे में हैं इसलिए बहुत अशांत रहेंगे। अगर कोई अब नहीं है, किसी की मृत्यु हो गई है, तो उसका कुछ नहीं शेष बचा है जिसकी शांति की आप कोशिश करेंगे। हाँ, अब आप अपने जीवन को देखें। उसकी कोई आत्मा इत्यादि कहीं घूम नहीं रही है कि उसको अब आप शांत कर पाएँगे।
यह बिलकुल ऐसी बात नहीं है जिसका ज़रा सा भी संबंध सनातन धर्म के केंद्रीय शास्त्रों से हो, बिलकुल भी ऐसी बात नहीं है और मैं यहाँ पर बात कर रहा हूँ सीधे-सीधे वेदों के शिखर उपनिषदों की। आप इधर-उधर से कोई पुराण उठा लाएँ और उसमें लिखा हो कि आत्मा ऐसे घूमती है, वैसे घूमती है तो अच्छे से समझ लीजिए कि सनातन धर्म वैदिक धर्म है, पुराण हों या दूसरी इस तरह की और किताबें हों, कहानियाँ हों, उन सब का स्थान बहुत पीछे आता है। जो भी चीज़ वैदिक बोध के विरोध में हो, उसको सनातनी होने के नाते आप को अस्वीकार करना पड़ेगा, भले ही वह किसी पुराण में क्यों न लिखी हो। समझ में आ रही बात?
आत्मा अच्छी-बुरी नहीं होती है। आत्मा व्यक्तिगत नहीं होती है, इसकी आत्मा, उसकी आत्मा जैसा कुछ नहीं होता है। आत्मा एक और सार्वभौम सत्य है, सार्वभौम माने सबका। आप यह तो बोल सकते हो कि मोहन का कुर्ता और सोहन का कुर्ता, पर आप यह नहीं बोल सकते कि मोहन की आत्मा और सोहन की आत्मा। हाँ, आप मोहन का मन और सोहन का मन ज़रूर बोल सकते हो। तो मन और मन में भेद होता है, आत्मा में भेद नहीं होता, आत्मा अभेद है। और यह सारे जो मैं शब्द बोल रहा हूँ, ये उपनिषदों से हैं — आत्मा अभेद है, आत्मा निरंतर है, निरंतर माने जिसमें कभी कोई अंतर नहीं पड़ता, आत्मा अद्वैत है, अद्वैत माने जहाँ दो की कोई संभावना ही नहीं है।
प्र३: आपने जो अभी बात कही पूरी, यह सुनने में बहुत शास्त्रीय है क्योंकि जो आम आदमी है आज का, उसकी आधी शिक्षा तो टीवी से और फिल्मों से होती है, वहाँ पर उसके मन में कहीं-न-कहीं एक छवि दे दी गई है आत्मा को लेकर। टीवी में, पिक्चर में जब कोई धुँआ सा उठा है, रूह सी अंदर जा रही है, कुछ निकल गया बाहर इत्यादि।
आचार्य: ये जो छवि है यह रूह की है, रूह की। रूह और आत्मा एक नहीं होते, बात समझ में आ रही है? आत्मा तो वास्तव में किसी भी अब्राह्मिक धर्म में पाई ही नहीं जाती। वहाँ सोल होती है, वहाँ रूह होती है, आत्मा नहीं होती। रूह एक वस्तु ज़रूर होती है, रूह ज़रूर एक चीज़ होती है। रूह को लेकर के इस तरह की बातें चल सकती हैं कि रूह अंदर है, वह बाहर है, वह धुँआ है, इस तरह की मान्यताएँ, कल्पना रूह को लेकर चलती हैं। गड़बड़ी ये हुई कि सनातनियों ने आत्मा को भी रूह जैसा कुछ बना लिया, पर आत्मा रूह नहीं होती न। तो आत्मा को लेकर के जो चित्र बनाए जाते हैं कि एक धुँआ सा उठ रहा है और यह हो रहा है, सब बेकार की बात है। सत्य मात्र है आत्मा, तुम ऐसे भी कह सकते हो कि जिसको तुम परमात्मा बोलते हो, वह आत्मा ही है। पर यह सब बातें भी बिलकुल भूल जाओ कि बहुत सारी आत्माएँ हैं, जो अंत में जाकर परमात्मा में मिल जाती हैं। बहुत सारी आत्माएँ नहीं होती, आत्मा सिर्फ़ एक है। और तुम कह रहे हो बहुत सारी आत्माएँ हैं, तो वास्तव में तुम सिर्फ़ मन की बात कर रहे हो। मन का ओहदा इतना मत बढ़ा दो कि उसका नाम आत्मा रख दिया। बहुत संगठन हैं आजकल जो इसी भाषा में बात करते हैं कि हम सब आत्माएँ हैं और हम सब आत्माएँ जाकर के परमात्मा में मिल जाएँगी, जैसे नदियाँ जाकर के सागर में मिल जाती हैं। यह बिलकुल सिद्धांत विरुद्ध बात है, ठीक है? हम सब जीव हैं, हम सब आत्माएँ वगैरह नहीं हैं। मैं फिर कह रहा हूँ, मैं कोई अपनी व्यक्तिगत बात नहीं कर रहा हूँ, मैं उपनिषदों की बात कर रहा हूँ।
हम सब जीव हैं और जिसको तुम परमात्मा बोलते हो, वह आत्मा से भिन्न नहीं है। ऐसी ही बात है कि जैसे तुम प्रेम को कभी परम प्रेम बोल दो। भावना के किसी क्षण में तुमने, उद्वेग में तुमने बोल दिया कि, "मैं तुमसे परम प्रेम करता हूँ प्रिय", पर वास्तव में तुम प्रेम ही कह रहे हो। इसी तरीके से आत्मा को भी कभी-कभार किसी उद्वेग में कह दिया जाता है परमात्मा। आत्मा कहो, परमात्मा कहो, बात एक ही है। ऐसा नहीं है कि आत्मा की परमात्मा से दूरी है। वह जो वियोग होता है, जिस दूरी की बात होती है वह दूरी आत्मा और मन के मध्य होती है। तो आत्मा है, मन है और इसके अलावा कोई सत्ता नहीं है। मैंने कहा था न कि आत्मा है और प्रकृति है, मन समझ लो प्रकृति है। आत्मा है और मन है, प्रकृति और सत्य है, यही दो हैं।
दो होते हैं जिनमें से एक झूठा होता है, तो एक का काम होता है दूसरे में जाकर के मिल जाना, यही अध्यात्म है, यही योग है। यही दो होते हैं, आत्मा और मन। इनमें से मन क्या है? वह वास्तव में आत्मा का ही एक भुलक्कड़ रूप है। आत्मा जो स्वयं को भूल गई है तो अपने-आपको क्या बोलने लगी है? मन। आत्मा स्वयं को क्यों भूल गई है? क्योंकि आत्मा तो सर्व शक्तिशाली है, उसके अलावा कोई और है नहीं, वो अनंत है तो उसके पास यह शक्ति भी है कि वह खेल-खेल में, क्रीडा में, लीला में स्वयं को भुला दे, तो तब वह कहलाती है मन। यही मन जब अपने-आपको दोबारा याद कर लेता है, अपनी वास्तविकता से परिचित हो जाता है तो पुनः आत्मा हो जाता है। तो ले-देकर के फिर कितनी सच्चाईयाँ बचीं? एक। पहली बात तो अनंत सच्चाईयाँ नहीं हैं, दो हैं — आत्मा और मन, और मन भी जब अपने वास्तविक रूप में लौट आता है तो आत्मा ही हो जाता है, तो ले देकर के बची बस एक — आत्मा मात्र, वही एक मात्र सच्चाई है।
प्र: प्राण, सूक्ष्म शरीर और आत्मा में क्या अंतर है?
आचार्य: प्राण और सूक्ष्म शरीर, यह सब प्रकृति के अंतर्गत हैं। जितने शरीर हैं सब प्रकृति के अंतर्गत हैं। वास्तव में मन ही सूक्ष्म शरीर है। स्थूल शरीर माने वह जो तुम्हें आँखों से दिखाई देता है, ठीक है? सूक्ष्म शरीर वह जो दिखाई नहीं देता पर जिसका अनुभव होता है। जैसे तुम्हारे हाथ पर कोई चोट मार दे तो तुम्हें अनुभव हो जाता है न। तुम्हारे हाथ पर लाल निशान पड़ जाएगा, अगर कोई हाथ पर चोट मार दे। पर यहाँ तुम्हें दिखाई पड़ा कि किस चीज़ पर चोट पड़ी, किस चीज़ पर चोट पड़ी? हाथ पर, तो ये स्थूल शरीर कहलाता है। ऐसे ही अगर तुमको क्रोध का या शर्म का विचार उठे तो गाल लाल हो जाते हैं न। गाल तब भी लाल होते हैं जब कोई स्थूल थप्पड़ मार दे और गाल तब भी लाल होते हैं जब कोई सूक्ष्म विचार उठे, तो सूक्ष्म शरीर वह है जिसका अनुभव तो होता है पर जो दिखाई नहीं देता। विचार कोई देख तो सकता नहीं न, पर उसका अनुभव होता है और प्रमाण भी मिलता है कि विचार आया, गाल लाल हो गए, कान लाल हो गए, ठीक वैसे ही थप्पड़ पड़ने पर कान लाल हो जाते हैं। तो उसको कहते हैं सूक्ष्म शरीर। सूक्ष्म शरीर माने मन और फिर होता है कारण शरीर। कारण शरीर माने मूल अहम् वृत्ति।
तो ये तीन शरीर होते हैं — स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। यह तीनों ही प्रकृति के ही अंतर्गत हैं। इनका आत्मा से कोई संबंध नहीं है। कोई सूक्ष्म शरीर को आत्मा वगैरह ना समझ ले। लोग इस तरह की बातें लेकर के आते हैं कि जब समाधि का पल आता है तो सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से बाहर निकल जाता है और बाहर से शरीर को देखने लगता है और कुछ बहुत प्रसिद्ध गुरु ने भी इस तरह की बात करी है। मैं बहुत सादर कहना चाहता हूँ, सिर झुका कर कहना चाहता हूँ कि यह बातें बेवकूफ़ी की हैं। एकदम परम मूर्खता की बातें हैं कि सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से बाहर निकल जाएगा और बाहर से घूमेगा और देखेगा, और कहीं जाकर के मूँगफली खाएगा। ऐसा कुछ नहीं होता है। मन को ही कहते हैं सूक्ष्म शरीर। और सूक्ष्म शरीर है इसका स्थूल के अतिरिक्त कोई सहारा नहीं, कोई अड्डा नहीं। तुम अपना स्थूल शरीर नष्ट कर दो, फिर मुझे बताओ मन कहाँ है? तुम्हारे मस्तिष्क पर ज़रा सी चोट पड़ जाए, मुझे बताओ सूक्ष्म शरीर कहाँ बचा? तो सूक्ष्म शरीर की स्थूल के अतिरिक्त कहीं कोई जगह नहीं।
इस तरह के विचार बिलकुल छोड़ दें कि, "सूक्ष्म शरीर तो घूमता होगा न हवा में आचार्य जी, आत्मा नहीं घूमती तो कम-से-कम सूक्ष्म शरीर को ही आप मौका दे दें।" नहीं, ना आत्मा इधर-उधर हवा में घूमती है, ना सूक्ष्म शरीर आवारा की तरह इधर-उधर डोलता है, कोई नहीं डोलता। हाँ, मन जब तक स्थूल शरीर के भीतर है तब तक वह सारी आवारगी दिखा लेता और खूब डोलता है। मन चंचल होता है न। पर वो सारी चंचलता भी उसकी तभी तक है जब तक वह स्थूल शरीर के भीतर है। स्थूल शरीर नहीं तो कोई मन भी नहीं। समझ में आ रही है बात?
प्र२: आचार्य जी, शास्त्रों में ही आत्मा की मृत्यु के बाद स्वर्ग या नरक जाने की बात भी कही जाती है, तो यह स्वर्ग और नरक क्या है?
आचार्य: क्या है बताओ? निरालंब उपनिषद ने बताया तो है कि स्वर्ग क्या है, नर्क क्या है। मेरे लिए शास्त्र का मतलब होता है उपनिषद। तुम कोई भी इधर-उधर की किताब उठा लाओगे और सिर्फ़ इसलिए कि वो थोड़ी पुरानी है या संस्कृत में लिखी है, वो शास्त्र नहीं हो जाती। तुम तो किसी भी चीज़ को शास्त्र बता देते हो कि यह भी शास्त्र है। तुम्हारी नज़र में तो वास्तु शास्त्र है। शास्त्र की परिभाषा उपनिषद स्वयं देते हैं — शास्त्र वह जिसका संबंध मूल प्रश्न से हो, ‘कोहम्।’ जो भी ग्रंथ इस प्रश्न को संबोधित करता हो, ‘को अहम्’, ‘मैं कौन हूँ’, वही ग्रंथ शास्त्र कहलाने का अधिकारी है। बाकी इधर-उधर की बातें हो रही हैं कि ताँबा कि काँसा, हाथी उड़ेंगे कि साँप उड़ेंगे, यह सब बातें शास्त्रीय नहीं हैं। समझ में आ रही बात? और गुरु की भी यही पहचान है। जो इस प्रश्न का उत्तर दे कि तुम कौन हो, वह गुरु है। और बाकी इधर-उधर की पचास बातें हों कि पपीते का रस पीना है कि कद्दू का रस पीना है, जो इस तरह की बातें करे उसका ठीक है वो, ‘मेरठ जूस भंडार’, लेकिन वो गुरु नहीं हो गया। समझ में आ रही बात?
तो शास्त्र मत कह दिया करो जल्दी से किसी भी किताब को, कि शास्त्र कहते हैं ऐसा वैसा। स्वर्ग क्या, नरक क्या, क्या कहता है निरालंब उपनिषद? ऐसी संगति करना जो मन को शांति दे सके स्वर्ग है; ऐसी संगति करना जो मन को और अशांत कर जाए, वही नर्क है। तो कोई स्वर्ग-नरक नहीं है जहाँ पर आत्मा या सूक्ष्म शरीर निकलकर के जाएँगे मृत्यु के बाद। इसी दुनिया में अगर तुम्हें अच्छी संगति मिली हुई है, तो उपनिषद कहते हैं, यही स्वर्ग है। इसी दुनिया में अगर तुम्हें बुरी संगति मिली हुई है, तो उपनिषद कहते हैं, यही नर्क है।