आपको वहीं भेजता हूँ जहाँ खुद गया हूँ

Acharya Prashant

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आपको वहीं भेजता हूँ जहाँ खुद गया हूँ
जैसे शरीर को पोषण देते हैं, वैसे ही मन को पोषण दीजिए। फ़िल्म देखने से मन को पोषण नहीं मिल जाना है, मैच देखने से नहीं मिल जाना है। पार्टी करने से, ख़रीददारी करने से भी नहीं मिल जाना है। जहाँ मिलना है, वहाँ जाइए। वो मैंने करा है, इसीलिए आपसे बड़े अधिकार और बड़े विश्वास के साथ कहता हूँ कि आप भी करिए। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशांत: मन और जीवन के जो विशेषज्ञ हुए हैं, उनके पावों में जाकर बैठा हूँ। खेद की बात ये है कि वैसा कोई जीवित है नहीं या मिला नहीं, तो मुझे बस इतनी ही सुविधा थी कि जो हो गये अतीत में, उनके शब्दों के पास जाकर बैठ जाऊँ, उनकी वाणी सुन लूँ, उनके ग्रन्थ पढ़ लूँ। वो मैंने करा है, इसीलिए आपसे बड़े अधिकार और बड़े विश्वास के साथ कहता हूँ कि आप भी करिए। वो मैंने करा ही नहीं है, वो मैं आज भी करता हूँ।

एक समय था, कॉलेजी ज़िन्दगी में, उसके बाद भी, जब क्रिकेट और टेनिस खूब देखता था, फ़िल्में भी हो जाती थीं। अब वो सब बहुत कम है। तो मुझे अगर कभी कुछ देखना होता है तो क्या देखता हूँ? मुझे भी अगर अपना थोड़ा मनोरंजन करना होता है जो वास्तव में मनो-शुद्धि होती है तो कैसे करता हूँ? मैं उन्हीं के पास जाता हूँ जिनके पास मैं आपको भेजता हूँ।

अभी तीन-चार दिन पहले की बात है, रात में अनमोल (एक संस्थाकर्मी) कमरे में था। मैंने ज़िद करके कहा, मैंने कहा, 'सलोक महल्ला नौवाँ', गुरु तेग बहादुर साहब का लूप में (लगातार) लगाओ, ये रुकना नहीं चाहिए। वो बोला, लूप में लगाने का कोई तरीक़ा नहीं। मैंने कहा, 'नहीं, देखो कैसे लगेगा।'

'फिर कैसे लगा था?' (संस्थाकर्मी की ओर देखते हुए)

फिर कहीं से कुछ कॉपी करके पेन ड्राइव में लगाकर उसने उसको लूप में लगाया। मैंने कहा, ये धारा-प्रवाह बजना चाहिए, छः घंटे, आठ घंटे चलने दो। यही अमृत है, यही वो पोषण है जो आपके दिल को चाहिए। वो पोषण नहीं मिलेगा तो भीतर कुछ सूख जाएगा, कुपोषित हो जाएगा। जैसे शरीर के लिए ज़रूरी होता है न दाल, चावल, विटामिन, प्रोटीन। आप ये सब गिनते भी हो, कितनी कैलोरी हो गयी आज की। वैसे ही भीतर जो सूक्ष्म शरीर है, उसे भी पोषण चाहिए होता है। और उसको दाल, चावल से पोषण नहीं मिलता। आप बाहर से कितना भी खा-पी लो, भीतर का जो सूक्ष्म शरीर है जिसको मन कहते हैं वो तड़पता ही रहता है क्योंकि खाना-पीना, कपड़ा-लत्ता ये उसको तृप्त नहीं कर पाते।

तो ये दो अलग-अलग तल हैं जीने के। एक बाहरी, जहाँ बात शरीर की होती है, जहाँ बात धन की होती है, जहाँ बात ताक़त की होती है। उसका ख़याल रखा जाना भी ज़रूरी है भाई। खाना-पीना ठीक रखो, और रुपये-पैसे से भी आदमी को ठीक होना चाहिए। इतना तो होना चाहिए कि हाथ न फैलाने पड़े इधर-उधर। तो उस तल की देखभाल ज़रूरी है, निश्चित रूप से। पर जानने वाले हमें कह गये हैं कि उस बाहरी तल का ख़याल तो रखो, उससे कहीं ज़्यादा ज़रूरी है भीतरी तल। भीतरी पोषण अपनेआप को देते रहना। हिन्दुस्तान ने यही करा है, बाहर का ज़रा कम ख़याल रखा है, भीतर का ज़्यादा ख़याल रखा है।

हालाँकि अब स्थितियाँ उलटने लगी हैं। अब वैसा बहुत नहीं है। तुम सन्तों की मूर्तियाँ देखो या चित्र वगैरह देखो तो उनका व्यक्तित्व कैसा दिखता है, शानदार-जानदार? बोलो! वो कैसे होते हैं? ऐसे ही सूखे, हाड़ से बैठे हुए हैं, पर बातें देखो उनकी। गाँधीजी थे, दिखते कैसे थे? बहुत खूबसूरत थे? बहुत बलिष्ठ थे? ऋतिक रौशन थे बिलकुल? पर भीतर उनके जो सूक्ष्मता थी, उसमें कुछ बात थी, उसमें महानता थी। उसका ख़याल रखिए।

आप शरीर भर नहीं हैं, ये आप जानते हैं, अच्छी तरह से जानते हैं। मैं आत्मा की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं मन की बात कर रहा हूँ। मन तो है न? जैसे शरीर को पोषण देते हैं, वैसे ही मन को पोषण दीजिए। और वो पोषण एक ही जगह से मिलेगा, और कोई जगह नहीं हैं। फ़िल्म देखने से मन को पोषण नहीं मिल जाना है, मैच देखने से नहीं मिल जाना है। धमाचौकड़ी मचाने से, गुलाटी मारने से, मन को पोषण नहीं मिल जाना हैं। पार्टी करने से मन को पोषण नहीं मिल जाना हैं। शॉपिंग (ख़रीददारी) करने से भी नहीं मिल जाना है। जहाँ मिलना है, वहाँ जाइए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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