प्रश्नकर्ता: एक प्रश्न और है इसमें लिखा था आपकी ये 'दि बुक ऑफ़ मिथ्स्' में पढ़ा था मैंने पॉज़िटिव एंड नेगेटिव थिंकिंग के बारे में तो आपने उसमें लिखा है कि वाय इज़ होप आफ़्टर सफरिंग ( पीड़ा के बाद आशा क्यों?) कि हमेशा आशा ये कि कष्ट हो तभी आशा हो या अगर हम ठीक हैं उसके बाद भी हम अच्छा और अच्छा होने की आशा कर सकते हैं?
आचार्य प्रशांत: तो ये सब तो तुलनात्मक ही होता है न। सुख-दुख, अच्छा-बुरा ये सब तुलनात्मक ही तो होते हैं।
प्रश्नकर्ता: आशा?
आचार्य प्रशांत: आशा का अर्थ होता है कि जहाँ खड़े हैं उसकी तुलना में कुछ और बेहतर हो जाना है, यही तो आशा है। सुख और दुख कोई विरोधी चीज़ें नहीं होती हैं एक-दूसरे की। आप ये कहना चाहती हैं कि एक आशा होती है कि जब दुख में है व्यक्ति और सुख की आशा करे और एक आशा होती है कि जब व्यक्ति सुख में है और कहे कि थोड़ा और बेहतर हो जाए कुछ। नहीं, ये दोनों एक ही बातें हैं। क्योंकि दुख और सुख अलग-अलग नहीं होते हैं। बल्लू के नब्बे नम्बर आये ये सुख की बात है न। और पड़ोस के कल्लू के पंचानबे आ गये अब?
प्रश्नकर्ता: दुख, दुख की बात है।
आचार्य प्रशांत: दुख की बात है।
प्रश्नकर्ता: मगर दुख कैसा नब्बे में ही खुश हैं।
आचार्य प्रशांत: ऐसा होता नहीं। अगर ऐसा हो तो फिर तो नब्बे की भी ज़रूरत नहीं है। यदि आंकड़ों से कोई मतलब ही न हो तो फिर तो नब्बे से भी अर्थ नहीं रहेगा न। जिसे आंकड़े से मतलब है वो हमेशा तुलना करेगा। क्योंकि आंकड़े का अर्थ ही होता है कि एक आंकड़ा छोटा और दूसरा बड़ा।
अच्छे से जानते हो आप उत्तर पुस्तिकाएँ जाँच होकर आती थीं। और आपने हाथ में लिया और आपको लगा ये तो बढ़िया आ गये और खुशी घट जाती थी जब आप देखते थे कि सभी के आ गये हैं, फिर वो मज़ा नहीं। और अपने कम आये हों बाकी सब लेकिन फ़ेल ही हो गये हों, तो कैसी मुस्कान?
सुख-दुख तो सदा तुलना की ही बातें हैं। कहीं आप कोई ऐसा आयाम नहीं पाओगे कि कहोगे कि दुख यहाँ खत्म होता है और सुख यहाँ शुरू होता है। दुख का अर्थ है कि अभी कमी है। सुख के सामने महासुख को खड़ा कर दो सुख, दुख में तब्दील हो जाता है। और महासुख के सामने विराट सुख को खड़ा कर दो महासुख भी दुख में तब्दील हो जाता है। वो करोड़ पति है, ये अरबपति है, आप लखपति हैं, ये सिर्फ़ पति हैं। अब इस अरब पति से पूछो कितना चाहिए? थोड़ा और। करोड़पति कितना चाहिए?
प्रश्नकर्ता: बहुत सारा।
आचार्य प्रशांत: लखपति से पूछो कितना चाहिए? (इशारे से बताते हुए) आप जहाँ हो उससे थोड़ा और चाहिए इसीलिए दुखी हो। तुलना की बात है न। और याद रखिए हज़ारपति अरब के सपने नहीं देखता है।
प्रश्नकर्ता: कुछ और।
आचार्य प्रशांत: वो कुछ और हज़ार के ही सपने देखता है। बड़े-बड़े मोहल्ले होते हैं उनमें कोठियाँ होती हैं उसमें उच्च वर्ग उच्च या उच्च मध्यम वर्गीय लोग रहते हैं। तो उनमें जो काम करने वाले लोग होते हैं चौकीदार, नौकर-चाकर, बाइयाँ। तो मैं छोटा था तो मुझे अचम्भा हो, अफ़सोस सा हो। मैं कहूँ कि इन्हें तो बहुत बुरा लगता होगा कि इतना पैसा है लोगों के पास बड़ी गाड़ियाँ, बड़ी कोठियाँ।
और इतना ही नहीं ये तो घरों के अन्दर जाते हैं तो और देखते होंगे क्या-क्या सामान रखा हुआ है? सोना है, चाँदी है, हर कमरा एर कन्डिशन्ड (वातानुकूलित) है, बड़े-बड़े टीवी हैं, पता नहीं क्या-क्या है? तो मुझे दया सी उठे पर मेरा भ्रम दूर हो गया मैंने बातचीत करी, उन्हें फ़र्क ही नहीं पड़ता था। चिन्नू बाई को फ़र्क सिर्फ़ किन्नु बाई से पड़ता है। जिस कोठी में वो काम करती है, उस कोठी में कितना पैसा है, इससे उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। हम तुलना भी बहुत सोच-समझकर करते हैं जो हज़ार पति वो अरबपति से तुलना करेगा ही नहीं। हज़ारपति दो हज़ारपति से तुलना करता है।
प्रश्नकर्ता: तुलना भी तुलना तुलनात्मक।
आचार्य प्रशांत: तुलना भी तुलनात्मक है। इसीलिए आप जहाँ होते हो, वहाँ से आपको थोड़ा और चाहिए। मनुष्यों की प्रकृति में भेद होते हैं किसी में कोई गुण अधिक होता है, किसी में कुछ प्रधान, कहीं कुछ आधिक्य है। तो ये हो सकता है किसी को पाँच प्रतिशत ज़्यादा चाहिए, किसी को पाँच सौ प्रतिशत ज़्यादा चाहिए। पर पाँच-पाँच सौ दोनों क्या है अनन्त तो नहीं है। सिर्फ़ तुलनात्मक संख्याएँ ही है न।
सुख-दुख का यही खेल समझिएगा आप जहाँ हो, उससे थोड़ा आगे जो है उसे आप सुख बोलते हो। और चूँकि सुख आप उसे बोलते हो थोड़ा आगे है इसीलिए आप और निश्चित कर देते हो की अभी जो आपके पास है, वो दुख है। पानी गरम कब कहलाता है और ठंडा कब कहलाता है अच्छा बताइए?
प्रश्नकर्ता: महसूस करकर।
आचार्य प्रशांत: अभी पाँच डिग्री तापमान है मान लीजिए ये गर्म है कि ठंडा है?
प्रश्नकर्ता: ठंडा है।
आचार्य प्रशांत: ठंडा है। मैं लेह से किसी को यहाँ बुलाऊँ तो क्या करेगा जानती हैं? सारे कपड़े उतार के नाचेगा, कहेगा ये खूबसूरत मौसम, क्या गर्मी है? आपके लिए क्या है?
प्रश्नकर्ता: ठंड।
आचार्य प्रशांत: और ऐसी भी जगहें हैं, रूस का एक कस्बा है जहाँ अभी माइनस बासठ हो गया है। वहाँ के लोगों को अभी लेह ले जाऊँ। वहाँ शून्य से सिर्फ़ बीस डिग्री नीचे है लेह में, तो वहाँ के लोगों को लेह ले जाऊँ तो वहाँ कपड़े उतारकर नाचना शुरू कर दें। वो कहें चालीस डिग्री का इज़ाफ़ा।
पानी कहाँ गरम है? और कहाँ ठंडा है बताइए न? सुख-दुख का ऐसा ही है, थोड़ा और। जहाँ मैं हूँ, मेरे अनुसार मुझसे आगे का। इसी को तो हम तरक्की बोलते है कि जहाँ हो वहीं से आगे बढ़ो। हमें ऐब्सलूट वेलफेयर (असीम कल्याण) थोड़े ही चाहिए। हमें हमेशा तुलनात्मक प्रगति चाहिए। आपको बन्धनों से मुक्ति थोड़ी चाहिए होती है। आप बस ये चाहते हैं कि बेड़ी बस ज़रा सी ढीली कर दी जाए। पूर्ण आज़ादी मिल गयी तो हमें खौफ़ आ जाएगा। ये क्या हो गया? इसीलिए हमें आनन्द नहीं चाहिए हमें सुख चाहिए।
सुख का मतलब होता है, दुख ज़रा कम हुआ। सुख और कुछ होता ही नहीं। बुद्ध इसीलिए बोल गये थे जीवन दुख है। उन्होंने ये भी नहीं कहा कि थोड़ा बहुत सुख है, मात्र दुख है। दुख जब ज़रा कम होता है, तो उसको आप कह देते हो?
प्रश्नकर्ता: सुख है।
आचार्य प्रशांत: सुख है। क्या प्रमाण है कि मात्र दुख है? प्रमाण ये है कि आप जिस भी स्थिति में हो, गिरी-से-गिरी और ऊँची-से-ऊँची आप उसे छोड़ने को तैयार हो जाओगे अगर कुछ बेहतर मिल जाए। और आदमी हमेशा किसको छोड़ने को तैयार होता है? दुख को ही तो। क्या आपके पास कुछ भी ऐसा है, जिसे आप कभी भी छोड़ने को तैयार नहीं होंगे? नहीं, हमारे पास जो भी कुछ है, वो तुलनात्मक है।
आपके पास जो भी है उससे ज़रा से बेहतर कुछ मिल जाए आप छोड़ने को तैयार हो जाओगे या बहुत बेहतर कुछ मिल जाए आप छोड़ने को तैयार हो जाओगे। यही प्रमाणित करता है कि आपके पास जो कुछ है वो आपको दुख दे रहा है। बस आप उसे इसलिए नहीं छोड़ पा रहे है, क्योंकि विकल्प नहीं है। उससे बेहतर फ़िलहाल कुछ नहीं है। जिस दिन उससे बेहतर कुछ मिल गया आप छोड़ दोगे। और जो बेहतर मिला होगा, वो भी दुख है। क्योंकि जिस दिन उससे बेहतर कुछ मिल गया उसे भी छोड़ दोगे। छोड़ने के लिए राज़ी हो, बस मन मारे बैठे हो, मज़बूरी में, वो सबकुछ लिये बैठे हो, बने बैठे हो, सम्बन्ध बनाए बैठे हो जो अभी है। वो सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि कुछ बेहतर नहीं मिल रहा।
इसलिए बुद्ध ने कहा जीवन दुख है। क्योंकि जो भी कुछ है, तुम्हारे पास वो तुलनात्मक है अपेक्षाकृत है। हमेशा तरक्की चाहते हो न, यही तो चाहते हो आगे बढ़ जाएँ, पीछे किसे छोड़ना चाहते हो, क्या सुख को पीछे छोड़ना चाहते हो? ज़ाहिर सी बात है कि अगर कुछ छोड़ना चाहते हो तो उससे दुखी ही होओगे, तभी तो छोड़ना चाहते हो।
जिस दिन तुम्हें कुछ ऐसा मिल जाए जिसका किसी हालत में तुम सौदा नहीं करोगे, जिसे तुम किसी हालत में नहीं छोड़ोगे, तब कहना कि अब दुख नहीं है। हमारे पास ऐसा कुछ नहीं है, कुछ भी नहीं हमारे पास ऐसा जिसे हम किसी हालत में नहीं छोड़ेंगे। सन्त वही, कृष्ण वही, क्राइस्ट वही, कबीर वही जिसे कुछ ऐसा मिल गया, जो अब छूटेगा नहीं।
तुम्हारे पास कुछ ऐसा है, जिसके साथ कभी धोखा नहीं करोगे, जिसे कभी नहीं छोड़ोगे। अगर नहीं है, तो बहुत गरीब हो। है कुछ तुम्हारे पास ऐसा जो कभी बदलेगा नहीं, कभी पीछे नहीं छूटेगा। अगर नहीं हैं तो भिखारी हो। और जीवन का फिर उद्देश्य यही है। वो पा लो जो छूटेगा नहीं। जैकेट अच्छी है कब छोड़ोगे?
प्रश्नकर्ता: अभी छोड़ देता हूँ।
आचार्य प्रशांत: इस छोड़ने वाले को कब छोड़ोगे? कितनी जल्दी बोल दिया है अभी छोड़ देता हूँ बहुत भरोसा है किसमें?
प्रश्नकर्ता: कामना में।
आचार्य प्रशांत: छोड़ने वाले में उसी में मैंने निशाना किया था जैकेट तो बहाना थी। फँसे? तुम्हें लगा कि बात जैकेट की हो रही है जैकेट की नहीं हो रही है। कितनी जल्दी बोला अभी छोड़ देता हूँ, ये कौन है जो छोड़ देगा? उसे कब छोड़ोगे?
प्रश्नकर्ता: कैसे छोड़नी है?
आचार्य प्रशांत: पकड़ने की विधियाँ होती हैं। मैं पूछूँ कैसे पकड़ा? तो तुम बताना। छोड़ने की विधि होती है? इसको पकड़ने की विधि है कि हाथ इस तक ले जाओ फिर इसको यहाँ पर ऐसे दो उंगलियाँ फँसाओ, इसे विधि के चरण हैं, और फिर इसको यूँ दबाओ और फिर ये ऐसे कर लो, तो ये क्या किया?
प्रश्नकर्ता: पकड़ लिया।
आचार्य प्रशांत: पकड़ा, छोड़ने की क्या विधि है? छोड़ दो। पकड़ने के तरीके होते हैं, छोड़ने का क्या तरीका होता है? छोड़ दो। पर ये तुम मुझे कभी नहीं बताओगे कि पकड़ कैसे-कैसे रखा है?
प्रश्नकर्ता: कैसे बताएँ?
आचार्य प्रशांत: जैसे कर रखा हो बताओ। अपनी हकीकत बयान करो। क्या-क्या करते हो पकड़ने के लिए। हालाँकि वो हकीकत अभी भी ज़ाहिर हुई जा रही है। पकड़े रहने का एक तरीका है, 'अनभिज्ञता।’ हमें तो मालूम ही नहीं हमने कैसे पकड़ रखा है। जैसे अभी चेहरे पर हैरत का भाव है न। मैंने कैसे पकड़ रखा है तुमने मासूम बनकर पकड़ रखा है।
प्रमाणित किये देता हूँ। जो भी पकड़ रखा है उससे दुख है न। जब दुख है तो दुख का अनुभव है। जहाँ अनुभव है, तहाँ दुख के विषय की ओर ध्यान जाता है। तुमने हाथ में कोयला पकड़ रखा हो जलता, अंगारा। और तुमने जेब में डाल रखा हो एक सौ रुपए का नोट। इनमें से किसकी ओर ध्यान जाएगा। दोनों तुम्हारे करीब हैं पर ध्यान किस की ओर जाएगा? बोलो।
प्रश्नकर्ता: अंगारे।
आचार्य प्रशांत: अंगारे की ओर जाएगा। क्यों?
प्रश्नकर्ता: जल रहा है।
आचार्य प्रशांत: क्योंकि वहाँ जल रहे हो, दुख है। तुमने भी जो कुछ पकड़ रखा है उससे तुम्हें दुख है। दुख है तो निश्चित तुम्हारा ध्यान तो जा रहा है कि मैंने पकड़ रखा है और कैसे पकड़ रखा है? पर फिर भी देखो अनभिज्ञ बन रहे हो कि मुझे तो पता ही नहीं। यदि दुख है तो पता होगा। यदि दुख है तो तुमने सक्रिय चेष्टा कर रखी है पकड़ने की। अब क्यों नादान बन रहे हो?
तुम्हारी जेब में सौ का नोट पड़ा हो तुम्हे उसका न पता हो समझ में आती है बात। पर तुम्हारे हाथ में जलता अंगारा हो और तुम कहो मुझे उसका भी नहीं पता कुछ, तो तुम झूठ बोल रहे हो।
प्रश्नकर्ता: अगर वो हाथ जला रह है तो छोड़ क्यों नहीं पा रही हैं अभिज्ञता क्यों आ रही है? अगर ये इतना जल रहा है तो छूट ही जाना चाहिए।
आचार्य प्रशांत: अच्छा ऐसा कोई कब करेगा?
प्रश्नकर्ता: जब रस आ रहा?
आचार्य प्रशांत: या फिर?
प्रश्नकर्ता: या फिर उसे लगता है इसका छूटते ही मेरा सबकुछ छूट जाएगा शायद मेरे लिए सबसे ज़रूरी यही है।
आचार्य प्रशांत: ऐसा होते तुमने देखा ज़रूर होगा। ये तुम बेवकूफ़ी ही कह रहे हो न कि है।
प्रश्नकर्ता: हाँ, बिलकुल।
आचार्य प्रशांत: प्रचंड बेवकूफियाँ करते तुमने लोगों को कब देखा है? देखा तो होगा।
प्रश्नकर्ता: मैंने ही की है। देखा तो है।
आचार्य प्रशांत: कब? कब? कब करते हैं? वो कौनसी स्थिति होती है जिसमें आप बिलकुल साफ़ बेवकूफ़ी कर जाते हो। प्रश्नकर्ता: जब आप अपने को बहुत ज़्यादा स्मार्ट (बुद्धिमान) समझते हो।
आचार्य प्रशांत: ठीक है, एक स्थिति ये होती है। और?
प्रश्नकर्ता: जब आप अपने को प्रूफ़ (साबित) करना चाहते हो।
आचार्य प्रशांत: और? जब आप बहुत डरे होते हो, किसी को बहुत डराकर ये भी करा सकते हो, तो पहला तुमने बोला जब अपने में बहुत भरोसा होता है, जब अपनेआप को बड़ा फन्ने खां समझते हो। दूसरा बोला जब तुम साबित करना चाहते हो कि मैं कुछ हूँ और तीसरा मैंने उसमे जोड़ा, जब तुम डरे हो तो बस इसलिए। ऐसे हम पकड़े रहते हैं अंगारे को।
साबित कर रहे हैं। हम कुछ हैं। दुनिया वालों तुम तो हीरे-मोती पकड़ते हो, हमने अंगारा पकड़कर दिखाया है लाओ हमें माला पहनाओ। या फिर देखो हमने अंगारा पकड़ा तुम्हारी खातिर। तुम्हारी खातिर मैंने अपनी हथेली कुर्बान कर दी। या तो शौर्य है या शोषण है या?
प्रश्नकर्ता: डर।
आचार्य प्रशांत: डर। या तो शौर्य की भावना, हम कुछ हैं। हमारी एक दिन ऐसी मूर्ति लगेगी जिसमें हाथ हमने उठकर उठा रखा होगा, उसमें से राख झड़ रही होगी। या फिर ये कि देखो मेरे साथ कितना बुरा किया तुमने जो मुझे अंगारा थमा दिया और मैं पकड़े रहा, मैं तो अपने धर्म का पालन कर रहा था और तुम हिंसा।
या फिर तीसरा ये कि जैसे किसी ने तुम्हारी कनपटी पर रख दी हो बन्दूक और कहा होगा बेटा, पकड़े रहना, इधर अंगारा गिरा और उधर तू गिरा। तो यही सब होता है इसमें दो-चार चीज़ें और जोड़ सकते हो पर इशारा समझ गये। ऐसे होती हैं बेवकूफियाँ।
प्रश्नकर्ता: मैं डरा हूँ और मैंने अंगारा पकड़ा है बिलकुल आपकी बात से मैं सहमत हूँ। पर डर का दूसरा साइड (पहलू) जब तक मुझे दिखेगा नहीं, तब तक ये अंगारा छूटेगा नहीं। क्योंकि मुझे पता ही नहीं है वो क्या है? तो मुझे डर ही सिखाया गया बचपन से, तो मैं डर कर पकड़े हुए हूँ। वो दूसरी साइड जाने का, छोड़ूँगा तो मैं तब जब उसका एहसास होगा कि ये छोड़ूँगा।
आचार्य प्रशांत: अगर तुम सिर्फ़ वो होते जो डरा हुआ है, तो तुम इस वक्त यहाँ क्यों होते? डर तो यहाँ लेकर नहीं आया, तो कुछ और है न भीतर जो डर से मुक्ति चाहता है, वो यहाँ लेकर आया है बस।
प्रश्नकर्ता: पर वो प्रहार कैसे करे उसको मज़बूर…
आचार्य प्रशांत: इसी क्षण में और गहरे डूबकर।
प्रश्नकर्ता: क्योंकि वो खींच लेता है बार-बार डर, इतना…
आचार्य प्रशांत: वो तुम्हें अगर पूरी तरह खींच लेता तुम्हें तो तुम यहाँ आ ही नहीं पाते।
प्रश्नकर्ता: नहीं, पूरी तरह नहीं सर। वो…
आचार्य प्रशांत: वो तुम्हें यहाँ तक लेकर आया।
प्रश्नकर्ता: बिलकुल लाया।
आचार्य प्रशांत: अब ये उपलब्ध है अवसर।
प्रश्नकर्ता: यहाँ से अब आपका कहना है अब समझ चुके हो अब आप इसको छोड़ दो। खींच जाता है वो आप समझ रहे हैं।
आचार्य प्रशांत: अभी ध्यान दो।
प्रश्नकर्ता: हाँ, आप बिलकुल सही कह रहे हैं अभी वो वापस ले जाता है।
आचार्य प्रशांत: तो बातचीत करते रहो।
प्रश्नकर्ता: और फिर उलझता जाता हूँ।
आचार्य प्रशांत: मत दो मौका उसे।
प्रश्नकर्ता: रात को अचानक दो बजे आँख खुलती है रात के दो बजे…
आचार्य प्रशांत: दो बजे अभी नहीं हुए हैं। अभी जो क्षण है इसमें डूबो, वो तुम्हें यहाँ लेकर आया। इसके अलावा अब तुम्हारे पास कोई मौका नहीं है। इस वक्त अगर तुमने ये भी चिन्तन किया कि मैं दो बजे भी मैं बचा रहूँगा या नहीं, तो दो बजे तो दूर की बात है तुम ठीक इसी वक्त मारे जाओगे। तुम दो बजे नहीं मारे जाओगे। अभी ही…
प्रश्नकर्ता: अगले क्षण।
आचार्य प्रशांत: उसी क्षण।
प्रश्नकर्ता: जहाँ खड़ा हुआ हूँ वहीं से खत्म होने की कहानी शुरू हो गयी।
आचार्य प्रशांत: शुरू नहीं हुई, कहानी वहीं पर खत्म भी हो गयी।
प्रश्नकर्ता: जो क्षण जन्म दे रहा है वही क्षण…
आचार्य प्रशांत: वहीं पर खत्म हो गये।
प्रश्नकर्ता: मुझे तो ऐसा लगता है मैं मुक्त हूँ कि मतलब मुझे कुछ पकड़े, मैं पकड़े हुए हूँ। तो आपको ऐसा लगता है कि मैं कुछ पकड़े हुए हूँ।
आचार्य प्रशांत: नहीं, मुझे कुछ नहीं लगता।
प्रश्नकर्ता: वरना आप ऐसा क्यों कहते? मैंने कुछ तो पकड़ा होगा ही।
आचार्य प्रशांत: वो तो आदत है मेरी, मैं यूँही खोट निकालता रहता हूँ लोगों में। सब मुक्त हैं कोई नहीं है बेटा जो मुक्त न हो।
प्रश्नकर्ता: मेरे दिमाग में मेजोरिटी ऑफ द टाइम्स। (अधिकांश समय) आजकल वही चलता है कि इस डायमेंशन (आयाम) से बाहर की चीज़।
आचार्य प्रशांत: बाहर, इस डायमेंशन से बाहर कोई चीज़ नहीं होती।
प्रश्नकर्ता: शायद नहीं होगी पर।
आचार्य प्रशांत: होगी नहीं हर चीज़ एक ही डायमेंशन में होती है। उस डायमेंशन से बाहर जो है वहाँ कोई चीज़-वीज़ नहीं होती।
प्रश्नकर्ता: बोल्ड वर्ड्स (निर्भीक शब्दों) में मेरे को बोलना नहीं आता।
आचार्य प्रशांत: बेटा, शब्द यूँही नहीं आते न, शब्द चित्त का प्रतिनिधित्व करते हैं। वही कह रहे हो तुम जो चित्त में है, ऐसा नहीं है कि हो कहीं और और बात कहीं और की हो रही है
प्रश्नकर्ता: नहीं, बिलकुल आप जो भी में कह रहे होंगे सही ही कह रहे होंगे। तो ये जो मैं जितनी भी चीज़ें मेरे दिमाग में कुछ एक्सपीरियंस (अनुभव) जैसे हुआ कभी। तो अब जो है कि मैं उसको दोबारा बार-बार घुसने लगा हूँ मतलब वो चीज़ कुछ टैस्ट (स्वाद) मिला हो और फिर।
आचार्य प्रशांत: रिपीट द ऑर्डर। (आदेश दोहराएँ)
प्रश्नकर्ता: हाँ, मतलब वो क्यों नहीं हो रहा है?
आचार्य प्रशांत: नहीं वो तो हो जाएगा। उसमें क्या रखा? रिपीट द ऑर्डर। यही तो बोलना होता है।
प्रश्नकर्ता: रिपीट द ऑर्डर।
आचार्य प्रशांत: हाँ, बस हो गया। एक चाय और। तुम्हारा परमात्मा अगर ऐसा ही है कि पहले ऊपर की कटिंग, फिर नीचे की कटिंग आ गयी चाय, तो फिर ठीक है ले लो।
प्रश्नकर्ता: उससे रिलेटेड (सम्बन्धित) जितना भी आज तक बोला गया है, उस चीज़ों को जानने का मन करता है सबकुछ जानने का मन करता है। पर उससे ऐसा कुछ होता तो है नहीं, मतलब क्या?
आचार्य प्रशांत: तुम तो मुक्त हो, तो क्या करना है और जानकर?
प्रश्नकर्ता: मैं यही तो सोच रहा हूँ कि अगर मैं मुक्त हूँ तो इसको जानूँ ही क्यों? क्यों जानूँ?
आचार्य प्रशांत: मत जानो।
प्रश्नकर्ता: फिर अगर मौज से घूम सकता हूँ कोई टेंशन नहीं मुझे लाइफ़ में मज़े से कह सकता हूँ। ये टेंशन थी वो भी खत्म हो गयी।
आचार्य प्रशांत: हाँ, तुम उड़ भी सकते हो।
प्रश्नकर्ता: तो फिर…
आचार्य प्रशांत: बेटा, ये कहने से मौज थोड़े ही आ जाती है कि मैं मौज से घूम सकता हूँ, मुझे कोई टेंशन नहीं रहेगी। एजाज़ उड़ो, चलो सोचो कि तुम उड़ रहे हो। सोचो, सोच लिया न? अब उड़ो। (अभिनय करते हुए) करो-करो देखो उड़ा। तुम क्या बातें कर रहे हो? तुम सोच-सोचकर ताजमहल खड़ा करना चाहते हो। किताब पढ़ो, तुम अभी सवाल मत पूछा करो। अभी तुम पढ़ा ज़्यादा करो। प्रश्नकर्ता: पढ़ चुका हूँ बहुत।
आचार्य प्रशांत: बैसिक्स (मूल बातें) ही नहीं, तुम्हें कुछ नहीं आता।
प्रश्नकर्ता: बिलकुल आप सही कह रहे हो।
आचार्य प्रशांत: तुम्हें कुछ भी नहीं पता। जो हमारा एच आई डी पी (ह्युमन इंटग्रेशन डिज़ाइन प्रोसेस) (मानव एकीकरण डिज़ाइन प्रक्रिया) चलता है, उसके फर्स्ट सेमेस्टर स्टूडेंट (प्रथम सेमेस्टर विद्यार्थी) को जो बातें बताते हैं, तुम अभी वो भी नहीं समझ रहे हो।
प्रश्नकर्ता: जी।
आचार्य प्रशांत: तुम तो अभी एक प्रश्न पर विचार करो। मन क्या है? सोच क्या है? मुक्ति क्या है? अभी इतना आगे भागो मत तुम। मन क्या है? ये समझ लो।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसा आपने हर कोई ऐसा कहता है कि जो वो स्टेट (स्तिथि) होती है। जैसे मान लो कि मैं सेंटर्ड (केन्द्रित) हूँ अपने बीइंग (होने में) में तो ब्लिस (आनन्द)होता है। ठीक है, वो पदार्थ का नहीं होता वो मतलब अनटच ( अन्छुआ) रहता है हर एक चीज़ से ठीक है मान लो मैं उस ब्लिस में हूँ और मैंने एक सिगरेट फूँकी तो वो चला जाएगा।
आचार्य प्रशांत: ऐसा कुछ नहीं है। ये किसने बोला तुम्हें? कम-से-कम मैंने तो नहीं बोला होगा।
प्रश्नकर्ता: नहीं, लेकिन जैसे हम कहते हैं माइंड को क्लीन रखो। क्योंकि अगर माइंड में कुछ पॉलुशन (प्रदूषण) हुआ तो चला जाएगा।
आचार्य प्रशांत: क्या चला जाएगा?
प्रश्नकर्ता: जो ब्लिस की स्टेट होती है।
आचार्य प्रशांत: ब्लिस कोई स्टेट नहीं होती ब्लिस के इर्द-गिर्द सारी स्टेट्स (स्थितियाँ) होती हैं ब्लिस की स्टेट होती है। ब्लिस क्या है कि मतलब पानी की स्टेट बदल के भाप कर दिया। तो ब्लिस हो गई। स्टेट्स मटेरियल (पदार्थ) की होती हैं। ब्लिस का अर्थ होता है सब चल रहा है और जो चल रहा है, उससे मुझे कोई आफ़त नहीं है। बस इतनी सी बात है ब्लिस साधारण।
प्रश्नकर्ता: लेकिन जब पॉलयूसन आता है माइंड में तो हम देख नही पाते हैं उस चीज़ को।
आचार्य प्रशांत: पॉलयूसन सदा रहता है। ऐसा नहीं है कि कभी आता है। जिसे तुम पॉलयूसन कह रहे हो, वो पॉलयूसन सिर्फ़ तब है जब कुछ पॉलयूटेड (प्रदूषित) हो जाए। ये पानी है, ये चाय है। ये क्या है?
प्रश्नकर्ता: पानी।
आचार्य प्रशांत: अगर मैं इसको इसमें मिला दूँ तो ये कहलाएगा पॉलयूसन क्योंकि अब कुछ पॉलयूटेड हो गया। वैसे ये भी शुद्ध है, और ये भी शुद्ध है। जब ऐसी दो चीज़ों को मिला दो जिन्हें नहीं मिलना चाहिए तो उसे कहते हैं पॉलयूसन। मिलाना नहीं है, मौजूदगी सदा है, ये भी रहेगा और ये भी रहेगा। मिलाओ मत बस, पानी-पानी है, चाय-चाय है। दोनों को मिला दिया तो प्रदूषण हो गया। वरना इसमें भी कोई बुराई नहीं और इसमें भी कोई बुराई नहीं।
प्रश्नकर्ता: और बाहर कोई चीज़ नहीं मिला सकती उस चीज़ को?
आचार्य प्रशांत: नहीं, जो तुम हो उसका किसी पदार्थ से कोई आत्यन्तिक मेल नहीं होता। पदार्थ अपनेआप में जोड़ोगे, तो अपनेआप को ज़बरदस्ती घटा दोगे, अपनेआप को सीमित कर दोगे, परिभाषित कर दोगे। हाँ, इसका ये अर्थ नहीं है कि पदार्थ होता ही नहीं। पदार्थ है पर ये व्यर्थ का जोड़ मत करो।
शुद्ध पानी और शुद्ध चाय मिल जाएँ तो एक अशुद्ध मिश्रण तैयार हो जाता है। ये अजीब बात। शुद्धता-से-शुद्धता मिली और अशुद्धता पैदा हो गयी। ऐसे ही है इसी को कहते हैं प्रदूषण। पानी को अलग रखो, चाय को अलग रखो। मिला दिया तो जो मिलेगा वो किसी काम का नहीं लो पियो, खराब कर दिया मेरा भी।
प्रश्नकर्ता १: हमलोग खराब लोग ही हैं सर, खराब ही करेंगे। हम सब यही कर रहे हैं मिक्स ही पी रहे हैं और सोच रहे हैं शुद्ध है।
प्रश्नकर्ता २: ऐसे आचार्य जी, मैं कहीं पढ़ रहा था कि एक बन्दा, ओशो की एक विटनेसिंग मेडिटेशन (साक्षी ध्यान) है इंसाइड मिरर (भीतरी शीशा) समथिंग लाइक (कुछ ऐसे) एक बन्दा उसे तीस साल से कर रहा था।एक फ्लो (प्रवाह) होता है फ्लो मेंटेन (प्रवाह बनाए रखना) हो जाता है। मतलब स्पोंटेनियस् (स्वभाविक) सबकुछ फ्लो में। फिर उसने गलती से एक बार ड्रिंक (शराब) किया तो उसका वो फ्लो चला गया। तो मैं इसलिए पूछ रहा था कि ऐसा क्यों हुआ कि बाहर से कुछ आया तो वो चला गया एक चीज़।
आचार्य प्रशांत: वही, वही, वही एक पतंग खुले आसमान में फीर रही थी। फिर ज़रा सा वो दायें की ओर झुकी तो टूट-टाट के तबाह हो गयी, गिर गयी। और दावा उसका ये था कि वो वो बड़ी मुक्त पतंग है। ये सब व्यर्थ की बातें हैं, इनके चक्कर में मत पड़ो।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मुझे ऐसा क्यों लगता है कि जैसे मुझे कुछ सम्भाले हुए, मुझे दिक्कत नहीं होती कभी, कुछ मुझे एज़ सच (सम्भाले हुए) कोई कुछ मुझे सपोर्ट ( सहारा) कर रहा है पूरे टाइम मतलब एज़ एन लाइक (एक पसन्द के रूप में) कि कोई…
आचार्य प्रशांत: तो इस बात से तुम्हें तकलीफ़ क्या है?
प्रश्नकर्ता: कोई तकलीफ़ नहीं है।
आचार्य प्रशांत: तो ठीक है। पूछ क्यों रहे हो? जो ठीक हो उसे और ठीक करने की कोशिश मत करो। अगर वो वाकई ठीक है, तो उसमें और क्या सुधार करना चाहते हो तुम रोटी पक गयी, उसे और पकाओगे? क्या हो जाएगा?
प्रश्नकर्ता: जल जाएगी।
आचार्य प्रशांत: जो ठीक है उसे क्यों और अभी तुम? कि ठीक है कि नहीं।
प्रश्नकर्ता: आप तीसरी बार बोल रहे थे, आपको कुछ बतानी है, तो मैं आपको बताऊँ, मैं फिर आपको बता रहा हूँ तो आप कह रहे हो ये…
आचार्य प्रशांत: जब तुम मुझे यही बता रहे हो कि सबकुछ ठीक है और तुम मुक्त हो, तो फिर ठीक है सब। फिर बताने की भी आवश्यकता क्या है? फिर तो गाओ, जब सन्तों में स्थापित होने का भाव उदित होता है, तो वो तो फिर बस गाते हैं, गाओ।
प्रश्नकर्ता: क्या गाउँ?
आचार्य प्रशांत: अब ये मुझसे पूछकर गाओगे? मैं तुमसे पूछकर बोलता हूँ।
प्रश्नकर्ता: मैं एक बार और कुछ पूछूँ? क्या में प्रयत्न करना छोड़ दूँ कुछ भी?
आचार्य प्रशांत: मुक्त तो निर्विकल्प होता है। निर्विकल्प समझते हो? उसके पास ये विकल्प ही नहीं होता कि प्रयत्न करूँ या नहीं करूँ। एक और तो कह रहे हो मुक्त हूँ। दूसरी ओर तुम्हारे पास ये अभी दो विकल्प खड़े हैं कि प्रयत्न करूँ या नहीं करूँ? तुम जो हो, तुम वही करोगे। तुम अगर मुक्त हो तो तुम बिना प्रयत्न के ही जो करोगे बढ़िया होगा। और अगर मुक्त नहीं हो तो जितने भी तुम प्रयत्न करोगे, वो तुम्हारी गुलामी से निकल रहे होंगे, वो तुम्हारी गुलामी को बनाये रखने के ही प्रयत्न होंगे।