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आपका मन भी डोलता-मचलता है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। मन का स्वरूप नहीं समझ में आ रहा है कि मेरा मन मुझसे क्या करवाना चाह रहा है। मन की भागा-भागी नहीं रुक रही। पर्सनल लाइफ़ (व्यक्तिगत जीवन) में हमेशा आती हैं वो चीज़ें, सही फ़ैसले नहीं ले पाता, मन को ज़्यादा तवज्जो देता हूँ, मन से लड़ता रहता हूँ। तो ये कश्मकश मन में लगातार चलती रहती है कि मैं सही का चुनाव कैसे करूँ, मन का साथ कैसे लूँ या फिर मन को हटाऊँ कैसे। इसके बारे में आप कुछ बता पाएँ तो कृपा हो। धन्यवाद।

आचार्य प्रशांत: देखिए, अहंकार बहुत अजीब चीज़ होती है। हम ही हैं न वो? जैसे हम अजीब हैं वैसे ही वो अजीब है। उसके रंग लगातार बदलते रहते हैं और वो विरोधाभासों का संगम होता है, प्रेम ही उसको स्थिर कर पाता है। मैं जब बार-बार बोलता हूँ, 'सच्चाई की ओर बढ़ो, सच्चाई की ओर बढ़ो’, तो मैं वास्तव में आपसे कह रहा हूँ प्यार करो। प्यार के बिना कैसे आगे बढ़ोगे!

यही वजह है कि वेदान्त में प्रेम शब्द आता ही नहीं है। वो प्रेम को इतना सम्मान देते हैं और प्रेम को इतना मूलभूत मानते हैं कि कहते हैं कि इसका नाम क्या लें, ये तो मानी हुई बात है कि प्रेम तो होगा ही। प्रेम नहीं है तो तुम ऋषि के सामने जाओगे ही नहीं। और उपनिषदों का आरम्भ ही तब होता है जब आप ऋषि के सामने आकर बैठते हैं। वो एक प्रेम चाहिए।

अब अहंकार क्या करता है? या हम क्या करते हैं? अहंकार से ऐसा लगता है जैसे पता नहीं क्या है। हम क्या करते हैं?

हम प्यार से बचना चाहते हैं। हम प्यार से बचना चाहते हैं। हम प्यार करना भी चाहते हैं, है न? “मिलो ना तुम तो हम घबरायें, और मिलो तो आँख चुरायें।” क्योंकि प्रेम एक तरह का अन्त है। जैसे मोक्ष को मृत्यु कहते हैं न, तो प्रेम मृत्यु की तरफ़ ले जाता है। आप जैसे हैं, आप वैसे नहीं रह सकते प्रेम में। प्रेम आपको कहता है, 'मिल जाओ' और मिलने का मतलब होता है कि आपकी जो व्यक्तिगत हस्ती है वो मिटेगी, आप वो रह ही नहीं सकते जो आप हैं। तो हम प्रेम करना भी चाहते हैं और करने से डरते हैं। ख़ुद ही ऐसे हालात पैदा कर देते हैं कि करना भी न पड़े।

यहाँ राफ्टिंग वाले होते हैं, तो जब उनको ले जाते हैं ये राफ्ट पर, तो बीच में एक जगह आती है जहाँ वो राफ्टिंग वाले — ऐसे क्लिफ़ (टीला) सी है, छोटी सी है — पत्थर पर खड़ा कर देते हैं और कहते हैं, 'कूद जाओ पानी में।’ और बहुत सारे ऐसे होते हैं जो सुबह से बड़े उत्तेजित होते हैं, 'वाओ! आइ एम सो एक्साइटेड (वाह, मैं बहुत उत्साहित हूँ), आज राफ्टिंग करेंगे, आज वहाँ से कूदेंगे।' कुछ होगा उस पॉइंट (जगह) का नाम, वहाँ से कूदेंगे, ये करेंगे। और जब वहाँ राफ्ट रुकता है और कहा जाता है वहाँ चलो ऊपर, अब वहाँ से जम्प करेंगे पानी में, तो वो कहते हैं, 'वाओ, वाओ, वओ!' और फिर वो वहाँ जाते हैं जहाँ से कूदना होता है। और वहाँ जाकर क्या करते हैं? 'नो, नो, नो! इट्स टू कोल्ड! (नहीं, नहीं, नहीं! बहुत ठंडा है) डर लगता है बाबा।'

एक इरादा तुरन्त दूसरे इरादे में बदल जाता है। चाहिए भी और जब चाहने का मौक़ा आता है तो पाँव पीछे खींच लेते हैं, कोल्ड फीट (झिझक)। शाम को लगा था न सुबह-सुबह एक्टिविटी में जाना है, एक्टिविटी में जाने के समय क्या हुआ? 'रहने दो।'

बात ठंड भर की नहीं है। न जाने के पीछे गहरे कारण होते हैं। आप कॉन्शियस (सचेत) रूप से नहीं जानते, लेकिन भीतर जो सबकॉन्शियस (अचेतन) वृत्ति है, वो आगत ख़तरे को खूब पहचानती है। वो भलीभाँति जानती है कि कहाँ जाने में ख़तरा है। इसीलिए वो कुछ-न-कुछ छुट-पुट बहाने तैयार करती रहती है।

इस शिविर में भी बहुत लोग नहीं आये हैं। किसी के बच्चे को दस्त लग गयी, किसी के बॉस का फ़ोन आ गया, किसी के पति या पत्नी ने धरना दे दिया। ये सब संयोग नहीं हैं, इनमें हमारा हाथ होता है। हमें आना भी है, नहीं भी आना है। हमें मिटना भी है, नहीं भी मिटना है। हमें स्वर्ग भी चाहिए, मरना भी नहीं है। हम विरोधाभासों का एक असंगत पिंड हैं। समझ में आ रही है बात?

तो क्या करें फिर?

एक ही उत्तर है — प्यार को हो जाने दो। सुबह उठ नहीं पाये न, तो ऐसा इश्क़ हो जाने दो कि सोओ ही नहीं, सुबह उठने की नौबत ही नहीं आएगी। मज़ाक नहीं कर रहा हूँ, बिलकुल सही बात है। शायद ही कोई दिन ऐसा हो जब मैं ब्रह्म मुहूर्त नहीं देखता, बताओ क्यों? सोता ही नहीं। ब्रह्म से प्रेम हो गया है, अरे भई, कौन सोये! बात सिर्फ़ आधी ही मज़ाक की है।

हम प्रेम के ही प्यासे हैं और प्रेम से ही सबसे ज़्यादा डरते हैं। पूरी जान लगाये हुए हैं कि वो मिल जाए और जब मिलने वाला होता है तो क़दम पीछे खींच लेते हैं। उसका मिलना, हमारा मिटना।

बिलकुल कोई और तरीक़ा नहीं है, तुम्हें पता है न कि नींद तुम्हें खींच ले जाएगी, तुम सोओ ही मत। थोड़ा पागलपन चाहिए भाई, बहुत समझदारी के उपाय काम नहीं कर पाते। कहीं-कहीं पर पागलपन ही तुम्हें जीत दिला सकता है, इन्सेनिटी (पागलपन)। ख़ासतौर पर जब अपना पता हो कि सो गया तो मैं उठने से रहा, मेरा इतिहास ही ऐसा है, तो मत सोओ।

आख़िरी लड़ाई तो शारीरिक ही होती है। जब तुम सब तरह की बाधाओं को जीत लोगे तो पाओगे शरीर बाधा बन गया। तो शरीर को भी जीतना ज़रूरी है न। होगा तुममें बहुत प्यार, तुम मिलने चले और पेट दर्द हो गया, तुम रुक गये। न-न-न, नींद आ रही है, आने दो।

किसी और उत्तर की उम्मीद कर रहे थे। थोड़े भौंचक्के से लग रहे हो। कह रहे हो, 'ये कैसा जवाब है, सोओ ही मत!' मेरा तो ऐसा ही है, क्या बताऊँ और!

या किसी ऐसे को पकड़ लो जो तुम्हें उठा दे। उसके लिए कोई ऐसा चाहिए जो ख़ुद उठा हुआ हो। सबसे अच्छा तो है कि सोओ ही मत। या ऐसे के साथ रहो जो ख़ुद न सोता हो, “एक-दूसरे को हम सोने न दें!” (श्रोतागण हँसते हुए)

सेक्स के लिए तो बहुत जागरण हो गया, अब सत्य के लिए भी कर लें। तो साथी कोई चाहिए ऐसा जो सत्य के लिए जगाकर रखे। अपने साथी आप बन सकते हो तो इससे अच्छा कुछ नहीं, क्योंकि दूसरे का क्या भरोसा, वहाँ बात थोड़ी संयोग की भी होती है, मिले, न मिले, क्या पता।

और मैं तो पूछ रहा हूँ, सुबह कोई ज़रूरी काम है तो रात में, सच बताना, तुम्हें नींद आ कैसे जाती है? मुझे तो नहीं आती। और मेरा ये जागरण आज से नहीं शुरू हुआ है। मैं पहली बार छठी में था जब मैं रात में देर तक जगा था। उसके बाद धीरे-धीरे परीक्षाओं के समय रात में देर तक जगना शुरू किया। फिर एक दिन शायद ऐसा आया होगा पहली बार जब मैं रात भर जगा था और ग्यारहवीं में आते-आते ये अनिवार्यता सी ही बन गयी थी, रात्रि जागरण, ये होता-ही-होता था। कुछ रात से प्यार, और कुछ भोर से। रात भर जगकर जब बिलकुल आसमान का हल्का सा रंग धुँधला होते देखते हो न, भीतर भी कुछ बदल जाता है। जैसे एकदम वो कुछ स्याही सी पसरी हुई थी आसमान में, और वो हल्की होने लगी, ऐसे होती है सुबह।

ये सब बातें जो मैं तुमसे बोलता हूँ, वो ज्ञान से नहीं आती हैं; ज्ञान बाहरी है, भीतर एक पागलपन चाहिए। ये बातें एक पागलपन से आती हैं। ज्ञान तो व्यवस्था दे देगा — ऐसे होता है, ऐसे होता है, ऐसे होता है, ऐसे होता है। अगर कुछ डिस्रप्टिव (विध्वंसकारक) करना है तो उसके लिए एक इन्सेनिटी (पागलपन) चाहिए होती है। डिस्रप्टिव माने तोड़-फोड़ का। अपना ही विनाश करना हो तो बिना पागलपन के कैसे कर लोगे!

प्र२: आचार्य जी, प्रणाम। मेरा प्रश्न विचारों को लेकर ही है। कोई कार्य करते हुए हमारे मन में पीछे से विचार आते हैं, तो उसका जवाब आपने दिया था कि अगर उचित कार्य आप कर रहे हैं तो विचार आ भी रहे हैं तो कार्य करना ज़रूरी है।

लेकिन कई बार उचित कार्य करते हुए भी एक विचार आता है और हम उसी में खो जाते हैं। आचार्य जी, थोड़ा मार्गदर्शन करें। प्रणाम।

आचार्य: जो करना चाहते हैं, और जिसके रास्ते में इधर-उधर के विचार घुमड़ आते हैं, उसके और निकट जाएँ ताकि उससे प्रेम हो सके। आप जो करना चाहते हैं, उससे आपको पर्याप्त प्रेम नहीं है। इसीलिए इधर-उधर की चीज़ें आकर के विक्षेप बनती हैं, ध्यान भटकता है।

मैं जो बोल रहा था वो बात अगर आपको प्यारी लगती तो आप उसमें डूब जाते। उस बात में आपको पर्याप्त आकर्षण दिखा नहीं तो इसीलिए इधर-उधर की बातें आ गयीं या आप भविष्य की सोचने लगे कि अपना प्रश्न कैसे पूछना है, ये लिख लूँ मैं।

प्रेम और ध्यान एक ही चीज़ है। ध्यान जिनका नहीं लगता, उनके पास प्रेम की कमी है। जो ध्येय है आपका, उससे प्रेम हो तो ध्यान लग गया। ध्यान और क्या होता है, ध्येय से प्रेम को ध्यान कहते हैं।

तो दो तरह की ग़लतियाँ हो सकती हैं। पहला, ध्येय ही ग़लत चुन लिया। दूसरा, ध्येय सही मिल भी गया है तो उसको ठीक से जानते नहीं हैं। क्योंकि उसको जानते नहीं, इसलिए उसका जादू हम पर काम नहीं कर रहा। ध्येय बहुत अच्छा भी हो सकता है लेकिन आप पर असफल हो सकता है अगर आप उस ध्येय के निकट नहीं हैं, तो आपको उससे फिर प्यार नहीं हो पाएगा।

और ग़लत ध्येय चुन लिया है तब तो प्यार हो ही नहीं सकता। तब तो इधर-उधर मन भटकता ही रहेगा, हम कहेंगे लैक ऑफ़ कन्सन्ट्रेशन (एकाग्रता की कमी)।

तो पहली बात, ध्येय सही चुनना है। दूसरी बात, ध्येय के बिलकुल निकट रहना है।

हो सकता है आपने ध्येय सही चुन लिया हो, आपके सामने उपनिषद् हों, ध्येय अच्छा है। फिर उसमें बिलकुल प्रवेश कर जाइए न। मतलब समझना है इस शब्द का अर्थ क्या है, एकदम चले ही जाइए उसके निकट। निकटता समझ रहे हैं? 'मुझे जानना है।' एकदम पूर्ण स्पष्टता चाहिए। आप जब साधारण भौतिक प्रेम भी करते हैं तो दूरी बर्दाश्त नहीं कर पाते न? तो आध्यात्मिक प्रेम में भी इसी तरह दूरी का कोई काम नहीं होता।

आपके साथ उपनिषद् है तो आपको उसमें डूबना होगा। डूब जाएँगे, इधर-उधर के विचार आएँगे ही नहीं। वो निकटता चाहिए, और समझिए, और समझिए। अपनेआप से बोलिए कि अगर मैं इसके साथ हूँ ही तो पूरी तरह क्यों नहीं हूँ, जान ही लूँ कि बात क्या है, जान ही लेते हैं न क्या है। और जानने के बाद अगर लगा कि ये चीज़ किसी काम की नहीं है, मूल्य की नहीं है तो फिर पूरी तरह ही छोड़ देंगे। फिर ये बात नहीं होगी कि वो चीज़ भी सामने है और इधर-उधर के विचार भी आ रहे हैं, फिर उसको त्याग ही देंगे। और अगर वो चीज़ काम की है तो जैसे-जैसे उससे प्रेम बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे मन का भटकना कम होता जाएगा।

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