आओगे तो तुम भी राम के पास ही || आचार्य प्रशांत, रामायण पर (2018)

Acharya Prashant

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आओगे तो तुम भी राम के पास ही || आचार्य प्रशांत, रामायण पर (2018)

प्रसंग:

प्रभु का रूप अतुल्य है

मन्दोदरी ने रावण से कहा, “यदि तुम्हें सीता को पाने की इतनी ही इच्छा है, तो तुम उसके पास राम का रूप धारण करके क्यों नहीं चले जाते?” तुम तो मायावी हो, माया का इतना उपयोग तो कर ही सकते हो। रावण ने उत्तर दिया, “राम का चिन्तन भी करता हूँ, तो भी इतनी गहन शांति मिलती है कि उसके बाद कहाँ छल कर पाऊँगा?” रावण कह रहा है कि मैं रावण सिर्फ़ तभी तक हूँ, जब तक मैंने राम को ख़ुद से ज़बर्दस्ती दूर कर रखा है। राम की यदि छाया भी मेरे ऊपर पड़ गयी, तो मैं रावण रहूँगा ही नहीं।

~ बोध कथा

प्रश्नकर्ता: क्या माया भी राम के पास ही ले जाती है? राम के पास पहुँचने के कौन-कौन से मार्ग हैं? मन में राम को कैसे बसाएँ? क्या सभी जीवों के ह्रदय में राम का ही वास है?

आचार्य प्रशांत: कहानी थी 'प्रभु का रूप अतुल्य है,' इस शीर्षक से।

क्या कहती है कहानी?

कहानी कहती है कि मंदोदरी गयी रावण के पास, बोली, "तुम्हें सीता को पाने की इतनी इच्छा है, तो तुम तो महामायावी हो, जाओ, सीता के पास राम ही बनकर चले जाओ अपनी माया का उपयोग करके। राम बनो, सीता के पास चले जाओ, सीता को पा लो। कैद तो तुमने कर ही रखा है सीता को।"

रावण ने कहा, "पगली, राम का रूप भी धरता हूँ, बस ऊपर-ऊपर से राम होने का स्वांग भी करता हूँ, तो भी इतनी गहन शांति मिलती है कि उसके बाद कहाँ छल कर पाऊँ?"

रावण कह रहा है कि, "मैं रावण तब तक ही हूँ जब तक ज़बरदस्ती मैंने राम को अपने से दूर रखा है। राम की छाया भी मुझपर पड़ गयी तो मैं रावण रहूँगा नहीं न! राम का यदि विचार भी कर लिया मैंने तो मैं रावण रहूँगा नहीं न!"

ऐसे ही हैं हम, और इसीलिए हम राम से बचते हैं, क्योंकि वो ज़रा भी पास आया तो हम वो नहीं कर पाएँगे जो करने की हमने ठान ली है। राम यदि रावण के पास आ गए तो फिर वो सीता को बंधक नहीं रख पाएगा। और अगर तुमने यही ठाना हुआ है कि सीता तो बंधक रहे, तो तुम्हारी विवशता हो जाएगी कि तुम राम से दूरी बनाओ। ये अनिवार्य हो जाएगा तुम्हारे लिए। तुम दोनों काम एक साथ नहीं कर सकते कि सच्चाई के पास भी हो और अपनी भी चला रहे हो। जिन्हें अपनी चलानी है, उन्हें मजबूरन सच्चाई को दूर रखना होगा, ठुकराना होगा।

प्रश्नकर्ता ने पूछा है, "आचार्य जी, समझाने की कृपा करें कि रावण ने अपनी बीमारी के इलाज को जानते हुए भी उसे ठुकरा क्यों दिया?"

रावण को पता है कि राम नाम लेते ही, राम की छवि का स्मरण करते ही चित्त शांत हो जाता है, ज्वाला शीतल हो जाती है। तो फिर वो क्यों नहीं राम नाम ले रहा? क्योंकि वो बहुत दूर निकल आया है। आदत बहुत पुरानी हो गयी है, बीमारी दुसाध्य हो गयी है। तो अब रावण कहता है कि, "मेरे करे नहीं होगा। मैं तो अब अपनी रावणि इच्छाओं का गुलाम हो गया हूँ।" वो जान रहा है भलीभांति कि राम ही उसकी नियति हैं। यही बात तो मंदोदरी को दिए वक्तव्य से प्रकट होती है कि जान भाली-भांति रहा है कि राम में ही शीतलता है, राम में ही चैन मिलना है, पर ये भी जान रहा है कि अब वो चैन वो अपने हाथों हासिल नहीं कर सकता, अपने करे हासिल नहीं कर सकता।

समझो बात को। ये स्पष्ट है उसे कि मंज़िल कौन है? राम। पर ये भी स्पष्ट है उसे कि उस मंज़िल तक वो अब अपने पाँव चलकर नहीं जा सकता क्योंकि वो पाँव अब किसके हो गए हैं? रावण के। मंज़िल भले राम हैं, पर पाँव रावण के हो गए हैं, और रावण के हैं पाँव जब तक, तब तक वो राम की ओर बढ़ेंगे नहीं। तो रावण की विषम स्थिति हैं। तो रावण फिर इलाज निकालता है। रावण कहता है कि, "राम को अगर पाना है तो अब ऐसे तो वो मुझे मिलेंगे नहीं कि मैं उनके सामने हाथ जोड़कर चला जाऊँ, क्योंकि मैं कौन हो गया हूँ?"

श्रोतागण: रावण।

आचार्य प्रशांत: और बड़ा पुराना रावण हो गया हूँ। भीतर बोध का दिया टिमटिमा रहा है, पर बाहर घोर कालिमा। लेकिन दिया तो दिया है फिर भी, और दिया भारी पड़ रहा है। रावण जो कर रहा है, है वो प्रकाश की दिशा में ही, रावण जा राम की तरफ ही रहा है, पर वो कह रहा है, "अपने पाँव नहीं आ पाऊँगा, सीधा रास्ता नहीं इख्तियार कर पाऊँगा"। तो रावण ज़रा टेढ़ा रास्ता लेता है।

क्या टेढ़ा रास्ता लेता है? वो कहता है कि, "तुम्हारा सामने झुककर नहीं आ पाया तो तीर-कमान लेकर आऊँगा; तुम्हारे सामने भक्त की तरह नहीं आ पाया तो शत्रु की तरह आऊँगा, पर आना तो मुझे तुम्हारे सामने ही है क्योंकि वही नियति है मेरी। हाथ नहीं जोड़ पाया तो तीर मारूँगा।"

समझना इस बात को। पुण्यात्मा, पापी – दोनों का अंत तो एक ही होना है न? क्योंकि अंत तो एक ही हो सकता है। उस अंत का नाम है – परमात्मा। उसी अंत का नाम है – राम। और राम दोनों को आकर्षित करते हैं। राम पुण्यात्मा को और पापात्मा को, दोनों को आकर्षित करते हैं। भक्त को कैसे आकर्षित करते हैं? कि भक्त कहता है, "मंदिर है, चलो चलें"। तो भक्त ऐसे आ गया राम की ओर। और पापी कैसे आकर्षित होता है? कि पापी कहता है, "राम हैं, डंडा उठाओ, मारो, गाली दो, मुँह नोच लो, अपशब्द कहो, निंदा करो।" गौर से देखो कि शत्रुता हो कि मित्रता हो, दोनों ही स्थितियों में तुम शत्रु को और मित्र को याद करते हो। तो भक्त भी राम को याद करता है, और पापी भी राम को याद करता है। अंतर बस इतना है कि पापी का राम को याद करने का तरीका विकृत है, घिनौना है, दुःखदाई है।

समझ रहे हो?

तो रावण ने यही तरीक़ा चुना। "अपने हाथों तो मिट नहीं पाऊँगा राम तुम्हारे सामने, मैं बड़ा पुराना रावण हो गया, तो अब तुम्हारे सामने मिटने का एक ही तरीका है कि तुम्हें दुश्मन बना लूँ और फिर तुम मुझे मिटा दो।" ये बात हो सकता है उसने चैतन्य मन से न सोची हो। चैतन्य मन से हो सकता है वो यही सोच रहा हो कि, "तीर मारकर राम को ख़त्म ही कर देता हूँ।" पर चैतन्य मन के नीचे कुछ बैठा है, उसके अपने तरीक़े हैं, उसके अपने क्रियाकलाप हैं।

बात समझ रहे हो?

तो वो जो नीचे बैठा है, वो रावण को घसीटकर ले गया राम के पास। जाना ही तो था पास, पहुँच गया रावण। हाथ जोड़कर नहीं पहुँचा, हाथ उठाकर पहुँचा, पर पहुँच तो गया ही न? पहुँच गया राम के पास। और फिर कथा ये भी कहती है कि राम के ही हाथों उसका उद्धार भी हो गया। जब उद्धार हो गया तो बड़ा अनुग्रहित हुआ, बोला, "यही तो था, यही तो चाहिए था। तुम्हारे अलावा किसी और के हाथों मौत मिलती तो भटकते ही रहता। भला हुआ राम कि तुमने मारा।"

तो आना तो तुम्हें है ही, दोस्त बनकर नहीं आओगे तो दुश्मन बनकर आओगे। भला होगा अगर तुम दोस्त बनकर ही आ जाओ। जब सत्य दुनिया में कहीं भी हुँकार करता है तो दुनिया दो हिस्सों में बँट जाती है। तगड़ा पोलाराइज़ेशन (ध्रुवीकरण) होता है: कुछ समर्थक बन जाते हैं, और कुछ घोर विरोधी। उदासीन कोई नहीं रह पाता; इंडिफरेंट आप नहीं रह सकते।

ये सत्य की हुँकार का एक प्रामाणिक लक्षण है। कुछ होंगे जो बिल्कुल उसके भक्त बन जाएँगे, मित्र बन जाएँगे, साथी हो लेंगे, और बाकी जितने होंगे वो आरोप लगाएँगे, वार करेंगे, दुश्मन हो लेंगे। ऐसा लगेगा कि जैसे दुनिया दो हिस्सों में बँट गयी है, और ऐसा लगेगा कि जैसे वो दोनों हिस्से एक-दूसरे के विरोधी हैं और विपरीत काम कर रहे हैं।

विपरीत नहीं काम कर रहे; दोनों ही हिस्सों में एक ही काम हो रहा है। पहला हिस्सा भी जा रहा है सच के पैगम्बर की ओर। क्या बनकर? मित्र बनकर, भक्त बनकर, श्रद्धालु बनकर। और दूसरा हिस्सा भी तो जा रहा है; शत्रु बनकर। जा दोनों ही रहे हैं। काम हो गया।

संत, ऋषि मुस्कुराता है। वो कहता है, "तुम्हारी मर्ज़ी, तुम्हें जैसे आना हो तुम आओ। ये दरवाज़ा मित्रों के लिए है, वो दरवाज़ा दुश्मनों के लिए है। तुम किसी भी दरवाज़े से घुसो, सामने तो मुझे ही पाओगे। तुम दरवाज़ा चुनो। हाँ, ये है कि तुम मित्रता के दरवाज़े से आओगे तो तुम्हारे लिए ज़रा सुविधा रहेगी, तुम शत्रुता के दरवाज़े से आओगे तो तुम्हें ही समस्या आएगी।"

फिर एक दूसरे प्रश्नकर्ता ने आपत्ति उठाई है। कह रही हैं, "रावण को अगर इतना ही पता था तो सीता को उठाकर काहे लाया? और अगर उठाया तो ये जानने के बाद कि राम भगवान हैं, काहे नहीं लौटाया? सर काहे नहीं झुकाया?"

अरे भाई, वो रावण है न। उस बिचारे की मजबूरी बस इतनी है कि रावण हो कि हनुमान हो कि विभीषण हो, हृदय में तो सबके राम ही होते हैं। हनुमान का ये है कि राम उसके हृदय में भी हैं, और राम उसके जीवन में भी हैं। रावण का ये है कि जीवन तो उसका रावण का है, और दिल उसने राम को दे रखा है। तो फिर वहाँ पर क्या आ जाता है? विभाजन आ जाता है, द्वँद आ जाता है। चाहते किसी और को हो, और जी किसी और के लिए रहे हो। चाहते हो राम को और जी रहे हो रावण के लिए।

ज़्यादातर लोग ऐसी ही ज़िंदगियाँ जीते हैं। उन्हें पता ही नहीं होता कि उनके दिल में कौन है। उनका दिल और दिमाग विपरीत चलते हैं। दिल में होते हैं राम, जो कि सभी के दिल में हैं, और दिमाग में होता है काम। तो फिर वो बँटे-बँटे जीते हैं, कटे-फटे जीते हैं। और उन्हें समझ में ही नहीं आता कि, "मैं जो कुछ भी करता हूँ उसमें भीतर खींचतान-सी क्यों मची रहती है, काट-फाट क्यों रहती है, अंतर्युद्ध-सा क्यों मचा रहता है?" वो इसीलिए मचा रहता है क्योंकि हृदय तो जिसका होना था हो चुका, और वहाँ अब बात बदलेगी नहीं। हम सब ने दिल एक को ही दिया हुआ है। हृदय में सबके राम बसते हैं। तो तुम ये सोचो कि हृदय बदल जाएगा तो बदलेगा नहीं; तुम्हें ही बदलना होगा, मन को ही बदलना होगा, दिमाग को ही तुम्हें राममय करना होगा। हृदय नहीं बदलेगा, हृदय काममय नहीं होने वाला; मन को राममय होना पड़ेगा। पर तुम अपनी हार मानने को राज़ी आसानी से होते नहीं। तुम इसी उम्मीद में जीते हो कि मैं अपनी चला लूँगा, क्या पता एक दिन हृदय बदल जाए!

न, न, न, तुम्हारी नहीं चलेगी। तुम्हारा हारना पक्का है। हाँ, तुम ज़रा अकड़ू हो तो तुम हाथ-पाँव चलाकर पूरी कोशिश करने के बाद हारोगे। ठीक है, तुम ऐसा चाहते हो तो ऐसा ही सही। लगा लो जितना ज़ोर लगाना है, जीत तो उसी की होगी; सत्यमेव जयते। जहाँ हृदय की और मन की लड़ाई हो, वहाँ झुकना तो मन को ही पड़ेगा। पर तुम मनचले होने के आदि हो गए हो। तुम ज़्यादा मनमौजी हो गए हो। तुम कहते हो, "हमारा जैसा मन करेगा, हम वैसा करेंगे।" कर लो जितने दिन कर सकते हो। मन को हार माननी पड़ेगी क्योंकि आत्मा तो हारने से रही। आत्मा सदा अविजित है; उसे कोई नहीं हरा सकता।

किसको हारना पड़ेगा? मन को ही हारना पड़ेगा। वो कितनी जल्दी हारता है, ये तुम जानो। तकलीफ खा-खाकर हारता है या आसानी से हार जाता है, ये तुम जानो। जीवन पुष्पित-पल्लवित करके हारता है या जीवन गँवाकर हारता है, ये तुम जानो। हारना तो पक्का है।

मैं तो कहता हूँ: जल्दी से हार लो!

प्र: जब हम लोग गुरु कबीर का भजन गाते हैं, "गुरु से कर मेल गँवारा,” तो उसके पहले तीन अंतरे बहुत अच्छे और एक जैसे होते हैं। और अंतिम मुखड़े में एक पंक्ति आती है:

कहे कबीर देख मन करनी, बाके अंदर कतरनी।

जब कतरनी के गाँठ ना छूटे, तब पकड़ के जम लूटे।।

तो इसमें साफ समझ आता है कि कबीर साहब क्या कह रहे हैं, पर इतनी गहराई से कभी समझ नहीं आया। अभी दिखा जब आपने ये कहानी और रावण के बारे में बताया कि दो हो गया है: अंदर राम बसे हुए हैं और बाहर-बाहर रावण है, और यहीं पर कतरनी हो गयी है। और जब कतरनी की गाँठ नहीं छूटती तो जम पकड़कर लूट लेते हैं। यही नियति हो जाती है।

आचार्य: इसीलिए तो हम सब बड़े मूल्यवान हैं क्योंकि हृदय सबके रामनिष्ठ हैं, हृदय सबके राममय हैं। तुम चाहो तो खुद से ही प्यार कर लो, तुम इतने प्यारे हो। हनुमान की तो कथा है कि उन्होंने दिल चीरकर दिखा दिया वहाँ राम बैठे हुए थे। हनुमान भर के ही नहीं बैठे थे, तुम्हारे भी बैठे हुए हैं। तुम में और हनुमान में अंतर ये है कि हनुमान के हृदय में ही नहीं, हनुमान के मन और जीवन में भी राम थे। इसीलिए हनुमान मौज में थे, आनंद मनाते थे।

तुम्हारे साथ थोड़ी दुर्घटना हो गयी है। तुम्हारे हृदय में तो राम हैं, और मन में तुम खुद हो। और न सिर्फ़ मन में तुम खुद हो, बल्कि तुम्हारा पूरा दावा है और इरादे हैं कि हृदय को बदलकर मानेंगे, हृदय को हराकर मानेंगे। क्योंकि दोनों एक साथ नहीं चल सकते। ये भेद, ये विभाजन चल नहीं सकता। दोनों में से एक को ही बचना होगा; या तो तुम बचोगे या राम बचेंगे। तुम्हारा इरादा यही है कि राम को हरा दें और पूरा ही कब्ज़ा कर लें, पर तुम्हारा इरादा पूरा होगा नहीं। परिणाम तय है, मैच फिक्स्ड है। क्यों गलत सट्टा लगा रहे हो? यहाँ पहले ही तय कर दिया गया है कि कौन जीतेगा, तुम गलत पक्ष पर पैसा लगाकर क्यों सब गँवाना चाहते हो? एक ही तरफ लगाओ बाज़ी। किस तरफ? हृदय की तरफ।

मत नाहक अड़ो, मत व्यर्थ लड़ो; तुम नहीं जीतोगे। कोई नहीं जीता सत्य से, कोई नहीं जीता आत्मा से, कोई नहीं जीता हृदय से, राम से, गुरु से। बात व्यक्तिगत रूप से तुम्हारी भर नहीं है। समय की शुरुआत से आज तक कोई नहीं जीता, तुम ही जीत लोगे? तुम्हारी कमज़ोरी या दोष नहीं बताया जा रहा कि तुम हार जाओगे क्योंकि तुम निर्बल हो। तुम हारोगे इसलिए क्योंकि जीतना संभव ही नहीं है। कभी कोई नहीं जीता। और तुम अपवाद नहीं हो सकते। कोई अपवाद नहीं हो सकता।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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