आशा है उपलब्ध महत को ठुकराना || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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आशा है उपलब्ध महत को ठुकराना || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

वक्ता: अजीत ने दो बातें कहीं। पहली यह कि उम्मीदें होती हैं, अपेक्षाएँ होती हैं तो कैसे ना सोचूँ कि सफल या असफल होऊँगा या नहीं, अपेक्षाएँ बैठी हुई हैं। अपेक्षा हमेशा किस बात की है? कि सफलता मिले और असफलता से बचें। दूसरी बात कही कि अगर ये मान लिया कि मैं तो पहले ही पूर्ण हूँ तो इस से अहंकार और पक्का हो जायेगा। तो क्यों मानूँ कि पूर्ण हूँ? दोनों बातों को एक-एक कर के लेंगे। सफलता से क्या आशय है तुम्हारा? जब तुम कहते हो कि सफलता चाहिए, तो वो सफलता, ध्यान देना शब्द पर, स-फ-ल-ता; फल, की अपेक्षा है, कि जैसे पेड़ में फल लगे। पेड़ में फल अपेक्षा कर के लगता है या पेड़ के स्वास्थ्य के कारण लगता है?

पेड़ में फल इस कारण लगता है क्योंकि तुमने खूब अपेक्षा की थी या इस कारण लगता है कि पेड़ सही जगह रोपा गया, उसको पानी, खाद, सब मिलता रहा? या पेड़ अपेक्षा कर-कर के फल देता है? कोई परीक्षा देते हो अजीत, तो सफलता, जिसको तुम सफलता बोलते हो, अभी तुम्हारी भाषा में बात कर रहा हूँ, उसमें सफलता कैसे मिलती है? तुम बैठे-बैठे अपेक्षा कर रहे हो कि सफलता मिलेगी, तब मिलती है या जब तुम्हें पढ़ने में समझ में आने लगा है और मजा आने लगा है तब मिलती है? तुम बताओ कि सफलताओं का अपेक्षा से सम्बन्ध ही क्या है? लगता तो है कि बहुत बड़ा सम्बन्ध है। पर ठीक-ठीक देखो और बताओ कि जिसको तुम अपेक्षा , उम्मीद, एक्सपेक्टशन कह रहे हो, उसका सफलता से वाकई कोई सम्बन्ध है क्या? वाकई कोई सम्बन्ध है क्या? लगातार जो कर रहे हो उसमें डूब कर सफलता मिलती है या इधर-उधर की सोच कर सफलता मिलती है? अभी एक फ़िल्म आयी थी, मिल्खा सिंह के ऊपर। फ़िल्म के एक सीन में वो दौड़ रहा है, दौड़ रहा है और बढ़िया दौड़ रहा है। अचानक मन वर्तमान से भटक कर अतीत में चला गया। दौड़ रहा है और बढ़िया दौड़ रहा है, सफलता मिलने ही वाली है। वो बढ़िया दौड़ रहा है और सफलता सामने है। सफल है ही क्योंकि सबसे आगे है, सफल है। अचानक वो सोचना शुरू कर देता है कुछ और। क्या हुआ सफलता का?

जब तुम परीक्षा में बैठे हो और लिख रहे हो, उसी समय अगर तुम्हारे दिमाग में सबकी अपेक्षाएँ घूमने लग जाएँ, तो तुम्हारा क्या होगा? फिर बस अपेक्षाएँ ही पूरी कर रहे हो। एक बात तो ये समझो। मैं तुम्हारे सामने बैठा हूँ, ठीक इसी वक़्त का एक उदाहरण ले लेते हैं। अभी मैं तुम्हें कैसा जवाब दूँ , वो जवाब जो उचित है या वो जवाब जो तुम्हारी अपेक्षा पूरी करेगा। तुम मुझसे क्या सुनना चाहते हो? वो जो मुझे कहना ही चाहिए या मैं तुम्हारी अपेक्षाएँ पूरी करूँ? अगर मैं तुम्हारी अपेक्षाएँ पूरी करने लग जाऊँ, तो तुम्हें मुझसे कुछ नहीं मिलेगा। क्यों? क्या अपेक्षा करोगे? जैसे तुम हो, वैसी ही अपेक्षा करोगे। अगर मैं उनको पूरा करने लग गया तो तुम्हें नया क्या मिला? मुझे किसी की अपेक्षा नहीं पूरी करनी और ना तुम्हें किसी की अपेक्षा पूरी करनी है। तुम्हें वो करना है जो तुम्हारी साफ़ दृष्टि से उस क्षण में उचित है। तुम्हें सिर्फ वही करना है जो तुम्हारी नज़र से उस समय उचित है। तुम्हारे लिए कुछ नहीं रह जाएगा इस संवाद में, अगर मैंने तुम्हारी अपेक्षाएँ पूरी कर दीं। मैं यहाँ तुम्हारी अपेक्षा पूरी करने नहीं आया हूँ और तुम भी मेरी अपेक्षा पूरी करने नहीं आये हो। ऐसे समझो कि जब मैंने पिछले प्रश्न का उत्तर दिया तो मैं अपेक्षा कर सकता था कि मेरी बात सबको समझ में आ ही गयी होगी। इतना बढ़िया वक्ता हूँ, इतनी ऊँची-ऊँची बातें बोलता हूँ, इतने अच्छे से समझाता हूँ, समझ में आ ही गया होगा। फिर जब तुम्हारे बीच में से एक अजीत खड़ा होता और कहता कि नहीं सर, मुझे बात समझ में नहीं आयी, मुझे नहीं जँची, मुझे अभी भी कुछ शक है तो क्या मैं अजीत की बात तो ठीक से ले पाता? क्या मैं उसको सम्मान दे पाता क्योंकि उसने मेरी अपेक्षा तोड़ दी? मेरी अपेक्षा क्या थी? कि मैंने इतना बढ़िया उत्तर दिया है, सुन्दर, ज्ञान से परिपूर्ण, तो तुम्हें समझ में आना ही चाहिए। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे उत्तर के खिलाफ कुछ कहने की? तुमने कैसे कह दिया कि ये उत्तर है अव्यवहारिक है। तुमने मेरी अपेक्षाएँ तोड़ दी हैं। अगर अपेक्षाओं पर चलें तो संवाद कैसे होगा, बातचीत कैसे होगी? ना मुझे तुम्हारी अपेक्षा पूरी करनी , और ना तुम्हें मेरी अपेक्षा पूरी करनी है। चूँकि हम एक-दूसरे की अपेक्षा नहीं पूरी करनी, इसीलिए ये सेशन सुन्दर है, इसलिए इसकी कुछ कीमत है, इसलिए इसमें कुछ जान है।

दिक्कत तब आती है जब एक-दूसरे की उम्मीदें पूरा करना शुरू कर देते हो। तुम उतनी ही उम्मीद करोगे जितनी दूर तक तुम्हारा दिमाग जाता है। और जिन्दगी और सच तुम्हारे दिमाग से बहुत आगे के हैं।तुम अपनी छोटी उम्मीदों से कुछ आगे नहीं समझ सकते। दूसरे लोगों की उम्मीदों में बँध जाना बड़ी बाध्यता है। तुम्हें जीवन इसलिए नहीं दिया गया है कि इधर-उधर सबकी अपेक्षाएँ पूरी करते फिरो। तुम दूसरों की उम्मीदें इसलिए पूरी करना चाहते हो ताकि वो खुश रह सकें। दूसरों कि उम्मीद पूरी करने में में अगर तुम दुखी हो गये, तो दूसरों को खुश कैसे करोगे? तुम दूसरों में ख़ुशी बाँटना चाहते हो पर दूसरों में तो ख़ुशी तब बाँटोगे ना जब तुम्हारे अपने पास होगी। जो तुम्हारे पास है नहीं उसको तुम बाँट कैसे पाओगे? तुम चाहते तो हो कि तुम दूसरों की उम्मीदें पूरी करो, दूसरों कि उम्मीदें पूरी करने के खेल में तुम खूब दुखी हो लेते हो। एक दुखी आदमी क्या बाँटेगा? दुःख ही बाँटेगा। तो जिसकी उम्मीद पूरी कर रहे हो, उसके साथ भी अन्याय कर रहे हो उम्मीद पूरी कर के।

दूसरी बात कि अगर मैं मान लूं कि मैं पूर्ण हूँ, तो इस से अहंकार और स्थूल हो जाएगा।देखो, अहँकार हमेशा अपूर्णता के विचार से निकलता है। ईगो क्या होती है? मुझे अपना कुछ पता नहीं, मुझे शक है कि मैं अपनी दृष्टि से जो देख रहा हूँ वो ठीक है भी या नहीं, इस कारण मैं दूसरों पर निर्भर हूँ। मैं साफ़-साफ़ नहीं देख पा रहा हूँ कि मैं कैसा हूँ। तो मुझे दूसरों से अपनी तुलना करनी पड़ रही है।इस तुलना का नाम अहँकार है।कोई मुझे बता दे कि मैं ठीक हूँ, तो मुझे लगता है कि मैं ठीक हूँ। कोई मुझसे आ कर कह दे कि तुम गलत हो, तो मुझे लगने लग जाता है कि मैं गलत हूँ। इसी का नाम अहँकार है। मैं दूसरों से श्रेष्ठ हूँ, इसका भी नाम अहँकार है और मैं दूसरों से नीचा हूँ इसका भी नाम अहँकार हैl इन दोनों में समान क्या था? दूसरे।

दूसरों की ओर देखना पड़े तो उसी के मन में अहँकार है। अहँकार का अर्थ है, दूसरों पर निर्भरता। दूसरों पर निर्भरता ही अहँकार है, वो उस रूप में। वो इस रूप में भी आ सकती है और दूसरे रूप में भी आ सकती है। वही अहँकार है। लेकिन जिसने ये जान लिया कि मैं अपनी नज़र से देख सकता हूँ, मैं काबिल हूँ, मैं पूरा हूँ, उसकी ज़िन्दगी में दूसरों पर आश्रित होना अब ख़त्म हो गया। जो आदमी अपने आप को पूरा जान लेता है, वो अहँकार शून्य हो जाता है। उसकी ज़िन्दगी में तुलना बची ही नहीं। ध्यान रखो, वो ये ही नहीं जानता कि वो पूरा है, वो ये भी जानता है कि हर कोई पूरा है। मैं यहाँ तुम्हारे सामने बैठा हूँ, मैं ये नारे नहीं लगा रहा हूँ कि मैं पूर्ण हूँ, मैं पूर्ण हूँ, मैं पूरा हूँ। मैं तुमसे कह रहा हूँ कि तुम पूर्ण हो, तुम पूरे हो। क्या तुम्हें ये अहँकार कि बात लग रही है? मैं तुमसे बैठ कर कहूँ कि तुम दबे-कुचले, नीचे हो और मैं ऊपर बैठा हूँ, मैं श्रेष्ठ हूँ, मैं महान हूँ, मैं यहाँ ऊँचे बैठा हूँ, तब तो तुमको लगे भी कि पूर्णता के भाव से अहँकार उठता है।

पर जो ये जान जाता है कि हर कोई अपने आप में अद्भुत है, हर कोई अपने-अपने तरीके से ख़ास है, वो ये बात सबके लिए जानता है, सिर्फ अपने लिए नहीं, तो उसमें अहँकार कैसा? तुम कहते हो कि मैं अपने तरीके से विशिष्ट हूँ, तुम अपने तरीके से ख़ास हो, मेरी अपनी विशिष्टता है, तुम्हारी अपनी विशिष्टता है। उसके मन में अपना ही नहीं, दूसरों का सम्मान भी बढ़ जाता है। उसके मन में अपना ही नहीं, पूरे अस्तित्व का सम्मान बढ़ जाता है। वो किसी को नहीं कहता कि तुम छोटे हो। वो जिसको भी देखता है, यही कहता है कि यही पूरा है, इसमें कोई खोट नहीं है, कोई कमी नहीं है। ये अहँकार नहीं है, ये अहँकार से बिल्क़ुल विपरीत बात है।

– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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