आम आदमी के लिए नहीं है वेदान्त? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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आम आदमी के लिए नहीं है वेदान्त? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। कोटि-कोटि नमन। मेरा प्रश्न ‘घर-घर उपनिषद्’ से सम्बन्धित है। ये जो अभियान है, यह मुझे बहुत उत्साह दे रहा है। और मैंने पाया है कि उपनिषदों से आम लोगों का परिचय नहीं है। मेरा ख़ुद परिचय इक्कीस-बाइस की उम्र में हुआ था। और जब कि मुझे बताया गया था कि मैं एक ‘हिंदू’ हूँ।

उपनिषद् पढ़ते हुए मुझे आपके बारे में पता चला और आपको देखने के बाद मैं कृतार्थ हुआ। मुझे उपनिषदों का असली अर्थ समझ आने लग गया और धर्म का भी थोड़ा-थोड़ा ज्ञान होने लगा।

उपनिषदों में प्रेम के कारण मैंने फिर संस्कृत भाषा सीखना शुरू किया और मैं पिछले चार महीने से संस्कृत में एमए (स्नातकोत्तर) कर रहा हूँ और पार्ट टाइम जॉब कर रहा हूँ। और इसी के चलते मेरी भेंट शास्त्रों के ज्ञाता शास्त्रियों से हुई, जो आचार्य मुझे वेद-वेदांग इत्यादि पढ़ाते हैं। और मैंने पाया कि उनमें से अधिकतरों का ये मानना है कि जो उपनिषद् हैं, वो धर्म का मूल नहीं हैं। क्योंकि वो ये कहते हैं कि उपनिषद् सिर्फ़ मोक्ष का साधन हैं, और आम गृहस्थ के लिए इसका उपयोग नहीं है। और वे बोलते हैं कि धर्म का मूल जो है, वो तो धर्म शास्त्र, पुराण, इतिहास, वेदों में वर्णित ‘कर्मकांड’ है।

इसीलिए मेरा प्रश्न है कि इस भ्रांति को कैसे दूर किया जाए कि 'उपनिषद् धर्म का मूल नहीं हैं’? जिससे घर-घर उपनिषद् पहुँचे और केवल पुराण इत्यादि न पढ़ते रह जाएँ।

आचार्य प्रशांत: ये भ्रांतियाँ नहीं हैं, ये हठ है, ये ढिठई है। ये ज़बरदस्त अहंकार है जो कहता है कि 'हम जैसे हैं, हम तो वैसे ही रहेंगे। हम जैसे घर चलाते हैं, घर हमें वैसे ही चलाना है। जैसी गृहस्थी है वैसी ही रहे, जैसी दुकान चल रही है वैसे ही रहे, समाज जैसे चल रहा है वैसा ही रहे; हम तो ऐसे ही रहेंगे।'

जब आपको वैसे ही रहना है, तो आप उपनिषदों की ओर क्यों आएँगे? इसीलिए मैं कल कह रहा था कि आम हिंदू जिस तरीके से अपने धर्म को जैसे देखता है और अपने धर्म का पालन करता है, वो वास्तव में वेद विरुद्ध है। हम कहते होंगे अपनेआपको हिंदू लेकिन हमारा जो प्रचलित धर्म है, वो एंटी वेद’ है। हम दुनिया के शायद अकेले लोग हैं जो अपने ही केंद्रीय ग्रंथ के विरुद्ध न सिर्फ़ जीते हैं, बल्कि बोलते भी हैं खुलकर।

श्रुति स्वयं स्पष्ट घोषणा करती है और बार-बार, कि वेदों का मूल ‘वेदांत’ में है, कि वैदिक जितनी यात्रा है, वो वेदांत में जाकर समाप्त होती है। लेकिन हम कह रहे हैं कि ना, वेदों की नहीं सुननी है, अपने ढर्रों की सुननी है; वेद छोटे होंगे, हम बड़े हैं ।

और यही कारण रहा है कि तमाम तरह की कमज़ोरियाँ हममें आयीं, तमाम असफलताएँ झेलनी पड़ीं, इतनी हारें हुईं। क्योंकि जो असली है जब आप उसके साथ ही नहीं होंगे, जब आप-अपने धर्म के पालन और आचरण में ही खोखले होंगे, तो आपमें बल कहाँ से आ जाएगा?

अहंकार कहता है कि ज्ञान भी मुझे वो चाहिए जो मेरे अनुसार हो। मेरी तरह का है ज्ञान, मेरी धारणा से मेल खाता हुआ है ज्ञान, तब तो मैं उसको स्वीकार करूँगा। नहीं तो मैं ज्ञान को भी अस्वीकार कर दूँगा। ज्ञान बड़ा नहीं है, मैं बड़ा हूँ। तो शास्त्र में भी क्या चुनना है, क्या नहीं चुनना, ये बात मैं शास्त्र से नहीं पूछूँगा, ये मैं निर्णय करूँगा।

आप दुनियाभर में ही देख लीजिएगा, भारत भर में ही नहीं। भारत में भी देख लीजिएगा, जहाँ कहीं भी वेदों से कोई श्लोक उद्धृत किया जाता है, आप पाएँगे पिंचान्वे प्रतिशत-निन्यानवे प्रतिशत वो उद्धरण उपनिषदों से होगा ।

उपनिषद् ही वेद हैं, उपनिषद् कोई वेदों के अंग भर नहीं हैं, वो वेदों का प्राण हैं। और उपनिषद् वेदों का कोई अध्याय नहीं हैं, वेद नहीं कहते कि अब उपनिषद् शुरू हो रहा है। वेदों के ही वो अंश जो सबसे ज़्यादा मूल्यवान हैं, उन्हें ‘उपनिषद्’ कहा जाता है।

उपनिषद् कोई अलग ग्रंथ थोड़े ही हैं कि हम वेदों और उपनिषदों में लड़ाई करवा दें। और उपनिषद् वेद में किसी एक जगह नहीं पाए जाते, अरण्यक में पाए जाते हैं, ब्राह्मण में पाए जाते हैं। और कम-से-कम एक उपनिषद् तो मंत्र भाग में भी पाया जाता है, संहिताओं में भी पाया जाता है। हाँ, बाद के कुछ उपनिषद् थे जो वेदों से स्वतंत्र लिखे गए, पर फिर उनकी प्रमुख उपनिषदों में गणना भी नहीं की जाती।

असल में उपनिषदों का इतना महत्व हो गया, इतना नाम हो गया कि जितने छोटे-मोटे संप्रदाय थे, सबको ये जरूरत पड़ गयी कि अपनेआप को वैध, सही साबित करने के लिए अपना भी एक उपनिषद् होना चाहिए। तो उन्होंने अपने भी एक उपनिषद् निकाल दिए। वो प्रमुख उपनिषद् नहीं हैं। लेकिन तमाम छुटपुट संप्रदायों को भी अपने उपनिषद् निकालने पड़े, इसी से पता चलता है कि उपनिषदों का नाम कितना था, महत्व कितना था। कहें सीधे तो जलवा कितना था।

कुछ समझ में आ रही है बात?

वेदों की शुरुआत होती है तत्कालीन माहौल से। तत्कालीन माने उस समय का माहौल। उस समय का माहौल जहाँ व्यक्ति के पास वैज्ञानिक ज्ञान बहुत नहीं था।

तो प्रकृति पूजन से शुरुआत होती है। प्रकृति की जितनी भी शक्तियाँ हो सकती हैं, उनको संबोधित करके, उनको प्रसन्न करने की चेष्ठा की जा रही है। उनसे वर माँगा जा रहा है, उनको देवियों और देवताओं के नाम दे दिए जा रहे हैं, ये आरम्भ है।

और यही वेद आगे चलकर के देवियों से देवताओं से, किसी की भी पूजा से, वरदान माँगने से, भौतिक सुख-सुविधाएँ माँगने से, वर्षा माँगने से, दूध माँगने से, शत्रुओं पर विजय माँगने से, इन सब माँगों से बहुत आगे निकल जाते हैं। न इंद्र, न अग्नि, न वायु, न मारुत, मात्र ब्रह्म! उपनिषदों में आपको इंद्र का पूजन नहीं मिलेगा और वेदों में इंद्र छाए हुए हैं। वेदों माने वेदों के आरंभिक हिस्सों में, मंत्र भाग में।

तो वेदों का आरंभ वैसे ही होता है जैसे किसी भी साधक की साधना का आरंभ होता है। अंतर्मुखी होना आरम्भ में मुश्किल होता है न, तो शुरुआत होती है बाहर देखने से। बाहर उसे क्या दिखाई दे रहा है? बाहर उसे पानी दिखाई दे रहा है, आग दिखाई दे रही है, पहाड़ दिखाई दे रहे हैं, तो इनको सबको संबोधित कर रहा है, प्रश्न भी पूछ रहा है।

लेकिन आरंभ में भी जिज्ञासा पैनी है। पहले ही सूत्र से वेदों में जिज्ञासा बड़ी घनी है और यही जिज्ञासा वेदों को अंततः उपनिषद् की ओर ले जाती है। जिज्ञासा हो भले ही शुरुआत में, लेकिन शुरु में ही उत्तर तो नहीं मिल जाते न। तो शुरु में प्रश्न हैं।

कितने ही सूक्त हैं – पुरुष सूक्त है, नासदीय सूक्त है। आपको याद होगा – ‘सृष्टि से पहले क्या था? सत नहीं था, असत नहीं था, जल भी था क्या तब?’ ये सब प्रश्न पूछे जा रहे हैं और इन सब प्रश्नों के उत्तर अंततः प्राप्त हो जाते हैं उपनिषदों में।

तो वेदों की यात्रा भी एक साधक की यात्रा जैसी ही है – जो जिज्ञासा से शुरू करता है और मोक्ष पर समाप्त होता है। लेकिन वो जो आरंभ है यात्रा का, वो तत्कालीन है। वो उस समय के लिए उपयुक्त था। आज आप पुनः आरंभ करेंगे इंद्र की पूजा से या अग्नि की पूजा से तो आपको कुछ नहीं मिलेगा। उस समय वायु की और अग्नि की पूजा हुई, क्योंकि नहीं पता था कि इनका यथार्थ क्या है।

देखिए! अंतर्मुखी किसी भी काल में हुआ जा सकता है पर बहिर्मुखी ज्ञान तो काल के साथ धीरे-धीरे प्राप्त होता है।

कारण समझिएगा। अंतर्मुखी ज्ञान एक व्यक्ति को सिर्फ़ अपने प्रयत्न से, अपने जीवन काल में भी पूर्णतया मिल सकता है। लेकिन जो बाहरी ज्ञान होता है, उसमें आपको अपने पीछे वाली पीढ़ियों के कंधों पर खड़ा होकर ज्ञान प्राप्त करना होता है। अंतर्मुखी ज्ञान, आंतरिक ज्ञान, आत्मज्ञान अक्यूमुलेटिव नहीं होता। अक्यूमुलेटिव समझ रहे हैं? उसमें ऐसा नहीं होता कि पहले आपको किसी से दो इकाई ज्ञान मिल गया था, फिर दो इकाई ज्ञान आपने खुद हासिल किया, तो कुल मिलाकर के चार इकाई ज्ञान हो गया। लेकिन सांसारिक ज्ञान, भौतिक ज्ञान अक्यूमुलेटिव होता है।

आइंस्टीन का होना मुश्किल हो जाता अगर न्यूटन न होते। जितना कुछ भी संकलित विज्ञान है, उसको देखकर के फिर आगे शोध होती है। और विज्ञान की नई ज़मीन तोड़ी जाती है, नई खोजें की जाती हैं। तो वहाँ ये बहुत आवश्यक हो जाता है कि आपके पीछे हज़ार दो हज़ार साल का संकलित ज्ञान हो, तभी आप आगे बढ़ सकते हैं।

तो इसीलिए वेदों की शुरुआत में यदि आप पाते हैं कि प्रकृति के बारे में बहुत ज्ञान नहीं है, तो इसमें ताज्जुब क्या? और इसमें वेदों की हीनता नहीं है, इसमें वेदों का माधुर्य है, इसमें वेदों का शौर्य है। जानते नहीं हैं, नया-नया इंसान है, इंसान की चेतना नई-नई उदित हो रही है लेकिन जिज्ञासा पूरी है। पता नहीं है लेकिन सवाल पूछे जा रहे हैं।

तो आप ये न समझें कि इससे वेदों की महत्ता कम हो जाती है यदि हम कहें कि 'देखो! मंत्रों में तो यही सब कहा जा रहा है कि हमारी गायों की संख्या बढ़ा दो, हमारे शत्रुओं का नाश कर दो, हमें और धन-धान्य की प्राप्ति हो, हमारी फसलें अच्छी बढ़ें, बारिश अच्छी हो', यही सब है आरंभ में।

एक के बाद एक मंत्र, सैकड़ों मंत्र बस यही माँग रहे हैं। और उसमें बीच-बीच में जिज्ञासा की जा रही है कि 'ये क्या है? ये क्या है? ये क्या है?' ये कोई हीनता की बात नहीं है। थोड़ी सहानुभूति, थोड़ी संवेदना के साथ आरंभिक ऋचाकारों को देखें। कोई प्रयोगशाला नहीं, पीछे से प्राप्त हुआ कोई ज्ञान नहीं। वो नये-नये लोग हैं, उन्हें विरासत में ज्ञान नहीं मिल गया है किसी से।

सूचना के, संवाद के, संचार के साधन नहीं, तो किसी को कोई अगर बात पता भी चली है, आप जहाँ हो उससे सौ मील दूर, तो वो बात सिर्फ़ उस व्यक्ति तक सीमित रह जाएगी, आप तक नहीं पहुँच पाएगी। ऐसा नहीं है कि अमेरिका का रिसर्च पेपर आप इंडिया में बैठकर पढ़ रहे हो, ये तब नहीं हो सकता था। इसके बावजूद वो ऋषि ख़ोज में लगे रहे, लगे रहे। शुरुआत बाहर से करी और बाहर देखते-देखते समझ गए कि बाहर जो है, अगर उसे जानना समझना है तो भीतर की ओर आना पड़ेगा। शुरुआत इंद्र से करी और ब्रह्म तक पहुँच गए।

ये उनकी यात्रा थी। अब आज के कौनसे महामूर्ख हैं जो कह रहे हैं कि नहीं नहीं नहीं, हमें ब्रह्म से कोई मतलब नहीं, वो तो सिर्फ़ मोक्ष का साधन हैं; हमारे लिए तो कर्मकांड है? कर्मकांड माने यही सब कि पूजा कैसे करनी है, उपवास कैसे करना है, यज्ञ-हवन आदि आहुति कैसे देनी है। जो यही लेना चाहते हैं वेदों से और उपनिषद् नहीं लेना चाहते? ये कैसा गहरा षड्यंत्र है अपने ही खिलाफ़?

मैं साफ़ बता देता हूँ – मात्र वेदांत अमर है, बाकी सब कुछ मिट जाना है। क्योंकि बाकी सबकुछ कालबद्ध है, कालातीत नहीं है। कालातीत मात्र वेदांत है।

गन्ना है और गन्ने का रस है, रस के बिना गन्ना क्या है? रस निचोड़ा हुआ गन्ना देखा है, कैसा होता है?

वो कौनसा विक्षिप्त मन होगा जो कहेगा ‘मुझे छिलका चाहिए, रस नहीं’? और रस को ले लेने में और छिलके को छोड़ देने में, छिलके का अपमान नहीं है; छिलका न होता तो रस कहाँ से आता? आरंभिक मंत्रों, ऋचाओं से शुरुआत न हुई होती तो उपनिषद् कहाँ से आ जाते?

तो यहाँ ये नहीं कहा जा रहा कि जो संहिता भाग है वो हीन है। कोई ये न समझे कि हम अवमानना कर रहे हैं, बिल्कुल भी नहीं। रस भी गन्ने का क्या आसमान से टपकेगा? कहाँ से आया है? गन्ने से ही तो आया है न? लेकिन एक बार गन्ने ने अपना रस दे दिया तो हमें पता होना चाहिए कि छिलका कहाँ है और अमृत कहाँ है।

“सार सार को गहि रहे थोथा देई उड़ाय”

वेदों का सार वेदांत है, उसको पकड़िए। मात्र वही सदा रहेगा, हज़ार साल बाद भी रहेगा क्योंकि उसमें ऐसी कोई बात नहीं है जो समय के साथ बदल जाए। काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ – ये समय के साथ बदलते हैं क्या? या ये हज़ारों साल पहले भी थे, आज भी हैं, आगे भी रहेंगे, बोलिए?

बाकी सब चीज़ों को विज्ञान और तकनीक पीछे छोड़ देंगे। छोड़ देंगे कि नहीं? आप उड़न खटोले की बात करें, आप पुष्पक विमान की बात करें, ये सब चीजें तिथिबाह्य हो जानी है, *आउटडेटेड*। कोई नहीं पूछने वाला इनको, आप इनमें क्यों उलझ के रहना चाहते हो?

सब पुरानी किताबें एक बराबर नहीं होतीं। हिंदू धर्म बहुत हद तक पौराणिक धर्म बनकर रह गया है, और यही इसकी कमज़ोरी का कारण है। हम किस्से-कहानियों में उलझ गये।

और फिर मैं कह रहा हूँ, मैं पुराणों की अवमानना नहीं कर रहा, मैं कह रहा हूँ कि पुराणों को भी अगर समझना है तो पहले वेदांत पता होना चाहिए।

सौ बार दोहराया है मैंने कि वेदांत कुंजी है, उससे बाकी ग्रंथों के ताले भी खुल जाएँगे और बाकी धर्मों के भी। मैंने यहाँ तक कहा है कि जो बाकी सब धार्मिक धाराएँ हैं, उनको भी आप समझना चाहतें हैं तो आपको वेदांत पता होना चाहिए। क्योंकि वेदांत आदमी के मन से मोक्ष तक की यात्रा है। वेदांत को समझ लिया तो बचा क्या? मन के अलावा है क्या संसार? मन को जो समझ गया, वो पूरे संसार को जान गया। मन की कुंजी जिसके पास आ गईगयी, वो सारे संसार के ताले अब खोल देगा।

लेकिन हमने बड़ा अपराध किया है,। ऋषियों के विरुद्ध हम बहुत अपराधी हैं।, हमने उपनिषदों का लगभग तिरस्कार सा करा है। उपेक्षा मात्रा नहीं, तिरस्कार। ये आपने अभी सुना न कि उपनिषद् धर्म का मूल नहीं हैं।

जिन ऋषियों से वेद आए आये हैं, वेदांत आया है, वो अभी सुनते, तो बड़ा उनको कष्ट होता। कहते –- ‘“वेदांत नहीं है धर्म का मूल तो और क्या है?’" किस चीज़ को तुम धर्म का मूल मानना चाहते हो, स्मृतियों को? पराशर स्मृति, मनुस्मृति, ये हैं धर्म का मूल? और मैं बिल्कुल इस बात से इंकार नहीं कर रहा हूँ कि इन स्मृतियों में भी कुछ बातें ढंग की हैं, काम की हैं। पर उनमें बहुत बातें ऐसी भी हैं, जो आज किसी काम की नहीं। उनको आप कब तक पकड़ कर बैठे रहोगे?

उनको सम्मान के साथ संग्रहालय में रख दो, म्यूजियम में, कि ये अतीत में बहुत कीमती चीज़ें थी, आज इनका कोई मूल्य नहीं। पुराने समय कोई चीज़ बहुत महत्व रखती होगी, आज वो महत्व नहीं रखती। उसको आप कहाँ रखते हो फिर? कहाँ रखते हो? म्यूजियम में रखो न जाकर के उसको।

उन्नीस सौ तीस की गाड़ी है आपके पास- ऑस्टिन। उसको *एक्सप्रेसवे में भगाओगे क्या? क्या करोगे उसका? म्यूजियम में भेजो भाई उसको! मैं नहीं कह रहा हूँ कि उसको कटने के लिए भेज दो। आपको होगा उससे बहुत प्यार और दिखती थी अपने जमाने में शानदार गाड़ी थी। तो एक अच्छी सी जगह बनवा लीजिए, अपने बंगले के सामने और वहाँ उसको रंग-रोगन करके खड़ा कर दीजिए। लोग आएँगे, सेल्फी लेंगे उसके साथ बढ़िया। लेकिन उस पर बैठकर के जीवन जीना मत शुरू कर दीजिए कि आज आप कहे कि 'मैं आज भी इसी पर यात्रा करूँगा।' आज आप इंद्र के और अग्नि के पूजन से कुछ नहीं पाएँगे। कुछ नहीं मिलने वाला, मैं साफ साफ़ कर रहा हूँ।

जिस तरीके तरीक़े का हमने रूप देखा है कि यज्ञ और आहुति, वो सब करके आज आपको बस प्रदूषण मिलेगा और कुछ नहीं। आप अगर अपनेआप को ‘हिंदू’ कहते हैं तो बहुत बार कहा है, फिर कह रहा हूँ, “आपको वेदांती होना ही पड़ेगा।" हिंदू धर्म यदि वेदांत नहीं है, तो कुछ नहीं है फिर; शून्य है, कचड़ा।

हमने कचड़े को पकड़ रखा है, हीरे को छोड़ रखा है। हम जिस तरीके से अपना धार्मिक आचरण करते हैं अपनी गृहस्थी में, उसमें वेदांत आधा प्रतिशत भी नहीं है, शून्य दशमलव एक प्रतिशत भी नहीं है।

ये हम क्या करते हैं धर्म के नाम पर?

एक आम हिंदुस्तानी का धार्मिक जीवन कैसा होता है, मुझे बताइएगा? जब आप कहते हैं कि मैं आज कुछ धार्मिक करने जा रहा हूँ, उसमें क्या होता है शामिल? क्या होता है? पूजा-पाठ। जिसका अर्थ आपको ही नहीं पता होता कि क्या कर रहे हैं। मूर्ति सामने है, आपने कुछ आरती वगैरह कर दी और आपको नहीं मालूम ये आप क्यों कर रहे हैं, इससे क्या हो जाएगा?

वो कौन है जिसकी पूजा कर रहे हैं? आप कौन हैं जिसको पूजा की आवश्यकता है? इन प्रश्नों पर कभी विचार ही नहीं किया जाता। और ‘करवाचौथ’, उसको कैसे भूल सकते हैं आप? ये धर्म है, 'करवाचौथ'? छलनी लेकर चंदा मामा देखे जा रहे हैं, ये धर्म है?

और क्या करते हैं हम धर्म के नाम पर कहिए न?

कुछ बहुत गहरा नहीं करते, मिस्टिकल मत होने लग जाइएगा। जो करते हो उसको साफ़-साफ़ बोलो, क्योंकि जो करते हो वो बहुत बेकार है।

नवरात्रि है, ‘नवरात्रि’ का भी आप अर्थ क्या समझते हो? किसने दुर्गा सप्तशती यहाँ पढ़ रखी है? कौन उसका अर्थ समझता है? नवरात्रि में जो लोग बहुत उत्साह दिखाते हैं, उन्होंने तो ‘सप्तशती’ का नाम भी न सुना हो। और जिन्होंने नाम सुना हो और कहते हैं कि पढ़ रखी है, उन्हें उसका अर्थ कुछ न पता हो। क्योंकि वो प्रतीकों से एकदम भरी हुई है। चंड-मुंड, शुंभ-निशुंभ आपको क्या लगता है, वास्तव में घूम रहे थे दानव कहीं पर? ये सब किसके प्रतीक हैं, हम जानते नहीं।

सिंघाड़े का आटा, कुट्टू का आटा, सांवक के चावल, साबूदाने की खिचड़ी, ये हमारा धर्म है। लज्जित होने की बात है। ये हमारा धर्म है –- “साबूदाने की खिचड़ी, सेंधा नमक, ये धर्म है हमारा।"

और बहुत चीज़ें होती हैं न जाने क्या, टोने-टोटके,- ये धर्म है। नींबू काट के किसी के घर के आगे डाल दिया। घर में झाड़ू लगा, उसमें कुछ बाल भी थे कचड़े में, होते ही हैं, भाई,! बाल गिरते हैं। और झाड़ू लगाया तो उसमें बाल भी आ गया। तो तुरंत कहा, ‘नहीं नहीं नहीं, ये बाहर मत फेंक देना, कोई बाल ले जाकर के बाहर टोटका कर देगा।‘ ये धर्म है हमारा कि आपके बाल को कुछ कर दिया तो आपको भी कुछ हो जाएगा।

ये धर्म है हमारा!

फिर हमें अजीब लगता है कि दुनिया भारत को सम्मान क्यों नहीं देती? चीन, पाकिस्तान चढ़े क्यों आ रहे हैं? व्यापार में भी भारत पीछे क्यों है? इनोवेशंस क्यों नहीं होते? क्रिएटिविटी कहाँ है? बॉलीवुड में ढंग की फिल्में क्यों नहीं बनती? फिल्में भी बनाने का भी ठेका हॉलीवुड ने ले रखा है। कुछ भी अच्छा भारत में क्यों नहीं होता? क्योंकि यहाँ ‘कुट्टू का आटा’ है।

तुम जब तक ये करते रहोगे, तब तक भारत में कुछ ढंग का नहीं होने का। और जिस दिन आम भारतीय के लिए धर्म का अर्थ हो गया- वेदांत और उपनिषद् और भगवद्गीता, उस दिन देखना भारत कैसे चमकता है।।

हमने तो भगवद्गीता के साथ भी ऐसा अन्याय करा है कि गीताकार को लड्डू गोपाल बना दिया। कृष्ण को हम गीताकार के रूप में नहीं याद रखते, कृष्ण को ऐसे ले लेते हैं छोटा -सा बनाकर, उनको दही चटा रहे हैं, खीर चटा रहे हैं। कृष्ण का संबंध सम्बन्ध गीता से है या खीर और दही से है? पर नहीं, मेरे नन्हे से गोपाल।

यदि आप हिंदू हैं, यदि आप सनातनी हैं, तो दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धर्म है आपका। और मैं बहुत जिम्मेदारी ज़िम्मेदारी और बड़े विचार के साथ कह रहा हूँ, “सर्वश्रेष्ठ धर्म नहीं है सनातन धर्म, एकमात्र धर्म है। बाकी बाक़ी सब धर्म हैं ही नहीं।"

लेकिन वाह रे सनातनियों!

जो अपमान करा है अपने धर्म का; कहानियाँ-कहानियाँ और कहानियाँ, बस कहानियाँ। और वो कहानियाँ ऐसी हास्यास्पद कि फिर जो हमारा मजाक मज़ाक उड़ाना चाहता है, उसे हम मसाला दे देते हैं।

आज ही सुबह किसी का संदेश आया है, 'हनुमान जी इतने बड़े ज्ञानी थे तो पूरे पहाड़ में बूटी क्यों नहीं खोज पाए? पूरा पहाड़ क्यों लेकर के उड़े?' अब दीजिए इस तर्क का जवाब। और ऐसे एक नहीं हज़ाजारों तर्क आते हैं और फिर हमारे पास कोई उत्तर नहीं होता। हमारे पास उत्तर इसलिए नहीं होता क्योंकि हमारे पास धर्म के नाम पर सिर्फ़ कहानियाँ हैं, सत्य नहीं।

आप धर्म शास्त्रों की बात कर रहे हैं, धर्मशास्त्र एक नहीं है, कई धर्म शास्त्र हैं और सब धर्मशास्त्र विसंगतियों से भरे हुए हैं। उनका एक अध्याय जो बोलता है, दूसरा अध्याय उसके विपरीत बोल रहा होता है। आप उनको कैसे उच्चतम दर्जा दे सकते हो? उपनिषदों में मुझे कोई विसंगति दिखा दीजिए। वहाँ तो एक है, ‘द्वितीयो नास्ति’। दूसरा कोई है ही नहीं तो बेमेल क्या होगा, विसंगति-विरोध कहाँ से आएँगे?

मनुस्मृति एक ओर तो ये कहती है कि 'जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ पर देवता रमण करते हैं।' और दूसरी और मनुस्मृति ये कहती है कि 'नारी को कभी भी स्वतंत्र नहीं छोड़ देना चाहिए, उसे हमेशा पिता पर या पुत्र पर आश्रित होना चाहिए या पति पर।' आप कैसे इन दोनों बातों को एक साथ लेकर के चलोगे, बोलो? एक जगह पर मनुस्मृति माँसाहार का घोर विरोध करती है और दूसरी जगह वो बताती है कि माँस किन-किन जानवरों का खाया जा सकता है। क्या लें वहाँ, क्या छोड़ दें?

उपनिषदों में आपको ऐसी समस्या नहीं आएगी। हाँ, उपनिषदों में भी एक-दो जगहें ऐसी हैं, जहाँ पर ऐसी समस्या आती है, पर बस एक ही -दो जगह ही ऐसी हैं, अन्यथा उपनिषद् बिल्कुल साफ़ हैं। कोई इधर-उधर की बात नहीं, कोई दन्द-फंद नहीं, सीधे मुद्दे की बात। ‘तुम कौन हो?’ ‘तुम क्या चाहते हो?’ ‘सत्य क्या है?’ ‘क्या है जो तुम्हें सत्य तक पहुँचने से रोकता है?’ बस, इसके अलावा कोई बातचीत ही नहीं।

इसीलिए हमें उपनिषद् पसंद नहीं आते, मसाला नहीं है न वहाँ पर। हम खोजते रहते हैं मनोरंजन कब शुरू होगा। वो हमें पुराणों में मिल जाता है। फिर फलाने देवता आएआये, उन्होंने फलाने ऋषि की बीवी चुरा ली। फिर ऋषि ने देवता को श्राप दे दिया,। फिर देवता महाराज पेड़ बन गएगये।, फिर जब भगवान जी ने अवतार लिया तो उन्होंने जाकर पेड़ उखाड़ दिया।, जब पेड़ उखाड दिया तो उसमें से वो देवता प्रकट हो गए,। बोले, 'आपने मुझे बचा लिया, मैं तो इस पेड़ में इतने दिनों से बंद था। कितना तो हमें ये मनोरंजक लगता है,- वाह-वाह!

इसलिए ‘घर-घर उपनिषद्’ है। मुझे प्रेम है सनातन धर्म से। और अपने ऊपर मैं ये दोष नहीं लेना चाहता कि मैं उसी पीढ़ी, उसी समय का हूँ, जिस समय धर्म का पूरा नाश हो गया। तो यथासंभव जो कर सकता हूँ, वो कर रहा हूँ कि धर्म का वास्तविक स्वरूप आप तक पहुँचे।

ये भी जानता हूँ कि मैं बहुत छोटा हूँ, अकेले कुछ कर नहीं पाऊँगा, लेकिन मेरे हाथ में दूसरों की बागडोर तो नहीं है। आप साथ आ सकते हों, सहायता कर सकते हों तो करिए। आप नहीं भी करेंगे तो मैं जो कर सकता हूँ, मैं करता रहूँगा। और ऐसी मुझे कोई उम्मीद नहीं है कि बहुत कुछ कर सकता हूँ, लेकिन अपना कर्तव्य निभाऊँगा।

हमें धर्म का जीर्णोद्धार चाहिए, हमें अपनी धार्मिक आस्थाओं का पुनर्मूल्यांकन करना होगा। अपने धार्मिक आचरण का हमें ओवरहाल चाहिए पूरा। नींव, -बुनियाद वेदांत है, उस पर धर्म की इमारत हमें दोबारा खड़ी करनी होगी। अभी ये जिन खंडहरों में हम रह रहे हैं, वो किसी काम के नहीं है। ये खंडहर आपको छाँव या सहारा नहीं देंगे, ये तो ऐसे है कि पुरानी, सड़ी-गली कमज़ोर दीवार आप ही के ऊपर टूट कर गिर पड़े। आप गए गये थे छाँव लेने, छत आप ही के सर सिर पर गिर पड़ी। अभी हमारा खंडहर जैसा धर्म ऐसा है, अवशेष हैं बस, भग्न।

हाँ, बुनियाद बहुत मज़जबूत है। लेकिन इमारत खंडहर हो चुकी है। मैं चाहता हूँ उसी बुनियाद का प्रयोग करके, अब आज के समय में एक समीचीन, समसामयिक, प्रासंगिक नई इमारत का निर्माण हो। अगर सनातन धर्म को बचे रहना है, और अगर भारत राष्ट्र को दुनिया में अपना स्थान कायम क़ायम रखना है।

‘कुट्टू के आटे’ से महलों की बुनियादें नहीं बनतीबनतीं; गिर जाएगा सबकुछ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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