कृष्ण को चुनना ही जीत है || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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कृष्ण को चुनना ही जीत है || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

सञ्जय उवाच।

दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा। आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रतीत् ॥२॥

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्। व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥३॥

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि । युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः॥४॥

धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् । पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः॥५॥

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् । सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः॥६॥

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम। नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥७॥

“संजय बताते हैं कि दुर्योधन द्रोणाचार्य को, पाण्डवों की पूरी व्यूह रचना की तरफ़ इशारा करके कुछ कहता है। कहता है, "ये जो सेना है सामने पाण्डवों की, इसमें भीम, अर्जुन जैसे महा धनुर्धर वीर हैं। सात्यकि विराट, महारथ द्रुपद, धृष्टकेतु, चिकितान्त, काशिराज, कुन्तीभोज पुरुजित, नरश्रेष्ठ शैव्य, युधामन्यु, उत्तमोजाभिमन्यु, द्रौपदी के पुत्र—ये सब महारथी सामने हैं। इसी तरीके से, हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! हे द्विजोत्तम! हमारे भी जो विशिष्ट योद्धा इत्यादि हैं, उनके मैं नाम आपको बताता हूँ।"

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १, अर्जुन विषाद योग, श्लोक २–७

आचार्य प्रशांत: ये बात थोड़ी विचित्र है। सेनाएँ जब आमने-सामने सजी हुई हैं, उस समय पर द्रोणाचार्य को जाकर, पांडवों की सेना के योद्धाओं का नाम बताने का तुक क्या भला? क्या द्रोणाचार्य को पता नहीं है? दुर्योधन से ज़्यादा अच्छे से पता है। इसी तरह से अपनी सेना के बारे में द्रोणाचार्य को क्या बता रहे हैं! पर बताया। क्या बताया?

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः । अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥८॥

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः। नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥९॥

"हमारे पक्ष में आप हैं, भीष्म हैं, कर्ण हैं, समरविजयी कृपाचार्य हैं, अश्वत्थामा हैं, छोटा भाई विकर्ण है और सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा हैं और सिंधुराज जयद्रथ हैं। इसके अलावा और भी वीर हैं, और वो मेरे लिए प्राण त्यागने को तैयार हैं। सभी विभिन्न अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित तथा युद्ध निपुण हैं।"

~श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १, अर्जुन विषाद योग, श्लोक ८–९

आचार्य: शब्दों पर ग़ौर करिएगा —"ये सब वीर हैं और ये सब मेरे लिए जीवन त्यागने के लिए तैयार हैं।" आगे बढ़ते हैं। जो अगला श्लोक है क्रमांक दस, उसका अर्थ दो तरीके से किया जा सकता है। कहा गया है;

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥१०॥

"पितामह भीष्म के द्वारा रक्षित हमारा सैन्यबल अपर्याप्त है परन्तु भीम के द्वारा रक्षित पांडवों का सैन्य बल पर्याप्त है।"

~श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १, अर्जुन विषाद योग, श्लोक १०

आचार्य: अब 'अपर्याप्त' और 'पर्याप्त' शब्दों के दो अर्थ करे हैं टीकाकारों ने। कुछ लोगों ने अपर्याप्त को अपरिमित माना है। अपरिमित का अर्थ हो जाता है असीमित, जिसका परिमाप ना हो। तो दुर्योधन यहाँ पर कह रहे हैं कि ‘भीष्म द्वारा संचालित, भीष्म के नेतृत्व में हमारी सेना का बल अपरिमित, माने असीम है। जबकि सामने विरोधी भीम की सेना का बल परिमित, माने सीमित है। माने हमारी सेना का बल ज़्यादा है।‘

मुझे नहीं प्रतीत होता कि दुर्योधन का ये आशय है क्योंकि परिमित शब्द का प्रयोग तो करा भी नहीं गया है। जिस शब्द का प्रयोग है वो बहुत सीधा-सादा है। शब्द है यहाँ पर 'अपर्याप्त' और 'पर्याप्त'। तो मैं इसका जो सीधा-सरल, स्पष्ट अर्थ है, वही लूँगा। द्रोण से दुर्योधन कह रहे हैं कि ‘भीष्म की अगुआई वाली हमारी सेना का बल अपर्याप्त है और सामने वाली सेना का बल पर्याप्त है’। और अगर अगले श्लोक को देखें तो इसी भाव की पुष्टि होती है। अगले श्लोक में दुर्योधन कह रहे हैं;

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः। भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥११॥

"इसलिए सब लोग, अपने-अपने कर्तव्य और अपने-अपने युद्ध विभाग के अनुसार पितामह भीष्म की रक्षा करो।"

~श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १, अर्जुन विषाद योग, श्लोक ११

आचार्य: अब ये बात पिछले अर्थ के अनुकूल बैठी न? उनका बल पर्याप्त है और हमारा बल अपर्याप्त है इसीलिए सब लोग मिलकर के, अपनी-अपनी जगह से, अपने-अपने विभाग के अनुसार पितामह की रक्षा करो। तो जब ये बात हुई, कदाचित ये बात भीष्म के भी कानों में पड़ी होगी कि ऐसा संवाद चल रहा है दुर्योधन और द्रोण में, तो उन्होंने भारी शंखनाद किया।

तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः। सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्ख दध्मौ प्रतापवान् ॥१२॥

"तो कौरव वंश के सबसे वयोवृद्ध, महान, पराक्रमशाली पितामह भीष्मदेव ने, दुर्योधन का आनंद वर्धन करते हुए, सिंह के गर्जन के समान उच्च शब्द करके शंख बजाया।"

~श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १, अर्जुन विषाद योग, श्लोक १२

आचार्य: आनंदवर्धन किया या उत्साहवर्धन किया! और शंख बजाया।

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः। सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥१३॥

“उसके अनन्तर शंख, भेरी, पणव, आनक और गोमुख आदि एक साथ ही बज उठे। उनका समवेत स्वर अत्यन्त भयंकर था।“

~श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १, अर्जुन विषाद योग, श्लोक १३

आचार्य: एक बार कौरवों की ओर से शंख बज गया तो उसके बाद फिर:

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ। माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः॥१४॥

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः। पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्ख भीमकर्मा वृकोदरः॥१५॥

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥१६॥

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः। धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः॥१७॥

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते। सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक् पृथक्॥१८॥

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्। नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलोऽभ्यनुनादयन् ॥१९॥

"उसके पश्चात शुक्ल अश्वों से युक्त एक विशाल रथ पर अवस्थित श्रीकृष्ण और अर्जुन ने दो दिव्य शंख बजाये। श्रीकृष्ण ने पांचजन्य और अर्जुन ने देवदत्त और भीमसेन ने पौंड्र नामक शंख बजाये। उसके बाद कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने अनंत विजय शंख, नकुल ने सुघोष और सहदेव ने मणिपुष्पक शंख बजाये। और फिर धृष्टद्युम्न और अन्य जितने भी वहाँ वीर थे, महाधनुर्धर काशिराज, महाराज शिखंडी, विराटराज, अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद, द्रौपदी के पाँचों पुत्र तथा सुभद्रपुत्र महावीर अभिमन्यु आदि समस्त वीरों ने अलग-अलग शंख बजाए। और शंखों के इस शब्द ने आकाश और पृथ्वी को प्रतिध्वनित करते हुए धृतराष्ट्र पुत्रों के हृदयों को विदीर्ण कर दिया।"

~श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १, अर्जुन विषाद योग, श्लोक १४–१९

आचार्य: सेनाएँ दोनों खड़ी हैं लेकिन शंखों का तुमुल नाद विदीर्ण कर रहा है मात्र धृतराष्ट्र पुत्रों के हृदयों को। और इसके बाद फिर अर्जुन कहते हैं कि ‘हे केशव! इन दोनों सेनाओं के बीच मेरे रथ को खड़ा करो…’। उस पर हम बाद में आएँगे, वो चीज़ श्लोक क्रमांक इक्कीस में आती है, हम उससे पहले के श्लोकों पर चर्चा करते हैं।

क्या पा रहे हैं आप यहाँ पर? पहले श्लोक में पिता का परिचय और उसके बाद के जितने श्लोक हैं, क्रमांक उन्नीस तक, उसमें 'पुत्र उवाच', कि बेटा क्या कह रहा है। और जो कुछ कह रहा है दुर्योधन उसमें स्पष्टतया उसका भय परिलक्षित होता है। सेनाएँ और योद्धा गिनाने की शुरुआत दुर्योधन ने करी है जबकि संख्याबल दुर्योधन के पक्ष में था। ज़्यादा बड़ी थी दुर्योधन की सेना। उसके बाद स्वयं ही ये कहना कि ‘हमारा बल अपर्याप्त है जबकि विपक्षी बल पर्याप्त है’ और उसके बाद कहना कि ‘सब मिलकर के भीष्म की रक्षा करो’, तो शुरूआत ही रक्षात्मक है। ये क्या हो रहा है?

ये अहंकार की बहुत-बहुत प्राचीन स्थिति है। वो पूरे तरीके से अचेतन कभी नहीं होता। वो जड़ और चेतन के बीच में अवस्थित रहता है। इसीलिए तो उसको दंड मिलता है। देखिए, अगर आप पूरे तरीके से बेहोश हों तो उस समय आपसे कुछ हो जाए तो आपको कोई सज़ा नहीं मिलती। आप सो रहे हैं और सोते-सोते आपने करवट बदली और कोई नन्हा जीव आपकी पीठ के नीचे आ गया, इसकी आपको कोई सज़ा नहीं मिलेगी। लेकिन आप जानते-बूझते किसी जीव की हत्या करें मनोरंजन हेतु, भोजन, स्वाद हेतु या असावधानीवश, तो उसका दण्ड मिलता है।

अहंकार भी जड़ नहीं होता, जानता है। इसी बात से उसकी मुक्ति की आशा है और इसी तथ्य के कारण बार-बार उसको दण्ड मिलता है। समझिएगा। चूँकि वो पूरे तरीके से अनभिज्ञ नहीं, बेहोश नहीं, जड़ नहीं, अचेतन नहीं इसीलिए ये संभावना बनती है कि जब तुम इतना समझते हो तो और भी तो समझ सकते हो। तो अहंकार के अर्धचेतन होने के तथ्य से ही उसकी मुक्ति की संभावना उठती है। तुम्हें पता तो है ही, बस तुम्हें जो पता है वो आछन्न है, दबा हुआ है, छुपा हुआ है। तुम्हें कुछ भी पता ना होता तो तुम्हें कैसे कुछ बताया जा सकता था? मैं भी आपसे जो बातें बोलता हूँ, मैं आपसे कोई नयी बात नहीं बोलता। मैं आपसे जो बोल रहा हूँ वो आपको पता है। बस आपको उस बात के अलावा और भी कई अन्य बातें पता हैं। मेरा काम है उन अन्य बातों को आपके मन से हटा देना, उन्हें निरर्थक, झूठा और हानिप्रद साबित करके।

मेरा काम असम्भव हो जाता यदि मैं जो बोल रहा हूँ वो आपको बिलकुल ही पता ना होता पहले से। मेरे शब्दों की आपको अग्रिम सूचना है। मेरी सलाह का आपको अग्रिम ज्ञान है। आप सब जानते हैं, बस आप थोड़ा ज़्यादा जानते हैं, मैं थोड़ा कम जानता हूँ। मैं बस वो जानता हूँ जो जानने लायक है। आप बहुत कुछ ऐसा भी पकड़े हुए हैं जो जानने लायक नहीं है। भाषा का थोड़ा खेल करके ये भी कहा जा सकता है कि आप मुझसे कहीं ज़्यादा ज्ञानी हैं। बात समझ में आ रही है?

पता आपको पहले से है, इसी बात का मुझे सहारा मिलता है कि मैं आपको जो बोलूँगा आप उसको अस्वीकार नहीं कर पाओगे क्योंकि आप उस बात को जानते हो। हाँ, उस बात को जानने के बावजूद आप अपनी ही जानी हुई बात के विरोध में सौ भीतरी झूठे तर्क खड़े कर लेते हो। आप अपने ही ज्ञान के दुश्मन आप हो। मेरा काम होता है आपके भीतर जो आपका शत्रु बैठा होता है उसको परास्त करना; मेरा काम होता है आपके भीतर जो आपका मित्र बैठा है उसको बल देना, सहयोग देना। समझ में आ रही है बात?

तो आप जानते हो पहले से — मैं कह रहा हूँ इसी में आपकी मुक्ति की आशा है क्योंकि आप कुछ ना जानते होते तो कोई आपको कुछ नहीं बता सकता था। और आप जानते हो फिर भी ग़लत जीते हो, इसी बात का, मैं कह रहा हूँ, आपको दंड मिलता है। यदि जानते ही हो तो जो जानते हो उसपर आगे क्यों नहीं बढ़े? थोड़ी भी रोशनी है अगर भीतर तो उसका सहारा लेकर के चार कदम तो आगे बढ़ाते। लेकिन हम तो अपने भीतर के प्रकाश के ही शत्रु बन जाते हैं। हम अपने ही अंधेरे के पक्षधर हो जाते हैं।

दुर्योधन यहाँ पर जानता है कि कृष्ण का विरोध करके उसने अपनी मृत्यु, अपनी पराजय पहले ही तय कर दी है। और इसी बात को कृष्ण बहुत स्पष्ट और सात्विक शब्दों में आगे कहते हैं — 'तुम किनको मारने से डर रहे हो अर्जुन? तुम इनको मारने से डर रहे हो? ये तो पहले ही मरे हुए हैं। जिस क्षण इन्होंने निर्णय करा था कि ये मेरे विरुद्ध खड़े होंगे, ये उस क्षण मर गए। अब तुम इन्हें मारने से कतरा क्या रहे हो? ये लाशें हैं, अभी गिर नहीं रही हैं ज़मीन पर; समय की बात है, तुम्हें धोखा हो रहा है। तुम्हें लग रहा है कि जीवित हैं, जीवित कुछ नहीं।‘

जो कृष्ण के विरुद्ध हो गया वो उसी क्षण चेतना के तल पर मृत्त हो गया, शरीर अभी थोड़ी देर डोलता रहेगा; थोड़ी देर का अर्थ सत्तर साल भी हो सकता है। आप श्रीकृष्ण के विरुद्ध रहकर सत्तर-अस्सी साल का पूरा जीवन भी जी सकते हैं लेकिन मौत आपकी हो गयी थी, जिस दिन आपने जवानी में एक दिन तय करा था कि ‘कृष्ण का क्या साथ देना! और बहुत चीज़ें हैं जीवन में जो ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं‘, उसी दिन मर गए थे। और ऐसों के लिए कृष्ण कहते हैं कि ऐसों को तो शारीरिक तौर पर भी मार दिया तो उसमें कोई अपराध नहीं कर दिया। भीतर से तो ये मरा ही हुआ है आदमी, ऊपर-ऊपर से चलता था। इसको अब ऊपर-ऊपर से, बाहरी तौर पर भी, भौतिक तौर पर भी गिरा दिया, तो लाश को मारने की सज़ा मिलती है क्या?

इसी का प्रमाण और आगे मिलता है जब अपना विराट रूप दर्शाते हैं। उस समय पर अर्जुन उल्लेख करते हैं कि ‘मैं देख रहा हूँ कि जितने कौरव योद्धा इत्यादि हैं, ये सब आपके मुख में जा रहे हैं। ये काल का ग्रास बनते जा रहे हैं और इसमें से कुछ तो ऐसे हैं जो आपके दाँतों के बीच फँसकर के दम तोड़ रहे हैं।‘ विराटरूप है, विराट दाह है और अर्जुन कह रहे हैं — मैं देख रहा हूँ कौरवों की पूरी विशाल सेना, ये आकर आपके मुँह में समायी जा रही है और मौत को पा रही है।

अब ये बड़ा अद्भुत संयोग है। दो बातें एक साथ देखिए, पहली — कृष्ण कभी विजय की बात नहीं करते अर्जुन से, कभी नहीं। आप पूरे संवाद में देख लीजिएगा, आपको ऐसा प्रतीत बिलकुल नहीं होगा कि कृष्ण अर्जुन को विजय दिखाकर लुभा रहे हों। बहुत तरह के तर्क देते हैं अर्जुन को; विजय उन तर्कों में सम्मिलित नहीं है। ये नहीं कहते कि ‘लड़ोगे, तो जीतोगे, तो आनंद पाओगे तुम‘। तो एक ओर तो बात ही नहीं करी जा रही विजय की और दूसरी ओर जैसे ये आरम्भ से ही सुनिश्चित है कि जीतेगा कौन। एक ओर अर्जुन और कृष्ण के मध्य जीत की बात नहीं हो रही, दूसरी ओर आरम्भ से ही प्रतिपक्ष को भी पता है कि कौन जीतने वाला है। ये दोनों बातें साथ-साथ देख लीजिए। जो सही राह चल रहा है उसको जीत की परवाह करनी नहीं पड़ती। ‘जीतूँगा या नहीं जीतूँगा?’ — ये प्रश्न होता ही नहीं।

अर्जुन के सामने बड़ा अभी धर्मसंकट आएगा, जब हम अगले सत्र में अर्जुन की स्थिति की चर्चा करेंगे। अर्जुन के सामने बड़ा विकट धर्मसंकट आएगा, बड़ा विकट। लेकिन उस धर्मसंकट में ये कहीं भी नहीं सम्मिलित है कि ‘कृष्ण, मैं डर रहा हूँ कि मैं कहीं हार ना जाऊँ’। अर्जुन को सौ सवालों ने घेर रखा है पर उन सौ सवालों में से एक भी ये नहीं है कि ‘हार गया तो मेरा क्या होगा? कहीं गर्दन ना कट जाए! अपमान ना हो जाए! राज्य वैसे भी नहीं भोग पाया, (भविष्य में) कहीं और ना भोग पाऊँ तो? और मेरी हार के कारण मेरे भाइयों की भी मौत हो तो सब मर जाएँगे, फिर द्रौपदी का क्या होगा, अन्य रानियों का क्या होगा? अभिमन्यु और उसके भाइयों का क्या होगा? उत्तरा का क्या होगा?’

ये प्रश्न है ही नहीं। जबकि आमतौर पर ये प्रश्न होते हैं न? आप लड़ाई में जा रहे हो और आपका पूरा शरीर काँप रहा है, टाँगें काँप रही हैं, हाथ काँप रहे हैं तो अनुमान यही लगाया जाएगा कि आपके पास यही प्रश्न है जो आपको विह्वल कर रहा है। क्या प्रश्न? ‘इस लड़ाई में होगा क्या? कहीं हार-वार ना जाएँ!’ अर्जुन परेशान बहुत है लेकिन प्रश्न वहाँ बिलकुल दूसरा है। क्या है वहाँ प्रश्न? ‘क्या ये लड़ाई लड़ने योग्य है?’ और अपनी तरफ़ से अर्जुन को यही उत्तर मिल रहा है कि ‘नहीं, क्या करोगे तुम अपने ही रक्त-सम्बन्धियों को मारकर के?’ कहते हैं अर्जुन कि ‘इनको मारकर के सिंहासन पा भी लिया तो वो किस मूल्य का?’ ये प्रश्न है अर्जुन के सामने।

यही मत देखिए कि अर्जुन के सामने प्रश्न क्या है। ये देखना ज़्यादा महत्व का है कि अर्जुन के सामने कौन-सा प्रश्न नहीं है — जीतूँगा या नहीं जीतूँगा? जो कृष्ण के साथ होते हैं उनको उस साथ का लाभ ये मिलता है कि कुछ फ़िज़ूल सवालों से ज़िंदगी आज़ाद हो जाती है। जिनमें ये एक प्रमुख सवाल है — हाय! मेरा क्या होगा? अर्जुन को ये चिंता बिलकुल नहीं सता रही कि ‘हाय! मेरा क्या होगा!’ अर्जुन को तो बल्कि ये चिंता लग रही है कि ‘मैंने मार दिया तो उनका क्या होगा?‘

ये अंतर समझिए। सवाल सबकी ज़िन्दगी में होते हैं लेकिन किसी व्यक्ति के जीवन का स्तर क्या है, ये इससे प्रमाणित हो जाता है कि उसके जीवन के सवालों का स्तर क्या है। किसी आदमी की चेतना का तल नापना हो तो बस ये देख लो कि उसके जीवन में सवाल और मुद्दे क्या प्रधान हैं। जैसे आपके जीवन में सवाल, जैसे आपके जीवन में मुद्दे, वैसे आप। ये नहीं है कि ऊँचे आदमी के जीवन में परेशानियाँ नहीं होतीं, ऊँचे आदमी के जीवन में ऊँची परेशानियाँ होती हैं। बात समझ रहे हैं?

तो एक उच्च चेतना और निम्न चेतना के व्यक्ति में अंतर उसकी चिंताओं, उसकी परेशानियों, उसके धर्मसंकटों के स्तर को देख कर कर सकते हो। बिलकुल हो सकता है कि आपको एक साधु आदमी बड़ा विह्वल, बड़ा उद्विग्न, बड़ा फँसा हुआ दिखाई दे, जैसे जान उसकी झंझट में हो; और ये भी हो सकता है कि आपको एक बेहोश आदमी बड़ी मौज में दिखाई दे, उसको कोई फ़िक्र नहीं, वो मज़े में घूम रहा है। लेकिन बात बस ये होगी कि उस साधू के सामने जो मुद्दा, जो परेशानी, जो चुनौती होगी उसका भी एक बड़ा ऊँचा स्तर होगा। और ये जो असाधु घूम रहा है, साधारण संसारी, इसकी जो मौज होगी उस मौज का भी एक बड़ा गिरा हुआ स्तर होगा।

गीता इसीलिए युद्धों और चुनौतियों से भागना नहीं सिखाती। वो युद्ध और चुनौती से मुक्ति भी नहीं बताती। वो आपको बताती है कि लड़ना तो है ही, जीवन संघर्ष तो है ही; तुम उच्चतम युद्ध चुनो और फिर उसकी जो भी तुमको कीमत देनी पड़े, दो। गीता उनके लिए नहीं है जो कहें कि अध्यात्म तो इसलिए होता है ताकि हम इन सब झंझट से हटकर कहीं बैठ जाएँ। कृष्ण हँसते हैं, और हम जब सम्बंधित श्लोक पर आएँगे तो मैं विस्तार से कहूँगा, वो कहते हैं कि असम्भव है तुम्हारी माँग, कोई व्यक्ति ऐसा जीवन बिता ही नहीं सकता जिसमें वो जगत से पृथक होकर के शांत बैठ जाए। शांत बैठ जाना जीव के लिए सम्भव ही नहीं है। तुम असंभव माँग रहे हो, नहीं मिलेगा।

देह और मन तुम्हारे प्रकृति से आते हैं। ठीक वैसे, जैसे चाँद, सूरज और तारे प्रकृति से आते हैं, उनको कभी शांत बैठते देखा है? जब चाँद, सूरज, तारे कभी थम नहीं सकते तो तुमने कैसे माँग लिया कि तुम्हारा तन और मन थम जाए? वो थम नहीं सकते। हाँ, बस वो ये कर सकते हैं कि वो सही दिशा में चलें। और सही दिशा में चलते-चलते-चलते बिलकुल ऐसा हो सकता है कि एक दिन वो चलने के पार निकल जाएँ। लेकिन बिना पूरी मेहनत के साथ चले, चलने के पार जाने की आशा करना, बड़ी अवैध माँग होगी। तो तुम्हें चलना होगा, तुम्हें लड़ना होगा।

दुर्योधन की हार आकस्मिक नहीं है। ठीक वैसे, जैसे हमारा कोई कष्ट आकस्मिक नहीं होता। इसीलिए वेदांत कहता है कि स्थितियों को कभी कोई दोष दिया ही नहीं जा सकता। दुर्योधन ने अपनी स्थिति चुनी है। दुर्योधन को आरम्भ से ही पता है कि हार होनी है। हाँ, वो इस बात को स्वयं ही स्वीकार ना करे, संभव है। आने वाले पन्नों में आप ऐसा भी पाएँगे कि दुर्योधन चुनौती दे रहा है — भगवद्गीता में नहीं, महाभारत में, क्योंकि गीता के बाद तो युद्ध का सम्पूर्ण विवरण है न — कि आज युद्ध में मैं जिसके सामने पडूँगा, उसकी मौत आएगी ही।

तो सतह पर हो सकता है दुर्योधन स्वयं को ही समझा ले कि ‘मैं सही चल रहा हूँ, मेरा काम हो जाएगा, जीवन युद्ध में मुझे विजय मिल जाएगी।’ पर अनजाने में दुर्योधन स्वयं ही उद्घाटित कर रहा है कि उसे भी पता है कि वो जीत नहीं सकता। ठीक वैसे जैसे हमारे अंतस को, हमारे मर्म को, हमारी गहराई को ये भलीभाँति पता है कि हम जैसा जीवन जी रहे हैं उसमें बात बनने वाली नहीं है। लेकिन ये जानते हुए भी क्या दुर्योधन स्वेच्छा से बदलने को तैयार है? समर्पण करने को तैयार है? नहीं।

वही हालत हम सबकी है। हमें पता है हम कृष्ण के साथ नहीं हैं लेकिन फिर भी हम डटे हुए हैं और उम्मीद बाँधे हुए हैं कि पार लग जाएँगे, जीत जाएँगे, आनंद मिलेगा। कैसे जीतोगे? तुम्हारी अपनी गहराइयाँ ही तुम्हारा साथ नहीं दे रही हैं। जो आप चाह रहे हो — कृष्ण के बिना ही जीत जाना — वो करने के लिए तो आपका अपना हृदय ही आपका साथ नहीं दे रहा है।

और ये हालत मात्र दुर्योधन की नहीं है। जब शंखनाद होता है तो गीता कहती है, सब धृतराष्ट्र पुत्रों के मन तार-तार हो गए, विदीर्ण हो गए। क्यों भाई, शंखनाद तो इधर भी सुनाई दिया होगा? मान भी लें कि भीम और अर्जुन बड़े बहादुर थे, तो नकुल-सहदेव उनका क्या? और नकुल-सहदेव के बाद और भी न जाने कितने योद्धा थे। सात्यिकी का क्या? धृष्टद्युम्न का क्या? उनके बारे में एक शब्द यहाँ पर नहीं है, जबकि वो एक शब्द हो सकता था। संजय को तो एक निष्पक्ष भूमिका दी गयी है, वो तो बता सकते थे न कि ‘ऐसा शंखनाद हुआ कि पांडवों की भी आधी सेना बेहोश हो गयी, डरे हुए तो पहले ही थे।‘ पर वैसा कुछ नहीं। डर किधर है ये आरम्भ में ही स्पष्ट हो जाता है। समझ में आ रहा है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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