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आनन्द और हँसी का संबंध || आचार्य प्रशांत, कृष्णमूर्ति पर (2013)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: सर, रेस्टलेस (बेचैन) न होना और सीरियस (गम्भीर) होना और शान्त होना, इन तीनों में डिफरेंस (अन्तर) क्या है?

आचार्य प्रशांत: सीरियस (गम्भीर) होना दो तरीक़े से प्रयुक्त होता है। कैसे बोलूँ? एक ओशो के तरीक़े से, एक कृष्णमूर्ति के तरीक़े से — जब कृष्णमूर्ति कहते हैं, ‘लेट्स बी सीरियस।’ (आइए गम्भीर हो जाएँ) तो उनका अर्थ ये है कि अटेंटिव (सचेत) हो जाओ। बी हियर, दैट्स व्हाट ही मीन व्हेन ही सेज़, लेट्स बी सीरियस। (जब कृष्णमूर्ति कहते हैं, ‘आइए गम्भीर रहें’ तो उनका मतलब होता है ‘यहाँ रहो।’)

व्हेन ओशो सेज़, ‘लेट्स बी सीरियस या व्हाई आर यू सो सीरियस।’ देन व्हाट ही मीन्स इज़ व्हाई आर यू सो हैवी? फार ओशो, द वर्ड ‘सीरियसनेस’ हैज़ अ कनोटेशन आफ़ हेवीनेस। (जब ओशो कहते हैं, ‘आइए गम्भीर हो जाएँ या तुम इतने गम्भीर क्यों हो?’ तो फिर उसका मतलब है कि तुम इतने भारी क्यों हो। ओशो के लिए गम्भीरता शब्द का अर्थ ‘भारीपन’ है।)

तो अब ये निर्भर करता है कि सीरियस (गम्भीर) से आपका तात्पर्य क्या है। यू कैन बी सीरियस एंड वेरी ज्वॉयफुल, इन ए कृष्णमूर्ति वे, सीरियसनेस इज ए ज्वॉय, सीरियसनेस इज अटेंशन, सीरियसनेस इज प्रेजेन्स। (आप गम्भीर और बहुत आनन्दित भी हो सकते हैं। कृष्णमूर्ति के तरीक़े से, गम्भीरता एक आनन्द है। गम्भीरता ध्यान है, गम्भीरता उपस्थिति है।)

इफ़ कृष्णमूर्ति वर हियर, ही वुड से, ‘मेनी आफ देम आर वेरी सीरियस।’ बाय दैट ही डज़ नॉट मीन दैट यू आर सैड ऑर डिप्रेस्ड। ही ओनली मीन्स दैट यू आर प्रेजेंट, दैट यू केयर। (यदि कृष्णमूर्ति यहाँ होते, तो वे कहते, ‘उनमें से कई बहुत गम्भीर हैं।’ इससे उनका मतलब ये नहीं है कि आप दुखी या अवसादग्रस्त हैं। उनका मतलब केवल इतना है कि आप मौज़ूद हैं, कि आप परवाह करते हैं।)

व्हेन ही सेज़, ‘लेट्स सीरियसली बी इन डिस्कशन’ देन ही मीन्स दैट यू केयर फॉर समथिंग, दैट इज़ मीनिंग ऑफ़ सीरियसनेस। (जब वो कहते हैं, ‘आओ गम्भीरता से चर्चा में रहें।’ तो उनका मतलब है कि आप किसी चीज़ की परवाह करते हैं। यही गम्भीरता का अर्थ है।)

प्र: सर, वैसा होने की ज़रूरत नहीं है।

आचार्य: आफ़कोर्स (बेशक)। एंड रिमेम्बेर दैट सीरियसनेस हैज़ इट्स ओन ब्यूटी, सीरियसनेस हैज़ इट्स ओन ब्यूटी। (और याद रखें कि गम्भीरता का अपना सौन्दर्य होता है, गम्भीरता का अपना सौन्दर्य होता है।) एक जो गम्भीर चेहरा होता है— आई एम टाकिंग अबाउट सीरियसनेस इन ए कृष्णमूर्ति वे। (मैं कृष्णमूर्ति के तरीक़े से गम्भीरता की बात कर रहा हूँ)—उसकी अपनी एक सुन्दरता होती है। और उस चेहरे के सामने एक फ़ालतू हँसते हुए चेहरे को आप रख देंगे तो आपको दिखायी देगा कि गरिमा किधर है। उसकी अपनी एक गरिमा है, एक भव्यता है एक सीरियस (गम्भीर) चेहरे की।

आप बुद्ध का चेहरा लीजिए जो आपके सामान्य व्याकरण में सीरियस है और आप उसके बगल में किसी छिछोरे का चेहरा रख दीजिए। तो आपको दिख जाएगा कि इन दोनों में गरिमा कहाँ है। पर वो सीरियसनेस बोझिलता न बन जाए, ऐसा न लगे कि कन्धे पर बोझ है।

प्र: सर, जितने आनन्दित लोगों को देखा है कहीं पर ज़्यादातर, वो बहुत ज़्यादा हँसते-मुस्कुराते, स्माइल करते क्यों नहीं दिखते?

आचार्य: क्योंकि ये आपकी सिर्फ़ एक मान्यता है कि आनंद का हँसने से कोई सम्बन्ध है। सुनो, ध्यान से कुन्दन ( एक प्रतिभागी से कहते हुए), आनंद का हँसने से कोई सम्बन्ध नहीं है। ये आपके मन में मान्यता है कि आनंद तभी है जब हँसी आ रही है।

और बिलकुल ठीक बात बोली, ‘जीवन में, पूरे इतिहास में जिन भी लोगों ने बहुत कुछ करके दिखाया है उनके आप चेहरे देखेंगे तो आपको ऐसे ही लगेगा कि ये तो बड़ा तना हुआ आदमी है।’ वो तना हुआ नहीं है, उसके भीतर एक आन्तरिक मौज़ है। और उसकी एक बड़ी सूक्ष्म सेंस ऑफ़ ह्यूमर (हास्य का भाव) भी होगी जो आपको शायद समझ में भी न आये।

हमें बचपन से ही ये ग़लत मान्यता दे दी गयी है कि फ़ालतू हँसना ज़रूरी है और वो जो हँसना है वो बीमारी है जिसको हम (आनंद कहते हैं)। आनन्द एक बिलकुल दूसरी बात है, वो हर स्थिति में हो सकता है, उसका हँसने से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है। लेकिन देखिये न, हँसने पर कितनी क़ीमत है—आप फोटो लगाते हो अपनी?

प्र: हँसते हुए, स्माइल वाली।

आचार्य: और स्माइलिंग (हँसते हुए) फोटो नहीं है, तो लगेगा कुछ गड़बड़ हो गयी है। ये वही लोग हैं जिन्होंने वैल्यूज़ (मूल्य) स्थापित कर रखी हैं— हँसना वर्सेस (बनाम) रोना, हँसना अच्छा है रोना बुरा है। ये समझ ही नहीं रहे हैं कि रोने में भी कितना मज़ा हो सकता है। इन्होंने जीवन के एक पक्ष को पकड़ लिया है और ये बहुत डरा हुआ रहेगा। हँसता हुआ आदमी डरा हुआ रहेगा, रोना न पड़े। उसे तो एक ही पक्ष पसन्द है न, हँसने वाला तो रोने से डरेगा वो।

आनन्द का मतलब है— हँसी में भी मौज़ और रोने में भी मौज़। हँसी में कुछ विशेष नहीं। मैं नहीं कह रहा हूँ, ‘हँसो मत।’ मैं कह रहा हूँ, ‘हँसी को विशिष्ट मत समझो।’ अरे! जब हँसना है, हँस लो फिर जब रोना है तो रो भी लो। और जब कुछ नहीं करना तो इसमें भी कुछ बुराई नहीं है कि चुप बैठे हो। हाँ! क्या? इसका ये मतलब थोड़ी है कि मैं अभी तनाव में हूँ, शान्त बैठा हूँ। क्या हो गयी, क्या दिक्क़त है कोई? कोई हँसने वाली बात नहीं होती है। अभी आप ये बोल रही हैं, ये मेरे लिए हँसने वाली बात हो सकती है। हँसने वाली बात से हमारा क्या तात्पर्य है?

प्र: जिस बात में ह्यूमर (हास्य) है।

आचार्य: बात में ह्यूमर (हास्य) नहीं होता कभी भी। इसी कारण हम बच्चों को भी हँसा नहीं पाते, जब ज़रूरत होती है हँसाने की। क्योंकि हम जानते ही नहीं कि बात में ह्यूमर नहीं होता है, स्थिति में ह्यूमर होता है। और उसको ठीक-ठीक आपने तभी पकड़ लिया, ये ह्यूमर है। ठीक मौके पर आप अचानक चुप हो गये और आप पाएँगे कि सब हँसना शुरू कर देंगे।

मेरे साथ तो यही होता है। मुझे चुटकुले बहुत याद रहते नहीं, मेरे सेशन में जब भी कभी स्टूडेंट (विद्यार्थी) हँसा है तो इस कारण नहीं हँसा है कि मैंने कोई बहुत चुटकुला सुना दिया है, इस कारण हँसा है कि कुछ अचानक बात करते-करते कोई छोटी सी बात हो गयी कि हो गया।

ह्यूमर बात में नहीं होता न। ज़रूरी नहीं है आपको जिस बात पर हँसी आती है उसको भी आये, ज़रूरी नहीं है हर बात, हर स्थिति में हँसा जाये। और उसको बात समझ में आ गयी है तो तब भी ये ज़रूरी नहीं है कि वो ये हँसने की क्रिया करे। हँसने की क्रिया होती है कि दाँत-वात फाड़ दिए बिलकुल—हे-हे-हे! अरे! ठीक है, वो हँस रहा है, अपने में हँस रहा है, वो एक ख़ास क्रिया करे तो ही ज़रूरी है? कई लोग होते हैं वो हँसकर लोट-पोट हो जाएँगे, गिरेंगे, इधर-उधर हाथ-वाथ फेंक देंगे। तो इसमें कुछ ख़ास हो गया है?

ये बड़ी कल्चरल (सांस्कृतिक) चीज़ है, आपको पढ़ा दिया गया है बचपन से ही। आपने कविताएँ पढ़ ली हैं कि तेरी हँसी देखकर के मैं पगला जाता हूँ, तेरे दाँत नहीं मोती हैं। और जो टूथपेस्ट वाली कम्पनियाँ होती हैं वो सब हँसी-हँसी दिखा-दिखाकर आपको(संस्कारित कर चुकी हैं।) अब टूथपेस्ट थोड़ी बिकेगा अगर हँसी में कुछ ख़ास नहीं है। टूथपेस्ट बिकेगा ही तभी जब पहले दाँत दिखें। तो हँसी ख़ास होनी चाहिए। अब हँसी की प्रशंसा में गीत गाओ पहले, तब टूथपेस्ट बेचो। झंझट! सबकुछ ठीक है, कोई इसमें दिक्क़त नहीं है।

प्र: आचार्य जी, इज ह्यूमर ए रिएक्शन आर रिस्पांस? (आचार्य जी, हास्य एक प्रतिक्रिया है या प्रत्युत्तर?)

आचार्य: ह्यूमर (हास्य) अंडरस्टैंडिंग (समझ) है।

प्र: ये रिएक्शन (प्रतिक्रिया) भी हो सकता है?

आचार्य: हाँ, आफ़ कोर्स, आफ़ कोर्स। (बेशक, बेशक) रिएक्शन (प्रतिक्रिया) भी हो सकता है। अब कई लोग होते हैं जो हँसने के लिए इतने फ़ालतू हैं—आपने कुछ मौक़े ऐसे देखे होंगे कि उन मौकों पर कोई कुछ भी बोले सब हँसते हैं फ़ालतू। वही बात कभी और कही जाएगी, तो लोग हँसेंगे ही नहीं। कई बार लोग हँसने के लिए इतने बेताब हैं कि उसने अभी चुटकुला सुनाना शुरू भी नहीं किया है, दो ही शब्द बोले हैं, अभी आया भी नहीं जो वो क्लाइमैक्स (उत्कर्ष) होता है जोक (चुटकुला) का और फ़ालतू ही हँस रहे हैं।

प्र: जैसे कॉमेडी शोज़।

आचार्य: हाँ, बिना बात हँस रहे हैं, अभी कुछ हुआ भी नहीं है — ये रिएक्शन (प्रतिक्रिया) है। उसके दिमाग में ये बात बैठ गयी है कि हँसना चाहिए यहाँ पर तो फ़ालतू हँस रहा है। वो पागल है बेसिकली (ख़ासतौर पर), वो पागल है। उसका एक बटन दब गया है और वो बटन दबा हुआ है, जब तक दबा रहेगा तब तक वो हँसेगा। आप कुछ कर नहीं सकते।

प्र: अभी हम जब आ रहे थे तो मैं और कुन्दन बात कर रहे थे गाड़ी में। एक स्टेटमेंट (कथन) है जो बहुत कॉमन यूज़ (सामान्यतः प्रयोग) होती है और अगर कोई उसको ठीक से समझे तो वो अपनेआप में एक बहुत बड़ा जोक (चुटकुला) है — ‘आई लव हर अनकंडीशनली’ (मैं उसे बेशर्त प्यार करता हूँ)। अब अगर बात की बात करें तो एक आदमी होगा जो इस पर बहुत ज़्यादा इंटेंस (तीव्र) हो जाएगा और एक होगा जो इस पर हँसने लग जाएगा। तो उस टाइम (समय) पर समझने वाली बात है शायद?

आचार्य: जब कोई बहुत रो रहा होता है, हम उसको चुप कराने की कोशिश करते हैं। जब कोई बहुत हँस रहा हो, तब भी यही करना चाहिए। और उसी भाव से— ‘क्या हो गया? कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाएगा।’

(श्रोतागण हँसते हैं।)

प्र: जैसे मिस यूनिवर्स बनेंगी अभी। ‘क्या हो गया? क्यों हँस रही हो? क्यों रो रही हो इतना? क्यों रो रही हो इतना?’

आचार्य: दोनों ही बीमारियाँ हैं, दोनों में ही बटन दब गया है, दोनों ही विक्षिप्ताएँ हैं, दोनों ही पागलपन की निशानी है। दोनों में ही कुछ विशेष नहीं हो गया कि ख़ास बात है। मैं हँसने की बुराई नहीं कर रहा हूँ। और फिर समझिए कि जब आप हँसने को अच्छा बोलते हो न तो उसमें भी आप एक ख़ास प्रकार के हँसने को अच्छा बोलते हो। जब मौक़ा आता है तो फिर पूरा-पूरा आपसे हँसा भी नहीं जाता।

अट्टहास क्या होता है, यहाँ पर बहुत कम लोगों को पता होगा। फिर आप हँसते भी ऐसे हो— फुस्स-फुस्स! तो हम वक़ालत तो हँसी की करते हैं, पर हँस भी कहाँ पाते हैं। अरे! ये लड़कियाँ बहुत करती हैं — हैं-हैं-हैं! (लड़कियों की तरह हँसने का अभिनय करते हुए) हँस लो यार, कोई अपराध कर दिया? हँस ही लो।

प्र: कागज़ पर प्रतिबन्धित कर दिया न फिर से।

आचार्य: प्रतिबन्धित तो नहीं ही है, पर हाँ।

प्र: सर, मना कर दिया कि ऐसा ज़ोर से हँसोगे तो सबको बुरा लग जाएगा। उसे अशोभनीयता का एक तमग़ा दे दिया गया और फिर उसे मान लिया गया कि हाँ, ये सत्य है।

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