आचार्य प्रशांत: सिर्फ़ एक व्यक्ति है जिसका सच तुम्हें पता हो सकता है, किसका?
श्रोतागण: अपना।
आचार्य: तो उसकी ओर क्यों नहीं देखते?
जिस एक आदमी का तुम्हें सच पूरा पता हो सकता है उसकी ओर क्यों नहीं देख रहे? क्यों इधर-उधर निहारते हो ? क्यों मन को भटकने देते हो? अपने सच को देखो न! अपनेआप से पूछो, 'मेरा मन कैसा है? मैं क्यों संदेह में रहता हूँ? मैं अभी क्या कर रहा हूँ?' ये पूछो अपनेआप से।
अपनेआप से पूछो, 'ठीक अभी मैं कर कर रहा हूँ? और वो सवाल महत्त्वपूर्ण है, वो सच्चा सवाल है। व्हाट एम आई डूइंग? (मैं क्या कर रहा हूँ?) व्हाट इज़ द क्वालिटी ऑफ माई माइंड? (मेरे मन की गुणवत्ता क्या है?) फिर मैं किसी को भी देखूँ, मैं देखूँगा तो वही न जैसा मेरा मन है। मैं किसी को भी देखूँ; जैसा मेरा मन है मुझे वो वैसा ही दिखाई पड़ता है, बात समझ रहे हो न? एक ही वस्तु को, एक ही व्यक्ति को अलग-अलग लोग, अलग-अलग नज़रिए से देखते हैं।
क्या होता है कि एक बार बैठा होता है। एक प्रदीप नाम का, प्रदीप बैठे हुए हैं। थोड़ा हँस दो इसलिए! तो मैं गया मैंने प्रदीप के सामने एक ट्राइएंगल (त्रिभुज) बनाया, मैंने प्रदीप से पूछा, 'प्रदीप ये क्या है?' प्रदीप कहता है 'ये आलू है।' मैंने कहा, 'ठीक।'
दोस्त हैं, मैं और प्रदीप दोस्त हैं। मैं थोड़ा जानना चाहता था कि प्रदीप के मन में चल क्या रहा है। फिर मैंने एक वृत्त बना दिया गोल; मैंने पूछा प्रदीप से 'प्रदीप ये क्या है?' प्रदीप ने कहा, ये कद्दू है।' मैंने कहा, 'ठीक।' फिर मैंने लम्बा सा रेक्टेंगल (आयताकार आकृति) बना दिया, मैंने पूछा कि प्रदीप यह क्या है, प्रदीप ने कहा 'यह लौकी है।' मैंने कहा, 'ठीक।' फिर मैंने छोटे-छोटे डॉट्स (बिंदु) बना दिए बहुत सारे, मैंने कहा, 'प्रदीप ये क्या है?' प्रदीप बोले, 'मटर के दाने हैं।' मैंने कहा, 'ठीक।'
प्यारे प्रदीप तुम्हारा मन खाने की ओर बहुत आकर्षित है। देखो! अब इसमें कुछ राज़ ही नहीं है, बात स्पष्ट है। मैंने कहा, 'प्रदीप तुम्हारा मन खाने की ओर बहुत आकर्षित है।'
प्रदीप ने कहा, 'धत्त! खाने-पीने की चीज़े तुम बना रहे हो बार-बार और कह रहे हो मेरा मन आकर्षित है । कद्दू बनाया तुमने, लौकी बनायी तुमने, मटर बनाये तुमने, आलू बनाये तुमने और कह रहे हो मन मेरा आकर्षित है।
बिलकुल सही बात है। भई! लौकी किसने बनायी (हाथ से आयताकार इशारा करते हुए) ये लौकी ही तो होती है किसने बनायी? मैंने बनायी। तो हमें दिखाई वही पड़ता है जैसा हमारा मन होता है, पर हम सोचते क्या है कि जो हमें दिख रहा है वो क्या है? सच है। मेरे मन में अगर खाने का खयाल है तो मुझे गोल सिर्फ़ कद्दू दिखाई देगा।
तुम मुझे यह बताओ क्यों तुम अपने आदर्श उन्हीं लोगो को बनाते हो जिन्होंने खूब कमाया है। क्योंकि तुम्हारे मन में लगातार खयाल किसका है?
तुम्हें सच कैसे दिखेगा जब तुमने पहले ही तय कर रखा है कि जो व्यक्ति कमाये वो सफल है। इस बात को थोड़ा समझना, जब तुम कहते हो कि फ़लाना सफल है क्योंकि उसने कमाया, तो तुमने पहले ही तय कर लिया कि जो कमाये वो?
श्रोता: सफल है।
आचार्य: तुम्हें कैसे पता कि जो कमाए वही सफल है। क्योंकि दुनिया ने तुम्हें यही बताया, क्योंकि टीवी पर तुम लगातार यही देख रहे हो, क्योंकि अखबारों में तुम यही पढ़ रहे हो कि बड़े लोग कौन?
श्रोता: पैसे वाले।
आचार्य: पर अपनेआप से पूछो कि मुझे टीवी के अनुसार चलना है या अपनी ज़िन्दगी खुद जीनी है? या टीवी के अन्दर घुसकर जीना है? या टीवी के अन्दर घुसकर जीना है?
तो इतनी जल्दी किसी के कहने पर यकीन न कर लिया करो। न किसी के, न मेरे और न ही अपने मन के। लगे रहो! ध्यान से देखते रहो, झुक मत जाओ जल्दी से, कि फ़लाना कह रहा है तो ठीक ही होगा। अगर मैं वास्तव में तुम्हारा हितैषी हूँ तो मैं यह कभी नहीं चाहूँगा कि मैं जो कह रहा हूँ उसको झट से स्वीकार कर लो, या झट से अस्वीकार कर लो, दोनों ही बात है।
मैं चाहूँगा कि तुम इन बातों की सच्चाई को परखो, अपने ध्यान से परखो क्योंकि जो स्रोत मेरे पास है, जहाँ से मैं बोल रहा हूँ वो स्रोत तुम्हारे पास भी है। मुझमें और प्रदीप में कोई अन्तर नहीं हैं। अगर कोई बात मैं समझ सकता हूँ तो प्रदीप भी?
श्रोता: समझ सकता है।
आचार्य: और प्रदीप में और तुममें कोई अन्तर नहीं है। तो किसी और की ओर बहुत देखने का कोई तुक बनता ही नहीं, समझे बात को?
YouTube Link: https://youtu.be/SieDrEHzuM0