आपके घर में भी छोटा बच्चा है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

Acharya Prashant

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आपके घर में भी छोटा बच्चा है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

प्रश्नकर्ताः नमस्ते आचार्य जी। आपको मैं डेढ़ साल से सुन रही हूँ और काफ़ी बातें समझ में आने लगी हैं। जिसे आप झूठ, भ्रम कहते हैं वो समझ में आने लगा है।

मेरा सवाल मेरी बेटी के बारे में हैं। मेरी छ: साल की बेटी है, उसके मन पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर मैं काफ़ी कंसर्न्ड (चिंतित) रहती हूँ। आपके वीडियो सुनने के बाद और मैं ख़ुद भी न तो पॉपुलर कंटेंट (लोकप्रिय सामग्री) कंज़्यूम (सेवन) करती हूँ, गाने वग़ैरह, उसको भी मैं वो नहीं करने देती। लेकिन छः साल की उम्र काफ़ी छोटी होती है तो मुझे लगता है कि मैं उसे कौनसा कंटेंट कंज्यूम (सामग्री उपभोग) कराऊँ, क्या कराऊँ जो उसकी ज़िन्दगी में एक सच्चाई भरी ज़िन्दगी का बेस (आधार) बने। यह पहला प्रश्न है।

अगला प्रश्न मेरे बारे में है। मैं एक वर्किंग मदर (कामकाजी माँ) हूँ। मैं जॉब (नौकरी) भी कर रही हूँ। मैं एक पत्नी हूँ और बहू भी। मैं अपनेआप को बहुत सारी भूमिकाओं के लिए फँसी हुई और तनावग्रस्त पाती हूँ। तो मुझे मुश्किल से एक क्षण भी शांति का नहीं मिल पाता है दिन में। एक व्यक्ति के तौर पर यह सब मुझे बहुत मुश्किल लगता है। कृपया कुछ कहें।

आचार्य प्रशांत: जो पहला सवाल है बेटी के विषय में, छः वर्ष की अवस्था बिलकुल सही समय है जब आप उसका बोध साहित्य से परिचय कराएँ। बिलकुल उचित उम्र है यह। और ऐसे साहित्य की बिलकुल भी कमी नहीं है जो उसके बहुत काम आ सकता है। ख़ासकर बच्चों के लिए किताबें लिखी गयी हैं जिनका उद्देश्य ही है बच्चों में समझ को, चेतना को, विकसित करना। आप पंचतंत्र से, हितोपदेश से शुरुआत कर सकती हैं। अगर बच्ची समझदार हो तो अभी नहीं तो कहिए दो साल बाद, जो साधारण कथाएँ हैं विशिष्ट बालक-बालिकाओं की भारतीय परम्परा में, उनसे उसका परिचय कराया जा सकता है।

पाँचवीं में दस वर्ष का हो जाता है बच्चा, उस समय पर मैंने उपनिषदों की कथाएँ पढ़ी थीं। और जितनी भी समझ में आयी थीं, प्रभाव गहरा पड़ा था। और ऐसा नहीं था कि बिलकुल ही समझ नहीं आयी थीं, मुझे आयी थीं तो और बच्चों को भी आ सकती हैं। इसी तरीक़े से जो स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं उनकी जीवनियाँ और कथाएँ। विज्ञान के क्षेत्र में, कला के क्षेत्र में, साहित्य में या खेल में, इनमें भी जो उल्लेखनीय नाम हैं, उनसे बच्चे का परिचय कराना शुरू कर देना चाहिए।

और ये बिलकुल नहीं सोचना चाहिए कि छः वर्ष का बच्चा छोटा होता है। वह छोटी नहीं है अब! देखिए, ऐसे ही देख लीजिए कि पाँच, छ: या सात वर्ष के बच्चों के लिए इंटरनेट पर कौनसा कंटेंट (सामग्री) उपलब्ध है। और वो कंटेंट आप देखेंगे तो आपको साफ़ दिख जाएगा कि वो बच्चों की सामग्री तो नहीं है। तो अगर बच्चे उस तरह की सामग्री आजकल देख रहे हैं, सोख रहे हैं तो कुछ बेहतर और सुंदर और अच्छा भी वो समझ सकते हैं, सोख सकते हैं।

लेकिन हमारी संस्कृति में ये एक बड़ा विचित्र तर्क चलता है कि कोई भी मन को साफ़ करने वाली, चेतना को बढ़ाने वाली बात हो तो उसको हम कहते हैं कि 'अरे! अभी तो यह बच्चा है, ये तो बड़ों की बातें हैं, इसके लिए थोड़े ही हैं।' या कि 'इसके लिए तो अभी ज़िन्दगी पड़ी है। अभी से ही क्यों तुम भारी और गंभीर बातें बच्ची को बता रही हो?' इस तरह के तर्क दे दिए जाते हैं। और जितनी भी मूर्खतापूर्ण और जीवन को बरबाद करने वाली, मन को ख़राब करने वाली बातें हैं, उनमें हम कभी ये तर्क या शर्त नहीं लगाते कि 'अरे! ये तो अभी बच्चा है, इसको ये सब क्यों दिखा रहे हो?'

घरों में बच्चे होते हैं छोटे, टीवी चल रहा होता है और टीवी पर जो कुछ आ रहा होता है, क्या वो बच्चों के मन के लिए सेहतमंद है? नहीं, बिलकुल भी नहीं। पर मैंने नहीं देखा कि वहाँ पर अभिभावक या अन्य लोग ऐसा तर्क दें कि बच्चे को ये सब चीज़ें क्यों दिखाई जा रही हैं या ये सब अगर घर में चलना भी है तो बच्चा उस जगह पर मौजूद क्यों है। कभी नहीं देखा होगा। फ़िल्म आ रही है टीवी पर, माँ-बाप देख रहे हैं, बच्चा भी बीच में बैठा है वो भी देख रहा है। ऐसा ही तो होता है।

और फ़िल्मों की क्या बात करें, जो आजकल समाचारों का स्तर हो गया है! न्यूज़ का कोई चैनल चल रहा है और बच्चा वहाँ बैठा हुआ है और सब बिलकुल बेख़बर हैं। कोई थोड़ा भी नहीं सोच रहा है कि ये सब वो जो सुन रहा है, उसका बच्चे पर असर क्या हो रहा होगा। और बहुत घातक असर हो रहा होता है।

तो तब हम नहीं कहते कि 'बेकार की और बुरी चीज़ें देखने की उसकी उम्र आ गयी क्या?' तब हम उम्र की कोई सीमा नहीं लगाते। तो ये देखिए हमारा कैसा बेहूदा तर्क रहता है। बेकार और बीमार कर देने वाला माल ग्रहण करने के लिए उम्र की कोई न्यूनतम सीमा नहीं है। बच्चा तीन साल का हो, छः साल का हो, नौ साल का हो, घटिया माल उसको खिलाते चलो और उस वक़्त मत पूछो कि 'अरे, ये तो इतना छोटा है, हमने इसको ये सीरियल क्यों दिखाया, ये वेब सीरीज़ क्यों दिखायी या इस तरह की समाचार का चैनल क्यों सुनाया।' तब हम ये नहीं कहते कि यहाँ पर एक न्यूनतम उम्र की शर्त होनी चाहिए; तब हम नहीं कहते।

लेकिन जब हम कह दें कि बच्चे को आप बता दीजिए थोड़ा सा कि श्वेतकेतु कौन था या चंद्रशेखर आज़ाद कौन थे या मैरी क्यूरी के बारे में कुछ बता दीजिए या शिवाजी की ही कहानियाँ सुना दीजिए, किस तरह से वो औरंगजेब की चंगुल से निकलकर के भागे थे — रोचक कहानी है। अमरचित्र कथा मैं बचपन में पढ़ता था। उसमें कहानी होती थी कि कैसे पकड़ लिए गए और फिर चतुराई से निकलकर के भागे, बड़ा रोमाँच होता था — तो ये सब बातें जब बच्चों को बताने का वक़्त आता है, तब हम कह देते हैं कि 'अरे! अभी तो छोटा है'। और टीवी पर हम उसको हिंसा और सेक्स और बद्तमिजि़याँ और व्यर्थताएँ दिखाते रहते हैं, तब हम नहीं कहते कि बच्चा अभी छोटा है।

और टीवी की भी बात नहीं है, रेडियो में भी वही आ रहा होता है सब। और रेडियो की भी बात नहीं है, घर में माँ-बाप कैसी बातें कर रहे हैं या दादा-दादी कैसी बातें कर रहे हैं, सगे-सम्बन्धी, यार दोस्त, वो सब जो बातें हैं, क्या बच्चे के लिए सेहतमंद हैं? तब हम नहीं कहते कि अभी छोटा है, अभी इसको ये सब नहीं मिलना चाहिए।

लेकिन मैं जब भी कह दूँगा कि अब बच्चे को ईसौप्स फ़ेबल्स (ईसप की दंतकथाएँ) पढ़ाना शुरू कर दो, तो कई बार एक प्रत्युत्तर में तर्क आता है, 'अरे! आचार्य जी आप क्या, अभी तो बच्चा बहुत छोटा है। अभी से उसे ईसप की कहानियाँ कैसे पढ़ा दें?' उसे छोटा मत मानिए।

और बच्चों के लिए बहुत अच्छा-अच्छा साहित्य है और उपलब्ध भी है। ऐसा भी नहीं कि आपको बहुत खोजना इत्यादि पड़ेगा। इंटरनेट का समय है, सब मिल जाता है। बल्कि जहाँ तक मुझे ध्यान पड़ता है, शायद किताबों की एक ऐसी सूची मैंने स्वयं भी बनाई हुई है, खोजनी पड़ेगी कहाँ है, जो कि दस वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए है। और अब तो ऑडियो बुक्स भी होती हैं और डीजीटल संस्करण होते हैं। टेक्नोलॉजी के लाभ भी हैं, उनका लाभ भी उठाइए। ठीक है?

लेकिन जैसा मैं हमेशा कहता हूँ, पहला काम ये नहीं होता कि जो सही है, वो परोस दो; पहला काम होता है, जो गलत है, उसपर अंकुश लगाओ। हाँ, अंकुश लगाने के साथ-साथ फिर जो सही है वो बच्चे तक लेकर के भी आना है। ठीक है?

प्र: आचार्य जी, इस उम्र के बच्चों में इतना सैल्फ़-डिसीप्लीन (आत्म-अनुशासन) तो नहीं होता कि वो बैठकर ऑडियो बुक पढ़ें या फिर किताब पढ़ें। तो क्या पेरंट्स (माता-पिता) को ही पूरा ऐफ़र्ट (ज़ोर) उसमें इन्वेस्ट (निवेश) करना पड़ता है या कोई और तरीक़ा है?

आचार्य: देखिए, आम तौर पर जो किताबें लिखी जाती हैं इस उम्र के बच्चों के लिए, वो लिखी ही रोचक तरीक़े से जाती हैं। वो लिखी ही इस तरीक़े से जाती हैं कि उनमें छवियाँ भी होते हैं, चित्र भी होते हैं और उनका जो पूरा प्रस्तुतीकरण होता है वो बच्चे के मन और सुविधा के अनुसार होता है। तो आमतौर पर ऐसी कोई विशेष ज़रूरत पड़ती नहीं है कि उसके अभिभावक ही उसके पास बैठ करके उसको पढ़ाए।

अपना बचपन याद कर रहा हूँ तो मेरे साथ तो ऐसा नहीं हुआ ज़्यादा कि मुझे कोई बैठकर किताबें पढ़ाएगा तो पढ़ूँगा; ख़ुद ही बड़ा मज़ा आता था, अपना बैठकर पढ़ते रहते थे। किताबें भी ऐसी ही होती थीं। धन्यवाद है उनके लेखकों को और प्रकाशकों और सम्पादकों को कि उन्होंने इस तरह की किताबें प्रकाशित करी थी, लिखी थी। तो ऐसी कोई आवश्यकता पड़ती नहीं है।

लेकिन अगर आवश्यकता हो तो माँ-बाप को ऐसा करना भी चाहिए, यही तो धर्म है। बच्चा आप संसार में लेकर के आये हैं और आप अगर पाएँ कि बच्चे का सही दिशा में रुझान स्वभावतः नहीं बन रहा है तो उसको सहारा तो आपको देना ही पड़ेगा, आप माँ हैं।

थोड़ा जब बच्चा बड़ा होने लगे तो, लगभग नौ-दस वर्ष की उम्र तक पहुँचने लगे तो कृष्णमूर्ति साहब की कृष्णमूर्ति फ़ॉर द यंग करके सीरीज़ है। वो बहुत सुंदर है। लेकिन वो तब है जब थोड़ी सी बच्चे में परिपक्वता आने लग जाए। और भी बहुत कुछ है, मैं थोड़ा सा स्मृति पर ज़ोर डालूँगा तो बहुत सारा साहित्य है जो है ही बाल्य-काल के लिए। बच्चों की फ़िल्‍में हैं, बहुत अच्‍छी-अच्‍छी बच्‍चों की फ़िल्‍में होती हैं। उनके पूरे के पूरे कैटलॅाग (सूची) आपको इंटरनेट पर मिल जाएँगे। बहुत सारे प्रेमी लोगों ने अपनी सद्भावना में, अपने स्नेह में बच्चों के लिए बहुत अच्छी सामग्री विकसित की है उसका लाभ उठाया जाना चाहिए।

प्र: जैसे मैंने मेन्शन (ज़िक्र) किया, मैं उसको फ़िल्मी गाने या फ़िल्मों से तो या टीवी से तो दूर रख रही हूँ लेकिन उसको मोबाइल से दूर रखना मुश्किल होता है।

आचार्य: तो फिर क्या बचा? सेल फ़ोन में तो बॉलीवुड, टॅालीवुड, हॉलीवुड, कॅालीवुड सब कुछ है, फ़िल्मों से कैसे दूर रख लेंगी आप? तो छः वर्ष के बच्चे को फ़ोन से दूर रखना इतना मुश्किल है क्या? वो वाला फ़ोन दे दीजिए जिसमें, पुराना नोकिया का आता था, ज़रूरी थोड़े ही है कि स्मार्ट फ़ोन दिया जाए।

देखिए, ये तो लापरवाही है। इसमें ये नहीं कह सकते कि बच्चे की तो वृत्ति ही होती है फ़ोन की तरफ़ जाने की, ऐसा कुछ नहीं है। वो तो फ़ोन हमारे हाथ से ऐसे चिपक गया है, घर में इतना ज़्यादा दिखाई देता है, दिनचर्या का इतना हिस्सा है कि बच्चा जब देखता है कि घर के बाक़ी लोग फ़ोन में ही लगातार घुसे हुए हैं तो वो भी आकर के माँगता है कि इसमें क्या है दिखाओ।

लेकिन उसी फ़ोन का सदुपयोग भी किया जा सकता है। इतनी तरह की सेटिंग्स होती हैं, पैरेंटल कंट्रोल्स होते हैं और बहुत सारी चीज़ें होती हैं। उनका सदुपयोग किया जा सकता है कि बच्चा जब भी फ़ोन को ले हाथ में, तो उसके लिए कोई अच्छी चीज़ ही खुल जाए उसमें। सही सामग्री उसमें आप डाउनलोड करके रख दीजिए, इंटरनेट का उसमें कनेक्शन दीजिए ही मत। और बहुत सारा उसमें सैंकड़ों डाउनलोडेड फाइल्स आप रख दीजिए। तो बच्चे के हाथ में जब भी फ़ोन आएगा तो कोई न कोई जो डाउनलोडेड फाइल है बस उसको ही वो प्ले (शुरू) कर सकता है, चाहे वीडियो हो, ऑडियो हो, टेक्स्ट हो, कुछ भी हो। और वो जो डाउनलोड है जो आपने किया है तो अच्छी ही चीज़ है तो बच्चा उसे देखेगा तो बढ़िया रहेगा उसके लिए। उसको ये शांति भी रहेगी कि मैं फ़ोन चला रहा हूँ।

प्र: आचार्य जी, मेरा जो अगला सवाल था, वो अपने बारे में कि मैं अलग-अलग भूमिकाएँ निभा रही हूँ, एक माँ का, पेशेवर का, पत्नी का। अपने व्यक्तिगत विकास को भी साकार करना, यह सब काफ़ी ओवरवैल्हमिंग (कठिन) होता है मेरे लिए। छुट्टी तो नहीं मिल पाती है।

ये सारी ज़िम्मेदारियाँ जो मुझे निभानी पड़ती हैं वो मुझे काफ़ी कठिन लगती हैं। और मैं अपनी आर्थिक स्वतंत्रता को खोना नहीं चाहती। तो नौकरी करना, एक माँ होना और साथ में अन्य भूमिकाएँ निभाना ये थोड़ा मुश्किल हो जाता है। और मैं व्यक्तिगत विकास पर भी काम करना चाहती हूँ। तो इस दबाव को कम करने के लिए कृपया सुझाव दें।

आचार्य: जो कुछ ज़रूरी हो, वो तो करना पड़ेगा। जो ज़रूरी नहीं है, उसका लालच छोड़कर त्यागते चलिए। जो आपने कहा ओवरवैल्हमिंग , यही तो चीज़ है न कि दस चीज़ें आ गई हैं अपने सिर पर और समय सीमित है, ऊर्जा सीमित है तो आप ओवरवैल्हम्ड अनुभव करती हैं। उन दस में से कुछ चीज़ें तो ऐसी होंगी, जो करनी बहुत-बहुत ज़रूरी हैं, उनको किसी भी हालत में त्यागिए मत। और उनमें कुछ ऐसा भी होगा जो त्यागा जा सकता है। उसको छोड़िए फिर।

उसको त्याग इसीलिए नहीं रहे कि उससे जुड़े हो सकता है कुछ फ़ायदे हों या अज्ञान हो, सुविधा हो; उसका लालच छोड़िए। और अगर ऐसा है कि जीवन में जो कुछ है वह सब ही परम् आवश्यक है तो फिर तो जो भी दिक्क़त हो, मुसीबत हो उसको सहते हुए आप अपना काम करते रहिए, जीवन यज्ञ में आहुति देते रहिए।

देखिए, साधरण सा मैं आपको सूत्र कह देता हूँ। ज़िन्दगी परेशान तो करती ही है। ठीक है? कोई ऐसा नहीं है जो कहे कि 'अरे, ज़िन्दगी तो फूलों की सेज है और हवा जैसी हल्की है।' ज़िन्दगी सब के लिए भारी है, सब के लिए काँटा है। प्रश्न ये है कि क्या करते हुए आपको तकलीफ़ हो रही है। वज़न सबने उठा रखा है, प्रश्न ये है कि कौन सा वज़न उठा रखा है आपने। ओवरवैल्हम्ड सभी रहते हैं, लेकिन जब आप सही काम करते हुए अपनेआप को हताश, अवाक या थका हुआ पाते हो, तो बात बहुत बड़ी नहीं होती, बहुत दूर तक नहीं जाती।

प्रेम सारी पीड़ा, हताशा सब हर लेता है। सही काम कर रहे हैं न। चोट लग रही है, दर्द हो रहा है, पाँच दिशाओं से दबाव आ रहा है। लेकिन काम अच्छा है और चूँकि अच्छा है इसीलिए प्यार है। तो फिर आदमी सब कुछ झेलता चला जाता है।

अब मैं फिर कहा रहा हूँ, झेलना सबको पड़ता है। चाहे आप चोर हों कि पुलिस, अच्छा काम करते हों कि बुरा काम करते हों, चिकित्‍सक हों कि मरीज़, राजा हों कि रंक, साधु हों कि शराबी, आप कोई भी हों, ज़िन्दगी तो ऐसी चीज़ है कि वो सभी को परेशान करके रखती है।

सही परेशानी चुनिए। सही परेशानी का फ़ायदा ये होगा कि बार-बार ये विचार नहीं करना पड़ेगा कि त्यागें या न त्यागें, काम करते रहें कि छोड़ दें। सही परेशानी की निशानी ये होती है कि आप कितना भी परेशान हो जाएँ, ये विचार, ये विकल्प कभी आपको नहीं आता कि सारा झँझट छोड़़-छाड़कर ख़त्म ही करो ना। आप चिढ़ सकते हैं, आपका सिर दर्द हो सकता है, आप बड़-बड़ कर सकते हैं, आप झुँझला करके थोड़ी देर के लिए विश्राम कर सकते हैं। लेकिन ऐसा आप न कभी कहेंगे न करेंगे न सोचेंगे कि मैं इस पूरे झँझट का अंत ही कर देता हूँ, मुझे ये काम करना ही नहीं है। ऐसा विचार उठेगा भी तो अल्प अवधि के लिए उठेगा, उसमें कोई जान नहीं होगी। ये सही काम का, सही परेशानी का फ़ायदा होता है।

तो ऐसी तो कभी कोई स्थिति ज़िन्दगी में आएगी नहीं कि परेशानियाँ ख़त्म हो जाएँ। ज़िन्दगी आदी से अंत तक परेशानी मात्र है। सही परेशानी चुनिए। ओवरवैल्हम् अगर होना ही है तो सही रास्ते पर जो दिक्क़तें आ रही हैं उनके सामने होइए। ठीक है?

मुझे मालूम नहीं कि मैं कुछ कह पाया हूँ कि नहीं, कुछ लाभ की चीज़ है कि नहीं। पर मैं क्षमाप्रार्थी हूँ, मैं इसके अतिरिक्‍त कुछ कह नहीं सकता आपको।

प्र: यह काफ़ी मददगार था। और आपकी वीडियो से मुझे बहुत, बहुत ही ज़्यादा लाभ हुआ है। बहुत-बहुत धन्यवाद।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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