आलस माने क्या? || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

13 min
234 reads
आलस माने क्या? || आचार्य प्रशांत (2015)

श्रोता : सर, अभी आपने बात की थी कि आलस बिल्कुल नहीं होना चाहिए| तो उस पर थोड़ा और बता देंगे कि आलस को अहंकार किस तरह से इस्तेमाल करता है?

वक्ता : आलस बड़ी चालाक चीज़ होती है | कोई भी फ़िज़ूल काम करने में तुम्हें कभी आलस नहीं आयेगा | तुमने कभी गौर किया है कि तुम्हें आलस किन कामों में, किन चीजों में आता है? आलस ऐसा नहीं है कि अँधा है | खूब आँखें हैं उसके पास, बड़ा शातिर है | खूब चुन-चुन के आता है आलस | कभी देखा है तुम्हें आलस किन-किन चीजों में आता है? आलसी-वालसी नहीं हो तुम | तुम बड़े परिश्रमी हो | जहाँ पर तुम्हारे स्वार्थ सिद्ध हो रहे होते हैं, वहाँ तुम्हें कभी आलस नहीं आयेगा | खूब दौड़ लगा लोगे | अभी अष्टावक्र गीता की बात कर रहे थे | अष्टावक्र तो कहते हैं कि “जो ज्ञानी होता है, वो परम आलसी हो जाता है|” उससे उनका यही अर्थ है | वो कहते हैं कि वो अजगर समान आलसी हो जाता है | आलसी से अर्थ है कि उसका कोई स्वार्थ नहीं रहता | उसके पास कोई मोटिवेशन (प्रेरणा) नहीं है भागने के लिए | तुम्हारे पास तो खूब हैं | तुम्हें आलस सिर्फ़ वहाँ आता है, जहाँ तुम्हारे पास कोई स्वार्थ नहीं है| वहाँ आलस आ जायेगा | जहाँ तुम्हारे स्वार्थ बँधे हों, वहाँ कैसा आलस? कहीं रुपया-पैसा फँस रहा हो, देखो कैसे कुलाँचे मारते हो | हिरन, खरगोश सब पीछे छूट जायें, तुम ऐसी चौकड़ी मारते हो |

(सभी हँसते हैं)

और जहाँ ये हो कि “अरे, कुछ लिखना है | इसके कुछ पैसे तो मिलते नहीं | कोई दाम तो मिलते नहीं|” तो वहाँ देखो कैसे लिखते हो | तो फ़िर भूल जाते हो, “आलस आ गया|” तुम्हें आलस न आये इसलिए वहाँ पर भी दाम बाँधने पड़ते हैं | फ़िर नहीं आता | ये सब मन की वृत्तियाँ हैं | तुम्हारा आलस अगर समदृष्टि वाला होता कि “मालिक ऐसे आलसी हैं कि हिलते ही नहीं| कि बगल में 500 का नोट भी पड़ा हो तो देखेंगे ही नहीं, कहेंगे कि, “कौन उठाये|” तो तुम्हारा आलस बड़ा शुभ आलस होता, पर वैसा है नहीं| कभी मत कहना कि आलसी हो | आलसी-वालसी नहीं हो |

श्रोता १: जैसे जब सुबह स्कूल जाना होता था तो नींद नही खुलती थी | लेकिन जब क्रिकेट खेलना होता है तो आज तक मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ कि आलस आ गया या उठा नहीं |

वक्ता : मैं तो एक बात पूछ रहा हूँ तुमसे | स्कूल और क्रिकेट भी छोड़ो | घर से यहाँ आते हो तो कहते हो, “दूरी बहुत है, आलस आता है, तो नहीं आयेंगे|” ठीक ? तो घर में अटक जाते हो कि “दूरी बहुत है |” जब यहाँ से घर वापस जाना होता है तो भी दूरी उतनी ही है | तो यहाँ क्यों नहीं अटक जाते कि “दूरी बहुत है, कौन जाये?” हमने तुम्हें कभी यूँ तो देखा नहीं है कि “अब आ गए तो हफ्ते भर यहीं रहेंगे |” तब तो ऐसे भागते हो जैसे पिंजड़े से छूटे हो, “भागो रे!”

(सभी श्रोता हँसते हैं)

ये कौन-सा आलस है जो सिर्फ़ आने में आता है, जाने में नहीं आता?

श्रोता २ : सर, आलस क्या बाहरी चीज़ है या इसका मूल-स्वभाव से कोई लेना-देना है? ये चीज़ समझ नहीं पा रहा हूँ?

वक्ता : क्या नहीं समझ पा रहे हो? जो कुछ तुम्हारे अहँकार को तोड़ता है, वो करने में तुम्हें आलस आता है | नहीं करना चाहते | जो आतंरिक विरोध है, अहँकार का अपनेआप को बचाने के लिए उसका नाम तुमने आलस रखा है | कोई भी ढंग का काम करने के प्रति अहँकार प्रतिरोध देता है, विरोध करता है | उस विरोध का नाम तुमने आलस रख दिया है | ये झूठा नाम है, गलत नाम है | कोई आलस-वालस नहीं है | ये सिर्फ़ अहँकार का प्रतिरोध है अपनेआप को बचाने के लिए |

श्रोता : जब भी थोड़ा-सा शांत होने लगते हैं तो नींद आने लगती है |

वक्ता : ये हुआ ही है यहाँ पर | देखो ना झूम-झूम कर गिरते हैं |(सभी हँसते हैं) इसका ये मतलब थोड़े-ही है कि निंदासे हो | अभी नींद खुल जायेगी तुरंत जैसे ही सत्र ख़त्म होगा | मैं कहता हूँ, जितने लोग अभी नींद में हो, सब सत्र के बाद भी सोना, उठना नहीं आज रात से पहले | तब तो ऐसे आँख खोल-खोल के देखोगे, “भागो रे!” जो यहाँ झूम-झूम के गिरते हो, उसका मतलब ये थोड़े-ही है कि नींद आ रही है | उसका मतलब यही है कि अहँकार पर चोट पड़ रही है | तो ये अहँकार का षड्यंत्र होता है अपने ही खिलाफ़ कि “सो जाओ| सो जाओगे तो सुनना नहीं पड़ेगा|” और देखना तुम, कि बिल्कुल सही वक्त पर सोते हो | कभी ऐसा हुआ है कि फ़िल्म में वो ‘मस्त-वाले’ सीन में सोते रह गये? उस समय तो सोते भी रहोगे तो आँख खुल जायेगी, फ़िर सो जाओगे | ये नींद और ये आलस, ये चोट और भूख, ये प्यास, ये बिल्कुल समय देख कर आते हैं | इनमें से किसी को ये न समझ लेना कि ये सहज हैं | पतंजलि जब योग-सूत्र में समाधि के बाधकों की बात करते हैं तो उसमें एक बहुत बड़ी बाधा की वो बात करते हैं – नींद, तन्द्रा | वो कहते हैं कि जब भी कुछ ऐसा होने लगेगा जो तुम्हें समाधान और शांति की ओर ले जा सकता है, तुम्हें नींद आ जायेगी | तुम्हारी नींद तुम्हारे अहँकार का कवच है | तुम सोते ही इसलिए हो ताकि तुम सुनने से बच जाओ | ये जो सोना है, न ये बीमारी है, न ये उम्र का तकाज़ा है | ये अहँकार का काम है और कुछ नहीं है |

श्रोता : पर सर ये शारीरिक तल पर प्रक्षेपित कैसे हो जाता है ?वक्ता : सब कुछ शारीरिक ही तो होता है | गुस्सा कहाँ प्रक्षेपित होगा? गुस्सा क्या है? गुस्सा अहँकार है | प्रक्षेपित जब होता है तो शारीरिक नहीं होता? मुक्का चलाते हो |

श्रोता : आप ध्यान करने के लिए बैठे हुए हैं और कमर में दर्द शुरू हो गया |

वक्ता : तो और कहाँ दर्द शुरू होगा?

*(सभी हँसते हैं)*श्रोता : नही, ज़ाहिर है, कमर में ही होगा | तो मतलब उसे भी हम यही मानें?वक्ता : अहँकार तुम्हें रोकना चाहता है ना? तो दरवाज़े में थोड़े-ही दर्द पैदा करेगा वो? (श्रोतागण हँसते हैं) तुम्हें रोकने के लिए तुम्हारे शरीर में ही कहीं दर्द करेगा | इधर-उधर कुछ पैदा कर देगा |

श्रोता : तो वो भी अहँकार ही कर रहा है?

वक्ता : और कौन कर रहा है ? आँख में दर्द हो जायेगा, इधर हो जायेगा, उधर हो जायेगा, पेट में, पीठ में कुछ-ना-कुछ चालू हो जायेगा | और तुम्हारे पास एक वैध बहाना हो जायेगा कि “मुझे तो देखिए जी ये हो रहा था तो इसलिये मैं ध्यान में नही बैठ पाया|” बुखार वगैरह भी आ सकता है, कोई बड़ी बात नहीं है | तुम ये न समझना कि वो बात काल्पनिक है | वास्तव में बुखार आ सकता है | हो सकता है वास्तव में तुम्हारा तापमान बढ़ जाये | मन बड़ा चालबाज़ है | कुछ भी करा सकता है | माया ऐसी खतरनाक है कि वो तुम्हारे मन को यहाँ से दूर रखने के लिए ट्रेन को बारह-घंटे विलंब करा दे | कि अगली बार न आओ | ये बेचारे, (२ श्रोताओं को इंगित करते हुए) कल सुबह चले थे सात बजे, आज सुबह सात बजे पहुचे हैं | तुम्हें क्या लग रहा है ये अकस्मात, संयोगवश हुआ है? कुछ नहीं, ये सब एक बड़े खेल का हिस्सा है | लेकिन उसकी जो निष्पत्ति निकलनी है वो वही निकलनी है कि तुम्हारा अहँकार सुरक्षित रह जायेगा | अगली बार तुम कहोगे “यार, पिछली बार गये थे तो बहुत परेशानी हुई थी| अब इस बार नही जायेंगे|” ये जो कुछ भी होता है ना, इसको संयोग मत समझ लेना | कई माएँ हैं, उनके बच्चे ठीक शनिवार (सत्र रविवार सुबह होता है) रात को ही बीमार पड़ते हैं | ऐसा नहीं है कि झूठ बोल रही हैं | बच्चों को बिल्कुल पता है | “यही है | इसी दिन |” कैसे होता है ये मत पूछना | बस होता है, ऐसे ही होता है |

श्रोता : सर अभी हम जैसे कलेक्टिव, सामूहिक मन की बात कर रहे थे |वक्ता : समझ लो वही है |

श्रोता : तो अहँकार भी कलेक्टिव, सामूहिक है ?

वक्ता : बिल्कुल समझ लो वही है | जब भी तुम किसी ऐसी दिशा में चलोगे जहाँ तुम्हें वास्तव में जाना चाहिए, स्थितियाँ कुछ ना कुछ उसमें गड़बड़ जरुर पैदा करेंगी, पक्का समझना |

श्रोता : रुकना नहीं है |

वक्ता : अब वो, तुम जानो | कुछ भी हो सकता है |

श्रोता : सर और इसका विपरीत भी तो सही नहीं है ना कि, जहाँ जाने के लिए कुछ समस्या आ रही है वहीँ जाना उचित है| ऐसा भी कुछ नहीं होता ना?

वक्ता : नहीं | देखो, एक समस्या वो होती है जो तुमको और उत्तेजित करती है कि “ये तो मुझे पाना है|” बाधा कई बार तुम्हारे सामने खड़ी ही इसलिए की जाती है ताकि तुम्हारे अंदर आग और उबले | जैसे तुम किसी लड़की के पीछे हो और वो आसानी से हाथ नहीं आ रही | उसको तुम बाधा मत समझना, वो आमन्त्रण है | तो एक तो बाधा वो है जहाँ पर तुम्हें और आतुर किया जा रहा है | और एक दूसरी बाधा है जहाँ पर तुमको वास्तव में रोका जा रहा है कि रुक ही जाओ| और स्थितियाँ ऐसे ही बन रही हैं, बिना तुम्हारे चाहे | और वो जो स्थितियाँ हैं वो – मैं सावधान कर रहा हूँ सबको – जब बनेंगी तो बड़ी वैध लगेंगी | बिल्कुल तुम्हें ऐसे ही लगेगा कि “हम क्या कर सकते हैं? हम तो चाहते थे कि संपर्क बना रहे | हम आते रहें | हमारा तो पूरा इरादा था | हमारी नियत में कोई खोट नहीं | हम तो चाहते थे | पर स्थिति अब ऐसी बन गयी है तो हम क्या करें?” मैं, अभी से कह दे रहा हूँ, वो स्थिति ऐसी संयोगवश नहीं बनी है | उसके पीछे खेल है | वो खेल आपको साफ़-साफ़ समझ में आये ये जरूरी नहीं है, पर खेल है ज़रुर |

श्रोता : तो फ़िर ऐसे में करें क्या? बन गयी स्थिति, अब नहीं आ पा रहे या जहाँ भी, जिस भी दिशा में जाना चाह रहे थे, ठीक दिशा में, एक स्थिति ऐसी बन गयी कि अब नहीं कर पा रहे | करें क्या?

वक्ता : पीठ में दर्द है, तो पीठ में दर्द रहने दो | तुम अपना काम करो |

श्रोता : सर, मान लीजिए एक सर्जन (शल्य-चिकित्सक) है| सत्र में आना चाहता है | परिस्थितियाँ ऐसी बनती हैं कि जिस समय यहाँ सत्र होना है उस समय वहाँ पर सर्जरी (शल्य-चिकित्सा) है |

वक्ता : पहली बात तो ये कि सर्जरी कभी अकस्मात् नहीं होती कि “चलो तुरंत सर्जरी कर दो|” सर्जरी ऐसे नहीं होती | और दूसरी बात कि महीने में यहाँ पर हम नौ सत्र करते हैं |श्रोता : फ़िर तो साफ़तौर पर संभव है |

वक्ता : समझ रहे हो बात को?

श्रोता : जी |

वक्ता : एक-दो बार का समझा जा सकता है | पर वो जितनी बार निकले उतनी बार ही कोई रोगी खड़ा हो जाये कि “सर्जरी कर दो!”, (सभी श्रोता हँसते हैं) तो समझना पड़ेगा कि सर्जरी किसकी हो रही है |

श्रोता : सर एक बार आपने कहा था कि जो विरोध होता है, जो कि बाहर से ही मिलता है, वो हमारे मन की ही उपज होती है | तो कहीं ना कहीं हम विरोध कर रहे होते हैं | तभी तो परिस्थिति उपजती हैं?वक्ता : देखो उसमें दिक्कत ये आयेगी कि मैं ये कह दूँ कि “तुमने स्थिति को खुद पैदा किया है|” तो तुम्हें ऐसे-ऐसे प्रमाण मिल जायेंगे जिसमें तुम कहोगे कि “हमने कहाँ पैदा किया है? अब हम तो चल रहे थे, तभी सड़क पर दुर्घटना हो गयी| हमने थोड़े-ही कराई है?” तो अगर तुम मेरी इस बात को पकड़ोगे कि मैंने कहा है कि “तुम खुद कर रहे हो|” तो तुम्हें बचने का बहाना मिल जायेगा क्योंकि तुम्हें प्रमाण मिल जायेगा कि “मैंने तो नही किया| मैंने तो किया नहीं, हो गया|” तुम देखते नहीं हो जब तुम अपनी दलीलें देते हो तो कितनी मासूमियत के साथ देते हो? “सर, हो गया, हमने नहीं किया|” तुमने नहीं किया ये बात बिल्कुल ठीक है | पर ये भी बात बिल्कुल ठीक है कि जो हो गया उसको महत्व तुम्हीं दे रहे हो | नहीं समझ रहे?

कोहरा तुमने पैदा नहीं किया होगा | आज कोहरा खूब है | हम नहीं कह रहे कि तुम्हारे घर से निकला है कोहरा, कि तुम मशीन ले के घूम रहे हो | (सभी हँसने लगते हैं) लेकिन कोहरे को महत्व देने वाला कौन है? ये किसने तय किया कि “कोहरा है, तो हम देर से पहुचेंगें|” ये किसने तय किया? ये तो तुम्हीं ने किया ना? पीठ मैं दर्द हुआ होगा किसी वजह से | पीठ के दर्द को तवज्जो किसने दी, किसने दी? तुम्हीं ने दी ना? तो इस तरीके से तुम सहभागी बने |श्रोता : तो कारण पैदा नहीं होते| कारण वही होता हैं | बस तवज्जो देने से वो चिन्हांकित (हाईलाईटेड) हो जाता है |

वक्ता : हाँ, और क्या|

श्रोता : तो कारण हमेशा हमेशा के लिए है?

वक्ता : हाँ, और क्या | कुछ न कुछ हमेशा रहेगा | ये है, वो है, ऐसा-वैसा|

श्रोता : यानि कि सब कुछ वरीयता पर निर्भर है ?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories