जीवन अनुशासनहीन क्यों है? आमतौर पर व्यक्ति स्वयं ही अपने मन को अनुशासित करने की कोशिश में लगा रहता है। इस पर आचार्य जी कहते हैं, “अगर अनुशासन की व्यवस्था तुमने ही परिभाषित करी है तो वह व्यवस्था तुम्हारी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर पाएगी। कोई बाहरी ताकत चाहिए जीवन को अनुशासनबद्ध करने हेतु।” अनुशासन प्रेम से उठता है और त्याग के माध्यम से लक्ष्य तक पहुंँचता है।
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