प्रश्नकर्ता: सबसे पहले तो सर खुशी हो रही है मुझे आपके समक्ष अपना प्रश्न रखने की। और मेरा प्रश्न सर आज का आतंकवाद से जुड़ा हुआ है। अभी हाल ही में रूस की राजधानी मॉस्को के एक मॉल में आतंकवादी हमला हुआ है। तो सर आतंकवादियों ने बड़ी क्रूरता बरती है। और ये हमले कोई नए नहीं हैं, होते ही रहते हैं। भारत के अन्दर छब्बीस/ग्यारह (२६/११) मुंबई में सन् २००८ में हुआ था। पाकिस्तान के इस्लामाबाद के एक आर्मी स्कूल में फायरिंग हुई थी, बच्चों की जान ले ली गई थी। तो सर हम एक-दूसरे की जान के पीछे क्यों पड़े हुए हैं? ये क्रूरता सर कहाँ से आ रही है? मैं इस पर स्पष्टता चाहता हूँ, देखी नहीं जाती सर ये। लोगों पर गोलियाँ चलाना…
आचार्य प्रशांत: देखो, इसका जो जवाब है, वो चटपटा नहीं है। जब ऐसी घटनाएँ होती हैं न, जो हमें झकझोर देती हैं तो हम उनके जवाब भी आँधी-तूफान जैसे ही चाहते हैं। और आँधी-तूफान जैसी घटनाओं को आँधी-तूफान जैसे ही जवाब देना, आग को आग से ही जवाब देना, सिर्फ भीतर के अहंकार को, अज्ञान को ही सन्तुष्ट करता है। तो चटपटे जवाबों में मज़ा तो आएगा, समाधान कुछ नहीं निकलेगा। एक आदमी दूसरे आदमी को क्यों मार देता है? क्योंकि उसको लगता है कि दूसरे आदमी को मारकर उसको संतुष्टि मिल जाएगी।
जो मैं बोलने जा रहा हूँ वो बात बड़ी फीकी, हो सकता है उबाऊ-सी लगेगी लेकिन असली बात ये है कि, चेतना आनंद-धर्मा होती है! चेतना का धर्म ही है, ‘आनंद की ओर जाना।’ जैसे अहम् का धर्म है आत्मा की ओर जाना न? उसी बात का समानार्थी होता है, ‘चेतना का धर्म है आनंद की ओर जाना।’ क्योंकि चेतना की जो सामान्य साधारण स्थिति होती है, वो किसकी होती है? दुख की।
तो दुख का धर्म होता है आनंद की ओर जाना। दुख के लिए और कोई धर्म नहीं हो सकता। दुख के लिए और क्या धर्म होगा? आनंद की ओर जाओ। इसी बात को हम ऐसे कह देते हैं, कि भक्त का धर्म है भगवान की ओर जाना या अहम् का धर्म है, या अज्ञान का धर्म है ज्ञान की ओर जाना। वो बिल्कुल सब एक ही बातें है कि चेतना आनंद-धर्मा होती है।
तो कोई भी आदमी कुछ भी कर रहा है वो ये ही सोच कर रहा है कि इससे आनंद मिल जाएगा। और उस आनंद की कमी सबको है।
पर मूढ़ हम इतने होते हैं कि ख़ुद को भरोसा दिला लेते हैं कि किसी का खून बहाकर के आनंद मिल सकता है। ये अज्ञान है। और अज्ञान — हम बहुत बार चर्चा कर चुके हैं — ज्ञान का अभाव नहीं कहलाता अज्ञान। अज्ञान माने, ‘ झूठा ज्ञान, झूठे ज्ञान को ही बोलते हैं मान्यता, पता नहीं है पर मान लिया है।’ ये ही झूठा ज्ञान होता है, इसी को अज्ञान भी कह दिया जाता है। पता तो कुछ नहीं है बस मान लिया है, ये मान्यता होती है।
क्यों माना जाता है? इसलिए माना जाता है क्योंकि छोटा बच्चा पैदा होता है, जैसे ये (सामने एक बच्चे की ओर इशारा करते हुए) अभी छोटू है, आप इधर से कोहनी मार दो, बेचारा डर जाएगा। क्योंकि वो छोटा है न। क्यों डर जाता है? क्योंकि प्रकृति आपकी देह की सुरक्षा चाहती है। अगर वो डर जाएगा तो डर के यहाँ से भाग जाएगा, तो उसकी सुरक्षा हो जाएगी। शेर को देख कर हिरण डर जाता है, डर कर क्या करता है? भागने से उसकी जान बच जाती है। तो प्रकृति की पूरी विकास यात्रा में डर उपयोगी रहा है भाई। देह को बचाने के लिए डर की उपयोगिता है, है कि नहीं है?
वो रात में बाहर जाने को बोल रहा है, ‘मैं तो बाहर जाऊँगा।’ तो बोलते हो, कि वो ‘बाहर घूम रहा है बाबा अपना लोटा लेकर। तुम्हें लोटे में भर लेगा, ले जाएगा।’ तो फिर ये बाहर नहीं जाता। बाहर जाता, हो सकता है बाबा न हो पर ट्रैफिक (जाम) हो, चोट लग सकती थी, कुछ भी और हो सकता था, खो सकता था। तो डरा कर के उसकी देह की तो सुरक्षा हो ही गई। तो डर होता है हमारे पास और डर से आती है मान्यता। मान्यता ही झूठा ज्ञान है, झूठा ज्ञान ही अज्ञान है। डर एक व्यवस्था है जो प्रकृति ने हमारे देह में ही बैठा रखी है और वो व्यवस्था उपयोगी रही है। प्रकृति में कुछ भी अनुपयोगी नहीं होता। बस प्रकृति में जो कुछ होता है वो देह के लिए उपयोगी होता है, अनुपयोगी कुछ नहीं होता।
आप जिन बातों को बड़ा भारी दुर्गुण बोलते हो न, देह के लिए वो भी उपयोगी बातें हैं। वो सब उपयोगी है। जिन बातों को लेकर आप बोलते हो, ‘अरे, बुरा आदमी है, ऐसा करता है!’ आप गौर से देखना, प्रकृति की यात्रा में वो जो कुछ कर रहा है, उसकी कभी-न-कभी कुछ उपयोगिता थी। दिक्कत बस ये है कि अज्ञान के मारे वो आज भी वही सबकुछ कर रहा है जब आज उसकी कोई उपयोगिता नहीं है।
उदाहरण के लिए हम काना-फूसी करना कितना पसंद करते हैं, करते हैं कि नहीं करते हैं? है न? ये विकास यात्रा के समय का सोशल मीडिया है। तब फ़ोन भी नहीं है कि किसी को कुछ बता दो। व्हाट्सएप्प नहीं है, फेसबुक नहीं है, टीवी नहीं है तो खबरें कैसे फैलती थीं फिर? गॉसिप (गप्प करना) से। तो अब खबरों का फैलना बहुत ज़रूरी है, खबर फैलेगी तभी फायदा होगा।
मान लो, ये ही खबर फैलनी है कि फ़लानी जगह पर कुछ पेड़ हैं, उन पर फल आ गए हैं। तो ये कैसे फैलेगा? एक जाकर बताएगा उसको, उसके कान में फूँकेगा कि सुन री कल तेरे लिए बढ़िया वाला आम लेकर आऊँगा। वो सोचेगा मैंने इसको बता दिया है, ये किसी को नहीं बताएगी, ये पता है नही कि वो तीन और को बता आई। उन तीन ने आठ और को बता दिया। ऐसे-ऐसे करके आमों का अच्छा बँटवारा हो जाएगा अब। नहीं तो एक जीता बाकी सब मर जाते और प्रकृति संख्याओं में विश्वास रखती है।
खरगोश के एक साथ आठ बच्चे होते हैं। प्रकृति चाहती है संख्याएंँ बढें। प्रकृति ये नहीं करेगी कि एक बचा रहे बाकी सब मर जाएँ। तो काना-फूसी भी इवोल्यूशनरी टर्म्स (उत्पत्ति के काम) में उपयोगी रही है। आज हम कहते हैं, ‘अरे, गॉसिप मोंगर (गप्प करनेवाला) है, इधर-उधर गॉसिप करता है!’ कभी उस गॉसिप से बहुत फायदा था। लेकिन वो फायदा हमेशा किसको होगा? (देह की ओर इशारा करते हुए)। क्योंकि प्रकृति की पूरी बात ही किसकी रक्षा की है? (देह की ओर इशारा करते हुए)।
प्रकृति को कोई लेना देना नहीं है आपकी चेतना कितनी ऊपर जा रही है, कितना नीचे जा रही है। आप चेतना के बहुत ऊँचे हैं तो भी आप प्रकृति के लिए उसके बच्चे हैं, आप चेतना के एकदम मरे हुए, गिरे हुए हैं तो भी प्रकृति आपको अपनी सारी नियामतें बराबर में देगी।
धूप खिलती है, बुद्ध या अंगुलीमाल हैं, किस पर ज़्यादा पड़ती है? बराबर पड़ती है। वायरस आते हैं तो बुद्ध को नहीं लगते क्या? बुद्ध भी बीमार होकर के ही मरे थे। पेट की बीमारी हुई थी, बहुत दिनों तक बीमार रहे। एक दिन में गए भी नहीं, फिर धीरे-धीरे…। प्रकृति के लिए कोई मतलब नहीं है। रामकृष्ण परमहंस, रमण महर्षि; प्रेम मार्ग, ज्ञान मार्ग के दो अग्रणी महापुरुष, दोनों कैंसर से गए थे अभी सौ साल पहले। प्रकृति को कोई लेना देना नहीं।
तुम्हारी चेतना बहुत ऊँची हो बहुत नीची हो, प्रकृति के नियम सबके लिए बराबर हैं। वो बस ये चाहती है कि तुम्हारी देह बची रहे।
और बची भी ऐसे नहीं रहे की कि देह चलेगी दो हज़ार साल। कि कह रहे हैं, ‘जितने दिन देह है उतने दिन में पाँच-सात बच्चे पैदा कर दो।’ प्रकृति बार-बार आपको यही सन्देश भेजती है, ‘बच्चे कहाँ हैं? बच्चे कहाँ हैं? बच्चे कहाँ हैं?’ आपकी चेतना का क्या हुआ, आपके ज्ञान का क्या हुआ, आपकी मुक्ति का क्या हुआ, प्रकृति को इससे कोई मतलब नहीं है। आप एकदम बेवकूफ़ मर जाओ लेकिन आपने पाँच बच्चे पैदा कर दिए, प्रकृति का उद्देश्य पूरा हो गया। बात समझ में आ रही है ये?
प्रकृति जो कुछ हमारे साथ करके रखती है, उसमें डर भी शामिल है। सब जीवों में डर पाया जाता है। निश्चित-सी बात है कि डर ऐसी चीज़ नहीं जो बस समाज ने आपमें डाल दिया है; डर हम अपनी देह के साथ लेकर पैदा होते हैं। चूँकि हममें डरने की वृत्ति है इसीलिए समाज भी हमें डरा लेता है। वृत्ति पहले से होती है, समाज डरा बाद में लेता है। समाज हमें जो डराता है, वही चीज़ बनती है हमारी मान्यता। क्या बनती है? मान्यता। मान्यता ज्ञान को रोकती है।
अब अगर समाज ने आप में ये बात डाल दी कि दस लोगों को मार दो, इससे तुमको अद्भुत सुख मिलेगा। और आप डरे हुए आदमी हो। आपने समाज की ये बात मान ली तो आप दस लोगों को मार दोगे, आप आतंकवादी बन जाओगे। आतंकवादी के फिर पीछे कौन है? वो व्यवस्था जिसने उसमें मान्यता भर दी। जिसने कहा, ‘नहीं, सोचना नहीं, पूछना नहीं, जो कहा जा रहा है बस मान लो।’ चाहे वो धर्म की व्यवस्था हो, चाहे शिक्षा की, चाहे समाज की, चाहे परवरिश की और चाहे इन सब की संयुक्त व्यवस्था हो।
जब व्यवस्था ऐसी होती है तो छोटा-सा ही होता है बच्चा, उसमें क्या बैठ जाती है? मान्यताएँ बैठ जाती हैं। जब मान्यताएँ बैठ जाती हैं और चेतना आनंद-धर्मा होती है, मान्यता बैठ गई है कि आनंद तो मिलेगा फ़लानो को मारकर, तो वो मारेगा। बस ये ही है। चटपटा नहीं मिला जवाब? अच्छा नहीं लगा होगा? पर बात ये ही है। हर आदमी अपनी मान्यताओं पर चल रहा है, बिरला होता है कोई जो बोध पर चलता है।
और आपमें मान्यता बैठा दी जाती है क्योंकि भीतर उपजाऊ भूमि है जिसमें मान्यता के बीज डाले जा सकते हैं। भीतर की इस उपजाऊ प्राकृतिक भूमि को ही मैं कह रहा हूँ डर की ज़मीन है। डर की ज़मीन पर मान्यता के बीज डल जाते है। ‘अरे, फ़लाने महापुरुष ने बात कही है तो बिल्कुल सही होगी। मैं कौन होता हूँ प्रतिवाद करने वाला, चुपचाप बात को मान लो।’ अब ये बात क्या बन जाएगी? मान्यता। ‘अरे, फ़लानी किताब में लिखी है और ये किताब तो भाई ज़बरदस्त किताब है, रिवील्ड बुक है तो जो कुछ भी लिखा है, चुपचाप बस मान लो।’
तुमने कभी कुछ सोचा? समझने की कोशिश करी? तुम्हें बस डरा दिया गया है कि तुम ये बातें नहीं मानोगे तो तुम जाकर कहीं सड़ोगे। मरने के बाद कहीं जाकर नर्क में, दोज़ख में, हेल (नर्क) में सड़ोगे, तो तुम वो सब बातें माने ले रहे हो, बिना समझे तुमने मान लिया। और मानी एक ही चीज़ जाती है, आप जो भी कुछ मान रहे हो उसको मानने के पीछे उद्देश्य बस एक ही है। किसी तरीके से दुख से राहत मिल जाए, चेतना आनंद-धर्मा है। किसी तरह से दुख से राहत मिल जाए।
आपको बोला गया है कि दूसरों को मारकर आपको दुख से राहत मिलेगी, आप मार दोगे। नैतिकता बहुत दूर तक नहीं जाती।
किसी आदमी से आप उसके गन्दे काम छुड़वाना चाहते हों तो आपको एक बात बताए देता हूँ, ‘उसे ये मत बताइएगा कि तुम जो कर रहे हो उससे दूसरों को कितना दुख है। उसे बताइएगा कि तुम जो कर रहे हो उससे तुमको कितना दुख है।’
एक बार किसी कॉलेज में था, वहाँ पर एक खड़ा हो गया तो बात हो रही थी इसी पर — पशु हत्या, पशु क्रूरता पर। तो स्मार्ट दिखने के लिए वो बोलता है, ‘पर मैं तो अभी लंच में ही चिकन खाकर आया हूँ।’ मैंने कहा, ‘मुर्गा तो गया, अब उसे कोई दुख नहीं हो सकता। अब तेरा क्या होगा, तू ये बता?’ और माहौल कुछ ऐसा था और बात कुछ ऐसे अंदाज़ में हुई थी कि उसका चेहरा फ़क्क पड़ गया बिल्कुल। मैंने कहा, ‘बात मुर्गे की नहीं है, तू मुझे ये बताना चाहता है कि तूने मुर्गा खत्म कर दिया।’ मैं कह रहा हूँ, ‘मुर्गा खत्म हो गया तो मुर्गे को तो आगे कोई दुख भी नहीं है, अब तेरा क्या होगा? तू बता! तुझे तो अभी जीना है।’ बात ये नहीं है, मुर्गे को कितना दुख हुआ, बात ये है कि अब तुझे कितना दुख होगा।
किसी से आप उसके गुनाह छुड़वाना चाहते हों तो उस व्यक्ति को उस तक लाइए, उसको बोलिए, ‘अपने ऊपर आ, अपने ऊपर! इसका तुझ पर क्या असर होगा।’ और अगर वो ये नहीं देख पा रहा कि उसके ऊपर क्या असर होने वाला है उसके गुनाहों का, तो वो बाहर बड़ी-से-बड़ी हत्या कर सकता है।
अभी दो-चार लोग नहीं मरे हैं आतंकवादी घटना में रूस में, दर्जनों मरे हैं, पचास से ऊपर गए हैं। स्कूलों में घुस जाते हैं अमेरिका में, वहाँ पर गन कल्चर है, बन्दूकें आसानी से मिल जाती हैं, तो कहते हैं कि मारने के लिए सबसे अच्छे छोटे बच्चे होते हैं, इनको मारो तो ये भाग नहीं पाते।’ तो स्कूलों में घुस जाएँगे, हर साल ऐसी वहाँ एकाध-दो घटना होती है। और एक घुस जाएगा; और आमतौर पर ये वो होते है जो गेमिंग एडिक्ट्स (गेम की लत) होते हैं जिन्होंने गेम्स में खूब बंदूक चलाई होती है। तो कहते हैं कि स्क्रीन पर ही खून बहाकर क्या मिल रहा है। ‘मुझे तो अब बहता हुआ खून देखना है। उसके लिए छोटे बच्चे चाहिए, बढ़िया वाले।’
तो स्कूलों में घुस जाएँगे, वहाँ पर अंधाधुंध फ़ायरिंग शुरू कर देंगे। उसमें कभी सौ बच्चे मरेंगे कभी दो-सौ मरेंगे। उसको आप कहेंगे, बच्चों पर रहम करो, आप बहुत सफल नहीं हो पाएँगे। बच्चों पर रहम करो, दूसरों पर रहम करो, अपने पड़ोसी के साथ वही व्यवहार करो जो तुम अपने साथ देखना चाहते हो, ये सब बातें बहुत सफल नहीं हो पाईं है। सफल तो एक ही चीज़ हो सकती है कि तुम ये जो कर रहे हो न, इससे तुम्हारा ही दुख बढ़ेगा। देखो, अहम् स्वार्थी ही होता है और उसी के स्वार्थ का उपयोग करके उसे स्वार्थ से मुक्त करना होगा।
दिखाना होगा कि तुम जो कर रहे हो इसमें तुम्हारा ही स्वार्थ मारा जा रहा है। जो तुम कर रहे हो इसमें तुम्हें ही दुख मिलने वाला है।
और अगर ये बात नहीं बताई गई और इन बातों की जगह और उल्टी-सीधी मान्यताएँ उसके दिमाग में डाल दी गईं, उदाहरण के लिए धर्म के नाम पर या विचारधारा के नाम पर, आइडिओलॉजी, तो वो कोई भी काम कर सकता है। वो कहेगा, ‘मैं जो कर रहा हूँ, ठीक ही तो कर रहा हूँ।’ क्योंकि कुछ भी ठीक है या नहीं, इसका मौलिक पैमाना तो यही होता है कि उसका मुझ पर क्या असर हो रहा है।
ये इंसान कह रहा है, ‘मुझे दूसरों को मारकर सुख मिल रहा है,’ तो आप इसे आश्वस्त, कन्विंस नहीं कर पाओगे कि तूने कुछ गलत करा। वो कहेगा, ‘पर मुझे अच्छा लगता है। और आखिरी बात तो ये है कि मैं हूँ, मैं चेतना हूँ। चेतना-आनंद धर्मा है, जिस चीज़ से मुझे आनंद है वो तो मैं करूँगा। तुम कितना भी बोल दो कि जो मैं कर रहा हूँ वो पाप है, गुनाह है, गलत है, मैं तब भी करूँगा।’ आप उसे रोक नहीं सकते।
रोकने का तो एक ही तरीका है। भीतर को जाओ और देखो कि तुम जो कर रहे हो वो तुम्हे ही भारी पड़ने वाला है, ये रोकने का तरीका है। लेकिन मान्यता ये देखने से रोक देती है। मान्यता कुछ भी हो सकती है — बकरे को काट देंगे, चाहें मस्जिद में चाहें मन्दिर में। अभी होली आ रही है, होली पर भी बकरे खूब कटते हैं। और बकरीद पर तो कहना ही क्या! करोड़ों मान्यता!।
उसको काटने से मज़ा आता है, सुख मिलता है या पुण्य मिलता है या जन्नत मिलती है। तुम्हें कैसे पता? तुम सिर्फ़ डरे हुए हो इसलिए किताब में लिखा है तुमने मान लिया, तुम सिर्फ़ डरे हुए हो। तुम काँप रहे हो डर से, तुम थरथरा रहे हो। तुम्हें कुछ पता नहीं है। तुम इतने से थे, जितना छोटा ये (सामने बच्चे की ओर इशारा करते हुए) है अपना और किसी ने आकर तुम्हें डरा दिया, तुम्हारे कान में बातें भर दीं, तुमने मान लिया है। और वही मान्यता फिर तुम्हें आतंकवादी भी बनाती है, सौ तरह के गुनाह तुमसे करवाती है।
क्योंकि तुमने कभी पूछने की हिम्मत नहीं दिखाई, वैसे तो बहुत मर्द बनकर घूमते हो, आतंकवादी आमतौर पर पुरुष ही होते हैं भाई! हट्टे-कट्टे पुरुष। वैसे तो बड़ी जवानी है और बड़ी ताकत, बड़ी मर्दानगी। पर इतनी तुममें हिम्मत नहीं है कि पूछ लो कि मेरे दिमाग में जो मान्यताएँ डाली गई हैं, इनका कोई आधार भी है अन्धे विश्वास के अलावा? कोरे यकीन के अलावा इन बातों का कोई आधार है?
‘और मैं क्यों करूँ यकीन जब जानने की मुझमें एक क्षमता है तो। मैं अपनी ही क्षमताओं का अपमान कर रहा हूँ, बिना जाने-बूझे कुछ भी मानकर के।’ मान्यताओं में भी बताई वही सब बातें जाती हैं जिनसे कि सुख मिलेगा। ‘तुम ये सब करोगे अगर तो तुम्हें पुण्य मिल जाएगा या स्वर्ग या जन्नत मिल जानी है।’ किसका लालच दिया जा रहा है? सुख का, क्योंकि चेतना आनंद-धर्मा है। तो लालच तो सुख का ही दिया जाता है।
लेकिन जो रास्ता सुख का बताया जा रहा है उससे सुख मिलना है नहीं। लेकिन ये बात तब न पता चले जब सवाल-जवाब करो, जब कुछ मौलिक प्रयोग करो, जब ईमानदारी से एक जवान आदमी की तरह अड़ कर खड़े हो जाओ कि ऐसे नहीं मानूँगा, समझा दो तो मान लूँ। वो हम अड़कर नहीं खड़े हो पाते क्योंकि जब इतने से थे तभी से हमको डरा दिया जाता है। और हम डरे हुए हैं। सब डरे हुए हैं।
मैं उदाहरण देता हूँ आपको, मैं सिद्ध कर देता हूँ आप डरे हुए हैं। कोई कितना भी यहाँ बैठा हो, बड़ा आत्मज्ञानी हो रहा हो, आपको अभी श्मशान वगैरह में छोड़ दिया जाए अँधेरे में, अच्छा ये मानने में दिक्कत होगी कि डर जाएँगे, असहज तो हो जाओगे। हो जाओगे कि नहीं? अपने ही कमरे में सो रहे हो रात में और अचानक खटपुट-खटपुट शुरू हो जाए तो दिल धक्क से होता है कि नहीं? होता है कि नहीं? फिर जाकर पड़ोसी के कमरे में जाकर (दरवाज़ा खटखटाने का इशारा करते हुए), ‘क्या आज मैं यहाँ सो सकता हूँ?’ होता है या नहीं होता है?
अंजान जगहों पर लोग जाते हैं तो बत्ती जला कर सोते हैं। पड़ोसी के घर में कोई घटना घट गई है तो अपने घर में नींद नहीं आती कि रूह घूम रही होगी इधर-उधर कहीं। जिस तरीके से तुम यकीन करते हो कि कोई बुरी चीज़ है बाहर जो अदृश्य है, घूम रही है, उसी तरीके से फिर तुम ये भी यकीन करते हो कोई अच्छी चीज़ है बाहर जो अदृश्य घूम रही है।
बहुत-बहुत साल पहले भूतों को लेकर मैंने कुछ बोला था। उस पर किसी का जवाब आया, मैंने कहा, ‘जवाब बिल्कुल सही है।’ बोले, ‘एक बात बताइए अगर भगवान हो सकता है, अदृश्य पॉजिटिव एनर्जी (सकारात्मक ऊर्जा), तो फिर भूत को भी तो होना पड़ेगा न? अदृश्य, निगेटिव एनर्जी (नकारात्मक ऊर्जा)।’ बोले, ‘अगर बोल रहे हो भूत नहीं है तो फिर भगवान भी नहीं है।’ ‘ये तो गज़ब तुमने समीकरण बैठाया!’ पर बात उसकी सही थी बिल्कुल।
हम तो मान्यता पर ही चल रहे हैं कि ये भी है, वो भी है, पता हमें कुछ नहीं है। और चूँकि हम भूत से डरते हैं इसीलिए हमें धर्म संबंधी और ईश्वर संबंधी जो मान्यताएँ दे दी गई हैं, हम उनसे भी डरते हैं। कोई बात आपको बता दी गई, आपमें हिम्मत नहीं होती उसको मना करने की, आपको लगता है भगवान रूठ जाएँगे। भूत से डरना ये भी तो बता रहा है न कि भगवान से भी तो डर रहे हो। जिस तर्क से आपको भूत से डर लगता है उसी तर्क से आपको भगवान से भी डर लगेगा, अदृश्य एनर्जी (ऊर्जा)।
और जो आपमें मान्यताएँ भरने आते हैं, धर्म वगैरह के नाम पर, वो यही तो बोलते हैं कि फ़लानी बात मानो नहीं तो तुम्हारा गॉड, ईश्वर, अल्लाह रूठ जाएगा और फिर सज़ा देगा। जब भूत में ताकत होती है कि वो आपका कुछ नुकसान कर सकता है, तो फिर भगवान भी आपका नुकसान कर सकता है। तो डरे बैठे हो। डरे बैठे हो लेकिन चाहिए क्या? सुख। तो सुख तलाशने निकलते हो अपनी डरी हुई मान्यताओं के माध्यम से। सुख तो चाहिए ही है क्योंकि चेतना आनंद-धर्मा है। लेकिन वो आनंद मिलेगा कैसे, ये इंक्वायर करने की, ये सचमुच जानने की हिम्मत हममें है नहीं।
तो हम सुख ही तलाशने निकलते हैं मान्यताओं के माध्यम से। तो मान्यता ने बोल दिया कि अगर इन सबको मार दोगे - ये दुश्मन हैं, पराए हैं, दुष्ट हैं, पापी हैं, काफ़िर हैं; इनको मार दो, इनको मारने से जन्नत मिलती है। तो मैं मार दूँगा क्योंकि मैं तो आनंद की ही तलाश में हूँ। सचमुच आनंद कैसे मिलना है, ये मुझे पता नहीं। मेरे भीतर मान्यता बैठा दी गई है कि मारकर आनंद मिलेगा, तो मैं मारकर आनंद पाना चाहूँगा।
अजमल कसाब का नाम याद है? वो अठारह-उन्नीस साल का लड़का! उसे आखिरी साँस तक भी अफ़सोस नहीं था कि उसने कुछ गलत करा। अपनी नज़र में वो हीरो ही रहा। अनपढ़ था और गरीब था!। और बचपन में ही उसको ले जाकर के उसके दिमाग में मान्यताएँ ठूँस दी गईं। अनपढ़! गरीब! मान्यताएँ ठूँस दी गईं, उसको बोला गया और पैसे दिए गए, उसके घरवालों तक को पैसे दिए गए। उसको लगा जो कर रहा हूँ, इससे इस दुनिया और उस दुनिया, दोनों दुनिया में सुख मिल रहा है। इस दुनिया में अभी मिल रहा है, फटेहाल घूमता था देखो पैसे वगैरह मिलने लग गए। अच्छे कपड़े मिल रहे हैं, ठसक से घूम रहा हूँ, हाथ में बन्दूक है।
ये बड़ी बात होती है, आप इस तरह के मिशन का हिस्सा हो, कोवर्ट (दबा-छुपा/प्रच्छन्न) मिशन है, उसमें आपको पहले ट्रेनिंग (प्रशिक्षण) दी जा रही है फिर आपको समुद्र के रास्ते बम्बई उतारा जा रहा है। उसको लग रहा है, एकदम लड़का, उसको लग रहा है, ‘मैं तो हीरो बन गया।’ ये सब तो मैंने फ़िल्मों में; हीरो करता है ये सब न, हीरो बाज़ी हो रही है। इस दुनिया में हीरो बाज़ी मिल रही है और उस दुनिया में मुझे जन्नत मिलेगी और हूरें मिलेंगी, तो उसने कर डाला। और कोई उसे समझा नहीं पाया आखिर तक भी कि तूने कुछ गलत करा है। फाँसी के फंदे पर भी उसको यही लग रहा था, उसने जो करा बिल्कुल ठीक करा। ये होता है मान्यताओं का कमाल।
बहुत कम हत्यारे होते हैं, चाहे वो आतंकवादी हों या चाहे उन्होंने और एकाध-दो हत्या करी हो, बहुत कम हत्यारे होते हैं जिन्हें आखिरी साँस में भी अफसोस होता है। उन्हें अफसोस होता भी है तो इस बात का कि धरे गए, या थोड़ा और सतर्क होता तो पकड़ा नहीं जाता। उनको अफ़सोस होगा तो इतना ही होगा बस।
क्या करें? (श्रोताओं से पूछते हुए)
अब आप तो आतंकवादी हो नहीं तो आप जो कर सकते हो, आपको वो बता रहा हूँ।
अपने बच्चों पर कोई बात थोपो मत, न विचारधारा के नाम पर, न धर्म के नाम पर, न किसी और चीज़ के नाम पर। तथ्य उनको बताओ और उनको सवाल करने दो। जो हो रहा है वो उनके सामने रख दो, क्या होना चाहिए ये मत बताओ। उन्हें पूछने दो, जानने दो, समझने दो।
अज्ञान ही सब हिंसा का कारण होता है और अज्ञान माने मान्यता, मान्यता माने हिंसा। मान्यता हो और हिंसा न हो, ऐसा हो नहीं सकता। हिंसा सिर्फ़ इसमें नहीं होती, किसी का खून बहा दिया। आप हैरान रह जाओगे कि मान्यता सूक्ष्म रूप से भी कितनी हिंसक होती है। आपको एक मान्यता दे दी गई है न कि ऊपर वाला तो हमें जोड़ों में भेजता है और हम सात जन्म के लिए एक-दूसरे के बने हैं। आपको पता है ये बात कितनी हिंसक है? इस बात को क्लाइमेट चेंज से ऊपर की वैश्विक समस्या माना जाना चाहिए। क्योंकि ये जो रोज़-रोज़ का नर्क है घर के अन्दर का, वही हमें फिर मजबूर करता है पूरी दुनिया को नर्क बनाने पर।
हम बोलते हैं न, ‘द फैमिली इज़ द यूनिट ऑफ़ द सोसायटी (परिवार समाज की इकाई है)।’ तो माने जितना नर्क है वो इसी यूनिट से शुरू होता होगा। यूनिट माने जहाँ से सब कुछ शुरू हो रहा है। वो सारा नर्क इसी मान्यता से शुरू होता है और इस मान्यता पर कोई लड़का, कोई लड़की कभी सवाल नहीं खड़ा करता। ये क्या चल रहा है कि पैदा हुए हो फिर दुनिया की आठ-सौ करोड़ आबादी में एक को ले लो और बिल्कुल उससे कमर-से-कमर बाँध लो। और मरकर भी रिहाई नहीं मिलेगी, सात जन्म तक कूदना है।
एक स्कूल में होती थी मुर्गा-दौड़, जिसमें क्या करते थे, दो को अगल-बगल खड़ा करते थे, दोनों की एक-एक टाँग बाँध देते थे और फिर उनकी रेस लगवाते थे। अब वो बेचारे दौड़ सकते नहीं और एक दूसरे से रिहा भी हो नहीं सकते और रेस भी पूरी करनी है। हाँ, कूद-कूद कर!, बोले, ‘एक टाँग तेरी रहेगी, एक टाँग तेरी रहेगी।’ और दोनों की एक-एक टाँग ऊपर बाँध दी है। और इसको हम बोलते हैं, ‘देखो, ये तो गृहस्थी की साइकिल के दो पहिए हैं।’ ‘भाई वो फोर व्हीलर (चार पहियों वाला वाहन) था, जिसको तुमने टू व्हीलर (दो पहियों वाला वाहन) बना दिया (सब हँसते हैं) और बहुत खुश हो रहे हो कि दो पहिए हैं। पर मान्यता!
कोई पूछे कि तुम्हें कैसे पता कि ऐसे ही जीना चाहिए, आपके पास कोई जवाब नहीं होगा।
जैसे कसाब के पास कोई जवाब नहीं था, पूछा जाए कि तुम्हें कैसे पता कि इन काफ़िरों को मारने से कुछ भलाई होती है। उसके पास कोई जवाब नहीं था। वैसे ही हमसे पूछा जाए, ‘हम जिन तरीकों से जी रहे हैं, हमें कैसे पता कि ऐसे ही जीना चाहिए?’ हमारे पास कोई जवाब नहीं है। हम कह देते हैं, ‘ऑब्वियस! वही-वही!’ क्या? ‘कॉमन सेंस (सामान्य बुद्धि) की बात है!’ एट्रोसियस (लेकिन आप जानते हैं मैं सामान्य ज्ञान को पूरी तरह से नज़र अन्दाज़ कर रहा हूँ, ये किस प्रकार का प्रश्न है, घोर-उद्दंड)! क्योंकि कोई जवाब नहीं है आपके पास। जब कोई जवाब नहीं होता तो हम इस तरह करना शुरू कर देते हैं, एट्रोसियस! थिस-दैट (उद्दंड ये वो)।
आपको कैसे पता ऐसे ही जीना है? आपका आपके पिता से क्या रिश्ता होना है, आपको कैसे पता ऐसे ही होना है? आपको कुछ नहीं पता, आपको एक ब्लू प्रिंट (खाका) दे दिया गया है जो आपकी मान्यता बन गया है। वो ब्लू प्रिंट न दिया गया होता तो आपका आपके पिता से वो रिश्ता नहीं होता जैसा है। और इसीलिए वो सब रिश्ते नकली हैं, सतही हैं और खोखले हैं। क्योंकि वो हमसे नहीं उपज रहे। वो हमें कोई ब्लू प्रिंट दे दिया गया है, एक मान्यता दे दी गई है कि अगर आप बच्चे हो, आपके पिताजी, उनसे ऐसा रिश्ता होना चाहिए। और ऐसा रिश्ता होगा तो सुख मिलेगा, चेतना आनंद-धर्मा है वो मान लेती है।
उसको बस इतना बता दो, बेचारी ऐसी भूखी रहती है न सुख की, उसे थोड़ा सा बता दो ऐसा कर लो, सुख मिलेगा। कहती है, ‘अच्छा कर लेते हैं। कर लेते हैं! भागते भूत के लंगोटी सही! दुख तो है ही इतना, कोई सुख के नाम पर थोड़ा बहुत भी कुछ डाल रहा है तो उसको लपक लेते हैं।’ हम जैसे जी रहे हैं हमें उसमें कुछ भी पता है क्या? अच्छा चलिए सवाल आपके लिए, ‘आपको न बताया गया होता तो आप जो कुछ भी कर रहे हो उसमें से आप पाँच प्रतिशत भी कर रहे होते है क्या?’ आप जो कुछ कर रहे हो और जो बातें आपके लिए बहुत बड़ी हैं और आपकी ज़िन्दगी का केन्द्र बन बैठी हैं, वो सब बातें वो हैं जो आपको किसी और ने बता दी है, आपकी मान्यताएँ हैं वो। इसीलिए फिर हमारे जीवन में न बोध होता है, न प्रेम होता है। क्योंकि मान्यता से न बोध आ जाएगा, न प्रेम आ जाएगा।
आपको नहीं बताया गया होता कि ऐसे-ऐसे करना होता है, एक तो जो ये शब्द है, ऐसा ही तो करना होता है; 'माने क्या?‘ थिस इज़ हाउ इट सपोज़ टू बी डन (ऐसा ही होना चाहिए)! सपोज़्ड (मानना) मतलब क्या? नो, बट दैट्स हाउ एवरीबडी डज़ इट (नहीं, लेकिन हर कोई ऐसा ही करता है)! सो? इज़ दैट द आर्ग्युमेंट (तो क्या यही तर्क है?) दैट्स हाउ एवरीबडी डज़ इट (कि हर कोई ऐसे ही करता है)! नहीं, लेकिन हर कोई ऐसा ही करता है, तो यही तर्क है कि हर कोई ऐसे करता है। यही तो बोला जाता है। वो सब न बताया जाए तो कैसे जिओगे? बोलो?
सचमुच स्वाधीन होते हम, सचमुच स्वतन्त्र होते, तो हम जो कुछ भी कर रहे हैं और जैसे आज जी रहे हैं, उसका पाँच प्रतिशत भी वैसा ही कर रहे होते क्या? तो सोचो कैसी गुलामी की ज़िन्दगी है हमारी!
वो जो आतंकवादी है वो भी एक गुलाम है अपनी सामाजिक व्यवस्था का, अपनी धार्मिक मान्यताओं का, वगैरह, वगैरह, जो भी बातें हैं।
और जिन क्षेत्रों में, जिन समुदायों में मान्यताओं को मानने पर जितना ज़्यादा ज़ोर होगा, वहाँ से आतंकवादी उतने ज़्यादा पैदा होंगे, ये नियम समझ लीजिए अच्छे से। जहाँ आपको जितना डरा कर रखा जाएगा वहाँ आप उतना ज़्यादा समाज में भी आतंक फैलाओगे, क्योंकि डर ही तो आतंक है। आपको भी बचपन से आतंकित करके रखा गया था, आप बड़े हो जाओगे आप दुनियाभर को आतंकित करके रखोगे। और सबसे ज़्यादा जो चीज़ हमें आतंकित करके रखती है वो है धर्म।
ऊपर कोई बैठा है जो रूठ जाएगा, एकदम डर जाते हैं! मानो उसकी बात! क्योंकि उसका तुम्हारे सिर्फ़ इस जन्म पर नहीं, जन्म-जन्मान्तर पर अधिकार है। वो तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा। वो तुम्हें खौलते कड़ाहों में, तेल में उबाल देगा। डरो उससे और जो भी बात है मानो। ये छोटा बच्चा आतंकित ही तो किया जा रहा है न? तुम उसको बचपन से आतंकित करके रखोगे, वो बड़ा होकर के आतंकवादी बनेगा। क्योंकि उसके साथ भी आतंकवाद ही किया गया है।
मान्यता माने आतंकवाद। मान लो बस, और कोई पूछे तो उसको थप्पड़ मार दो। या कुछ ऐसा उल्टा-पुल्टा जवाब दे दो जिसका न सिर न पैर। कि कोई पूछे, ’प्याज़, लहसुन क्यों नहीं खाने चाहिए?’ बोले, ‘आसमान में एक गधा रहता है। उस गधे ने ऊपर से टट्टी (मल) करी, तो उसमें से नीचे लहसुन पैदा हो गया। तो इसलिए लहसुन नहीं खाना चाहिए।’ अब ये जवाब है? ये आतंकवाद है। ऐसे ही तो होते हैं जवाब हमारे और कैसे होते हैं?
‘पापा आप रोज़ ऑफ़िस क्यों जाते हो?’ ‘बेटा, समथिंग, समथिंग!' (कुछ, कुछ) ‘नहीं, और बताओ! और बताओ! और बताओ!’ तीसरे सवाल तक आते-आते पिताजी गाड़ी में बैठकर जा चुके हैं। इतना उनको पता होता कि वो रोज़ ऑफ़िस क्यों जाते हैं तो ये नुन्नू पैदा ही नहीं हुआ होता। जिस तरीके से वो ऑफ़िस जाते हैं अन्धकार में, उसी अन्धकार में नुन्नू भी पैदा हुआ था। तो वो नुन्नू को क्या समझाएँ कि ऑफ़िस क्यों जाते हैं। कुछ नहीं पता उनको। ये सब आतंकवाद है।
डर! डर! डर ज्ञान का दुश्मन है और ज्ञान के बिना सुख नहीं हो सकता। हमारे लिए एक दुर्भाग्य की बात ये कि हम चेतना के जीव हैं। और चेतना ज्ञान माँगती है। उसको ज्ञान दोगे तभी उसे सुख होगा। उसे ज्ञान नहीं दोगे तो वो छटपटाएगी। ज्ञान की जगह उसको मान्यता दोगे तो वो और छटपटाएगी। और मान्यता में ये बोल दोगे कि फ़लाना उल्टा-पुल्टा काम कर लो, सुख होगा, तो जाकर वो उल्टा-पुल्टा काम कर देगी। भले ही उस उल्टे-पुल्टे काम में निर्दोशों का खून बहता हो।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जो सरकारें हैं कहीं-न-कहीं ये भी आतंकवाद को बढ़ावा ही दे रही हैं?
आचार्य प्रशांत: जो भी कोई तुम्हारे ऊपर डर थोपे वो आतंकवाद ही कर रहा है। आतंकवाद का क्या मतलब है? मेरा तुम्हारा रिश्ता बोध के आधार पर नहीं बनेगा, इस आधार पर बनेगा कि तूने कुछ बोला तो मैं थप्पड़ मार दूँगा। तूने कुछ बोला तो मैं थप्पड़ मार दूँगा, इसको बोलते हैं आतंकवाद। ज़्यादा सवाल करेगा, थप्पड़ मार दूँगा! या कुछ और तेरा नुकसान कर दूँगा! चढ़ बैठूँगा या तुझे जेल में डाल दूँगा! ये आतंकवाद है।
मेरे तेरे रिश्ते की बुनियाद होगा डर, इसको कहते हैं आतंकवाद।
प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी।