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आदर्श बनाने की जगह खुद को देखो || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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वक्ता: सिर्फ एक व्यक्ति है जिसका तुम्हें सच पता हो सकता हैं, किसका?

सभी श्रोता: अपना

वक्ता: तो उसकी ओर क्यों नहीं देखते? जिस एक आदमी का तुम्हें सच पूरा पता हो सकता हैं, उसकी ओर क्यों नहीं देख रहे? क्यों इधर-उधर निहारते हो? क्यों मन को भटकने देते हो? अपने सच को देखो ना, अपने आप से पूछो। मेरा मन कैसा हैं? मैं क्यों संदेह में रहता हूँ? अपने आप से पूछो कि, ठीक अभी मैं कर क्या रहा हूँ? और यह सवाल महत्वपूर्ण हैं। यह सच्चा सवाल हैं कि अभी मेरे मन की स्थिति क्या हैं?

मैं किसी को भी देखूं, मैं देखूंगा तो वही ना जैसा मेरा मन हैं? मैं किसी को भी देखूँ, जैसा मेरा मन हैं मुझे वैसा ही वो दिखाई पड़ता हैं। बात समझ रहे हो? एक ही वस्तु को, एक ही व्यक्ति को अलग-अलग लोग अलग-अलग नज़रिए से देखतें हैं।

क्या होता है एक बार, प्रदीप बैठे हुएं हैं। तो मैं गया और मैंने प्रदीप के सामने एक ट्रायंगल बनाया। मैंने प्रदीप से पूछा कि प्रदीप, यह क्या हैं? और प्रदीप ने कहा कि यह आलू हैं। प्रदीप दोस्त हैं मेरा, तो मैं थोड़ा जानना चाहता था कि प्रदीप के मन में चल क्या रहा हैं। फिर मैंने एक वृत्त बना दिया – गोल – मैंने पूछा प्रदीप से कि यह क्या हैं? प्रदीप ने कहा, यह कद्दू है। फिर मैंने लम्बा रेक्टेंगल बना दिया और पूछा प्रदीप से कि यह क्या हैं? प्रदीप ने कहा लौकी है। ठीक, फिर मैंने छोटे-छोटे डॉट्स बना दिए, बहुत सारे, मैंने कहा, यह क्या हैं? प्रदीप बोला, मटर के दाने हैं। मैंने कहा ठीक। मैंने कहा कि प्रदीप तुम्हारा मन खाने की ओर बहुत आकर्षित हैं। देखो अब इसमें कोइ राज़ ही नहीं है। बात सपष्ट हैं। प्रदीप बोला — धत! खाने-पीने की चीज़ें तुम बना रहे हो बार-बार और कह रहे हो कि मन मेरा आकर्षित हैं! कद्दू बनाया तुमने, लौकी बनाई तुमने, माटर बनाऐ तुमने, आलू बनाऐ तुमने और कह रहे हो कि खाने की ओर मन मेरा आकर्षित हैं! मैं बोला, यह तो बिलकुल सही बात हैं। भई यह लौकी किसने बनाई? यह लौकी ही तो होती हैं ( एक लम्बा रेक्टेंगल बनाते हुए )। किसने बनाई, मैंने ही तो बनाई।

तो हमें दिखाई वही पड़ता हैं जैसा हमारा मन होता हैं। पर हम सोचते क्या हैं कि हमें जो दिख रहा है, वो क्या हैं, सच हैं। मेरे मन में अगर खाने का खयाल है तो मुझे गोल सिर्फ़ कद्दू दिखाई देगा। तुम मुझे यह बताओ कि क्यों तुम अपने आदर्श उन्ही लोगो को बनाते हो, जिन्होने बहुत पैसे कमाए हैं? तुम्हारे मन में लगातार खयाल किसका है?

सभी श्रोता: पैसे का

वक्ता: अरे सच कैसे दिखेगा जब तुमने पहले ही तय कर रखा है कि जो व्यक्ति कमाए, वो सफल है। जब तुम कहते हो कि फलाना सफल है, क्योंकि उसने कमाया तो तुमने पहले ही तय कर लिया हैं कि जो कमाए वो…

सभी श्रोता: सफल है

वक्ता: तुम्हें कैसे पता कि जो कमाए वही सफल है? क्योंकि दुनिया ने तुम्हें यही बताया है, क्योंकि टी.वी. पर तुम लगातार यही देख रहे हो, क्योंकि अखबारों में तुम यही पढ़ रहे हो, कि बड़े लोग कौन?

सभी श्रोता: जो खूब कमाए

वक्ता: पर अपने आप से पूछो कि मुझे टी.वी. के अनुसार चलना है या अपनी ज़िन्दगी खुद जीनी है, या टीवी के अंदर घुस के जीना है। तो इतनी जल्दी किसी के कहने पर यकीन न करिये। न किसी के, न मेरे, और ना ही अपने मन के। लगे रहो, ध्यान से देखते रहो। झुक मत जाओ जल्दी से, कि फलाना कह रहा है तो ठीक ही होगा। अगर मैं वास्तव में तुम्हारा हितैषी हूँ तो मैं यह कभी नहीं चाहूँगा कि मैं जो कह रहा हूँ वो तुम झट से स्वीकार करो या झट से अस्वीकार करो। मैं चाहूँगा कि तुम इन बातों की सच्चाई को परखो, अपने ध्यान से परखो। क्योंकि जो स्रोत मेरे पास है, जहाँ से मैं बोल रहा हूँ वो स्रोत तुम्हारे पास भी हैं। मुझमें और प्रदीप में कोइ अन्तर नहीं है। अगर कोई बात मैं समझ सकता हूँ तो प्रदीप भी समझ सकता है, और तुममें और प्रदीप में भी कोइ अन्तर नहीं है। तो किसी और की ओर देखने का कोइ तुक बनता ही नहीं।

– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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