आस्तिक और नास्तिक || (2018)

Acharya Prashant

6 min
189 reads
आस्तिक और नास्तिक || (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अभी भजन की बात करी हमने, मैं कबीर जी के श्लोक की किताब पढ़ रहा था, उसमें लिखा भी हुआ है कि जो व्यक्ति प्रभु का भजन नहीं करता वो बुद्धिहीन होता है, उसका जीवन अपवित्र होता है, तो हम ये बोल सकते हैं की इस संसार में जितने भी नास्तिक हैं, उनका जीवन अपवित्र है?

आचार्य प्रशांत: हाँ, बिलकुल बोल सकते हो, पर नास्तिक कोई होता ही नहीं है। लोग अलग-अलग तरह से आस्तिक हैं। नास्तिक कोई नहीं होता। जब तुम कहते हो, “अस्ति”, तो तुम किसकी अस्ति बता रहे हो, आस्तिकता का अर्थ है – तुमने हाँ भरी, “अस्ति” – है। तो तुम किसको कह रहे हो कि “है”?

ज़रूर अपने मन की ही किसी छवि को कह रहे हो कि 'है'। परमात्मा को तो यह कह पाना कि, “है”, बड़ी असम्भव बात है। ये ज़मीन है, ये कुर्सी है, ये कैमरा है, ये खम्बा है, ये सब “हैं”। परमात्मा को अस्ति कैसे बोल दोगे? अस्ति तो उस चीज़ को बोलोगे, जो सीमित है। अस्ति तो उस चीज़ को बोलोगे जो सामने है, दृष्टव्य है, इन्द्रियगत है। तो, जो आस्तिक बोलते हैं, वो भी अंततः अस्ति बस अपने आप को बोल रहे हैं। मैं हूँ, तो मेरे पास कोई परमात्मा की छवि है। यही हाल नास्तिकों का है। वो भी जब बोल रहे हैं, “न अस्ति”, तो वो किसका निषेध कर रहे हैं? परमात्मा का तो निषेध किया नहीं जा सकता। तुम बिलकुल ये कह सकते हो कि यहाँ पर एक कप नहीं है, “कप न अस्ति”। कप के बारे में कहा जा सकता है कि वो है, या नहीं है। परमात्मा के बारे में कैसे बोल दोगे, “न अस्ति”? तो, नास्तिक भी जब कह रहा है कि ‘नहीं है’, तो वो कह रहा है कि ‘मैं हूँ और मेरा कथन है कि परमात्मा नहीं है।’

दोनों ही स्थितियों में, दोनों एक बात पर तो राज़ी हैं, क्या? “मैं हूँ।” तो दोनों ही क्या हुए?

तुमने ये तो मान लिया न कि तुम हो? और ‘तुम हो’ से श्रृंखला शुरू होती है, जिसकी आखिरी कड़ी का नाम है 'परमात्मा'। तुम इतना ही मान लो यदि, कि और कुछ नहीं है संसार, बस मेरा ही प्रक्षेपण है, “मैं तो हूँ”, तो तुम आस्तिक हो।

आस्तिक सभी हैं, बस अपनी-अपनी तरह के आस्तिक हैं। असली आस्तिक कोई नहीं है। सब अपनी-अपनी तरह के आस्तिक हैं। निर्वैयक्तिक आस्तिक कोई नहीं है। सबके पास आस्तिकता की व्यक्तिगत परिभाषाएँ हैं। असली आस्तिकता होती है जब सिर्फ वो बचे जो वास्तव में है, जिसका वास्तव में “अस्तित्व” है। तुम बचो ही ना ये कहने के लिए कि “अस्ति” या “न अस्ति”। अस्तित्व मात्र बचे, तब हुए तुम आस्तिक। वो हुई विशुद्ध आस्तिकता। वैसे आस्तिक विरले होते हैं।

तुम तो अस्तित्व से अपने आप को काट कर बोलते हो, “परमात्मा है।” “परमात्मा अस्ति, परमात्मा घूम रहा है वहाँ पर, घास के ऊपर, वो उधर, पूर्व दिशा में वहाँ खड़ा हुआ है”, ऐसे बोलोगे ‘अस्ति’? और थोड़ी देर में तुम्हें नहीं दिखा, तो बोलोगे, “न अस्ति”। ये आस्तिकता, नास्तिकता का खेल ही बचकाना है। तुम बात किसकी कर रहे हो? उसकी जिसकी बात ही नहीं की जा सकती! तुम 'हाँ' या 'ना' किसको बोल रहे हो? जो 'हाँ' या 'ना' दोनों के पार है! और तुम देख भी नहीं रहे कि 'हाँ' या 'ना' बोलने में बस एक की सत्ता को तुम स्वीकार कर रहे हो, किसकी सत्ता को? अपनी।

चलो ठीक है, कोई बात नहीं। तुमने इतना तो मान लिया कि तुम हो? बस तुम हो तो परमात्मा है। बात ख़त्म। क्योंकि तुम हो यदि, तो तुम्हारी झिलमिल ही सही, मिलावटी ही सही, अपूर्ण ही सही, चेतना तो है न? उसी चेतना ने बोला न, कि ये है और ये नहीं है? कितनी भी तुम्हारी मिलावटी चेतना हो, वो ये तो प्रमाण देती ही है कि विशुद्ध चेतना भी हो सकती है। और विशुद्ध चेतना का नाम ही परमात्मा है।

गंदा जल भी तो गंगा जल का ही प्रमाण होता है। कि नहीं होता? अगर पानी गंदा हो सकता है तो साफ़ भी होता ही होगा? तो तुम अगर बेवकूफ़ी की बात कर सकते हो, कि ‘अस्ति’ या ‘न अस्ति’, तो पक्का है कि बोध भी कुछ होता ही होगा? अगर तुम इतनी अबोध बात कर रहे हो, कि परमात्मा है और परमात्मा नहीं है, दो जने ज्ञानी बैठ कर के, शास्त्रार्थ लड़ा रहे हैं। एक कह रहा है, "मैं आस्तिक", एक कह रहा है, "मैं नास्तिक"; जब तुम इतनी अबोध बात कर सकते हो, तो फिर बोध भी ज़रूर होता होगा।

खलिल जिब्रान की कहानी है कि जिसमें दो गुणी ज्ञानी मिलते हैं, एक होता है आस्तिक, एक होता है नास्तिक। और दोनों में बड़ी लड़ाई, तू-तू मैं-मैं हो जाती है, मार पिटाई हो जाती है, एक दूसरे के शास्त्र फाड़ डालते हैं। लेकिन एक दूसरे को तर्क दिए जा रहे हैं, एक दूसरे की बातें काटे जा रहे हैं। अगले दिन ये देखा जाता है कि जो नास्तिक है, वो मंदिर में सर नवा रहा है और जो आस्तिक है वो मंदिर को पीठ दिखा रहा है। ऐसी तो हमारी नास्तिकता, आस्तिकता हैं – धारणाएँ हैं।

धारणा माने समझते हो? जो कुछ तुमने धारण कर लिया हो। जो तुम धारण करते हो वो बदलता रहता है। अभी ये वस्त्र धारण किया है, पहले कुर्ता पहन कर आया था। जो धारण किया था वो बदल गया, धारणा बदल गयी। पर धारणा बदल भी रही है, इससे इतना तो साबित होता है कि धारण करने वाला कोई ज़रूर मिल जाएगा। हो गए आस्तिक। वो तो है न जो धारण कर रहा है? धारणा दो कौड़ी की, पर धारण करने वाला तो कोई हुआ? और, जो धारण करने वाला है, वो होगा कितना भी अनाड़ी, अशुद्ध, पगला, उसकी स्थिति बताती है कि उससे पीछे भी कुछ है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories